अब आज की ताज़ी खबर यह है कि, भारत और चीन के बीच लद्दाख में चल रहे सीमा विवाद पर चर्चा करने के लिए एक बार फिर कोर कमांडर स्तरीय बैठक चुसुल-मोल्डो बॉर्डर प्वाइंट पर हो रही है। इससे पहले छह जून को हुई बैठक जो, मोल्डो में ही आयोजित की गई थी, में भारत की ओर से 14 कॉर्प्स कमांडर ले.जनरल हरिंदर सिह चीन के साथ बात कर रहे हैं। उस बातचीत में इस बात पर सहमति बनी थी कि दोनों पक्ष सभी संवेदनशील इलाकों से हट जाएंगे। हालांकि, इसके बाद ही 15 जून की दुःखद घटना घट गयी। इस कोर कमांडर वार्ता में क्या हल होता है यह तो जब वार्ता के बाद आधिकारिक वक्तव्य उभय पक्ष द्वारा जारी किए जाएंगे तभी बताया जा सकेगा, लेकिन गलवां घाटी पर हमारी जो स्थिति इस विवाद के पूर्व थी, वह स्थिति बहाल होनी चाहिए। उस स्थिति पुनः प्राप्त करना भारत का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए। अगर दुर्भाग्य से ऐसा करने में हम चूक गए तो, यह चीन के विस्तारवादी स्वभाव और मंसूबे को और बढ़ावा देगा, जिसका घातक परिणाम भारत चीन सीमा और संबंधों पर पड़ेगा।
देश के प्रति अनुराग, ललक और गर्व की भावना उनमें कभी रही ही नहीं है। जब देश आजाद होने के लिये संघर्षरत था और इन्हें छोड़ कर जब हर राजनीतिक विचारधारा के लोग, गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ फेंकना चाहते थे, तो ये साम्राज्यवाद के समर्थन में, दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य, जिसका कभी भी न डूबने वाला सूरज, इंग्लिश चैनल के साहिल पर ही जब डूब रहा था, तो वे उनके मुखबिर बने हुए थे। आज़ादी के दीवानों की सुरागरसी पतारसी कर के अपने आका को सारी खबरें दे रहे हैं।
इनका सनातन धर्म से भी कोई अनुराग नहीं है। इनके लिए धर्म प्रतिशोध और घृणा का एक वाहक की तरह है। इनके तब के वीर नेता के धर्म के बारे में आप बयान पढ़ सकते हैं और सनातन धर्म के प्रति क्या उनके विचार रहे हैं, जान सकते हैं। हिन्दू धर्म की आड़ में इन्होंने कट्टर मुस्लिम और धर्मांध राजनीतिक दल मुस्लिम लीग के साथ गलबहियां की, उनके हमराह, और हमसफ़र भी बने रहे। आज जब ऐसी ही मानसिकता के समर्थक लोग गलवां घाटी की घटना पर देश नहीं अपने आराध्य के साथ हैं तो मुझे कोई हैरानी नहीं होती है।
1962 में जवाहरलाल नेहरू से गलती हुयी थी, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। नेहरू की उस पराजय के लिये तीखी से तीखी आलोचना होनी चाहिए। होती भी है। तब भी हुयी थी। संसद में अविश्वास प्रस्ताव भी नेहरू के खिलाफ पहली बार 1963 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के आचार्य जेबी कृपलानी द्वारा, लाया गया था और यह जानते हुए भी कि, यह अविश्वास प्रस्ताव गिर जायेगा, फिर भी उस पर ऐतिहासिक बहस भी हुयी थी। अटल बिहारी वाजपेयी का 1962 की हार के बाद, और डॉ राममनोहर लोहिया का 1963 में अविश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में दिया गया भाषण पढ़ लीजिए, आप उस समय के जनरोष को समझ जाएंगे।
राजीव गांधी के समय मे हुयी श्री लंका के राष्ट्रपति जयवर्द्धने के साथ आईपीकेएफ भेजने की संधि भी एक कूटनीतिक भूल थी। सेना को बहुत जनहानि उठानी पड़ी थी। बदले में हमें कुछ मिला भी नहीं। इसकी घातक प्रतिक्रिया हुयी। एलटीटीई जो वी प्रभाकरण का बेहद संगठित आतंकी संगठन था, ने इसे राजीव गांधी के उक्त निर्णय को निजी तौर पर लिया और इस शत्रुता का परिणाम, 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्री पेरुमबदुर में राजीव गांधी की हत्या के रूप में सामने आया।
आज यह संकट देश की अस्मिता पर है और हमारी अखंडता और अक्षुण्णता पर है। कोई भी राजनीतिक नेता देश के ऊपर नहीं होता है। गलवां घाटी के बारे में सरकार यानी प्रधानमंत्री से केवल सवाल ही पूछना नहीं जारी रहना चाहिये बल्कि इस राजनयिक और सैनिक विफलता के लिये उनकी जवाबदेही और जिम्मेदारी भी तय की जानी चाहिए। सरकार को अगर लगता है कि राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की इस घुसपैठ में चीन के साथ कोई गठजोड है तो उसे इसे भी सामने लाना चाहिए। मोदी, राहुल, सोनिया, और हम सब आज हैं कल नहीं रहेंगे, पर गलवां घाटी की यह टीस आने वाली पीढ़ी को वैसे ही टीसती रहेगी जैसे आज 1962 का चीनी धोखा टीस रहा है। सच को बताया जाना चाहिए। यह एक संकट काल है। और नेतृत्व की पहचान संकट काल मे ही होती है।
( विजय शंकर सिंह )
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