अगर इस चीनी आक्रमण और हमारे 20 सैनिको की शहादत के लिये कांग्रेस का सीपीसी के साथ 2008 का एमओयू और राजीव फाउंडेशन को दिया गया चीनी चंदा जिम्मेदार है तो, सबसे पहले सरकार इसकी जांच का आदेश दे, पर फिंगर 4 पर बन रहे चीनी हेलिपैड और गलवां घाटी में हो गए चीनी कब्जे को हटाने के लिये सामरिक और कूटनीतिक प्रयास तो करे और मई के पहले की स्थिति बहाल करने का लक्ष्य हासिल करे। लेकिन लगता है, सरकार इस उद्देश्य से भटक गयी है और उसकी प्राथमिकता में राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी चंदा और मीडिया में छपने वाले सीमा के सैटेलाइट इमेज और ज़मीनी खबरों की मॉनिटरिंग ही अब बची है।
इंडियन जर्नलिज्म रिव्यू का लेख आंखों से गुजरा तो उसमें एक हैरान कर देने वाली बात दिखी। उस खबर से पता लगा कि देश की सबसे पुरानी और विश्वसनीय न्यूज एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया पीटीआई के गलवां घाटी की कुछ खबरों और चीन में हमारे राजदूत विवेक मिश्री के एक इंटरव्यू के कुछ अंशो को लेकर सरकारी सूचना तँत्र प्रसार भारती ने देशद्रोही कहा है। इंडियन एक्सप्रेस ने भी इस विषय मे एक खबर छापी है। पीटीआई को यह परामर्श भी दिया गया कि, वह चीनी घुसपैठ की सैटेलाइट इमेजेस दिखाना बंद कर दे। और इसी तरह के संदेश, सरकार की तरफ से, कुछ अन्य टीवी चैनलों और अखबारों के संपादकों को भी दिए गए हैं।
सरकार, 19 जून को प्रधानमंत्री द्वारा सर्वदलीय बैठक में यह कह देने से कि 'न तो कोई घुसा था और न ही कोई घुसा है', हिटविकेट हो गयी है। पीएम का यह बयान ज़मीनी सच और सीमा पर के तथ्यो के सर्वथा विपरीत है और यह भारत का नहीं बल्कि चीन के स्टैंड के करीब लगता है। हालांकि पीएम की ऐसी कोई मंशा हो ही नहीं सकती कि वे ऐसी बात कहें जिससे भारत की हित हानि हो। लेकिन यह बात गले पड़ गयी है। अब इससे हुए नुकसान की भरपाई के लिये पीएमओ ने दूसरे ही दिन अपनी स्थिति स्पष्ट की कि पीएम के कहने का आशय यह नही था जो 19 जून को उनके भाषण के बाद अधिकतर लोगों द्वारा समझा गया था।
इंडियन जर्नलिज्म रिव्यू के अनुसार, इस हो चुके नुकसान को ठीक करने के लिये कुछ राजभक्त पत्रकारों की तलाश हुयी और उनसे रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय ने बातचीत की। बीजेपी के क्षवि निर्माताओं को इस काम पर लगाया गया। इस कार्य के लिये निम्न प्रकार की कार्ययोजना तय की गयी।
● यह तय किया गया कि, रक्षा और विदेशी मामलो के विशेषज्ञ संवाददाताओं के बजाय सीधे संपादकों से ही संपर्क बनाए रखा जाय क्योंकि क्या छपेगा या क्या प्रसारित होगा यह उन्ही के स्तर से तय होता है।
● टीवी चैनलों के मालिकों से कहा गया कि, वे, चीनी घुसपैठ की सैटेलाइट इमेजेस न दिखाए ।
● भाजपा बीट की खबरें देने वाले संवाददाताओं से कहा गया है कि वे रक्षा और विदेश मामलों की रिपोर्टिंग में बेहतर खबर और तस्वीरे दिखाएं और लिखें।
● पीटीआई की खबरों को देशविरोधी रिपोर्टिंग बताया गया।
अब इससे क्या फर्क पड़ेगा यह तो भविष्य में ही ज्ञात हो सकेगा लेकिन इससे राजनीतिक दल कवर करने वाले संवाददाताओं और रक्षा तथा विदेश मामलों से जुड़ी खबरों को कवर करने वाले पत्रकारों में मतभेद उभर कर आ गये हैं। भाजपा बीट को कवर करने वाले कुछ पत्रकारों को, 26 जून को डी ब्रीफिंग के लिये विदेश सचिव हर्ष वर्धन श्रृंगला ने आमंत्रित किया और उन्हें तथ्यों से अवगत कराया। यह डी ब्रीफिंग विदेश मंत्रालय के कार्यलय जवाहरलाल नेहरू भवन पर नहीं बल्कि केंद्रीय युवा कल्याण एवं खेलकूद राज्यमंत्री, किरण रिजूजू के कृष्ण मेनन मार्ग स्थित आवास पर हुयी।
बिजनेस स्टैंडर्ड के पत्रकार, आर्चीज़ मोहन ने यह खबर सबको दिया। पहले यह बताया गया कि, विदेश मंत्री एस जयशंकर और सूचना तथा प्रसारण मंत्री प्रकाश जावेडकर, भाजपा कवर करने वाले कुछ पत्रकारो से बात करेंगे। लेकिन बाद में यह तय किया गया कि, एस जयशंकर और प्रकाश जावेड़कर के बजाय, यह प्रेस वार्ता, विदेश सचिव और केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी द्वारा की जाएगी।
सरकार का यह निर्णय कि यह बातचीत बीजेपी कवर करने वाले कुछ चुनिंदा पत्रकारों को ही उस प्रेस वार्ता में बुलाया जाएगा, इससे अन्य पत्रकार जो 'लॉयल' नहीं समझे जाते थे, इस भेदभाव से नाराज़ हो गए। बीजेपी कवर करने वाले एक पत्रकार, जिन्हें इस डी ब्रीफिंग सेशन में नहीं बुलाया गया था, ने कहा कि 'बीजेपी के चहेते पत्रकार राम माधव, विनय सहस्रबुद्धे और भूपेंद्र यादव से नियमित बात करते हैं और उनकी खबरें अखबारों के ओप एड पेज पर नियमित छपती हैं।' यह एक प्रकार की सेलेक्टिव पत्रकारिता कही जा सकती है। पत्रकार भी अपनी सोच और वैचारिक दृष्टिकोण से खेमेबंदी में बंट सकते हैं।
विदेश सचिव के साथ होने वाली, कुछ चुनिंदा पत्रकारों की यह प्रेस कॉन्फ्रेंस आर्मी पब्लिक रिलेशन्स के पीआरओ कर्नल अमन आनन्द के एक व्हाट्सएप्प ग्रुप द्वारा भेजे गए एक संदेश के माध्यम से, आयोजित की गयी। इससे यह समझा गया था, कि यह डी ब्रीफिंग चीनी घुसपैठ के बारे में ही होगी। लेकिन इस बात की उत्कंठा बनी रही कि, फिर केवल भाजपा कवर करने वाले कुछ खास पत्रकारों को ही क्यों यह आमंत्रण दिया गया है। यह व्हाट्सएप्प ग्रुप इसी जून माह में गठित किया गया है जिसमे दो दर्जन अखबारों के संपादक और टीवी चैनलों के न्यूज़रूम प्रमुख हैं और यह सभी मुख्य रूप से दिल्ली आधारित ही हैं।
डिफेंस की बीट से जुड़े एक पत्रकार ने, इंडियन जर्नलिज्म रिव्यू को बताया कि टीवी चैनलों से जुड़े संपादकों को यह विनम्रता से समझा दिया गया कि वे सेटेलाईट इमेज न साझा करें, नहीं तो इससे यह इम्प्रेशन लोगों में जाएगा कि या तो प्रधानमंत्री को तथ्य पता नही था या वे झूठ बोल रहे थे, जब उन्होंने कहा था कि, न तो कोई घुसा था और न ही कोई घुसा है। यह स्पष्ट नहीं है कि, सैटेलाइट इमेज न दिखाने का निर्देश व्हाट्सएप्प द्वारा ग्रुप में भेजा गया था या यह ज़ुबानी ही बातचीत के दौरान संकेतो में कह दिया गया था, लेकिन सैटेलाइट इमेजेस न दिखाने का लाभ ज़रूर समझाया गया था।
सेना के पीआरओ द्वारा केवल संपादकों का एक व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाने से कुछ व्यावसायिक और व्यवहारिक समस्याएं भी सामने आयी हैं। जैसे सेना जो बात बता रही है वह रक्षा बीट कवर करने वाले, संवाददाताओं तक नहीं पहुंच रही है, बल्कि वह सीधे संपादकों तक ही पहुंच जा रही हैं। जबकि ज़मीनी खबरे रक्षा और वैदेशिक बीट कवर करने वाले पत्रकार ही एकत्र औऱ उनका विश्लेषण करते हैं। उन्हे कभी कभी यह पता ही नहीं चल पाता कि उनके संपादकों को क्या क्या संदेश सेना द्वारा मिले हैं। इस प्रकार सम्पादक और संवाददाता में एक प्रकार का संचारावरोध, कम्युनिकेशन गैप भी इससे बन सकता है।
इसके तीन परिणाम सामने आए हैं।
● पहला, पुराने और स्थापित डिफेंस संवाददाता तो अपने सम्पादक और सेना के पीआरओ के नियमित खबरों के आदान प्रदान के बावजूद अपनी खबरों पर अड़े रह सकते हैं पर नए डिफेंस संवाददाता, स्थापित और पुराने संवाददाताओं की तुलना में इस प्रकार का रवैया न तो अपना सकते हैं और न ही, कोई विशेष असर रख पाते हैं।
● दूसरा, प्रकाशित खबरों के खण्डन और सेना द्वारा अपना पक्ष रखे जाने की स्थपित परंपरा के विपरीत, सीधे सम्पादकों को ही यह संदेश दे देना कि क्या दिखाएं और क्या न दिखाए, यह एक प्रकार से प्रेस सेंसरशिप ही है। सेना के प्रवक्ता द्वारा मीडिया में किसी खबर के गलत या आधारहीन होने पर उसका खंडन सार्वजनिक रूप से किया जाना चाहिए, न कि खबरों को ही रोक देने की परिपाटी शुरू करनी चाहिए। पहले भी, ऐसी खबरों का सप्रमाण खंडन किया जाता रहा है। पर यह तभी संभव है जब सेना या विदेश विभाग द्वारा नियमित प्रेस कांफ्रेंस की जाय।
● तीसरा, रक्षा मंत्रालय में इडियन इन्फॉर्मेशन सर्विस का संयुक्त सचिव स्तर का एक अधिकारी भी एडीजीएम&सी के रूप में, प्रेस के लिये ही नियुक्त है जो प्रेस से सीधे बात कर आपसी बातचीत से समस्याओं का समाधान कर सकता है तो, सेना के पीआरओ द्वारा संपादकों के व्हाट्सएप्प ग्रुप की ज़रूरत क्या है ? यह सवाल भी पत्रकारों के समाज मे पूछा जा रहा है।
सरकार का एक मोर्चा, अखबारों के हेडलाइन मैनेजमेंट इलाके पर भी जमा हुआ है। 26 जून को प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने चीन में नियुक्त भारतीय राजदूत विक्रम मिश्री का एक इंटरव्यू लिया और राजदूत ने जो कहा उसे ट्वीट के रूप में अपने ट्विटर हैंडल पर पीटीआई ने प्रसारित कर दिया। लेकिन राजदूत विक्रम मिश्री का कथन और स्टैंड प्रधानमंत्री के 19 जून को सर्वदलीय बैठक में कहे गए वक्तव्य से अलग और बिल्कुल उलट था। हालांकि राजदूत ने जो कहा था वह शब्दशः पीटीआई की स्टोरी में बाद में नहीं जारी हुआ था बल्कि ट्वीटर हैंडल पर तत्काल ही प्रसारित कर दिया गया था, लेकिन इससे, सरकार को जो नुकसान होना था, वह हो चुका था । पीटीआई के इस इंटरव्यू पर न्यूज़ एजेंसी की आलोचना होंने लगी। यह आलोचना प्रसार भारती जो सरकारी न्यूज़ माध्यम हैं ने की औऱ पीटीआई को एक देश विरोधी एजेंसी के रूप में प्रचारित करना, शुरू कर दिया। इकॉनोमिक टाइम्स की पत्रकार वसुधा वेणुगोपाल ने प्रसार भारती की इस व्यथा पर ट्वीट भी किया। आज के टेलीग्राफ और इंडियन एक्सप्रेस में भी यह खबर छपी है।
वैसे भी देश की सबसे पुरानी न्यूज एजेंसियों में से एक, पीटीआई लम्बे समय से एनडीए सरकार के निशाने पर रही है। अरुण जेटली, जब वे मंत्री थे तो, उन्होंने इस एजेंसी में, अपना एक व्यक्ति संपादक के रूप में नियुक्त करवाना चाहा था, पर एजेंसी के मालिकों द्वारा आपत्ति कर दिए जाने पर यह संभव नहीं हो सका। स्मृति ईरानी जब सूचना और प्रसारण मंत्री थीं तो उन्होंने, एक ऐसे चित्र पर जिस पर प्रधानमंत्री पर तंज किया गया था, दिखाने पर नवनियुक्त संपादक विजय जोशी को अपने निशाने पर लिया था और उनकी आलोचना की थी। प्रसार भारती द्वारा पीटीआई को देशद्रोही कहने से यह संदेश सभी प्रेस बिरादरी में जा रहा है कि या तो जो सरकार कहे वही छापा जाय या, यह शब्द सुनने के लिये तैयार रहा जाय।
पीटीआई का रजिस्ट्रेशन 1947 में हुआ था और इसने अपना कामकाज 1949 में शुरू किया था। मार्च 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक इसके 5416 शेयर का देश-दुनिया के 99 मीडिया आर्गेनाइजेशन के पास मालिकाना हैा। पीटीआई के बोर्ड के सदस्यों की संख्या 16 है। जिसमें चार स्वतंत्र निदेशक हैं और बोर्ड का चेयरपर्सन हर साल बदलता रहता है। मौजूदा समय में पंजाब केसरी के सीईओ और एडिटर इन चीफ इसके चेयरमैन हैं। यह देश की सबसे बड़ी न्यूज़ एजेंसी है जो मीडिया समूहों को सब्सक्रिप्शन वितरित करने के जरिये अपनी कमाई करती है।
सरकार ने पीटीआई, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया को हिदायत दी है कि वह गलवां घाटी और चीनी घुसपैठ की सैटेलाइट इमेज न जारी करे। यह तो वहीं बात हुयी, कि मूदहूँ आंख कतहुं कुछ नाहीं। अगर पीटीआई नहीं जारी करेगी तो यह सैटेलाइट इमेज रायटर जारी कर देगा। डिफेंस एक्सपर्ट और डिफेंस एनालिसिस करने वाली मैगजीन जारी कर देंगी। झूठ थोड़े न छुपेगा। खबरें छुपाने से और तेजी से फैलती हैं बल्कि और विकृत रूप में फैलती हैं। एक प्रकार से यह फैलाव अफवाह और दुष्प्रचार की शक्ल में होता है। यह अधिक घातक होता है।
अगर यह सैटेलाइट इमेज झूठी और दुर्भावना से जारी की जा रही हैं तो इनका खंडन सरकार का विदेश मंत्रालय करे या फिर रक्षा मंत्रालय। सही और ताज़ी सैटेलाइट इमेज अगर हो तो उन सैटेलाइट इमेजेस को मिथ्या सिद्ध करने के लिये सरकार खुद ही जारी कर सकती है। सरकार चाहे तो, कुछ पत्रकारों को मौके पर ले जाकर वास्तविक स्थिति को दिखा भी सकती है। पहले भी ऐसी परंपराएं रही हैं। आज के संचार क्रांति के युग मे किसी खबर को दबा लिया जाय यह सम्भव ही नही है। जनता प्रथम दृष्टया यह मान कर चलती है कि सरकार झूठ बोल रही है और कुछ छिपा रही है।
यह धारणा आज से नहीं है, बल्कि बहुत पहले से है। 1962 का तो मुझे बहुत याद नहीं पर 1965 और 1971 में आकाशवाणी से अधिक लोग बीबीसी की युद्ध खबरें सुनते थे और उनपर यक़ीन करते थे। आज जब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि न कोई घुसा था, न घुसा है, रक्षामंत्री कह चुके हैं कि उल्लेखनीय संख्या में घुसपैठ हुयी है, विदेश मंत्री कह रहे हैं कि चीन ने अस्थायी स्ट्रक्चर बना लिया है, चीन में हमारे राजदूत कह रहे हैं कि घुसपैठ है, हटाने के लिये बात चल रही हैं, सैटेलाइट इमेज कुछ और कह रहे हैं तो सरकार की किस बात पर यकीन करें और किस बात पर यकीन न करें ?
( विजय शंकर सिंह )
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