Tuesday, 2 June 2020

पांचवा लॉकडाउन, आर्थिक चुनौतियां / विजय शंकर सिंह

लॉक डाउन पांच शुरू हो गया है लेकिन 8 जून से व्यावसायिक गतिविधियों को भी खोलने की योजना है। क्या खुलेगा, कितना खुलेगा, कब कब खुलेगा, कहां कहां खुलेगा, यह जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है जो अपने अपने जिलों से सूचनाएं एकत्र करके लॉक खोलेंगे। कोरोना संक्रमण बढ़ रहा है। और यह गति चिंताजनक है लेकिन मृत्युदर कम है यह राहत की बात है। लॉक डाउन से संक्रमण और आर्थिक गतिविधियों पर क्या असर पड़ा,यह दोनों ही अलग अलग विषय है। इस लेख में हम आर्थिक गतिविधियों पर इस आपदा और इसके पहले से चली आ रही मंदी के बारे मे चर्चा करेंगे। इसी बीच सरकार ने अपने कार्यकाल के छह साल पूरे किये हैं और इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने एक पत्र भी जनता को लिखा है जिसमे उन्होंने अपने सरकार की उपलब्धियों का उल्लेख किया है। लेकिन सबसे ज़रूरी है, देश की आर्थिक स्थिति की चर्चा करना, आर्थिकी के समक्ष मौजूदा चुनौतियों की पहचान करना और फिर उसके समाधान की ओर बढ़ना । 

अगर सरकार के छह सालों के कार्यकाल के अर्थिक मुद्दों पर अध्ययन किया जाय तो, जो भी आर्थिक सूचकांक हैं उनके आधार पर 2016 - 17 के बाद से आर्थिक स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। सबसे महत्वपूर्ण और समेकित आर्थिक सूचकांक, सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी का ही उल्लेख किया जाय तो, इसकी दर वित्तीय वर्ष 2016 -17 से लगातार गिरती चली आ रही है। अब वित्तीय वर्ष,  2019 - 20 में जीडीपी गिर कर, 11 वर्षों के न्यूनतम दर पर आ गयी है। सरकार की तरफ से हो सकता है, एक स्पष्टीकरण देने की कोशिश की जाएगी कि इसका कारण कोरोना आपदा है। लेकिन यह स्पष्टीकरण हक़ीक़त नहीं एक भ्रम फैलाने की कोशिश है। देश मे, कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को केरल में मिला था। उसके बाद 23 मार्च तक देश की सारी आर्थिक गतिविधियां सामान्य रूप से चल रही थी। यहां तक कि विदेशों से आने वालों पर भी कोई रोक नहीं थी। 12 मार्च को स्वास्थ्य मंत्री कहते हैं कि कोई भी मेडिकल इमरजेंसी नहीं है। मध्यप्रदेश में सरकार बनाने औऱ बिगाड़ने का खेल चल रहा था। अतः लॉक डाउन को इस गिरती जीडीपी के लिये दोषी इसलिए भी नही ठहराया जा सकता है, क्योंकि लॉक डाउन की अवधि मार्च में बस 7 दिन की ही रही है। अतः केवल 7 दिन की औद्योगिक और कारोबारी गतिविधियों के ठप हो जाने के कारण ही वित्तीय वर्ष, 2019 - 20 की जीडीपी 11 वर्षों में सबसे न्यूनतम पर नही पहुंच सकती है। यह गिरावट 2016 के नोटबंदी से शुरू हुयी है। जिसे सरकार जानती तो है पर मानती नहीं है। 

वर्ष, 2016 के बाद से जीडीपी के निरंतर अधोगामी होने के कारण क्या हैं, अब आइये, इस बिंदु की पड़ताल करते हैं। जीडीपी में सबसे अधिक योगदान, निजी व्यय और उपभोग का होता है। जब लोग खूब खर्च करेंगे और उपभोग करेंगे तो उससे देश की जीडीपी में स्वाभाविक रूप से बढ़ोत्तरी होगी। यह दोनो शीर्ष मिल कर जीडीपी में 87 % का योगदान अर्थ व्यवस्था में करते हैं। लेकिन वर्ष 2016 के बाद देश मे मांग और बचत का क्या ट्रेंड रहा है, इस विषय पर भी विचार करना होगा। यह दोनों ही शीर्ष इस काल खंड में बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। 

8 नवंबर 2016 को जब रात 8 बजे ₹ 1000 और ₹ 500 के नोट चलन से बाहर कर दिये जाते हैं तो 31 मार्च 2017, यानी वित्तीय वर्ष 2016 - 17 के शेष होने तक सारा देश, नकदी जमा करने, बदलने और  नये नोट लेने में लग जाता है। इसके साथ जो अनिश्चितता का वातावरण देश भर में बनता है, उससे बाजार, उद्योग और अन्य कारोबारी संस्थान खुले तो रहते हैं पर लोग कुछ तो नकदी की समस्या के कारण, तो कुछ अनिश्चितता के कारण, न तो खर्च करते हैं और न ही उपभोग की ओर रुचि बढाते हैं। वह समय ठहरो और देखो का था। 2016 - 17 के वित्तीय वर्ष के अंत यानी 31 मार्च 2017 को जो आंकड़े जीडीपी के आये वे अधोगामी थे, जिसका कारण था मांग में अचानक कमी का आ जाना । 2015 - 16 में जीडीपी की दर 8 % थी, जो गिर कर वित्तीय वर्ष  2019 - 20 में 4.2 % हो गयी। 2019 - 20 में निर्यात के आंकड़ों में भी तेजी से गिरावट आयी है। इस वित्तीय वर्ष में, लोगो के निवेश और बचत में भी काफी कमी आयी है। जीडीपी में इस तेजी से आयी गिरावट का कारण यह है कि न तो बाजार में मांग है, और न ही लोगो के पास धन है कि, वे निवेश ही कर रहे हों। इससे बाजार में सुस्ती बनी हुई है। 

अब सवाल उठता है कि, अचानक बाजार में मांग क्यों कम हो गयी ? लोगों ने अपने खर्चे क्यों कम कर दिये और अगर अपने खर्चे कम किये हैं तो, फिर बचे पैसे बैंकों या अन्य जगह निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं ? वे पैसे गए कहाँ ? अगर हम यह मान लें कि लोग मितव्ययी हो गए हैं तो फिर बचे पैसे कहीं न कहीं निवेश होने चाहिए थे। निवेश के तीन प्रमुख मार्ग हैं। एक तो बैंकों में जमा किये जांय, या म्युचुअल फंड में, या अधिक धन हो तो रीयल स्टेट में व्यय किया जाय या फिर कुछ हद तक सोने या चांदी की खरीद में धन व्यय हो। लेकिन बैंकों के बचत में भी कमी आयी है और रीयल स्टेट तो वैसे ही बैठ गया है। फिर इसका कारण क्या है ? इसका एक कारण यह हो सकता है कि लोंगो की निजी आय कम हो गयी हो, जिससे न तो वे निवेश कर पा रहे हों, और न ही खर्च करने की हिम्मत जुटा पा रहे हों। अब अगर बैंकों के बचत अनुपात का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि, वित्तीय वर्ष 2019 - 20 में बैंकों में जो धनराशि जमा हुयी है वह पहले की तुलना में इस वर्ष में कम हुयी  है। इससे यह स्पष्ट होता है कि, लोगो के निजी आय में जो स्वाभाविक वृद्धि होनी चाहिए थी, वह कम हुयी है। इससे न तो लोग बाजार में कुछ खर्च करने की स्थिति में आये और न ही इतनी बचत कर पाए। 

अगर निवेश के आंकड़े कम हो  रहे हैं तो, इसका सीधा अर्थ है कि मांग में कमी आ रही है। लोग बाजार में कम व्यय कर रहे हैं। जब मांग कम होगी तो, न केवल व्यापारी को लाभ कम होगा, बल्कि उनका निवेश भी प्रभावित होगा। चूंकि हमारी अर्थव्यवस्था में, मांग की कमी पिछले तीन साल से बराबर देखी जा रही है । इस कारण निवेश में भी कमी आ गयी है। सरकार ने निवेश आकर्षित करने के लिये लगातार उपाय भी किये हैं लेकिन न तो निवेश में वृद्धि हुयी और न ही मांग में। वित्तीय वर्ष 2019 - 20 में सरकार ने निवेश में तेजी आये, इसलिए उक्त वित्तीय वर्ष के दूसरी तिमाही मे कॉरपोरेट टैक्स को भी कम किया। कॉरपोरेट को इसके पहले 1 लाख 76 हज़ार करोड़ रुपए का बूस्टर पैकेज भी दिया गया था। लेकिन अर्थव्यवस्था को जो गति पकड़नी थी, वह गति नहीं पकड़ पायी और न ही निवेश में ही वृद्धि हुयी। 

अगर निवेश की दर कम है तो, इसके  असर से, औद्योगिक औऱ सर्विस सेक्टर में वृद्धि की गति दर कम हो जाएगी। लगभग सभी गैर कृषि क्षेत्रों में वित्तीय वर्ष 2019 - 20 में वृद्धि दर में गिरावट दर्ज हुयी है। यह बात यहां ध्यान रखनी होगी कि, कृषि सेक्टर के अलावा सबसे अधिक रोजगार के अवसर देने वाला क्षेत्र, मैन्युफैक्चरिंग और निर्माण यानी कंस्ट्रक्शन सेक्टर है और इन दोनों ही सेक्टरों में वृद्धि की दर में चिंताजनक गिरावट आयी है। इसका सीधा असर, रोजगार के अवसरों पर पड़ा है। 2016 -  17 के बाद जब मंदी के आसार नज़र आने लगे तो, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की वृद्धि दर गिर कर शून्य तक पहुंच गयी और सरकारी हाइवे प्रोजेक्ट्स के कुछ हिस्सों को छोड़ कर कंस्ट्रक्शन सेक्टर भी बैठने लगा। उसी के बाद लोगों की नौकरियां जाने लगी। सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के वार्षिक पीएलएफएस डेटा के अनुसार, इस समय बेरोजगारी की दर सबसे अधिक, 45 % है। कम निवेश होने से रोजगार के अवसरों पर और अधिक प्रभाव पड़ा है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि, मांग और निवेश की वृद्धि दर में गिरावट दर्ज हुयी है और यह सभी बिंदु एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। 

जैसा कि स्पष्ट है, गिरती हुयी मांग की दर का असर, गिरते हुए लाभ और निवेश दोनो पर पड़ा है। लेकिन केवल यही बात होती तो उतनी चिंता नहीं होती, इस गिरावट का असर, औद्योगिक और सर्विस सेक्टर पर लगातार पड़ रहा है और इससे दोनों ही सेक्टरों की गतिविधियां सामान्य नहीं हो पा रही हैं। जिससे रोजगार के अवसर दिन प्रतिदिन कम हो रहे हैं। जब लोगों की नौकरियां जाएंगी तो, फिर उन के पास या तो अपनी जो कुछ भी बचत हो उसी से वे, अपना घर चलाने की जुगत करेंगे या मज़बूरी में कम वेतन पर नौकरी करने का विकल्प स्वीकार करेंगे। ऐसी परिस्थितियों में निश्चित रूप से बाजार में मांग और कम होती जाएगी और एक गंभीर मंदी का असर अंधकार की तरह धीरे धीरे पसरता जाएगा। अतः इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिये सबसे पहले मांग में वृद्धि आवश्यक है। 

आज जिस मंदी से हम सब रूबरू है, भले ही वह नोटबंदी के बाद से ही आ गयी हो, लेकिन इस कोरोना आपदा के कारण, आज अपने सबसे बुरे रूप में देश के सामने है। लेकिन चार साल से धीरे धीरे गिरती हुयी विकास दर को, जिससे मांग और निवेश दोनो ही प्रभावित हो रहा है से निपटने के उपायों पर काम शुरू करना ही होगा। अब यह सवाल उठता है इस रुग्णता का इलाज क्या है। 

इस संबंध में अर्थशास्त्रियों ने तीन सुझाव सुझाये हैं। 
● सबसे पहले सुझाव के रूप में देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये, ज़रूरी है कि मांग को बढ़ाया जाय। 
● दूसरे, निवेश में लोगों का रुझान बढ़े जिससे बैंकों, या अन्य निवेश के अवसर बढ़ें। 
● तीसरे, दोनो में तारतम्य बना रहे। ऐसा न हो कि, खर्च ही खर्च होता रहे, बचत हो ही न या बचत बढ़ जाए और व्यय न हो जिससे मांग फिर प्रभावित हो जाय। 

सरकार ने कोरोना आपदा से पीड़ित अर्थ व्यवस्था के सुधार के लिये 20 लाख करोड़ का एक भारी भरकम पैकेज घोषित किया है जिसमे वे उपाय जिनसे जनता के हांथ में पैसा जाय और लोग उसे खर्चें तथा बाजार में मांग बढ़े और अर्थचक्र का थमा पहिया चल पड़े कम हैं। इसे स्टिमुलस पैकेज कहा गया है पर यह स्टिमुलस नहीं एक प्रकार का फिस्कल पैकेज है। स्टिमुलस पैकेज वह पैकेज होता है तो तुरंत ही अपना लाभ दिखाने लगता है। जैसे मरणासन्न रोगी को दी जाने वाली जीवनरक्षक दवाये उसे  वापस इतना स्वस्थ कर देती हैं कि वह आईसीयू से निकल कर सामान्य वार्ड में आ जाता है और फिर धीरे धीरे स्वास्थ्य लाभ करता है। आज भारत की आर्थिकि एक प्रकार से आईसीयू में हैं जिसे जीवनरक्षक स्टिमुलस की आवश्यकता है न कि आर्थिक सुधार के नाम कॉरपोरेट राहत पैकेज की। फिस्कल या वित्तीय पैकेज दीर्घकालिक योजनाओं से जुड़े होते हैं। वे अर्थव्यवस्था को मजबूती तो पहुंचाते हैं पर उस अर्थव्यवस्था को, जो अभी चल रही हो, सामान्य हो या सामान्य से थोड़ी कमतर हो। लेकिन यहां एक प्रकार की इमरजेंसी है और आपातकाल के समय आपात चिकित्सा की ही ज़रूरत होती है। 

इस राहत पैकेज में अधिकतर ऋण या क्रेडिट की बात की गयी है। यह ऋण सूक्ष्म,लघु और मध्यम इकाइयों,के लिये है, लेकिन उन इकाइयों की असल समस्या पूंजी उतनी नहीं है जितनी कि, उनके लिये बाजार की अनुपलब्धता है। इन इकाइयों के बनाये सामान इनके गोदामो में डंप पड़े हैं। जब वे बिकेंगे तभी तो इनके पास धन आएगा और फिर वे उस मांग के अनुसार आपूर्ति करेंगे। यही श्रृंखला तो टूटी है। यदि ऐसा होता कि बाजार में भरपूर मांग होती और कम्पनियां उसकी आपूर्ति नहीं कर पाती तब यही कम्पनियां खुद ही ऋण के लिये बैंकों में कोशिश करतीं और बिना पैकेज के ही इन्हें लोन मिल जाता। लेकिन ऐसी स्थिति नहीं है। यहां फैक्टरी है, माल है, पर खरीददार नहीं है यानी लोगों के पास पैसा कम है, पैसा इसलिए कम है कि लोगों की आय कम हो रही है, आय कम इसलिए कम हो रही है कि रोजगार के अवसर घट रहे हैं, या उचित रोजगार नहीं है। यही आर्थिकी का दुष्चक्र है जिसमे हमारी अर्थव्यवस्था फंसी हुई है। सरकार का यह पैकेज एक वृहद पूंजीपति राहत और संसाधनों के निजीकरण का पूंजीपति फ्रेंडली राहत पैकेज है जिससे मांग की समस्या का समाधान होता नहीं दिख रहा है। जब तक मांग नहीं बढ़ेगी, तब तक किसी भी दशा में आर्थिकि गति नहीं पकड़ सकेगी। 

अतः वर्तमान आर्थिक स्थिति की मंदी के लिये बाजार में मांग की कमी जिम्मेदार है इसलिए सरकार की सारी योजनाएं, इसे ही दृष्टिगत रख कर बनायी जानी चाहिए। अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता, अभिजीत चौधरी ने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि लोगो के हांथ में धन पहुंचे, यह सबसे ज़रूरी उद्देश्य होना चाहिए। यही विचार अमर्त्य सेन और डॉ मनमोहन सिंह, डॉ रघुराम राजन जैसे उन अर्थ विशेषज्ञों का है जिन्होंने भारतीय आर्थिकि को बेहद करीब से देखा है और अब भी इसकी दशा और दिशा का अध्ययन करते रहते हैं। लेकिन सरकार के विचार इन अर्थ विशेषज्ञों से मेल नहीं खाते हैं। सरकार अब भी राहत पैकेज के नाम पर कॉरपोरेट और ऋण आधारित आर्थिकी की बात कर रही है। जबकि वर्ष, 2014 के बाद सरकार ने सबसे अधिक लाभ,समर्थन, पैकेज, और राहत कॉरपोरेट को ही दिया है।  परिणामस्वरूप देश मे अमीर गरीब के बीच का अंतर बढ़ता गया और अब यह अंतर इतना बीभत्स हो गया है कि, निम्न, या निम्न मध्यम वर्ग तक की आय सिकुड़ गयी है। यहां तक कि मध्यम वर्ग सबसे अधिक त्रासदी झेलने की आशंका से अवसाद में जाने लगा है। 

ऋण, यानी कर्ज़ पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अवयव है। ऋण से ही बड़ी से बड़ी आर्थिकी चलती है। लेकिन ऋण चुकाने की स्थिति न हो तब यही आर्थकी इतनी डूबती है कि अर्थव्यवस्था को तबाह कर जाती है। 2016 - 17 के बाद अधिकतर बैंक इस तबाही से रूबरू हो चुके हैं। पीएमसी बैंक और यस जैसा एक बड़ा निजी बैंक अपने द्वारा बांटे गए कर्ज़ों की अदायगी न होने से डूब गया है। उसे उबारने के लिये या तो सरकार को अतिरिक्त राहत पैकेज देना पड़ा या एलआईसी, एसबीआई जैसे मजबूत आर्थिक संस्थानों की मदद लेनी पड़ी। लेकिन इन संस्थानों के पास जो धन है वह भी तो जनता के ही बचत का है। जनता की आय तो वैसे ही कम हो रही है फिर उसी मांग और निवेश की कमी से तो यह बडे वित्तीय संस्थान भी तो प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते हैं। इसीलिए कर्ज़ आधारित राहत पैकेज इस अर्थव्यवस्था को उतनी अधिक तेजी से सुधार नहीं सकता है, जितना कि, सरकार ने उम्मीद लगा रखी है। 

अर्थ विशेषज्ञों की राय है कि ऐसी कठिन परिस्थितियों में सरकार को एक यूनिवर्सल न्यूनतम आय या आय की गारंटी जैसी कोई योजना लानी चाहिए। एक ऐसी योजना जिससे आयशून्य या आयन्यून हो रहे लोगों की जेबों में कुछ नियमित धन, कुछ समय के लिये जाए जिससे वे अपना जीवन यापन भी कर सकें और जो व्यय करें वह बाजार में मांग को भी बढ़ाये। लेकिन यह सवाल उठ सकता है कि क्या यह मुफ्तखोरी नही है ? बिना काम के पैसा तो मुफ्तखोरी ही कही जाएगी ? बात यह सही भी है पर यह एक असामान्य स्थिति के लिये उठाया गया असामान्य कदम है। यह कुछ निश्चित समय तक के लिये ही दिया जा सकता है न कि अनिश्चितकालीन भत्ते के रूप में। इसके साथ ही बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाएं जिसमे व्यापक रोजगार, विशेषकर श्रम से जुड़ा रोजगार,  मिलता है, को तुरंत शुरू करने की ज़रूरत है। पहले भी अकाल, बाढ़ और सूखा के समय लोगों को कुछ काम मिल जाय और उनका गुजर बसर हो जाय, इसलिए टेस्ट वर्क चलते थे। 

उपरोक्त उपायों से, यह थमा हुआ आर्थिक पहिया, चल पड़ेगा और मांग - आपूर्ति - निवेश का दुष्चक्र हल हो सकेगा। जिससे अर्थव्यवस्था कुछ न कुछ गति पकड़ेगी और धीरे धीरे खुद ही पटरी पर आ जायेगी। लेकिन इससे एक और समस्या पैदा होगी कि, राजकोषीय घाटा बढ़ सकता है जो अब भी जितना होना चाहिए, उससे अधिक है। वित्तीय वर्ष, 2016 - 17 के बाद जो अर्थव्यवस्था में गिरावट आने का सिलसिला शुरू हुआ है, उससे सरकार की आमदनी या कर संग्रह पर भी असर पड़ा। दरअसल हमारी आर्थिकी पर दो आघात बहुत ही बुरे पड़े, एक तो नोटबंदी का अनावश्यक रूप से लिया गया निर्णय और दूसरा, जीएसटी के मूर्खतापूर्ण क्रियान्वयन का फैसला। दोनों ही निर्णय लगातार एक एक साल के अंतर से लिये गये। नोटबंदी के फैसले ने, एक अनिश्चितता का वातावरण फैलाया तो जीएसटी के जटिल नियमों ने व्यापारियों को उलझा कर रख दिया और इन दोनों आघात के जख्म अर्थव्यवस्था सहला ही रही थी कि कोरोना आपदा जन्य लॉक डाउन ने ऊपर से वज्रपात कर दिया। 2019 - 20 में जो वित्तीय घाटा है, वह 4.6 % है, यानी बजट के लक्ष्यों से अधिक है। सरकार को इसे नियंत्रित करना होगा और इसके लिये सारे अनावश्यक व्यय कम करने होंगे। जनता की स्थिति कमजोर है तो उस पर अधिक कर भी अभी नहीं लगाया जा सकता है लेकिन सबसे अधिक अति सम्पन्न सुपर रिच लोगों पर अस्थायी रूप से अतिरिक्त कराधान लगाया जा सकता है। लेकिन सरकार का कॉरपोरेट मोह इसमे आड़े आ सकता है। 

धन जुटाने के लिये,  सरकार हर तरीके से फंड एकत्र कर रही है। इस बीच सीनियर राजस्व अधिकारियों ने ज्यादा कमाने वालों और विदेशी कंपनियों से ज्यादा टैक्स की वसूली की संस्तुति करने जैसी एक अध्ययन रिपोर्ट  फिस्कल ऑप्शंस एंड रेस्पॉन्स टू द कोविड-19 एपेडमिक (फोर्स) नाम से एक पेपर तैयार किया है। इंडियन रेवेन्यू सर्विस (आईआरएस) एसोसिएशन ने सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज (सीबीडीटी) के चेयरमैन पीसी मोदी को यह पेपर सौंपा है। मीडिया की खबरों के, अनुसार, 23 अप्रैल को सौंपे गए, इस अध्ययन रिपोर्ट में, समय पर टैक्स जमा करने और समय पर रिटर्न फाइल करने वालों को कर में राहत देने की सिफारिश की गई है। 50 राजस्व अधिकारियों की ओर से तैयार किये गए इस पेपर में शॉर्ट टर्म (3 से 6 महीने) के लिए सुपर रिच स्लैब को मौजूदा 30 फीसदी से बढ़ाकर 40 फीसदी करने का सुझाव दिया गया है। यानी सालाना 1 करोड़ या इससे ज्यादा की कमाई वालों पर 30 फीसदी की बजाए 40 फीसदी टैक्स लगाया जाएगा। इसके अलावा 5 करोड़ या इससे ज्यादा की कमाई वालों के लिए वेल्थ टेक्स को फिर से लगाया जाय। जिनकी व्यक्तिगत कर योग्य आय सालाना 1 करोड़ रुपए से ज्यादा होती है उन्हें सुपर रिच की श्रेणी में माना जाता है। 

राजस्वअधिकारियों के ग्रुप ने अल्ट्रा-रिच पर एक तय समयसीमा में टैक्स लगाने के दो विकल्प सुझाए हैं। 
● पहला सुझाव यह है कि सालाना 1 करोड़ से ज्यादा आय वालों के लिए अधिकतम कर के स्लैब को मौजूदा 30 फीसदी से बढ़ाकर 40 फीसदी कर दिया जाए। 
● दूसरा सुझाव यह है कि जिनकी नेट वेल्थ 5 करोड़ रुपए या इससे ऊपर है, उन पर वेल्थ टैक्स फिर से लगाया जाए।
● ग्रुप ने मीडियम टर्म (9 से 12 माह) में ज्यादा राजस्व जुटाने के लिए देश में कारोबार कर रही विदेशी कंपनियों पर सरचार्ज बढ़ाने का सुझाव दिया है। 
● मौजूदा समय में विदेशी कंपनियों पर 1 से 10 करोड़ पर 2 फीसदी और 10 करोड़ से ज्यादा की कमाई पर 5 फीसदी टैक्स लगता है।
● उक्त दस्तावेज के अनुसार, 4 फीसदी की दर से वन टाइम 'कोविड रिलीफ सेस' लगाने की सिफारिश की गयी है। 
● पेपर में आरंभिक अनुमान जताया गया है कि इस सेस से सरकारी खजाने में करीब 15 से 18 हजार करोड़ रुपए जमा होंगे।

विभिन्न देशों में सुपर रिच टैक्स की स्थिति इस प्रकार है। फ्रांस - 66.2%, कनाडा - 54%, अमेरिका - 50.3%, जापान - 49.9%, ब्रिटेन  - 45%, दक्षिण अफ्रीका - 45%, चीन - 45% , ब्राजील - 27.5%, स्वीडन - 25% और भारत - 30% है जिसे बढाकर 40 % की सिफारिश उक्त अध्ययन पेपर में की गयी। अब इस अध्ययन पर क्या हुआ यह तो ज्ञात नहीं लेकिन ऐसे अध्ययन पेपर के मीडिया में लीक होने के आरोप में सरकार ने जांच अलग से बैठा दी। यह अध्ययन रिपोर्ट प्रोफेशनल कर प्रशासकों के अपने अनुभव और अध्ययन पर आधारित है। सरकार का कॉरपोरेट प्रेम अक्सर उसे कॉरपोरेट पर अधिक दबाव बनाने के लिये रोक देता है। जबकि सरकार को इस अध्ययन पेपर की सिफारिशों पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए था। 

यह मंदी वैश्विक है और सरकार को मांग,  निवेश, आपूर्ति, रोजगार आदि विन्दुओं के साथ कर संग्रह और वित्तीय घाटा कम से कम हो आदि कई समस्याओं को ध्यान में रख कर अपनी योजनाएं चलानी पड़ेगी। सरकार सबसे पहले एक अधिकार सम्पन्न प्रोफ़ेशनल अर्थ विशेषज्ञों की एक टीम गठित करे और सारी समस्याओं का अध्ययन कर के उसका समाधान करे। सरकार को अपनी आर्थिक नीति की दिशा स्पष्ट करनी होगी। दुर्भाग्य से सरकार की कोई स्पष्ट आर्थिक नीति नही है। सरकार के पास हर समस्या का समाधान या तो निजीकरण है या ऋण का ऑफर देना। ऋण वसूली भी एजेंडे में नीचे है। ऐसा इसलिए कि सरकार कॉरपोरेट के प्रति अधिक चिंतातुर दिखती है। यह प्रवित्ति लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विपरीत है। 

( विजय शंकर सिंह )

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