1993 में बलिया जिले के पिपरा गांव में अपने एक रिश्तेदार के यहां, एक वैवाहिक समारोह में मेरी पहली मुलाकात चितरंजन जी से हुयी थी। गांव का समारोह था। लोग इत्मीनान से थे। शहर जैसा भागमभाग और कृत्रिमता का माहौल नहीं था। मौसम मई का था। गर्मी थी और उमस भी। वही किसी ने उनसे मुलाकात करायी, एक दूसरे का परिचय कराया।। यह आमने सामने की पहली मुलाकात थी।
देर तक हम बात करते रहे। कोई खास विषय नहीं। पुलिस से लेकर मौसम तक बातचीत के सिलसिले टूट टूट कर जुड़ते रहे। मैं उन्हें, उनके अखबारों में, छपने वाले नियमित लेखो के द्वारा पढ़ता रहता था, तो उनसे अनजान नहीं था। देर तक बात हुयी। कुछ पारिवारिक निकटता भी निकल गयी और वैचारिक अंतः धारा की निकटता तो थी ही। उस समय मैं देवरिया में एडिशनल एसपी तैनात था।
दूसरी मुलाकात, देवरिया में ही हुयी जब वे बनकटा चीनी मिल के एक विवाद के संबंध में आये थे। वे देवरिया आये और दो दिन रहे। इसमे वे एक दिन मेरे घर पर रुके। तब काफी बात हुई और फिर तो उसके बाद कई बार मुलाकातें हुयीं। बीच बीच मे फोन से भी बातचीत होती थी। बात भोजपुरी में और निजी हालचाल तक सीमित रहती थी। उनका सरल स्वभाव और जुझारूपन मुझे आकर्षित करता था। कभी कभी जब मैं उनके लेखों की चर्चा और तारीफ कर देता था तो पुलिस के मानवाधिकार के उल्लंघन पर कुछ न कुछ ज़रूर बोलते थे।
कल उनके देहांत की खबर मिली। दुःख हुआ। वे बीमार थे। बलिया के ही एक कॉमन दोस्त से विस्तार से उनके बारे मे चर्चा हुयी। लम्बे समय से मेरा उनसे कोई संपर्क नहीं रहा। कहते तो वे थे कि, कानपुर आइब, त आप के इहाँ आइब। पर वे कानपुर तो शायद एकाध बार आये भी, पर मेरे यहाँ नही आ पाए। उनसे मेरी कोई प्रगाढ़ मित्रता और नियमित मुलाकात तो नहीं थी, पर धारा के विपरीत तैरते लोग मुझे बहुत आकर्षित करते हैं, और उनमें मैं एक नायकत्व ढूंढता था । वे एक चलते फिरते आंदोलन थे।
मैं उनका प्रशंसक हूँ। सत्ता के खिलाफ, सत्ता की अहमन्यता के खिलाफ, शोषण के खिलाफ, उनके स्वर, उनकी जीवटता, और वंचितों के प्रति उनका जुझारूपन मुझे बहुत प्रभावित करता था। आज वे नहीं रहे तो यही सब स्मृतियां शेष हैं, जो बंद आँखे करने पर, फ्लैशबैक में ले जाती हैं। उनकी स्मृति को प्रणाम, और उनका विनम्र स्मरण।
अलविदा कॉमरेड !
( विजय शंकर सिंह )
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