Tuesday, 30 June 2020

भारत चीन सीमा विवाद और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य / विजय शंकर सिंह


पहले अमेरिका के स्टेट सेक्रेटरी, माइक पामपियो की बात पढ़े। माइक पामपियो अमेरिका के बडे मंत्री हैं और राष्ट्रपति ट्रम्प के बेहद करीबी भी है। वे ब्रुसेल्स में एक आभासी कॉन्फ्रेंस में अपनी बात कह रहे थे। उनसे जब यह पूछा गया कि अमेरिका, यूरोप में अपने सैनिकों की संख्या में क्यों कमी कर रहा है, तो माइक ने कहा, कि,
" अगर हम अपनी सेना जर्मनी से हटा रहे हैं तो, इसका अर्थ है, कि उस सेना को कहीं और भेजे जाने की योजना है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों के कारण भारत को खतरा उत्पन्न हो गया है। साथ ही चीन की गतिविधियों से, वियतनाम, इंडोनेशिया, फिलीपींस, मलेशिया और, दक्षिण चीन सागर में भी तनाव है। यूएस आर्मी अपने को इन चुनौतियों के अनुरूप ढाल रही है। "
पामपियो ने यह भी कहा कि,
" ट्रम्प प्रशासन ने दो साल पहले जो रणनीतिक योजना बनाई है उन्हें अमल में लाने का अवसर लंबे समय से लंबित है। अमेरिका ने इन खतरों के बारे में कई बार विचार किया है और कैसे इनका सामना किया जाय, इस पर भी सोचा है। यह खतरे, इंटेलिजेंस, सैनिक और सायबर क्षेत्रो से है।"
माइक आगे कहते हैं,
" इस अभ्यास के दौरान यह महसूस किया गया है कि, रूस या अन्य विरोधी ताकतों का मुकाबला केवल, उनके सामने कुछ फौजी टुकड़ी कहीं पर रख कर नहीं किया जा सकता है। अतः हम नए सिरे से सोच रहे हैं कि, विवाद का स्वरूप क्या है, और अपने संसाधनों को हम कैसे उनके मुक़ाबले में खड़ा कर सकते हैं। हमारे यह संसाधन क्या खुफिया क्षेत्रों में पर्याप्त हैं या, वायु सेना के क्षेत्र में, या समस्त सुरक्षा क्षेत्रों में, यह भी देखना होगा। जर्मनी से सैन्य बल हटाने के पीछे, यह सामुहिक उद्देश्य है कि, हम अपने संसाधनों को दुनिया मे अन्यत्र लगाना चाहते हैं। दुनिया मे बहुत सी जगहें हैं जैसे, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का खतरा भारत को है, और वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, दक्षिण चीन सागर, और फिलीपींस में है। हम यह सुनिश्चित करने जा रहे हैं कि, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी पीएलए का प्रतिरोध करने के लिये अपनी सेनाएं उचित जगहों पर लगाएंगे। हम इसे एक चुनौती के रूप में ले रहे हैं और इस चुनौती का सामना करेंगे। "
अपने भाषण में उन्होंने भारत चीन सीमा विवाद पर विशेष बल दिया। साथ ही दक्षिण चीन सागर को भी जोड़ा। साथ ही उन्होंने अपनी विदेश नीति और यूरोप से अपने संबंधों पर बहुत कुछ कहा जो हमारे इस विमर्श का अंग नहीं है।

माइक पामपियो के इस लंबे भाषण से एक बात साफ हो रही है कि दुनिया फिर एक बार शीत युद्ध के दौर में लौट रही है। पहला शीत युद्ध का दौर, 1945 से 1990 तक चला। प्रथम शीत युद्ध के अनेक कारणों में सबसे प्रमुख कारण विचारधारा का संघर्ष था। 1939 से 1945 के बीच हुए द्वितीय विश्वयुद्ध में जब हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला किया तो सोवियत संघ धुरी राष्ट्रों के खिलाफ मित्र राष्ट्रों के साथ आ गया और जब 1945 में हिटलर की पराजय हो गयी तथा हिटलर ने आत्महत्या कर लिया तो, सोवियत रूस अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण मित्र राष्ट्रों से अलग हो गया। उसी के बाद 1949 में चीन में लाल क्रांति हो गयी और सोवियत रूस को एशिया में एक और हमख़याल बड़ा देश मिला। वह कम्युनिज़्म के उभार का वक़्त था।

भारत नया नया आज़ाद हुआ था। हमारी अपनी अर्थव्यवस्था का स्वरूप क्या हो, इस पर बहस चली। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सोवियत क्रांति और समाजवाद से प्रभावित तबका मज़बूत था और स्वयं जवाहरलाल नेहरू का भी रुझान कही न कहीं, समाजवादी समाज की स्थापना की ओर था तो रूस ने तब हमें अपने एक स्वाभाविक साथी के रूप में लिया। हमारा आर्थिक ढांचा, मिश्रित अर्थव्यवस्था के आधार पर विकसित हुआ। एक समय सामुदायिक खेती की भी बात चलने लगी थी। तब जमींदारी उन्मूलन के रूप में एक बड़ा और प्रगतिशील भूमि सुधार कार्यक्रम देश मे लाया गया। यह सारे प्रगतिशील कदम समाजवादी विचारधारा से कही न कहीं प्रभावित थे, जो भारत को अमेरिका से स्वाभाविक रूप से अलग और रूस के नजदीक करते गए। चीन इस पूरे विवाद में कहीं नहीं था। वह खुद को मजबूत करने में लगा था।

दुनिया के दो शक्तिकेन्द्र वैचारिक आधार पर बंट गए थे। विचारधारा के वर्चस्व की यह पहली जंग थी, जो प्रथम शीत युद्ध की पीठिका बनी। अमेरिका जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सिरमौर था से कम्युनिस्ट सोवियत रूस के बीच जो, एक लंबा जासूसी, षडयंत्र, और वैचारिक मतभेद का आपसी टकराव शुरू हुआ, वहीं इतिहास में शीत युद्ध कहलाया। यह सिलसिला, गोर्बाचेव के कार्यकाल और रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के शासन के अंत और ग्लासनोस्त के आने तक चला और 1991 तक सोवियत ब्लॉक लगभग पूरी तरह से बिखर गया। जो दुनिया दो ध्रुवीय थी, वह अब एक ध्रुवीय हो गयी और अमेरिका अब चुनौती रहित एक महाशक्ति बन गया। इसे कम्युनिस्ट विचारधारा की पराजय और पूंजीवादी सोच के विजय के रूप में देखा गया। यह प्रचारित किया जाने लगा कि, श्रम, पूंजी, इतिहास की प्रगतिवादी व्याख्या पर आधारित वैज्ञानिक भौतिकवाद के दर्शन जो कम्युनिस्ट विचारधारा का मूल है अब प्रासंगिक नहीं था। सोवियत रूस का बिखराव एक विचारधारा के अंत का प्रारंभ नहीं था। यह केवल आगे बढ़ते जाते समाज मे युद्ध और शांति के अनेक सोपान की तरह, केवल एक पड़ाव था।

दुनिया मे जब कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं बचा तो फिर युद्ध किससे होता। अमेरिका एक चुनौती विहीन राष्ट्र बन गया। आर्थिक संपन्नता ने उसकी स्थिति गांव के एक बड़े और बिगड़ैल ज़मीदार की तरह कर दी । लेकिन धीरे धीरे ही सही, चीन की स्थिति सुधरी और चीन दुनिया की एक महाशक्ति बन कर उभरने की ओर अग्रसर हुआ । चीन ने पूंजीवाद को पूंजीवादी तरीके से ही चुनौती देने की रणनीति अपनाई। उसने अपनी आर्थिक ताक़त बढाई और धीरे धीरे दुनियाभर में उसकी आर्थिक धमक महसूस की जाने लगी। 1991 के बाद हमारी अर्थव्यवस्था के मॉडल में भी परिवर्तन हुआ और हमने भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के रूप को अपनाया। खुली खिड़की ने विकास और प्रगति के अनेक द्वारा खोले। भारत दुनिया की सबसे तेज़ गति से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हुआ।

भारत एक उन्नत होती हुई अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा था कि, 2016 के बाद कुछ विफल आर्थिक नीतियों के काऱण विकास की गति में बाधा पहुंची और विश्व आर्थिकी में जो हमारा स्थान था वह कम होने लगा। इसी बीच यह कोरोना आपदा आ गयी जिसने दुनियाभर के देशों और महाशक्तियो के सामने अनेक संकट खड़े कर दिए। भारत भी अछूता नहीं रहा। अब तो दुनियाभर में मंदी का दौर आ ही गया है। यह कब तक चलेगा यह अभी कोई भी बता नहीं पा रहा है।

कोरोना वायरस की शुरूआत चीन के वुहान शहर से हुई और फिर यूरोप, अमेरिका होते हुए वह वायरस भारत मे आया। दुनियाभर में इसे लेकर हाहाकार मचा रहा। अब भी कोरोना का भय कम नहीं हुआ है। इसकी दवा और वैक्सीन की तलाश दुनिया भर के वायरोजिस्ट और चिकित्सा वैज्ञानिक कर रहे हैं, पर अभी उसमें किसी को भी सफलता नहीं मिली है। अमेरिका और चीन में इस वायरस को लेकर भी तनातनी शुरू हुई। अमेरिका का आरोप है कि यह वायरस प्रकृति जन्य नहीं है बल्कि मनुष्य निर्मित है और इसका उद्देश्य, दुनियाभर में तबाही लाकर चीन अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। पर वैज्ञानिक शोधों से अभी तक तो यही प्रमाणित हुआ है कि यह वायरस मानव निर्मित नहीं है। इस संक्रमण को रोकने के लिये दुनियाभर में घरों में बंद रहने की टेक्नीक जिसे लॉक डाउन कहा गया अपनाया गया। इसका बेहद विपरीत प्रभाव, अर्थव्यवस्था पर पड़ा। दुनियाभर में आर्थिक मंदी का दौर शुरू हो गया। पर इस मंदी का असर जितना पूंजीवादी देशों पर पड़ा, उतना चीन में नहीं हुआ।

चीन मूलतः एक विस्तारवादी मानसिकता का देश है। इसी मनोवृत्ति के चलते इसने दुनियाभर के गरीब देशों को आर्थिक सहायता देकर उन्हें अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने की कोशिश की। भारत के चारो तरफ इसने एक जाल सा खड़ा कर दिया। पाकिस्तान के माध्यम से वह ग्वादर के रास्ते अरब सागर तक पहुंच गया है। श्रीलंका के माध्यम से उसकी मौजूदगी हिन्द महासागर में हो गयी है। नेपाल को अपने आर्थिक मायाजाल में लेकर भारत के लिये एक बड़ी समस्या जो मनोवैज्ञानिक अधिक है, खड़ी कर दी है। नेपाल से हमारे सम्बंध अच्छे हैं, और दोनो ही देशों में कोई विवाद नहीं है, पर इधर चीन के षड़यंत्र से एक तनाव और खटास का वातावरण ज़रूर बन गया है। चीन की वन बेल्ट वन रोड योजना ने उसकी महत्वाकांक्षी और विस्तारवादी योजना का ही प्रमाण दिया। जहाँ जहाँ से यह महत्वाकांक्षी योजना निकल रही है चीन उन्हें अपने उपनिवेश के रूप में देख रहा है।

चीन के इस बढ़ते प्रभाव ने अमेरिका को सशंकित कर दिया और वह नहीं चाहता कि दुनिया मे कोई और ध्रुवीय महाशक्ति उभरे। सोवियत रूस को विघटित करने के बाद लम्बे समय तक उसकी बादशाहत रही है। अब उसे यह चुनौती मिल रही है। इतिहास फिर खुद को दुहरा रहा है। एक समय कम्युनिस्ट रूस अमेरिका के लिये खतरा बना था तो आज फिर एक लाल खतरा उसे दिख रहा है। माइक पामपियो का भाषण दुबारा पढ़े उसमे साफ साफ यह कहा गया है कि अमेरिका, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की प्रसारवादी नीतियों के खिलाफ अपनी रणनीति बना रहा है और अपने सैन्य बल को पुनः नयी रणनीति के आधार पर तैनात कर रहा है। इसी सिलसिले में माइक भारत के सीमा विवाद का उल्लेख करते हैं और वे चाहते हैं कि उनका सैन्य बल भारत मे रहे और इस माध्यम से वे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से अपना वैचारिक संघर्ष पूरा करें।

इस प्रकार यह शीत युद्ध का यह द्वितीय चरण है। भारत पहले चरण में बड़ी सफाई और खूबसूरती के साथ दोनो ही महाशक्तियो से दूर रहा। पर इस चरण में क्या वह उतनी ही कुशलता से अपने को अलग रख पाता है, यह तो भविष्य ही बताएगा। माइक पामपियो का बयान कि वे कम्युनिस्ट चीन से भारत के बीच तनाव का सैनिक समाधान भी निकालेंगे, के बारे में अभी तक भारत की कोई अधिकृत प्रतिक्रिया नही आयी है। भारत चीन की गलवां घाटी में हुए विवाद जिंसमे हमारे 20 सैनिक शहीद हुए हैं पर अभी सैन्य स्तर पर चीन से वार्ता कर रहा है। लेकिन इस बातचीत का कोई खास नतीजा निकलता नहीं दिख रहा है। अमेरिका का यह अधिकृत बयान बदलते परिवेश में बेहद महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रपति ट्रूमैन के ही समय से अमेरिका भारत के नज़दीक आने की कोशिश कर रहा था, लेकिन भारत ने खुद को गुट निरपेक्ष आंदोलन से जोड़ा और वह दोनो ध्रुवों से अलग रहा। नेहरू, नासिर टीटो की त्रिमूर्ति ने शीत युद्ध के उस कालखंड में अपनी अलग राह तय की। अफ्रीकी और एशियाई नव स्वतंत्र देशों का गुट निरपेक्ष आंदोलन धीरे धीरे मज़बूत होता गया। पर जब दुनिया एक ध्रुवीय बन गयी तो यह आंदोलन कमज़ोर पड़ गया और अब यह केवल एक अतीत का दस्तावेज है। यद्यपि भारत 1961 में गुट निरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना करने वाले देशों में प्रमुख था किन्तु शीत युद्ध के समय उसके अमेरिका के बजाय सोवियत संघ से बेहतर सम्बन्ध थे। लेकिन 1962 में चीनी हमले के समय भारत ने अमेरिका से मदद मांगी थी। उसे आपातकाले मर्यादा नास्ति के रूप में देखा जाना चाहिए।

भारत और अमरीका दो ऐसे राष्ट्र हैं, जिन्होंने अपने आधुनिक इतिहास के दौरान अपने संबंधों में काफ़ी उतार-चढ़ाव देखे हैं। दोनों देशों के बीच भिन्न-भिन्न सामरिक और विचारधारात्मक कारणों से समय-समय पर तनावपूर्ण संबंध रहे हैं, लेकिन परिस्थितियां बदलने पर दोनों देश एक-दूसरे के नज़दीक भी आए हैं। शीत युद्ध की राजनीति का अमेरिकी-भारत संबंधों पर गहरा प्रभाव पड़ा। जबकि विश्व के अधिकतर देश पूर्वी ब्लॉक और पश्चिमी ब्लॉक में बंटे हुए थे, भारत ने सैद्धांतिक रूप से गुट-निरपेक्ष रहने का फ़ैसला किया पर वह अमरीका के बजाय सोवियत संघ के ज्यादा क़रीब रहा। 1971 में हुयी भारत सोवियत संघ बीस साला संधि ने हमे एक मजबूत मित्र दिया और 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और पाकिस्तान के साथ युद्ध मे, हमारी शानदार विजय के पीछे इस मित्रता की महती भूमिका भी रही है।

दूसरी ओर, इस समय अब भारत की मौजूदा नीति अपने राष्ट्रीय हितों की ख़ातिर एक साथ विभिन्न देशों से अच्छे संबंध बनाने की है। भारत, ईरान, फ़्रांस, इस्राइल, अमेरिका और बहुत से अन्य देशों के साथ मित्रता बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। भारत और अमेरिका के रिश्ते अब और मजबूत हुए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, 2000 ई में और उसके पहले, जिमी कार्टर 1978 में, रिचर्ड निक्सन 1969 में और आइज़नहावर 1959 में भारत आये थे। मार्च 21, 2000 को राष्ट्रपति क्लिंटन और प्रधानमंत्री वाजपेयी ने नई दिल्ली में एक संयुक्त बयान, "भारत-अमेरिकी संबंध : 21वीं शताब्दी के लिए एक परिकल्पना" नामक संयुक्त दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये थे। 25 जनवरी 2015 को भारत की तीन दिन की यात्रा पर आये अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि बनने वाले पहले अमरीकी राष्ट्रपति रहे। अभी हाल ही में 24 और 25 फरवरी को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत की यात्रा की। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने अमेरिका की कई यात्राएं की, और उनके ट्रम्प और बराक ओबामा से बेहद करीबी रिश्ते आज भी हैं।

शीत युद्ध के बाद एकध्रुवीय विश्व में अमेरिका एकमात्र सुपर पावर बनकर उभरा, इसीलिए यह भारत के राष्ट्रीय हितों के अनुकूल था कि अमेरिका के साथ संबंधों को अनुकूल किया जाए तथा शीत युद्धोत्तर विश्व में भारत ने अर्थिक उदारीकरण की नीति अपनायी, क्योंकि भूमंडलीकरण को बढावा दिया गया था | भारतीय विदेश नीति में आर्थिक कूटनीति को प्रमुख स्थान दिया गया तथा अमेरिका ने भी भारत को एक उभरते बाजार के रूप में देखा|अमेरिका द्वारा भारत में निवेश भी आरंभ हुआ|आर्थिक रूप से दोनों देशों के बीच संबंध मजबूत भी हो रहे थे, किन्तु परमाणु अप्रसार के मुद्दे पर अमेरिका एनपीटी. व सीटीबीटी पर हस्ताक्षर के लिए भारत पर दबाव बनाए हुए था|

भारत के द्वारा, परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर से इंकार करने और 1998 में परमाणु परीक्षण करने के बाद अमेरिका ने भारत को अलग थलग करने की नीति अपनायी, जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक परिणाम देखा गया|1999 में पाकिस्तानी सेना द्वारा नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करके भारत के क्षेत्र में प्रवेश किया गया तो यह पहला मौका था जब भारतीय कार्यवाही का अमेरीका ने विरोध नहीं किया | धीरे धीरे स्थिति सुधरती चली गई और अब भारत अमेरिका सम्बंध प्रगाढ़ हैं। कूटनीतिक रिश्ते सदैव कभी नीम नीम तो कभी शहद शहद सरीखे होते हैं।

प्रथम और अब इस आसन्न द्वितीय शीत युद्ध में एक मौलिक अंतर है जो सोवियत रूस और चीन की कूटनीतिक और ऐतिहासिक मानसिकता में है। अमेरिका तो तब भी पूंजीवादी व्यवस्था का शिखर प्रतीक बना रहा और अब भी वह है पर अब थोड़ा और अहंकार तथा 'जहां तक मैं देखता हूँ, वहां तक मेरा ही साम्राज्य है' कि दर्पयुक्त मानसिकता से वह लबरेज है। सोवियत रूस विस्तारवादी नहीं था जबकि चीन विस्तारवाद से बुरी तरह ग्रस्त है। वह तिब्बत की पांच उंगलियों के माओ के सिद्धांत, पर अब भी अमल करता है और विस्तारवाद के वायरस ने चीन के संबंध उसके सभी पड़ोसियों से बिगाड़ कर रख दिये हैं। जबकि सोवियत रूस के साथ ऐसा नहीं था। आज चाहे भारत हो या जापान सभी चीन की इस दादागिरी से त्रस्त हैं। भारत की सीमाएं चूंकि चीन से मिलती हैं और यह सीमा जटिल भौगोलिक स्थिति के कारण निर्धारित भी नहीं है तो चीन के विस्तारवाद का दंश भारत को अधिक झेलना पड़ता है। गलवां घाटी और लद्दाख की हाल की घटनाएं इसी मानसिकता का प्रमाण हैं।

यह कहा जा सकता है कि, माइक पामपियो का यह बयान, अमेरिकी सरकार का अधिकृत बयान नहीं है, यह ब्रुसेल्स में एक थिंक टैंक में दिया गया उनका वक्तव्य है। लेकिन यह अमेरिकी कूटनीतिक लाइन तो है ही। अब यह सवाल उठता है कि माइक पामपियो के अनुसार, कम्युनिस्ट चीन से उनके इस वैचारिक युद्ध मे भारत की क्या भूमिका होनी चाहिए ? मेरी राय में भारत को अमेरिका के इस झांसे में नही आना चाहिए कि वह भारत चीन सीमा विवाद के इस दौर में भारत की एक इंच भूमि पर भी, अमेरिकी सेना को आने की अनुमति दे। अमेरिका चीन का यह आपसी विवाद वैचारिक तो है ही आर्थिक वर्चस्व का भी है। यह द्वंद्व शुरू हो चुका है। अमेरिका की दिली इच्छा है कि वह भारत पाकिस्तान और भारत चीन के बीच हर विवाद में चौधराहट और मध्यस्थता करे। अमेरिका का यह इरादा छुपा हुआ भी नहीं है। ट्रम्प तो मध्यस्थता की मेज पर बैठने के लिये बेताब हैं। पर भारत ने फिलहाल अमेरिका के इस प्रस्ताव को खुल कर खारिज़ कर दिया है। अमेरिका का, भारत मे सैन्य बल के साथ भारत की रक्षा करने के नाम पर घुसना एक बार फिर से एक साम्राज्यवादी ताक़त के सामने आत्मसमर्पण करना होगा । अमेरिका और चीन के बीच इस वैचारिक और आर्थिक संघर्ष में, हम एक उपनिवेश की तरह बन कर रह जाएंगे। अमेरिका ने एक बार भी चीन को यह सख्त संदेश नहीं दिया है कि वह घुसपैठ बंद करे और वापस जाए। जबकि करगिल में अमेरिका का रुख पाकिस्तान के प्रति सख्त था। यह इसलिए कि अमेरिका खुद भी चीन से सीधे भिड़ना नहीं चाहता है वह हमारे कंधे पर बंदूक रख कर अपना हित साधना चाहता है।

एक बात भारत को समझ लेनी चाहिए कि, चीन तो विश्वसनीय नहीं है पर अमेरिका भी चीन से कम अविश्वसनीय नहीं है। अमेरिका का भारत में वैधानिक घुसपैठ का एक ही उद्देश्य है, आगामी शीत युद्ध की परिस्थिति में एशिया में एक मजबूत ठीहा बनाना, जहां से वह चीन की दक्षिणी सीमा से लेकर सिंगापुर मलेशिया होते हुए दक्षिण चीन सागर तक अपनी मजबूत मौजूदगी रख सके। अमेरिका अपने प्रस्तावित सैन्य अड्डे पर जो भी व्यय करेगा उसका एक एक पैसा वह भारत से वसूल करेगा और भारत को एक ऐसी स्थिति ला कर खड़ा कर देगा कि न केवल भारत की विदेशनीति वह संचालित करने की हैसियत में आ जायेगा बल्कि हमारी गृहनीति भी वह प्रभावित करने लगेगा।

भारत को अपनी चीन नीति और साथ ही सभी पड़ोसी देशों से अपनी नीति की समीक्षा करनी होगी। पड़ोसियों से सीमा विवाद का हल सामरिक तो तब निकलेगा जब समर छिड़ जाय पर समर की स्थिति सदैव बनी भी नहीं रह सकती है अतः कूटनीतिक मार्ग का अनुसरण ही उचित रास्ता है। लेकिन अगर इसे फिलहाल गलवां घाटी के संदर्भ में देखें तो फिलहाल चीनी घुसपैठ का एक ही विकल्प है कि, चीन हर हालत में मई 2020 की स्थिति पर लौटे और जितने भी ऐसे उलझे हुए सीमा विवाद हैं, उन पर गंभीरता से उभय देश बात करें। कभी कभी यह बहुत अचंभित करता है कि हमारे प्रधानमंत्री के चीन के राष्ट्रपति से बेहद करीबी और मजबूत रिश्ते हैं फिर ऐसी घटना क्यों हो जा रही है ? उत्तर होगा, चीन अविश्वसनीय दोस्त है। लेकिन चीन की यह फितरत तो हमे 1962 से ज्ञात है। फिर हम बार बार उसके धोखे में आ ही क्यों जाते हैं ?

( विजय शंकर सिंह )


खबरों पर पहरा और सीमा घुसपैठ पर चुप्पी / विजय शंकर सिंह

अगर इस चीनी आक्रमण और हमारे 20 सैनिको की शहादत के लिये कांग्रेस का सीपीसी के साथ 2008 का एमओयू और राजीव फाउंडेशन को दिया गया चीनी चंदा जिम्मेदार है तो, सबसे पहले सरकार इसकी जांच का आदेश दे, पर फिंगर 4 पर बन रहे चीनी हेलिपैड और गलवां घाटी में हो गए चीनी कब्जे को हटाने के लिये सामरिक और कूटनीतिक प्रयास तो करे और मई के पहले की स्थिति बहाल करने का लक्ष्य हासिल करे। लेकिन लगता है, सरकार इस उद्देश्य से भटक गयी है और उसकी प्राथमिकता में राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी चंदा और मीडिया में छपने वाले सीमा के सैटेलाइट इमेज और ज़मीनी खबरों की मॉनिटरिंग ही अब बची है।

इंडियन जर्नलिज्म रिव्यू का लेख आंखों से गुजरा तो उसमें एक हैरान कर देने वाली बात दिखी। उस खबर से पता लगा कि देश की सबसे पुरानी और विश्वसनीय न्यूज एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया पीटीआई के गलवां घाटी की कुछ खबरों और चीन में हमारे राजदूत विवेक मिश्री के एक इंटरव्यू के कुछ अंशो को लेकर सरकारी सूचना तँत्र प्रसार भारती ने देशद्रोही कहा है। इंडियन एक्सप्रेस ने भी इस विषय मे एक खबर छापी है। पीटीआई को यह परामर्श भी दिया गया कि, वह चीनी घुसपैठ की सैटेलाइट इमेजेस दिखाना बंद कर दे। और इसी तरह के संदेश, सरकार की तरफ से, कुछ अन्य टीवी चैनलों और अखबारों के  संपादकों को भी दिए गए हैं।

सरकार, 19 जून को प्रधानमंत्री द्वारा सर्वदलीय बैठक में यह कह देने से कि 'न तो कोई घुसा था और न ही कोई घुसा है',  हिटविकेट हो गयी है। पीएम का यह बयान ज़मीनी सच और सीमा पर के तथ्यो के सर्वथा विपरीत है और यह भारत का नहीं बल्कि चीन के स्टैंड के करीब लगता है। हालांकि पीएम की ऐसी कोई मंशा हो ही नहीं सकती कि वे ऐसी बात कहें जिससे भारत की हित हानि हो। लेकिन यह बात गले पड़ गयी है। अब इससे हुए नुकसान की भरपाई के लिये पीएमओ ने दूसरे ही दिन अपनी स्थिति स्पष्ट की कि पीएम के कहने का आशय यह नही था जो 19 जून को उनके भाषण के बाद अधिकतर लोगों द्वारा समझा गया था।

इंडियन जर्नलिज्म रिव्यू के अनुसार, इस हो चुके नुकसान को ठीक करने के लिये कुछ राजभक्त पत्रकारों की तलाश हुयी और उनसे रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय ने बातचीत की। बीजेपी के क्षवि निर्माताओं को इस काम पर लगाया गया। इस कार्य के लिये निम्न प्रकार की कार्ययोजना तय की गयी।

● यह तय किया गया कि, रक्षा और विदेशी मामलो के विशेषज्ञ संवाददाताओं के बजाय सीधे संपादकों से ही संपर्क बनाए रखा जाय क्योंकि क्या छपेगा या क्या प्रसारित होगा यह उन्ही के स्तर से तय होता है।
● टीवी चैनलों के मालिकों से कहा गया कि, वे, चीनी घुसपैठ की  सैटेलाइट इमेजेस न दिखाए ।
● भाजपा बीट की खबरें देने वाले संवाददाताओं से कहा गया है कि वे रक्षा और विदेश मामलों की रिपोर्टिंग में बेहतर खबर और तस्वीरे दिखाएं और लिखें।
● पीटीआई की खबरों को देशविरोधी रिपोर्टिंग बताया गया।

अब इससे क्या फर्क पड़ेगा यह तो भविष्य में ही ज्ञात हो सकेगा लेकिन इससे राजनीतिक दल कवर करने वाले संवाददाताओं और रक्षा तथा विदेश मामलों से जुड़ी खबरों को कवर करने वाले पत्रकारों में मतभेद उभर कर आ गये हैं। भाजपा बीट को कवर करने वाले कुछ पत्रकारों को, 26 जून को डी ब्रीफिंग के लिये विदेश सचिव हर्ष वर्धन श्रृंगला ने आमंत्रित किया और उन्हें तथ्यों से अवगत कराया। यह डी ब्रीफिंग विदेश मंत्रालय के कार्यलय जवाहरलाल नेहरू भवन पर नहीं बल्कि केंद्रीय युवा कल्याण  एवं खेलकूद राज्यमंत्री, किरण रिजूजू के कृष्ण मेनन मार्ग स्थित आवास पर हुयी।

बिजनेस स्टैंडर्ड के पत्रकार, आर्चीज़ मोहन ने यह खबर सबको दिया। पहले यह बताया गया कि, विदेश मंत्री एस जयशंकर और सूचना तथा प्रसारण मंत्री प्रकाश जावेडकर, भाजपा कवर करने वाले कुछ पत्रकारो से बात करेंगे। लेकिन बाद में यह तय किया गया कि, एस जयशंकर और प्रकाश जावेड़कर के बजाय, यह प्रेस वार्ता, विदेश सचिव और केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी द्वारा की जाएगी।

सरकार का यह निर्णय कि यह बातचीत बीजेपी कवर करने वाले कुछ चुनिंदा पत्रकारों को ही उस प्रेस वार्ता में बुलाया जाएगा, इससे अन्य पत्रकार जो 'लॉयल' नहीं समझे जाते थे, इस भेदभाव से नाराज़ हो गए। बीजेपी कवर करने वाले एक पत्रकार, जिन्हें इस डी ब्रीफिंग सेशन में नहीं बुलाया गया था, ने कहा कि 'बीजेपी के चहेते पत्रकार राम माधव, विनय सहस्रबुद्धे और भूपेंद्र यादव से नियमित बात करते हैं और उनकी खबरें अखबारों के ओप एड पेज पर नियमित छपती हैं।' यह एक प्रकार की सेलेक्टिव पत्रकारिता कही जा सकती है। पत्रकार भी अपनी सोच और वैचारिक दृष्टिकोण से खेमेबंदी में बंट सकते हैं।

विदेश सचिव के साथ होने वाली, कुछ चुनिंदा पत्रकारों की यह प्रेस कॉन्फ्रेंस आर्मी पब्लिक रिलेशन्स के पीआरओ कर्नल अमन आनन्द के एक व्हाट्सएप्प ग्रुप द्वारा भेजे गए एक संदेश के माध्यम से, आयोजित की गयी। इससे यह समझा गया था, कि यह डी ब्रीफिंग चीनी घुसपैठ के बारे में ही होगी। लेकिन इस बात की उत्कंठा बनी रही कि, फिर केवल भाजपा कवर करने वाले कुछ खास पत्रकारों को ही क्यों यह आमंत्रण दिया गया है। यह व्हाट्सएप्प ग्रुप इसी जून माह में गठित किया गया है जिसमे दो दर्जन अखबारों के संपादक और टीवी चैनलों के न्यूज़रूम प्रमुख हैं और यह सभी मुख्य रूप से दिल्ली आधारित ही हैं।

डिफेंस की बीट से जुड़े एक पत्रकार ने, इंडियन जर्नलिज्म रिव्यू को बताया कि टीवी चैनलों से जुड़े संपादकों को यह विनम्रता से समझा दिया गया कि वे सेटेलाईट इमेज न साझा करें, नहीं तो इससे यह इम्प्रेशन लोगों में जाएगा कि या तो प्रधानमंत्री को तथ्य पता नही था या वे झूठ बोल रहे थे, जब उन्होंने कहा था कि, न तो कोई घुसा था और न ही कोई घुसा है। यह स्पष्ट नहीं है कि, सैटेलाइट इमेज न दिखाने का निर्देश व्हाट्सएप्प द्वारा ग्रुप में भेजा गया था या यह ज़ुबानी ही बातचीत के दौरान संकेतो में कह दिया गया था, लेकिन सैटेलाइट इमेजेस न दिखाने का लाभ ज़रूर समझाया गया था।

सेना के पीआरओ द्वारा केवल संपादकों का एक व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाने से कुछ व्यावसायिक और व्यवहारिक समस्याएं भी सामने आयी हैं। जैसे सेना जो बात बता रही है वह रक्षा बीट कवर करने वाले, संवाददाताओं तक नहीं पहुंच रही है, बल्कि वह सीधे संपादकों तक ही पहुंच जा रही हैं। जबकि ज़मीनी खबरे रक्षा और वैदेशिक बीट कवर करने वाले पत्रकार ही एकत्र औऱ उनका विश्लेषण  करते हैं। उन्हे कभी कभी यह पता ही नहीं चल पाता कि उनके संपादकों को क्या क्या संदेश सेना द्वारा मिले हैं। इस प्रकार सम्पादक और संवाददाता में एक प्रकार का संचारावरोध, कम्युनिकेशन गैप भी  इससे बन सकता है।

इसके तीन परिणाम सामने आए हैं।
● पहला, पुराने और स्थापित डिफेंस संवाददाता तो अपने सम्पादक और सेना के पीआरओ के नियमित खबरों के आदान प्रदान के बावजूद अपनी खबरों पर अड़े रह सकते हैं पर नए डिफेंस संवाददाता, स्थापित और पुराने संवाददाताओं की तुलना में इस प्रकार का रवैया न तो अपना सकते हैं और न ही, कोई विशेष असर रख पाते हैं।

● दूसरा, प्रकाशित खबरों के खण्डन और सेना द्वारा अपना पक्ष रखे जाने की स्थपित परंपरा के विपरीत, सीधे सम्पादकों को ही यह संदेश दे देना कि क्या दिखाएं और क्या न दिखाए, यह एक प्रकार से प्रेस सेंसरशिप ही है। सेना के प्रवक्ता द्वारा मीडिया में किसी खबर के गलत या आधारहीन होने पर उसका खंडन सार्वजनिक रूप से किया जाना चाहिए, न कि खबरों को ही रोक देने की परिपाटी शुरू करनी चाहिए। पहले भी, ऐसी खबरों का सप्रमाण खंडन किया जाता रहा है। पर यह तभी संभव है जब सेना या विदेश विभाग द्वारा नियमित प्रेस कांफ्रेंस की जाय।

● तीसरा, रक्षा मंत्रालय में इडियन इन्फॉर्मेशन सर्विस का संयुक्त सचिव स्तर का एक अधिकारी भी एडीजीएम&सी के रूप में, प्रेस के लिये ही नियुक्त है जो प्रेस से सीधे बात कर आपसी बातचीत से समस्याओं का समाधान कर सकता है तो, सेना के पीआरओ द्वारा संपादकों के व्हाट्सएप्प ग्रुप की ज़रूरत क्या है ? यह सवाल भी पत्रकारों के समाज मे पूछा जा रहा है।

सरकार का एक मोर्चा, अखबारों के हेडलाइन मैनेजमेंट इलाके पर भी जमा हुआ है। 26 जून को प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने चीन में नियुक्त भारतीय राजदूत विक्रम मिश्री का एक इंटरव्यू लिया और राजदूत ने जो कहा उसे ट्वीट के रूप में अपने ट्विटर हैंडल पर पीटीआई ने प्रसारित कर दिया। लेकिन राजदूत विक्रम मिश्री का कथन और स्टैंड प्रधानमंत्री के 19 जून को सर्वदलीय बैठक में कहे गए वक्तव्य से अलग और बिल्कुल उलट था। हालांकि राजदूत ने जो कहा था वह शब्दशः पीटीआई की स्टोरी में बाद में नहीं जारी हुआ था बल्कि ट्वीटर हैंडल पर तत्काल ही प्रसारित कर दिया गया था, लेकिन इससे, सरकार को जो नुकसान होना था,  वह हो चुका था । पीटीआई के इस इंटरव्यू पर न्यूज़ एजेंसी की आलोचना होंने लगी। यह आलोचना प्रसार भारती जो सरकारी न्यूज़ माध्यम हैं ने की औऱ पीटीआई को एक देश विरोधी एजेंसी के रूप में प्रचारित करना, शुरू कर दिया। इकॉनोमिक टाइम्स की पत्रकार वसुधा वेणुगोपाल ने प्रसार भारती की इस व्यथा पर ट्वीट भी किया। आज के टेलीग्राफ और इंडियन एक्सप्रेस में भी यह खबर छपी है।

वैसे भी देश की सबसे पुरानी न्यूज एजेंसियों में से एक, पीटीआई लम्बे समय से एनडीए सरकार के निशाने पर रही है। अरुण जेटली, जब वे मंत्री थे तो, उन्होंने इस एजेंसी में, अपना एक व्यक्ति संपादक के रूप में नियुक्त करवाना चाहा था, पर एजेंसी के मालिकों द्वारा आपत्ति कर दिए जाने पर यह संभव नहीं हो सका। स्मृति ईरानी जब सूचना और प्रसारण मंत्री थीं तो उन्होंने, एक ऐसे चित्र पर जिस पर प्रधानमंत्री पर तंज किया गया था, दिखाने पर नवनियुक्त संपादक विजय जोशी को अपने निशाने पर लिया था और उनकी आलोचना की थी। प्रसार भारती द्वारा पीटीआई को देशद्रोही कहने से यह संदेश सभी प्रेस बिरादरी में जा रहा है कि या तो जो सरकार कहे वही छापा जाय या, यह शब्द सुनने के लिये तैयार रहा जाय।

पीटीआई का रजिस्ट्रेशन 1947 में हुआ था और इसने अपना कामकाज 1949 में शुरू किया था। मार्च 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक इसके 5416 शेयर का देश-दुनिया के 99 मीडिया आर्गेनाइजेशन के पास मालिकाना हैा। पीटीआई के बोर्ड के सदस्यों की संख्या 16 है। जिसमें चार स्वतंत्र निदेशक हैं और बोर्ड का चेयरपर्सन हर साल बदलता रहता है। मौजूदा समय में पंजाब केसरी के सीईओ और एडिटर इन चीफ इसके चेयरमैन हैं। यह देश की सबसे बड़ी न्यूज़ एजेंसी है जो मीडिया समूहों को सब्सक्रिप्शन वितरित करने के जरिये अपनी कमाई करती है।

सरकार ने पीटीआई, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया को हिदायत दी है कि वह गलवां घाटी और चीनी घुसपैठ की सैटेलाइट इमेज न जारी करे। यह तो वहीं बात हुयी, कि मूदहूँ आंख कतहुं कुछ नाहीं। अगर पीटीआई नहीं जारी करेगी तो यह सैटेलाइट इमेज रायटर जारी कर देगा। डिफेंस एक्सपर्ट और डिफेंस एनालिसिस करने वाली मैगजीन जारी कर देंगी। झूठ थोड़े न छुपेगा। खबरें छुपाने से और तेजी से फैलती हैं बल्कि और विकृत रूप में फैलती हैं। एक प्रकार से यह फैलाव अफवाह और दुष्प्रचार की शक्ल में होता है। यह अधिक घातक होता है।

अगर यह सैटेलाइट इमेज झूठी और दुर्भावना से जारी की जा रही हैं तो इनका खंडन सरकार का विदेश मंत्रालय करे या फिर रक्षा मंत्रालय। सही और ताज़ी सैटेलाइट इमेज अगर हो तो उन सैटेलाइट इमेजेस को मिथ्या सिद्ध करने के लिये सरकार खुद ही जारी कर सकती है। सरकार चाहे तो, कुछ पत्रकारों को मौके पर ले जाकर वास्तविक स्थिति को दिखा भी सकती है। पहले भी ऐसी परंपराएं रही हैं। आज के संचार क्रांति के युग मे किसी खबर को दबा लिया जाय यह सम्भव ही नही है। जनता प्रथम दृष्टया यह मान कर चलती है कि सरकार झूठ बोल रही है और कुछ छिपा रही है।

यह धारणा आज से नहीं है, बल्कि बहुत पहले से है। 1962 का तो मुझे बहुत याद नहीं पर 1965 और 1971 में आकाशवाणी से अधिक लोग बीबीसी की युद्ध खबरें सुनते थे और उनपर यक़ीन करते थे। आज जब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि न कोई घुसा था, न घुसा है, रक्षामंत्री कह चुके हैं कि उल्लेखनीय संख्या में घुसपैठ हुयी है, विदेश मंत्री कह रहे हैं कि चीन ने अस्थायी स्ट्रक्चर बना लिया है, चीन में हमारे राजदूत कह रहे हैं कि घुसपैठ है, हटाने के लिये बात चल रही हैं, सैटेलाइट इमेज कुछ और कह रहे हैं तो सरकार की किस बात पर यकीन करें और किस बात पर यकीन न करें ?

( विजय शंकर सिंह )

Saturday, 27 June 2020

साथी चित्तरंजन सिंह को याद करते हुए / विजय शंकर सिंह

1993 में बलिया जिले के पिपरा गांव में अपने एक रिश्तेदार के यहां, एक वैवाहिक समारोह में मेरी पहली मुलाकात चितरंजन जी से हुयी थी। गांव का समारोह था। लोग इत्मीनान से थे। शहर जैसा भागमभाग और कृत्रिमता का माहौल नहीं था। मौसम मई का था। गर्मी थी और उमस भी। वही किसी ने उनसे मुलाकात करायी, एक दूसरे का परिचय कराया।। यह आमने सामने की पहली मुलाकात थी। 

देर तक हम बात करते रहे। कोई खास विषय नहीं। पुलिस से लेकर मौसम तक बातचीत के सिलसिले टूट टूट कर जुड़ते रहे। मैं उन्हें, उनके अखबारों में, छपने वाले नियमित लेखो के द्वारा पढ़ता रहता था, तो उनसे अनजान नहीं था। देर तक बात हुयी। कुछ पारिवारिक निकटता भी निकल गयी और वैचारिक अंतः धारा की निकटता तो थी ही। उस समय मैं देवरिया में एडिशनल एसपी तैनात था। 

दूसरी मुलाकात, देवरिया में ही हुयी जब वे बनकटा चीनी मिल के एक विवाद के संबंध में आये थे। वे देवरिया आये और दो दिन रहे। इसमे वे एक दिन मेरे घर पर रुके। तब काफी बात हुई और फिर तो उसके बाद कई बार मुलाकातें हुयीं। बीच बीच मे फोन से भी बातचीत होती थी। बात भोजपुरी में और निजी हालचाल तक सीमित रहती थी। उनका सरल स्वभाव और जुझारूपन मुझे आकर्षित करता था। कभी कभी जब मैं उनके लेखों की चर्चा और तारीफ कर देता था तो पुलिस के मानवाधिकार के उल्लंघन पर कुछ न कुछ ज़रूर बोलते थे। 

कल उनके देहांत की खबर मिली। दुःख हुआ। वे बीमार थे। बलिया के ही एक कॉमन दोस्त से विस्तार से उनके बारे मे चर्चा हुयी। लम्बे समय से मेरा उनसे कोई  संपर्क नहीं रहा। कहते तो वे थे कि, कानपुर आइब, त आप के इहाँ आइब। पर वे कानपुर तो शायद एकाध बार आये भी, पर मेरे यहाँ नही आ पाए। उनसे मेरी कोई प्रगाढ़ मित्रता और नियमित  मुलाकात तो नहीं थी, पर धारा के विपरीत तैरते लोग मुझे बहुत आकर्षित करते हैं, और उनमें मैं एक नायकत्व ढूंढता था । वे एक चलते फिरते आंदोलन थे। 

मैं उनका प्रशंसक हूँ। सत्ता के खिलाफ, सत्ता की अहमन्यता के खिलाफ, शोषण के खिलाफ, उनके स्वर, उनकी जीवटता, और वंचितों के प्रति उनका जुझारूपन मुझे बहुत प्रभावित करता था। आज वे नहीं रहे तो यही सब स्मृतियां शेष हैं, जो बंद आँखे करने पर, फ्लैशबैक में ले जाती हैं। उनकी स्मृति को प्रणाम, और उनका विनम्र स्मरण। 
अलविदा कॉमरेड ! 

( विजय शंकर सिंह )

Thursday, 25 June 2020

भाजपा और सीपीसी संबंध - कहाँ मयखाने का दरवाजा, और कहाँ वाइज ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

भारत-चीन के बीच तनाव का दौर जारी है। दोनों देशों के बीच 1962 में एक बार जंग हो चुकी है। वहीं 1965 और 1975 में भी दोनों देशों के बीच हिंसक झड़पें हुई हैं। इन तारीख़ों के बाद ये चौथा मौका है जब भारत-चीन सीमा पर स्थिति इतनी तनावपूर्ण है।

भारत और चीन के बीच, लद्दाख की गलवान घाटी में युद्ध की संभावनाओं के बीच एक बार फिर से 7 अगस्त 2008 को बीजिंग में भारत की कांग्रेस पार्टी और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच जो समझौता हुआ, वो सुर्खियों में है।

बीजिंग में अगस्त 2008 में हुए ओलंपिक खेलों के दौरान भारत की तरफ से चीन के द्वारा तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, महासचिव राहुल गांधी को चीन के सरकारी मेहमान के तौर पर बुलाया गया था। बीजिंग ओलंपिक शुरू होने से पहले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कांग्रेस पार्टी के बीच एक अहम समझौता हुआ।

तत्कालीन राष्ट्रपति हू जिंताहु चीन की तरफ से और भारत की कांग्रेस पार्टी की तरफ से अध्यक्ष सोनिया गांधी इस समझौते के दौरान उपस्थित थे। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन उपाध्यक्ष, स्टैंडिंग कमेटी के मेंबर व पोलित ब्यूरो शी जिनपिंग और भारत की तरफ से कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी के बीच एमओयू पर हस्ताक्षर हुए।

इस एमओयू में क्या है यह तो कांग्रेस पार्टी और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ही बता सकती है। इस संबंध में एक याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी है और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने चीन से सांठगांठ के आरोप भी लगाए हैं । सरकार को इस गंभीर मामले की जांच करानी चाहिए।

लेकिन हैरानी की बात यह भी है कि, बीजिंग में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना और भाजपा संघ के नेताओ की मुलाकात भी उसी के एक साल बाद 2009 में हो रही है। 2009 में ही भारतीय जनता पार्टी और संघ के कुछ लोग चीन गए थे और कम्युनिस्ट पार्टी के साथ इनका भी एक समझौता हुआ था। कहाँ मयखाने का दरवाजा, कहाँ वाइज ग़ालिब, जैसी ही यह केर बेर का संग मुझे लग रहा है।


टाइम्स ऑफ इंडिया के 19 जनवरी 2009 के संस्करण में महुआ चटर्जी की एक स्टोरी अचानक जब गूगल पर कुछ ढूढते हुए सामने से गुजरी तो सोचा उसे पढूं और मित्रों को भी शेयर कर दूं। भाजपा और संघ तथा बीजेपी भले ही वैचारिक रूप से एक दूसरे के ध्रुवो पर हों पर दोनो ही राजनीतिक दलों के बीच एक गहरी मित्रता देखने को मिल रही है। यह आप को अचंभित कर देगी पर यह विचित्र किंतु सात्य जैसा मामला है।
2009 में भाजपा और आरएसएस का एक पांच सदस्यीय शिष्टमंडल चीन की राजधानी बीजिंग गया था। बीजिंग और शंघाई की यात्रा करने वाला यह शिष्ट मंडल चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के निमंत्रण पर गया था। वहां से यह शिष्टमंडल इस उम्मीद के साथ भारत आया कि दोनों ही राजनीतिक दलों ( भाजपा और सीपीसी ) में आपसी समझदारी बढ़ाने के लिये जरूरी कदम उठाए जाएंगे।

आरएसएस के बड़े नेता, उनके प्रवक्ता और जम्मूकश्मीर एक्सपर्ट राम माधव ने उस मीटिंग के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा था,
" यह आपसी बातचीत, बीजेपी और सीपीसी के बीच बातचीत का एक सिलसिला शुरू करेगी और एक दूसरे की स्थिति को बेहतर समझदारी के साथ समझने में सहायक होगी। "
"This interaction has helped in opening a channel of dialogue between BJP and CPC and also helped in understanding each other's position with greater clarity,"
RSS leader Ram Madhav told TOI.
आगे राम माधव ने कहा कि,
" जो तात्कालिक मुद्दे थे, वे आतंकवाद, वैश्विक आर्थिक परिदृश्य जिससे भारत और चीन दोनो ही जुड़े हुए हैं भी बात हुयी साथ ही , तिब्बत का मसला और अरुणाचल प्रदेश के सीमा विवाद जैसे जटिल मुद्दे, आदि पर भी विचार विमर्श हुआ। इस दल का नेतृत्व भाजपा नेता बाल आप्टे ने किया था।

एक रोचक तथ्य यह है कि चीन ने भारतीय माओवादी संगठनों से अपना कोई भी संबंध न होने की भी बात भी कही है। जब सीपीसी से उनका नक्सलाइट आंदोलन के विचार पूछा गया और यह कहा गया कि, नक्सल संगठन चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ को अपना नेता मानते हैं, तो सीपीसी के नेताओ ने कहा कि,
" भारतीय माओवादी जो कर रहे हैं, विशेषकर उनके हिंसात्मक आंदोलन, वह चीन की अधिकृत राज्य नीति नही है और न ही यह कहीं से माओवाद के भी निकट है।
"to support what the Indian Maoists are doing (referring to the violence) is not the state policy in China and neither is it anywhere close to Mao's ideology".


भाजपा की चीन के कम्युनिस्ट पार्टी से दूसरी शिष्टमंडल मुलाकात 2014 में हुयी और इसकी खबर आप बिजनेस स्टैंडर्ड के 15 नवम्बर 2014 के अंक में पढ़ सकते हैं। यह शिष्टमंडल एक सप्ताह के दौरे पर गया था। इस शिष्टमंडल का एजेंडा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की संगठनात्मक बारीकियों को समझना था। लौट कर शिष्टमंडल को भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह को अपनी रिपोर्ट देनी थी। 13 सदस्यीय दल का भ्रमण बीजिंग और गुयांगझाऊ शहरों का भ्रमण करना और यह समझना था कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का आंतरिक संगठन कैसा है तथा कैसे वे लोककल्याणकारी राज्य की ओर बढ़ रहे है, का अध्ययन करना था। शिष्टमंडल ने बीजिंग में स्थित सीपीसी के पार्टी स्कूल को भी देखा और उसकी गतिविधियों का अध्ययन किया।

जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पार्टी स्कूल के भ्रमण के औचित्य पर भाजपा के नेताओ से सवाल किया गया तो, भाजपा के तत्कालीन महासचिव श्रीकांत शर्मा ने कहा,
" भाजपा इस ग्रह की सबसे बडी पार्टी बनने के मंसूबे पर काम कर रही है, और भाजपा तथा सीपीसी दोनो ही कैडर आधारित राजनीतिक दल हैं। हमारा इतिहास बताता है कि कैसे हमने रचनात्मक आलोचनाओं से अपने दल का विकास किया है। "
“The BJP is working towards becoming the largest party on the planet, and both BJP and CPC are cadre based parties and can learn from each other. Our (BJP's) history is evidence of how our positive attitude to constructive criticism has contributed to our growth as a political party,”
BJP national secretary Shrikant Sharma said when asked about the visit of BJP members to CPC’s Party School.
इस शिष्टमंडल यात्रा के पहले भाजपा के युवा नेताओ का भी एक दल चीन की यात्रा पर जाकर लौट आया था। उस युवा दल का नेतृत्व सिद्धार्थनाथ सिंह ने किया था। इस दल ने भी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना से जुड़े पार्टी स्कूल देखे थे और उनका अध्ययन किया था। इस युवा दल के सदस्यो और नेता का चयन प्रधानमंत्री कार्यालय पीएमओ ने किया था। बीजेपी ने तब अपने सांसदों और विधायकों के लिये रिफ्रेशर कोर्स जैसे पाठ्यक्रम भी चलाये थे।

चीन गए इस शिष्टमंडल का नेतृत्व तब के लोकसभा सदस्य भगत सिंह कोश्यारी ने किया था जो अब महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं। भाजपा ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर के शिष्टमंडल के जाने के निम्न उद्देश्य बताये थे।
" यह शिष्टमंडल दोनो ही सत्तारूढ़ दलों के बीच एक मजबूत संबंध स्थापित करने पर ज़ोर देगा। "
“The delegation will also emphasize on establishing and strengthening relations between the two ruling parties,”
सुषमा स्वराज जो तब विदेश मंत्री थीं ने, इस यात्रा को
" दोनो देशों के बीच, राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक क्षेत्र में आ रही छोटी मोटी समस्याओं को सुलझाने में सहायक होने की बात कही । "
सुषमा स्वराज ने यह भी कहा कि, शिष्टमंडल को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और चीन की सरकार में जो हैं, उन्हें
" नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा भारत के सभी पड़ोसी देशों विशेषकर चीन के साथ संबंध सुधारने की जो नीति चल रही है के सकारात्मक कदमो को " बताना होगा।

भाजपा महासचिव राम माधव जो 2009 में खुद एक शिष्टमंडल के साथ चीन जा चुके थे ने इसे एक गुडविल विजिट बताया था। 2014 की इस यात्रा के पहले राम माधव सितंबर 2014 में भी बीजिंग गए थे और उन्होंने वहां शी जिनपिंग की बाद में होने वाली भारत यात्रा की पृष्ठभूमि तैयार की थी। जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आये थे तो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच भाजपा और सीपीसी के बीच नियमित और बेहतर विचार विमर्श की भूमिका और कार्यक्रम भी बना था।

भगत सिंह कोश्यारी के अतिरिक्त इस दल में, अन्य सांसद तरुण विजय, भोला सिंह, कामाख्या प्रसाद तासा, हरीश द्विवेदी, कर्नाटक के एमएलए, विश्वनाथ पाटिल, विश्वेश्वर अनन्त हेगड़े, बिहार के एमएलए विनोद नारायण झा, बिहार के एमएलसी, वैद्यनाथ प्रसाद, हरियाणा के एमएलए असीम गोयल, हिमाचल प्रदेश के एमएलए, वीरेन्द्र कंवर और उत्तरप्रदेश के एमएलए सलिल कुमार बिश्नोई थे।

2019 में भी भाजपा का एक प्रतिनिधिमंडल चीन गया था। इकॉनोमिक टाइम्स की खबर, 27 अगस्त 2019 के अनुसार, भाजपा का एक 11 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने चीन का दौरा किया था। इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व भाजपा के महासचिव अरुण सिंह ने किया था। यह यात्रा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के निमंत्रण पर की गयी थी। इस यात्रा का उद्देश्य अक्टूबर में होने वाली चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की प्रस्तावित यात्रा की भूमिका भी तैयार करना था।

यह यात्रा सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 के हटाने
और जम्मू कश्मीर का पुनर्गठन कर के लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के निर्णय के बाद हुयी थी। छह दिन के इस भ्रमण कार्यक्रम में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और चीन के अधिकारियों से मिलने का कार्यक्रम तय था। इस शिष्टमंडल के सदस्य और भाजपा के विदेशी मामलों के प्रभारी तथा आरएसएस से जुड़े तरुण विजय ने कहा,
" भाजपा और सीपीसी ने आपस मे दोनो दलों के बीच बेहतर तालमेल की संभावनाओं को तलाश करने की बात कही है। हमारा पार्टी नेतृत्व यह समझता है कि यह विचार विमर्श का एक उचित अवसर है जबकि चीनी राष्ट्रपति हाल ही में भारत का दौरा करने वाले हैं। "
"The BJP and CPC have discussed ways to enable greater exchanges between both parties. Our party leadership felt this was the right time for the exchange, considering the PM is set to meet the Chinese president shortly, "
said BJP's foreign affairs department in-charge Vijay Chauthaiwale, who is part of the delegation.

शिष्टमंडल की योजना, मोदी सरकार की मुख्य योजनाओं और नीतियों, और जो उचित प्रशासनिक कदम उठाए गए हैं, जैसे भ्रष्टाचार , आसान कराधान, गरीबो को उनके खाते में सीधे धन का आवंटन, आदि के बारे में विचार विमर्श करना। यात्रा के पहले यह प्रतिनिधिमंडल विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीन में हमारे राजदूत विक्रम मिश्री से भी मिला था। शिष्टमंडल के एक सदस्य के अनुसार,
" पार्टी अनुशासन का पाठ समझना और चीन की आर्थिक नीतियों और विदेशनीति पर उसके नियंत्रण को समझ कर हम भारत मे उसकी नीतियों के अनुसार काम कर सकते हैं। "
यह शिष्टमंडल चीनी थिंक टैंक और विधि निर्माताओं से भी मिलेगा और
" चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के आंतरिक सांगठनिक ढांचा, राजनीतिक क्रिया कलाप, और लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना में उसकी भूमिका का अध्ययन करेगा। "


2009, और 2014 में दो भाजपा शिष्टमंडल के चीनी दौरे के बाद 2015 में भाजपा मुख्यालय दिल्ली में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सेंट्रल कमिटी के इंटरनेशनल डिपार्टमेंट के मंत्री, वांग जियारूई ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात की थी। 2014 में चीन गए भाजपा के शिष्टमंडल ने, जिंसमे एमपी और एमएलए थे, सीपीसी के कुछ पार्टी स्कूलों का दौरा ग्वांग झाऊ में किया था, और चीन के मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किये गए सुधारों का भी अध्ययन किया था।

लेकिन 2019 में गए इस शिष्टमंडल का उद्देश्य दोनो देशों के बीच भाजपा और सीपीसी के विकास और प्रसार पर चर्चा करना था। साथ ही, मोदी और शी जिनपिंग की सरकारों के बीच पार्टी की मुख्य योजनाओं, और नीतियों, भारत चीन के द्विपक्षीय संबंधों, व्यापार की संभावनाओं तथा सांस्कृतिक आदान प्रदान पर भी विचार विमर्श करना था। साथ ही, अमेरिका द्वारा चीन पर उत्पाद शुल्क लगाने के मुद्दे, बेल्ट और रोड योजनाएं, चीन से संपर्क और यूरेशिया से उसकी कनेक्टिविटी और वर्तमान परिदृश्य में भारत चीन संबंध, पब्लिक हेल्थ, परंपरागत औषधियां, नगर विकास और आवास के मुद्दों पर भी विचार विमर्श करना था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि 2008 में कांग्रेस और सीपीसी के नेताओ से मुलाकात के बाद 2009 से 2019 तक भाजपा के नेताओ और सीपीसी के नेताओं से मुलाकात का सिलसिला बराबर चलता रहा है। कांग्रेस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच 2008 मे हुयी मुलाकात पर अगर सरकार को लेशमात्र भी सन्देह है कि वह मुलाकात भारत विरोधी कोई कृत्य है तो सरकार कार्यवाही करने के लिये सक्षम है।

लेकिन अगर कांग्रेस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच कोई विचार विमर्श हुआ है तो भाजपा ने भी तीन अवसरों पर अपने शिष्टमंडल भेजें हैं, फिर उसे किस नज़र से देखा जाय। कांग्रेस का कम्युनिस्ट प्रेम समझ मे आता है क्योंकि 2008 में यूपीए की सरकार वाम मोर्चा के सहयोग से चल रही थी। आज भी कांग्रेस कम्युनिस्ट न होते हुये भी समाजवादी समाज की बात जिसे डेमोक्रेटिक सोशलिज्म कहते हैं उसकी बात करती हैं।
पर भाजपा का तो दूर दूर तक मार्क्सवाद, समाजवाद, कम्युनिज़्म आदि शब्दों और विचारधारा से कोई मेल ही नहीं है। दोनो की दार्शनिक सोच,आर्थिक नीतियां, बिल्कुल ध्रुवों पर हैं। तब यह तालमेल थोड़ा चौंकाता है और यह जिज्ञासु भाव जगा देता है कि भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी में चीन की तीन यात्राओं में क्या पक रहा था।

( विजय शंकर सिंह )

कांग्रेस की चीन में 2008 की यात्रा.
https://www.indiatoday.in/…/congress-chinese-communist-part…

भाजपा नेता चीन में 2009 में.
https://timesofindia.indiatimes.com/…/articlesh…/3998378.cms

भाजपा नेता 2014 में चीन में.
https://www.business-standard.com/…/bjp-legislators-take-le…

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के नेता भाजपा मुख्यालय में 2015.
https://www.ndtv.com/…/senior-chinese-communist-party-offic…

भाजपा नेता चीन में 2015 में.
https://m.economictimes.com/…/bjp-…/articleshow/70851381.cms
#vss

Wednesday, 24 June 2020

रक्षा बजट और भारत. / विजय शंकर सिंह


भारत के रक्षा बजट पर बात करने के पहले हमें यह ध्यान में रखना होगा कि हमारी सीमाओं पर खतरा कहां से है । पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान है जिससे हमें खतरा पूरे पश्चिमी सेक्टर पर है जो पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर, गुजरात की कच्छ घाटी तक फैला हुआ है और फिर अरब सागर में पाकिस्तान की नौसेना से है।

उत्तर में चीन से खतरा अक्साई चिन, लद्दाख से होते हुए, लिपुलेख के पास भारत नेपाल चीन की सेना, फिर चिकेन नेक जो 22 किमी का गलियारा जो पूरे नॉर्थ ईस्ट से हमें जोड़ता है, से होते हुए, सिक्किम भूटान और चीन की साझी सीमा पर डोकलां, और फिर अरुणांचल का, तवांग जिसे चीन तिब्बत का एक हिस्सा मान कर अपना हक जताता है, तक है । लेकिन इधर चीन का सबसे अधिक आक्रामक रुख लद्दाख क्षेत्र में ही है और यही आगे बढ़ते बढ़ते पाक अधिकृत कश्मीर तक चला गया है । इसका कारण उसकी बेहद महत्वाकांक्षी और विस्तारवादी योजना वन बेल्ट वन रोड ओबीओआर है जो उसे ग्वादर से अरब सागर और आगे जाकर यूरोप को जोड़ती है। भारत के लिये यह दो खतरे सबसे अधिक हैं जिनसे भारत को सदैव सतर्क रहना पड़ेगा।

रक्षा बजट में समीक्षा के पहले इतिहासकार जेफ़री ब्लेनी की लिखी ये दो पंक्तियां पढ़ लीजिए...
" युद्ध आमतौर पर तब समाप्त होते हैं जब युद्ध कर रहे देश एक दूसरे की ताक़त को समझ जाते हैं और उस पर सहमति बना लेते हैं. और युद्ध आमतौर पर तब शुरू होते हैं जब यही देश एक - दूसरे की ताक़तों को समझने से इनकार कर देते हैं. "
युद्ध के संबंध में जेफरी ब्लेनी की इन महत्वपूर्ण शब्दो को बराबर ध्यान में रखा जाना चाहिए।

जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कि, भारत, चीन और पाकिस्तान जैसे अपने पड़ोसियों के बीच में फंसा हुआ है, और आज यह दोनों ही पड़ोसी देश परमाणु शक्तियों से लैस हैं। दक्षिण एशिया में भारत, चीन और पाकिस्तान तीनो ही देश परमाणु शक्ति सम्पन्न हैं और भारत की दुश्मनी दोनो ही पड़ोसी देशों से है। दोनों ही देशों से दुश्मनी का आधार अलग अलग है। पाकिस्तान से पुरानी दुश्मनी है, चार बार लड़ाइयां हो चुकी हैं, और आतंकी गतिविधियों के रूप में एक छद्म युद्ध लगातार ही चल रहा है पर चीन के साथ कुछ सीमा विवाद है जो रह रह कर उभर जाता है। इस बार गलवां घाटी की यह बड़ी घटना हो गयी, जिसमे हमारी बड़ी सैन्य जन हानि हुयी है। इन दोनों ही देशों के साथ भारत युद्ध लड़ चुका है और वर्तमान में छोटे-बड़े मुद्दों को लेकर इनके साथ भारत की तनातनी बनी रहती है

इन सबके बीच भारत के भीतर भी, जम्मूकश्मीर, नॉर्थ ईस्ट में तमाम आतंकी गतिविधियों की चुनौतियां मौजूद हैं जिन्हें सुलझाने के लिए समय समय पर, सेना की मदद सुरक्षा बलों को लेनी पड़ती है। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए देश को एक मज़बूत सेना की आवश्यकता पड़ती है और हमारे पास एक सक्षम सेना है भी। फिर भी, उनकी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए कई तरह की कोशिशें और योजनाएं सरकार चलाती रहती है। यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है।

सरकारें हर साल पेश किए जाने वाले आम बजट में ही रक्षा बजट के प्राविधान रखती है। रक्षा बजट में मोटे तौर पर दो तरह के मुख्य प्रविधान हैं, एक सैन्य बल के वेतन, भत्ते, पेंशन, और सभी तरह के इस्टेबलिशमेंट के खर्चे से संबंधित है और दूसरा शस्त्रास्त्र और उनके निरन्तर होते हुए आधुनिकीकरण के व्यय से जुड़ा है । आधुनिकीकरण पर व्यय की जब बात आती है तो सरकारे अक्सर अपना हांथ खींच लेती है और कोशिश करती हैं कि यह व्यय टल जाय और इसका पैसा कहीं और व्यय हो जाय। आधुनिकीकरण एक सतत प्रक्रिया है और रक्षा उत्पाद, उपकरणों आदि में निरन्तर शोध होते रहते हैं। उन्ही शोधों को प्रयोगशाला से ज़मीन पर उतारने की प्रक्रिया ही सतत हो रहे आधुनिकीकरण का एक पक्ष है। शोध और फिर उसके व्यावसायिक उत्पादन में व्यय होता ही है और वह व्यय धरातल पर न तो दिखाई देता है और न ही उसकी चर्चा होती है तो कभी कभी लगता है कि वह बेमतलब का खर्च है। पर ऐसा बिलकुल भी नहीं है। भारत मे भी डीआरडीओ सहित अनेक उन्नत प्रयोगशालाएं हैं जो निरन्तर शोध करती रहती हैं। ज़रूरत है कि, उन्हें वैज्ञानिक शोधों की ओर और पेशेवराना तरीके से प्रोत्साहित किया जाय।

'हम देश के जान दे देंगे' जैसे उत्साहपूर्ण शब्द तब तक केवल एक जुमले ही साबित होंगे जब तक कि हम रक्षा को अपनी प्राथमिकता में न ले आएं। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब देश की नई सरकार बनी तो हमारे पास एक फ़ुल-टाइम रक्षा मंत्री तक नहीं था। अरुण जेटली, जो कि वित्त मंत्रालय संभाल रहे थे उन्हें ही रक्षा मंत्रालय का अतिरिक्त कार्यभार सौंपा गया था। उस समय कई लोगों ने यह माना था कि इससे देश की सेना को फ़ायदा पहुंचेगा क्योंकि वित्त मंत्री के हाथ में ही रक्षा मंत्रालय भी रहेगा तो धन की कमी नहीं होगी। लेकिन क्या आगे चल कर ऐसा हुआ भी ? अब इसे देखते हैं।

● 10 जुलाई 2014 को अरुण जेटली ने नई सरकार का पहला बजट पेश किया. इसमें उन्होंने 2,33,872 करोड़ रुपए सेना के लिए आवंटित किए।
● यह आंकड़ा यूपीए सरकार के ज़रिए फ़रवरी 2014 में पेश किए गए अंतिम बजट से क़रीब 5 हज़ार करोड़ रुपए अधिक था।
● इस तरह एनडीए ने मोटे तौर पर सेना के लिए होने वाले ख़र्च में 9 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की।
● इसके बाद एनडीए सरकार का पहला पूर्ण बजट 28 फ़रवरी 2015 में पेश किया गया. इस बजट में पिछले बजट की तरह ही रक्षा के लिए आवंटित ख़र्च 2,55,443 करोड़ रुपए रखा गया.
● इसके अगले साल 29 फ़रवरी 2016 को जब जेटली ने बजट पेश किया तो उन्होंने सेना पर ख़र्च का ज़िक्र नहीं किया. इस पर कई लोगों ने सवालिया निशान भी उठाए।

यह अनुमान लगाया जा रहा था कि रक्षा बजट में दो प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी। इस बजट को पेश करने से कुछ वक़्त पहले यानी 15 दिसंबर 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अलग-अलग सेनाओं के कमांडरों की संयुक्त बैठक में बोल चुके थे, कि,
"मौजूदा समय में तमाम बड़ी शक्तियां अपने सैन्यबलों को कम कर रही हैं और आधुनिक उपकरणों और तकनीक पर अधिक ध्यान लगा रही हैं. जबकि हम अभी भी अपने सैन्यबल को ही बढ़ा रहे हैं. एक ही समय पर सेना का विस्तार और उसका आधुनिकीकरण करना मुश्किल और ग़ैरज़रूरी लक्ष्य है."

● 1 फ़रवरी 2017 को जब वित्त मंत्री एक बार फिर बजट के साथ हाज़िर हुए तो उन्होंने रक्षा बजट के तौर पर 2,74,114 करोड़ रुपए आवंटित किए.

पिछले बजट से बिलकुल उलट इस बार के बजट में क़रीब 6 प्रतिशत की वृद्धि थी। रक्षा मंत्रालय के फंड से चलने वाले इंस्टिट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज़ एंड एनालिसिस (आईडीएसए) के लिए लिखते हुए रिसर्च फ़ैलो लक्ष्मण के. बेहरा ने इसे अपर्याप्त बजट बताया था।

● उसके बाद अपने कार्यकाल का पहला बजट और सरकार के कार्यकाल का आख़िरी बजट पेश करते हुए पीयूष गोयल ने कहा,
"पहली बार हमारा रक्षा बजट 3 लाख करोड़ के पार पहुंचने जा रहा है." इस बार के रक्षा बजट में 3,18,847 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं. पिछले बजट के मुकाबले इसमें आठ प्रतिशत की वृद्धि है।

तो अब सवाल यह उठता है कि रक्षा बजट के मामले में क्या एनडीए की सरकार यूपीए से अधिक कारगर साबित हुई है?

रक्षा मंत्रालय में पूर्व वित्त सलाहकार रह चुके अमित कॉविश इस बारे में कहते हैं,
"दोनों सरकारों के बीच अगर हम आंकलन करें तो एक जैसा ही ट्रेंड देखने को मिलता है. हालांकि बजट आंवटन में जो अंतर नज़र आता है वह स्वाभाविक अंतर है. क्योंकि 15 साल में इतना अंतर तो आना ही था। "

अब वरिष्ठ सैन्य अफ़सरों और सांसदों (जिनमें बीजेपी के सांसद भी शामिल है) की राय पढिये तो यह पता चलता है कि रक्षा के प्रति हम कितने सजग और सतर्क हैं।

● नवंबर 2018 को भारतीय नौसेना प्रमुख एडमिरल सुनील लांबा ने कहा था,
"जीडीपी के प्रतिशत में भले ही गिरावट आई हो लेकिन जैसा कि हमसे वादा किया गया था रक्षा बजट लगातार ऊपर ही बढ़ा है. हम चाहते हैं इसमें और वृद्धि होती रहे, हालांकि कुछ अड़चनें ज़रूर हैं और हम सभी उनसे अवगत भी हैं.।"

● 25 जुलाई 2018 को बीजेपी के सांसद डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी ने कहा था, "जीडीपी के 1.56 प्रतिशत हिस्सा रक्षा पर खर्च किया जा रहा है। साल 1962 में चीन से युद्ध के बाद से यह सबसे निचले स्तर पर है। भारत जैसे बड़े देश के लिए सका रक्षा बजट बहुत अहम होता है।"

● मार्च 2018 को संसदीय समिति में आर्मी स्टाफ़ के उप प्रमुख ने कहा,
"साल 2018-19 के बजट ने हमारी उम्मीद को खत्म कर दिया. हमने जो कुछ भी प्राप्त किया था उन्हें थोड़ा-सा झटका तो लगा है. ऐसे में अब हमारी समिति के बहुत से पुराने खर्च और बढ़ जाएंगे।"

● मार्च 2018 को संसदीय समिति ने रक्षा बजट पर कहा था,
"बीते कुछ सालों में वायु सेना के लिए होने वाले खर्च के हिस्से में गिरावट आई है. वायु सेना को आधुनिक बनाने के लिए जिस खर्च की आवश्यकता है उसमें भी गिरावट दर्ज की गई है। साल 2007-08 में कुल रक्षा बजट में इसका हिस्सा जहां 17.51 प्रतिशत था वहीं साल 2016-17 में यह गिरकर 11.96 प्रतिशत पर आ गया.।

लेकिन, 2020-21 के रक्षा बजट में 6 फीसद की बढ़ोतरी की गयी है, जो एक अच्छी खबर है । इसको 2019-20 की तुलना में 3.18 लाख करोड़ से बढ़ाकर 3.37 लाख करोड़ कर दिया गया है। इस बजट में सेना के आधुनिकीकरण और नए और अत्याधुनिक हथियारों की खरीद के लिए सेना को 1,10,734 करोड़ का आवंटन किया गया है। वर्ष 2019-20 में इस क्षेत्र के लिए दिए गए बजट से ये राशि अधिक है। इस बजट में यदि रक्षा पेंशन को भी जोड़ा जाए तो इस बार का ये बजट करीब 4.7 लाख करोड़ का है। इस बार रक्षा पेंशन के बजट को पिछले वर्ष की तुलना में 1.33 लाख करोड़ से बढ़ाकर 1.77 लाख करोड़ किया गया है।

चीन की तुलना में भारत का रक्षा बजट काफी कम रहा है। चीन का रक्षा बजट भारत से तीन गुना ज्यादा है। वहीं भारत इस क्षेत्र पर अपनी जीडीपी का दो फीसद से भी कम खर्च करता आया है। हालांकि रक्षा जानकार हर बार रक्षा बजट को जीडीपी के तीन फीसद तक करने की मांग करते रहे हैं। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना भारत में है। पाकिस्तान और चीन जैसे खतरों से निपटने के लिए भारत को अपने रक्षा बजट पर ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं। भारत रक्षा बजट पर खर्च के मामले में दुनिया में 6 वें स्थान पर था, पर अब और ऊपर आ गया है । हाल ही में भारत ने सउदी अरब को पीछे छोड़ते हुए सबसे ज्यादा हथियार आयत करने वाले देशों में पहले नंबर आ गया है। हालांकि अब तमाम भारतीय और विदेशी कंपनियां भारत के रक्षा उपक्रमों में निवेश कर रही हैं। अर्जुन टैंक, तेजस फाइटर जेट इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इसके अलावा भारत धनुष तोप, मल्टी बैरल रॉकेट सिस्टम पिनाका, इंन्सास राइफल, बुलेटप्रूफ जैकेट-हेलमेट, सेना के लिए विशेष ट्रक-गाड़ियां, मिसाइल, अरिहंत पनडुब्बी, एयरक्राफ्ट कैरियर जैसे तमाम हथियार और सैन्य उपकरण बना रहा है। वहीं अमेरिकी कंपनी लॉकहीड मार्टिन भारत में F-16 लड़ाकू विमान का कारखाना खोलने में रुचि दिखा रही है। कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत धीरे-धीरे रक्षा उपकरणों के मामले में आत्मनिर्भर हो रहा है।

अब दुनिया के कुछ प्रमुख देशों के रक्षा बजट पर एक नज़र डालें।

अमेरिका
दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका अपने रक्षा खर्चों में किसी तरह की ढील नहीं होने देता है। अमेरिका का कुल रक्षा बजट 596 बिलियन डॉलर है, जो कि अमेरिका के कुल जीडीपी का 3.3 फीसदी है।

चीन
ग्लोबल पॉवर बनने की चाहत रखने वाला चीन हर साल अपना रक्षा बजट बढ़ाता रहता है। चीन के बारे में ये भी कहा जाता है कि उसका छुपा हुआ रक्षा खर्च बताए गए रक्षा बजट से बहुत ज्यादा होता है। फिलहाल चीन रक्षा खर्च के मामले में दुनिया में दूसरे स्थान पर है चीन का कुल रक्षा बजट 215.0 बिलियन डॉलर है जो कि चीन की जीडीपी का 1.9 फीसदी है।

सऊदी अरब
तेल का उत्पादन करने वाला देश सऊदी अरब अपने रक्षा उपक्रमों पर जमकर खर्च करता है। सऊदी अरब का कुल रक्षा बजट 87.2 बिलियन डॉलर है जो कि उसकी कुल जीडीपी का 13.2 फीसदी है।

रुस
दुनिया का सबसे बड़ा देश रुस अपने रक्षा बजट पर खर्च के मामले में चौथे स्थान पर आता है। रुस का कुल रक्षा बजट 66.4 बिलियन डॉलर है जो कि उसके कुल जीडीपी का 5.4 फीसदी है। रुस दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े निर्यातको में से एक है।

यूनाइटेड किंगडम
यूरोप का सबसे शक्तिशाली देश ब्रिटेन अपने रक्षा बजट पर किसी भी यूरोपीय देश से ज्यादा खर्च करता है। ब्रिटेन का कुल रक्षा बजट 55.5 बिलियन डॉलर है जो कि ब्रिटेन की जीडीपी का 2.0 फीसदी है। रक्षा बजट पर खर्च के मामले में ब्रिटेन 5वें स्थान पर है।

फ्रांस
फ्रांस रक्षा बजट पर खर्च के मामले में 7वें स्थान पर आता है। फ्रांस का कुल रक्षा बजट 50.9 बिलियन डॉलर है जो कि फ्रांस की कुल जीडीपी का 2.1 फीसदी है।

जापान
रक्षा बजट पर खर्च के मामले में जापान दुनिया में 8वें स्थान पर है। जापान का कुल रक्षा बजट 43.6 बिलियन डॉलर है जो कि जापान की कुल जीडीपी का 1.4 फीसदी है।

जर्मनी
जर्मनी रक्षा खर्च के मामले में दुनिया में 9वें स्थान पर है। जर्मनी का कुल रक्षा बजट 39.4 बिलियन डॉलर है जो कि जर्मनी की जीडीपी का 1.2 फीसदी है।

दक्षिण कोरिया
युद्ध के मुहाने पर खड़ा दक्षिण कोरिया रक्षा बजट पर खर्च के मामले में 10 वें स्थान पर आता है। दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया के बीच लगातार युद्ध की स्थिति बनी रहती है। दक्षिण कोरिया की सुरक्षा का ज्यादातर भार अमेरिका के हिस्से में है, खासकर कि अमेरिकी युद्धपोत हर वक्त दक्षिण कोरिया की समुद्री सीमा में तैनात रहते हैं।

रक्षा बजट को आंकड़ो की नज़र से नहीं खतरे की आशंका की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। ऊपर जिन देशों के नाम और उनके रक्षा बजट का उल्लेख किया गया है, उसमे किसी को भी अपने पड़ोस से उतना खतरा नहीं है, जितना भारत को है। इस खतरे को कम करने के लिये, राजनयिक और कूटनीतिक प्रयास तो होते ही रहते हैं पर जब तक देश रक्षा के मामले में साधन संपन्न नहीं होता कूटनीतिक बातचीत का कोई असर नहीं होता है।

और अंत मे एक लघु प्रसंग पढ़ लें।
जनरल मांटगोमरी एक परेड का निरीक्षण कर रहे थे। उन्होंने एक सैनिक से जो उनके सामने तन कर और निगाह सौ गज दूर किये अविचल खड़ा था, पूछा,
" तुम देश के लिये क्या कर सकते हो ? "
सैनिक ने बिना हिले कहा,
" मैं देश के लिये जान दे सकता हूँ । "
जनरल ने सैनिक की बेल्ट खींची और कंधे पर हांथ मारते हुए, तेज़ आवाज में, जोश दिलाते हुए कहा,
" मूर्ख, देश के लिये जान देने की नही, जान लेने की ज़रूरत है। तुम लड़कर मरने के लिये प्रशिक्षित नहीं हुए हो । तुम दुश्मन को मार कर उसे भगाने के लिये गढ़े गए हो। समझे।

( विजय शंकर सिंह )




Tuesday, 23 June 2020

गलवां घाटी आखिर है किसकी / विजय शंकर सिंह


15 जून को एक बेहद गम्भीर और व्यथित कर देने वाली खबर, देश को मिली, कि गलवां घाटी जो लद्दाख के भारत चीन सीमा पर स्थित लाइम ऑफ एक्चुअल कंट्रोल, एलएसी पर है, में हुयी एक झडप में, हमारे एक कर्नल सुरेश बाबू जो बिहार रेजिमेंट के थे, सहित कुल 20 जवान शहीद हो गए। भारत चीन की सीमा पर स्थित यह घटना भारत चीन विवाद के इतिहास में 1962 के बाद की सबसे बड़ी घटना है जिसकी व्यापक प्रतिक्रिया देश भर में हुयी। लेकिन सरकार की तरफ से कोई त्वरित जवाबी कार्यवाही अब तक नही की गयी जबकि इसकी पुरजोर मांग देश भर में उठ रही है। हो सकता है सेना, इस हमले का जवाब देने के लिये उचित समय और अवसर की प्रतीक्षा में हो, या कोई अन्य उचित कूटनीतिक और सैन्य रणनीति बना रही हो।
1962 में जब चीन ने हमला किया था तो गलवां घाटी और पयोग्योंग झील के आगे 8 पहाड़ियों वाले घाटी का इलाका जिसे फिंगर्स कहते हैं, एक अनौपचारिक रूप से तय की हुयी सीमा रेखा बनी जिसे एलएसी कहा गया। वास्तविक सीमा के निर्धारण और भौगोलिक जटिलता के कारण कभी हम उनके तो कभी वे हमारे क्षेत्र में चले आते थे। 1993 में हुए एक भारत चीन समझौते के अंतर्गत यह तय किया गया, कि उभय पक्ष हथियार का प्रयोग नहीं करेंगे। लेकिन अचानक, 15 जून को यह घटना हो गयी जिसने हमारी कूटनीति और भारत चीन के बीच चले आ सम्बन्धो के खोखलेपन को उजागर कर दिया।
समझौते की शर्तें, इस प्रकार हैं,
1. भारत चीन सीमा के संदर्भ में, दोनो पक्ष, इस बात पर सहमत हैं कि, वे इस विवाद को शांतिपूर्ण और दोस्ताना बातचीत से हल करेंगे।
कोई भी पक्ष एक दूसरे को न तो धमकी देगा और न ही बल का प्रयोग करेगा। इसका अर्थ यह है कि, जब तक सीमा विवाद का शांतिपूर्ण समाधान न हो जाय तब तक, दोनो ही पक्ष एलएसी की स्थिति का सम्मान करेंगे।
किसी भी परिस्थिति में कोई भी पक्ष एलएसी का उल्लंघन नहीं करेगा। अगर ऐसा किसी भी पक्ष ने किया भी है तो वह तुरन्त वापस अपने क्षेत्र में चला जायेगा। अगर आवश्यकता होती है तो दोनो ही पक्ष मिल बैठ कर इस मतभेद को सुलझाएंगे।
2. दोनो ही पक्ष, एलएसी के पास अपना न्यूनतम बल तैनात करेंगे जैसा कि दोस्ताने और अच्छे पड़ोसी वाले देशों के बीच होता है।
दोनों ही पक्ष आपस मे बात कर के अपने अपने सैन्यबल को कम संख्या में नियुक्त करेंगे। सैन्यबल, एलएसी से कितनी दूरी पर, किस समय और कितना कम रखा जाय, यह दोनो देशों से विचार विमर्श के बाद तय किया जाएगा।
सैन्यबल की तैनाती दोनो ही पक्षो के बीच आपसी सहमति से तय की जाएगी।
3. दोनो ही पक्ष आपसी विचार विमर्श से एक दूसरे पर भरोसा बनाये रखने के उपाय, आपसी विचार विमर्श से ढूंढेंगे।
दोनो ही पक्ष एलएसी के पास कोई विशेष सैन्य अभ्यास नहीं करेंगे।
दोनो ही पक्ष अगर कोई विशेष सैन्य अभ्यास करते हैं तो, वे एक दूसरे को इसकी सूचना देंगे।
4. अगर एलएसी के पास कोई आकस्मिक बात होती है तो दोनो ही पक्ष आपस मे बैठ कर इस समस्या का समाधान, सीमा सुरक्षा अधिकारियों के साथ मिल कर निकालेंगे।
ऐसी आपसी मीटिंग और संचार के चैनल का स्वरूप क्या हो, यह दोनो ही पक्ष आपसी सहमति से तय करेंगे।
5. दोनो ही पक्ष इस बात पर सहमत है कि, दोनो ही क्षेत्र में कोई वायु घुसपैठ भी न हो, और अगर कोई घुसपैठ होती भी है तो उसे बातचीत से हल किया जाय।
दोनो ही पक्ष इस बात पर सहमत हैं कि, उस क्षेत्र के आसपास, दोनो मे से, कोई भी देश वायु अभ्यास नहीं करेंगे।
6. दोनो ही पक्ष इस बात पर सहमत हैं कि, यह समझौता, जिसमें, एलएसी के बारे में जो तय हुआ है वह सीमा पर अन्यत्र जो सैन्य नियुक्तियां हैं, उन पर कोई प्रभाव नहीं डालता है।
7. दोनो ही पक्ष इस बात पर सहमत होंगे कि, आपसी विचार विमर्श से ही सैन्य निरीक्षण का कोई तँत्र विकसित करेंगे जो सैन्य बल को कम से कम करने पर और इलाके में शांति बनाए रखने पर विचार करेगी।
8. दोनो ही पक्षो के इंडो चाइना वर्किंग ग्रुप, कूटनीतिक और सैन्य विशेषज्ञों के दल गठित करेंगे जो आपसी विचार विमर्श से इस समझौते को लागू कराने का विचार करेंगे।
संयुक्त कार्यदल के विशेषज्ञ एलएसी के दोनों तरफ की समस्याओं के समाधान को सुझाएंगे, और कम से कम सेना का डिप्लॉयमेंट कैसे बना रहे, इसकी राह निकलेंगे।
विशेषज्ञ, संयुक्त कार्यदल को इस समझौते के लागू करने में सहायता देंगे। समय समय पर अगर कोई समस्याएं उत्पन्न होती हैं तो, उन्हें सदाशयता और परस्पर विश्वास के साथ हल करेंगे।
यह समझौता यूएन की साइट पर उपलब्ध है और सार्वजनिक है। यह समझौता मैंने इसलिए यहां प्रस्तुत किया है कि हमारे सैनिकों के निहत्थे होने के तर्क के बारे यह कहा जा रहा है कि वे1993 के समझौते के कारण निहत्थे थे, जबकि इस समझौते में ऐसा कोई उल्लेख नही है कि ट्रुप हथियार नहीं रखेंगे।
15 जून की हृदयविदारक घटना और चीन के धोखे के बाद पूरा देश उद्वेलित था, और इसी की कड़ी में 19 जून को प्रधानमंत्री द्वारा सर्वदलीय बैठक बुलाई गयी, और उस सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री जी ने चीन के घुसपैठ पर जो कहा उससे देश भर में बवाल मचा। पीएमओ के ट्वीट और एएनआई की खबर के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने आज सर्वदलीय मीटिंग में जो कहा , पहले उसे पढ़े। पीएम ने कहा,
" न तो हमारी सीमा में कोई घुसा था, और न ही हमारी चौकी पर किसी ने कब्जा किया था। हमारे 20 जवान शहीद हो गए। जिन्होंने, भारत माता के प्रति ऐसा दुस्साहस किया है, उन्हें सबक सिखाया जाएगा। "
प्रधानमंत्री के इस यह बयान से, भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गयी और तत्काल निम्न सवाल उठ खड़े हो गए।
● जब कोई अंदर घुसा ही नहीं था और किसी चौकी पर घुसने वाले ने कब्जा तक नहीं किया था,तो फिर विवाद किस बात का क्या था ?
● जब विवाद नहीं था तो फिर 6 जून 2020 को जनरल स्तर की फ्लैग मीटिंग क्यों तय की गयी थी ?
● फ्लैग मीटिंग में फिर क्या तय हुआ जब कोई घुसा ही नहीं था तो ?
● जब कोई घुसा ही नहीं था तो वह ढाई किमी वापस कहाँ गया ?
● जब कोई घुसा ही नहीं था तो हमारे अफसर और जवान क्या करने चीन के क्षेत्र में गए थे जहाँ 20 जवान और एक कर्नल संतोष बाबू शहीद हो गए ?
● अगर कोई घुड़ा ही नहीं था तो यह झड़प किस बात के लिये थी ?
● फिर तो वे घुसने की कोशिश कर रहे थे कि झड़प हुयी अगर ऐसा है तो ऐसा एक ही दशा में सम्भव है जब वे हमारे इलाके में घुसे और हम प्रतिरोध करें। यह तो घुसपैठ ही है और आक्रमण भी ?
● अभी दो तीन पहले तो उन्होंने कहा था कि मार कर मरे हैं। फिर यह मार की नौबत आयी क्यों ?
● अब कही चीन यही स्टैंड न ले ले कि हम तो अपनी ज़मीन पर ही थे। वे ही आये थे तो झड़प हो गयी।
प्रधानमंत्री के इस बयान से एक नया रहस्य गहरा गया है कि गलवां घाटी में असल मे हुआ क्या था, और अब वर्तमान स्थिति क्या है ? प्रधानमंत्री के इस बयान पर राजनीतिक दलों सहित बहुत लोगो की प्रतिक्रिया आयी। पर हम राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया को अलग कर दें तो सबसे चिंताजनक प्रतिक्रिया देश के भूतपूर्व सैन्य अफसरों की हुयी। सेना के अफसर गलवां घाटी के सामरिक महत्व को समझते है औऱ पीएम द्वारा यह कह दिए जाने से कि 'कोई घुसपैठ हुयी ही नहीं थी', हमारी सारी गतिविधयां जो भारत चीन सीमा पर अपनी ज़मीन को बचाने के लिये हो रही हैं, वह अर्थहीन हो जाएंगी। हालांकि इसके एक दिन बाद शनिवार को प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने उनके इस बयान पर स्पष्टीकरण दिया और कहा कि गलवान घाटी में हिंसा इसलिए हुई क्योंकि चीनी सैनिक एलएसी के पास कुछ निर्माण कार्य कर रहे थे और उन्होंने इसे रोकने से इनकार कर दिया। लेकिन इस स्पष्टीकरण से जो भ्रम फैला वह दूर नहीं हुआ।
अब कुछ भूतपूर्व सैन्य अधिकारियों की इस बयान पर उनकी प्रतिक्रिया देखें।
● कर्नल अजय शुक्ला का कहना है,
" क्या हमने नरेन्द्र मोदी को आज टेलिविज़न पर भारत-चीन की सीमा रेखा को नए सिरे से खींचते हुए नहीं देखा ? मोदी ने कहा कि भारत की सीमा में किसी ने अनुप्रवेश ( घुसपैठ ) नहीं किया । क्या उन्होंने चीन को गलवान नदी की घाटी और पैंगोंग सो की फ़िंगर 4-8 तक की जगह सौंप दी है, जो दोनों एलएसी में हमारी ओर पड़ते हैं, और जहां अभी चीनी सेना बैठ गई है ? मोदी यदि आज कहते हैं कि भारत की सीमा में किसी ने भी अनुप्रवेश नहीं किया है तो फिर झगड़ा किस बात का है ? क्यों सेना-सेना में संवाद हो रहा है, क्यों कूटनीतिक बातें चल रही है, सेनाओं के पीछे हटने का क्या मायने है, क्यों 20 सैनिक मारे गए ?
भारत के 20 सैनिकों ने भारत की सीमा में घुस आए अनुप्रवेशकारियों को पीछे खदेड़ने के लिये अपने प्राण गँवाए हैं । लेकिन मोदी कहते हैं कि भारत की सीमा में कोई आया ही नहीं । तब उन सैनिकों ने कहाँ जान गँवाई ? क्या मोदी चीन की बात को ही दोहरा रहे हैं कि उन्होंने चीन में अनुप्रवेश किया था ? "
● लेफ़्टिनेंट जैनरल प्रकाश मेनन ट्वीट कर के कहते हैं,
" मोदी ने समर्पण कर दिया है और कहा है कि कुछ हुआ ही नहीं है । भगवान बचाए ! उन्होंने चीन की बात को ही दोहरा कर क्या राष्ट्रद्रोह नहीं किया है ? इसमें क़ानूनी/ संवैधानिक स्थिति क्या है । कोई बताए ! "
● मेजर जैनरल सैन्डी थापर ने जो ट्वीट किया वह इस प्रकार है,
" न कोई अतिक्रमण हुआ और न किसी भारतीय चौकी को गँवाया गया ! हमारे लड़के चीन की सीमा में घुसे थे उन्हें ‘खदेड़ने’ के लिए ? यही तो पीएलए कह रही है । हमारे बहादुर बीस जवानों के बलिदान पर, जिनमें 16 बिहार के हैं, महज 48 घंटों में पानी फेर दिया गया ! शर्मनाक ! "
● मेजर बीरेन्दर धनोआ ने सीधे स्स्वाल पूछा है,
" क्या हम यह पूछ सकते हैं कि ‘मारते-मारते कहाँ मरें ? "
● मेजर डी पी सिंह जो उस इलाके में सेवा दे चुके है, की प्रतिक्रिया है,
" प्रधानमंत्री को सुना । मेरे या किसी भी सैनिक के जज़्बे को कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकता है । मैंने सोचा था वे उसे और ऊँचा उठायेंगे । मैं ग़लत सोच रहा था । "
यह भी खबर आयी कि चीन के कब्जे में हमारे 10 सैनिक थे, जिन्हें चीन ने बाद में छोड़ा। इस पर आज तक भ्रम बना हुआ है। सरकार कह रही है कि, चीन के कब्जे में एक भी सैनिक नहीं था ? पर इंडियन एक्सप्रेस और द हिन्दू की खबर है कि, 10 सैनिक जिंसमे कुछ कमीशंड अफसर भी चीन के कब्जे में थे, जिन्हें बाद में छोड़ा गया। अब अगर, सरकार को लगता है कि दोनो प्रतिष्ठित और बड़े अखबार गलत खबर दे रहे हैं तो सरकार उनसे इन खबरों का खंडन करने के कहे और ये खेद व्यक्त करें।
आखिर गलवां घाटी किसकी टेरिटरी में इस समय है ? हमारी या फिर चीन की ? यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है। क्योंकि सारा विवाद ही चीन द्वारा हमारे क्षेत्र में एलएसी पार कर घुसपैठ करने के कारण शुरू हुआ है। पर हमारे पीएम और चीन के प्रवक्ता एक ही बात कह रहे हैं कि कोई घुसा नहीं था तो फिर यह झड़प, 20 सैनिकों की शहादत, और सैनिक अस्पतालों में पड़े हमारे घायल सैनिक, हुए कैसे ?
प्रधानमंत्री के पहले, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री ने चीनी घुसपैठ की बात स्वीकार की थी, उनके बयान देखें।
इसी सम्बंध में 2 जून को रक्षामंत्री ने कहा,
" महत्वपूर्ण संख्या ( साइज़ेबल नम्बर ) में चीनी सेनाओं में लदाख में घुसपैठ की है, और अपने इलाके में होने का दावा किया है। "
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि, चीन की पीएलए हमारे इलाके में घुस कर बंकर बना रही है।
13 जून को, थल सेनाध्यक्ष जनरल प्रमोद नरवणे ने कहा,
" चीन से लगने वाली हमारी सीमा पर स्थिति नियंत्रण में है, दोनों पक्ष चरणों में अलग हो रहे हैं। हमलोगों ने उत्तर में गलवान नदी क्षेत्र से शुरुआत की है ।"
15 जून को यह दुःखद शहादत होती है और फिर प्रधानमंत्री का 19 जून को यह बयान आता है, जिससे भ्रम उत्पन्न हो गया है।
यह भी सवाल उठता है कि, क्या मंत्रिमंडल में गलवां घाटी और चीन को लेकर कोई मतभेद है या लोगों के अलग अलग स्टैंड क्यों हैं ?
यह घटना बेहद गम्भीर है और ऐसे अवसर पर संसद का आपात अधिवेशन बुलाया जाना चाहिए। संसद में सरकार गलवां घाटी और लद्दाख से लेकर अरुणांचल तक जहां जहाँ चीन घुसपैठ कर रहा है, वहां वहां के बारे में सरकार विस्तार से एक बयान जारी करे। जनता को संसद के अधिवेशन के माध्यम से सच जानने का अधिकार है और सरकार सच बताने के लिये बाध्य है। सरकार ने शपथ ली है कि, " मैं भारत की संप्रभुता एवं अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा। " लेकिन गलवां घाटी के बारे में प्रधानमंत्री का कथन देश की अखंडता के अक्षुण रखने की शपथ से मेल नहीं खाता है। जबकि शपथ की पहली पंक्ति ही यही है। अखंडता और अक्षुण्णता सरकार की पहली प्राथमिकता और परम दायित्व है।
अब पीएम के ही बयान के आधार पर चीन भी यही कह रहा है कि, वह तो भारत की सीमा में घुसा ही नहीं था। हालांकि सर्वदलीय बैठक में कही गयी बात संसद के दिये गए बयान की तुलना में कम महत्वपूर्ण है, इसलिए भी स्थिति को स्पष्ट करने के लिये संसद का आपात अधिवेशन बुलाया जाना ज़रूरी है। ताकि सरकार स्पष्टता के साथ, अपनी बात कह सके। इस अधिवेशन में केवल एक ही विषय सदन के पटल पर केंद्रित हो जो केवल चीनी सेना द्वारा हमारी सीमा के अतिक्रमण से जुड़ा हो। जैसे,
● चीन की लदाख क्षेत्र में घुसपैठ,
● गलवां घाटी की वास्तविक स्थिति,
● 20 शहीद और अन्य घायल सैनिकों के बारे में, क्यों, और कैसे यह दुःखद घटना घटी है।
● अरुणांचल में चीनी गतिविधियां
और अंत मे,
● सरकार का अगला कदम क्या होगा,
इस पर ही केंद्रित हो।
यह कोई सामान्य देशज प्रकरण नहीं है बल्कि यह मामला सामरिक महत्व के लद्दाख क्षेत्र के गलवां घाटी को चुपके से चीन के हाथों में जाते हुए देखते रहने का मामला है। संसद का अधिवेशन बुलाया जाय औऱ इस मसले पर लंबी बहस हो जिसे पूरा देश देखें। भूतपूर्व वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के ट्वीट और बयान जो आ रहे हैं वे व्यथित करने वाले हैं। सेना के वेटरन्स जिन्होंने कई कई सफल ऑपरेशन किये हों के, इन बयानों को गम्भीरता से लेना होगा। नेताओ का यह बयान कि हम देश के लिये जान दे देंगे अब तक का सबसे बड़ा जुमले वाला बयान है। देश के लिये जिन्हें जान देनी है वे बहादुर अपनी जान गंवा चुके हैं। पर वे शहीद कैसे हुए, जब न कोई घुसा और न किसी ने कब्ज़ा किया ? यह सवाल मुझे ही नहीं, सबको मथ रहा है।
लद्दाख में इतनी शहादत के बाद हमने अब तक क्या पाया है ? अब जो चीजें साफ हो रही हैं उससे यह दिख रहा है कि, लद्दाख क्षेत्र में जो हमारे सैन्य बल की शहादत हुयी है वह एक बड़ा नुकसान है। कहा जा रहा है कि सैनिकों के पीछे हटने हटाने को लेकर यह झडप हुयी थी। अखबार की खबर के अनुसार, 43 सैनिक चीन के भी मारे गए हैं। हालांकि, इस खबर की पुष्टि, न तो हमारी सेना ने की है और न चीन ने। यह एएनआई की खबर है। एएनआई को यह खबर कहां से मिली, यह नहीं पता है। शहादत की भरपाई, दुश्मन देश की सैन्य हानि से नहीं आंकी जा सकती है। एक भी जवान की शहादत युद्ध के नियमों में एक बड़ा नुकसान होता है। यह बस, एक मानसिक तर्क वितर्क की ही बात होती है कि, उन्होंने 20 हमारे मारे तो 43 हमने उनके मारे। पर यह सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि, अपने 20 जवानों को शहीद करा कर, और उनके 40 मार कर, हमने हासिल क्या किया ?
इस पूरे घटनाक्रम को देखें तो, यह मामला दस पंद्रह दिन से चल रहा है और ऐसा भी नहीं कि, दबा छुपा हो । डिफेंस एक्सपर्ट अजय शुक्ल पिछले कई हफ्तों, से चीनी सेना की, लद्दाख क्षेत्र में, सीमा पर बढ़ रही गतिविधियों पर, जो स्थितियां है उसके बारे में लगातार ट्वीट कर रहे हैं। उन्होंने लेख भी लिखा और यह भी कहा कि, 60 वर्ग किमी चीन हमारी ज़मीन दबा चुका है। उनके अलावा अन्य रक्षा विशेषज्ञ चीन की हरकतों पर उसकी अविश्वसनीयता के इतिहास के मद्देनजर हमे सतर्क करते रहे है। लेकिन, सरकार ने इन सब चेतावनियों पर या तो ध्यान नहीं दिया, या ध्यान दिया भी तो समय से उचित रणनीति नहीं बना पायी।
गलवां घाटी के पास, आठ पहाड़ियों के छोटे छोटे शिखर जिन्हें फिंगर कहा जाता है, के पास यह सीमा विवाद है। सीमा निर्धारित नहीं है और जो दुर्गम भौगोलिक स्थिति वहां है उसमें सीमा निर्धारण आसान भी नहीं है तो, कभी हम , चीन के अनुसार, चीन के इलाके में तो कभी वे हमारे अनुसार, भारत के इलाके में गश्त करने चले जाते रहे हैं। लेकिन यह यदा कदा होता रहा है। सीमा निर्धारित न होने के कारण, यह कन्फ्यूजन दोनो तरफ है। लेकिन जब चीनी सैनिकों का जमावड़ा उस क्षेत्र में बढ़ने लगा और इसकी खबर भी असरकारी स्रोत से मिलने लगी तो उस पर सरकार ने क्या किया ? हो सकता है सरकार ने डिप्लोमैटिक चैनल से बात की भी हो, पर उसका असर धरातल पर नहीं दिखा। अन्ततः, 7000 की संख्या में,चीनी सेना की मौजदगी, वहां बताई जाने लगी। क्या इतनी शहादत और इतने नुकसान के बाद, हमने चीन को उनकी सीमा में खदेड़ दिया है और अपनी सीमाबंदी मुकम्मल तरीके से कर ली है ? इस सीधे सवाल का उत्तर अगर हाँ में है तो, यह एक उपलब्धि है अन्यथा यह शहादत एक गम्भीर कसक की तरह देश को सदैव सालती रहेगी।
युद्ध का मैदान शतरंज की बिसात नहीं है कि उसने हमारे जितने प्यादे मारे हमने उससे अधिक प्यादे मारे। युद्ध का पहला उद्देश्य है कि जिस लक्ष्य के लिये युद्ध छेड़ा जाय वह प्राप्त हो। यहां जो झड़प हुयी है वह अआर्म्ड कॉम्बैट की बताई जा रही है, जिसकी शुरुआत चीन की तरफ से हुयी है। हमारे अफसर, सीमा पर चीन को पीछे हटाने की जो बात तय हुयी थी, उसे लागू कराने गए थे। अब इस अचानक झड़प का कोई न कोई या तो तात्कालिक कारण होगा या यह चीन की पीठ में छुरा भौंकने की पुरानी आदत और फितरत, का ही एक, स्वाभाविक परिणाम है, यह तो जब सेना की कोर्ट ऑफ इंक्वायरी होगी तभी पता चल पाएगा। इसी संदर्भ में जनरल एच एस पनाग का यह बयान पढ़ा जाना चाहिए। जनरल कह रहे हैं,
" भारतीय सेना के इतिहास में, यह पहली बार हुआ है कि, एक कमांडिंग ऑफिसर की इस प्रकार मृत्यु हुयी है। यह चीन की सेना द्वारा की गयी एक हत्या का अपराध है। हमारे सैनिकों को, चीनी पोस्ट पर निःशस्त्र नहीं जाना चाहिए था। निश्चय ही ऐसा करने के लिये कोई न कोई राजनीतिक निर्देश रहा होगा , अन्यथा सेना इस प्रकार निहत्थे नहीं रहती है। "
इस समय सबसे ज़रूरी यह है कि
● हम जहां तक उस क्षेत्र में इस विवाद के पहले काबिज़ थे, वहां तक काबिज़ हों और चीन की सीमा पर अपनी सतर्कता बढ़ाएं।
● चीन को हमसे आर्थिक लाभ भी बहुत है। उसे अभी अभी 1100 करोड़ का एक बड़ा ठेका मिला है और गुजरात मे जनवरी में देश के सबसे बड़े स्टील प्लांट बनाने का जिम्मा भी। इस परस्पर आर्थिक संपर्क को कम किया जाय न कि टिकटॉक को अन्स्टाल और झालरों के बहिष्कार तक ही सीमित रहा जाय।
● भारत को अपने सभी पड़ोसी देशों से संबंध बेहतर बनाने और उन्हें साथ रखने के बारे में गम्भीरता से सोचना होगा। इन्हें चीन के प्रभाव में जाने से रोकना होगा।
● पाकिस्तान से संबंध सुधरे यह फिलहाल तब तक सम्भव नहीं है। इसका कारण अलग और जटिल है।
अब आज की ताज़ी खबर यह है कि, भारत और चीन के बीच लद्दाख में चल रहे सीमा विवाद पर चर्चा करने के लिए एक बार फिर कोर कमांडर स्तरीय बैठक चुसुल-मोल्डो बॉर्डर प्वाइंट पर हो रही है। इससे पहले छह जून को हुई बैठक जो, मोल्डो में ही आयोजित की गई थी, में भारत की ओर से 14 कॉर्प्स कमांडर ले.जनरल हरिंदर सिह चीन के साथ बात कर रहे हैं। उस बातचीत में इस बात पर सहमति बनी थी कि दोनों पक्ष सभी संवेदनशील इलाकों से हट जाएंगे। हालांकि, इसके बाद ही 15 जून की दुःखद घटना घट गयी। इस कोर कमांडर वार्ता में क्या हल होता है यह तो जब वार्ता के बाद आधिकारिक वक्तव्य उभय पक्ष द्वारा जारी किए जाएंगे तभी बताया जा सकेगा, लेकिन गलवां घाटी पर हमारी जो स्थिति इस विवाद के पूर्व थी, वह स्थिति बहाल होनी चाहिए। उस स्थिति पुनः प्राप्त करना भारत का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए। अगर दुर्भाग्य से ऐसा करने में हम चूक गए तो, यह चीन के विस्तारवादी स्वभाव और मंसूबे को और बढ़ावा देगा, जिसका घातक परिणाम भारत चीन सीमा और संबंधों पर पड़ेगा।

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 22 June 2020

नेतृत्व की पहचान संकट काल मे ही होती है / विजय शंकर सिंह

अब आज की ताज़ी खबर यह है कि, भारत और चीन के बीच लद्दाख में चल रहे सीमा विवाद पर चर्चा करने के लिए एक बार फिर कोर कमांडर स्तरीय बैठक  चुसुल-मोल्डो बॉर्डर प्वाइंट पर हो रही है। इससे पहले छह जून को हुई बैठक जो, मोल्डो में ही आयोजित की गई थी, में भारत की ओर से 14 कॉर्प्स कमांडर ले.जनरल हरिंदर सिह चीन के साथ बात कर रहे हैं। उस बातचीत में इस बात पर सहमति बनी थी कि दोनों पक्ष सभी संवेदनशील इलाकों से हट जाएंगे। हालांकि, इसके बाद ही 15 जून की दुःखद घटना घट गयी। इस कोर कमांडर वार्ता में क्या हल होता है यह तो जब वार्ता के बाद आधिकारिक वक्तव्य उभय पक्ष द्वारा जारी किए जाएंगे तभी बताया जा सकेगा, लेकिन गलवां घाटी पर हमारी जो स्थिति इस विवाद के पूर्व थी, वह स्थिति बहाल होनी चाहिए। उस स्थिति पुनः प्राप्त करना भारत का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए। अगर दुर्भाग्य से ऐसा करने में हम चूक गए तो, यह चीन के विस्तारवादी स्वभाव और मंसूबे को और बढ़ावा देगा, जिसका घातक परिणाम भारत चीन सीमा और संबंधों पर पड़ेगा।  

देश के प्रति अनुराग, ललक और गर्व की भावना उनमें कभी रही ही नहीं है। जब देश आजाद होने के लिये संघर्षरत था और इन्हें छोड़ कर जब हर राजनीतिक विचारधारा के लोग, गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ फेंकना चाहते थे, तो ये साम्राज्यवाद के समर्थन में, दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य, जिसका कभी भी न डूबने वाला सूरज, इंग्लिश चैनल के साहिल पर ही जब डूब रहा था, तो वे उनके मुखबिर बने हुए थे। आज़ादी के दीवानों की सुरागरसी पतारसी कर के अपने आका को सारी खबरें दे रहे हैं। 

इनका सनातन धर्म से भी कोई अनुराग नहीं है। इनके लिए धर्म प्रतिशोध और घृणा का एक वाहक की तरह है। इनके तब के वीर नेता के धर्म के बारे में आप बयान पढ़ सकते हैं और सनातन धर्म के प्रति क्या उनके विचार रहे हैं, जान सकते हैं। हिन्दू धर्म की आड़ में इन्होंने कट्टर मुस्लिम और धर्मांध राजनीतिक दल मुस्लिम लीग के साथ गलबहियां की, उनके हमराह, और हमसफ़र भी बने रहे। आज जब ऐसी ही मानसिकता के समर्थक लोग गलवां घाटी की घटना पर देश नहीं अपने आराध्य के साथ हैं तो मुझे कोई हैरानी नहीं होती है। 

1962 में जवाहरलाल नेहरू से गलती हुयी थी, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। नेहरू की उस पराजय के लिये तीखी से तीखी आलोचना होनी चाहिए। होती भी है। तब भी हुयी थी। संसद में अविश्वास प्रस्ताव भी नेहरू के खिलाफ पहली बार 1963 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के आचार्य जेबी कृपलानी द्वारा, लाया गया था और यह जानते हुए भी कि, यह अविश्वास प्रस्ताव गिर जायेगा, फिर भी उस पर ऐतिहासिक बहस भी हुयी थी। अटल बिहारी वाजपेयी का 1962 की हार के बाद, और डॉ राममनोहर लोहिया का 1963 में अविश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में दिया गया भाषण पढ़ लीजिए, आप उस समय  के जनरोष को समझ जाएंगे। 

राजीव गांधी के समय मे हुयी श्री लंका के राष्ट्रपति जयवर्द्धने के साथ आईपीकेएफ भेजने की संधि भी एक कूटनीतिक भूल थी। सेना को बहुत जनहानि उठानी पड़ी थी। बदले में हमें कुछ मिला भी नहीं। इसकी घातक प्रतिक्रिया हुयी। एलटीटीई जो वी प्रभाकरण का बेहद संगठित आतंकी संगठन था, ने इसे राजीव गांधी के उक्त निर्णय को निजी तौर पर लिया और इस शत्रुता का परिणाम, 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्री पेरुमबदुर में राजीव गांधी की हत्या के रूप में सामने आया। 

आज यह संकट देश की अस्मिता पर है और हमारी अखंडता और अक्षुण्णता पर है। कोई भी राजनीतिक नेता देश के ऊपर नहीं होता है। गलवां घाटी के बारे में सरकार यानी प्रधानमंत्री से केवल सवाल ही पूछना नहीं जारी रहना चाहिये  बल्कि इस राजनयिक और सैनिक विफलता के लिये उनकी जवाबदेही और जिम्मेदारी भी तय की जानी चाहिए। सरकार को अगर लगता है कि राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की इस घुसपैठ में चीन के साथ कोई गठजोड है तो उसे इसे भी सामने लाना चाहिए। मोदी, राहुल, सोनिया, और हम सब आज हैं कल नहीं रहेंगे, पर गलवां घाटी की यह टीस आने वाली पीढ़ी को वैसे ही टीसती रहेगी जैसे आज 1962 का चीनी धोखा टीस रहा है। सच को बताया जाना चाहिए। यह एक संकट काल है। और नेतृत्व की पहचान संकट काल मे ही होती है। 

( विजय शंकर सिंह )