राष्ट्र का सैन्यबल से मजबूत होना ही राष्ट्र निर्माण नही है। राष्ट्र की निर्मिति होती है राष्ट्र के नागरिकों के सुख सुविधा और समृद्धि के मापदंड से। एक मजबूत सैन्यबल भी धन चाहता है। बिना धन के कोई भी राष्ट्र बड़ा और मजबूत सैन्यबल की तो बात ही छोड़िये, एक छोटी मोटी सेना भी संभाल नहीं सकता है। आज भी जो देश सैन्यबल के आधार पर दुनिया मे अपना स्थान रखते हैं, वे आर्थिक दृष्टि और आर्थिक संकेतकों में भी एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। चाहे अमेरिका हो, या रूस हो या चीन हो, इन सबकी आर्थिक हैसियत और इनकी सैन्य क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करें तो आप इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।
बात आज ग्लोबल हंगर इंडेक्स की है। 117 देशों में हमने 102 स्थान प्राप्त किया है। यह देश की आर्थिक नीतियों को बनाने और लागू करने वाले नीति नियंताओं की प्रतिभा और मेधा पर एक सवाल उठाता है। आर्थिक क्षेत्र के अन्य संकेतक चाहे वह विकास की दर से जुड़े हों, या मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से, या बैंकिंग सेक्टर से, या आयात निर्यात से या कर संग्रह से होने वाली सरकारी आय से, या बेरोजगारी से, या अन्य कोई भी अर्थ संकेतक यह संकेत नहीं दे रहा है कि आखिर हमने पिछले 6 सालों में क्या पाया । आर्थिक रूप से टूटता देश दुनियाभर के लिये एक आसान चारागाह बन जाता है। उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख कम होती जाती है और देश के अंदर असंतोष तो उपजता ही है।
हालांकि अभी वैसी स्थिति बिल्कुल नहीं है। पर उस स्थिति पर पहुंचने के पहले ही अगर सरकार कोई सार्थक उपाय नहीं करती तो सिवाय अतीत को कोसने के कुछ भी शेष नहीं बचेगा। आज बैंकिंग सेक्टर से आने वाली तीन मौतों की खबरें अगर आप को लगता है कि भविष्य के अशनि संकेत नहीं हैं तो आप आने वाले तूफान से अनभिज्ञ हैं। तीनो आत्महत्या करने वाले व्यक्ति कोई, आर्थिक हैसियत में किसी विपन्न या निम्न वर्ग के नहीं थे। एक के खाते में तो 90 लाख जमा थे। सोचिये जिसके खाते में 90 लाख जमा हों, वह कितनी निश्चिंतता से जीवन बिता सकता है ? पर 90 लाख रुपये रख कर भी, सिर्फ उसे वक्त पर न मिलने के काऱण, उस व्यक्ति को आत्महत्या जैसे दुःखद मार्ग का सहारा लेना पड़ा।
यह बात पीएमसी बैंक की है। हम एक ऐसे वक्त में आ गए हैं जहां, विदर्भ के सूखा पीड़ित क्षेत्र का किसान भी पेंड से लटक कर आत्महत्या कर लेता है और मुंबई के एक बैंक में सुरक्षित निवेश से रखे हुए 90 लाख रुपये का खाताधारक भी आत्महत्या कर लेता है। पीएमसी बैंक के लोगों ने जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से अपनी समस्या का हल पूछा तो वे, टीवी पर सुरक्षा घेरे में भागती नज़र आईं। उंस समय उनका बच निकलना भी उचित ही था। जब एक सामान्य खाताधारक को, उसके अपने ही पैसे के लिये जिसे वह एक विद्ड्राल स्लिप पर भर कर निकाल सकता है, देश के वित्तमंत्री से अपने ही जमा पैसों के निकालने लिये असहज भरे सवाल करना पड़ जाय और सरकार, बजाय इन सवालों के समाधान के, भागती नज़र आये तो समझ लीजिए, या तो सरकार असंवेदनशील है या जिस आर्थिक और बैंकिंग दुरवस्था में खाताधारक आ गए हैं, उसे सुधारना उनके बस में नहीं है।
तीन खाताधारकों की मौत, दो को हार्ट अटैक, एक डॉक्टर ने की आत्महत्या! क्या यह खबर आक्रोशित नहीं करती हमें ? पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक घोटाले से पीड़ित एक और खाताधारक की मौत हो गई है. 59 साल के फत्तोमल पंजाबी की मंगलवार को हार्ट अटैक के कारण मौत हुई है. पीएमसी बैंक घोटाले के कारण बीते 24 घंटे में यह दूसरे खाताधारक की मौत है। यह सिलसिला यहीं थम जाय,, हमे ऐसी आशा करनी चाहिये। इस असामयिक और दुःखद मृत्यु की जिम्मेदारी कौन लेगा। सरकार तो लेने से रही। उसने जब पुलवामा शहीदों के मृत्यु की जिम्मेदारी नहीं ली तो इन अभागे खाताधारकों की क्या जिम्मेदारी लेंगे। ईश्वर और नियति पर यह जुर्म चिपकाते जाइये। उन्हें आदत है यह सब देखने और देख कर भी चुप रह जाने की।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का आज बयान आया है कि बैंकिंग सेक्टर की इस दुरवस्था के लिये 2004 से 2014 तक का यूपीए, या डॉ मनमोहन सिंह की सरकार और डॉ रघुरामराजन के आरबीआई गवर्नरशिप जिम्मेदार है। वित्तमंत्री के इस बयान को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये। हो सकता है उनकी बात में दम हो और यूपीए सरकार ही इसके लिये जिम्मेदार हो। पर यह बयान आज 6 साल बाद आ रहा है। 2014 के तत्काल बाद जो आर्थिक सर्वेक्षण सरकार बजट के पहले संसद में पेश करती है, तब तो सरकार ने यह बात कही नहीं। 2014 के बाद 2019 तक लगातार 6 बजट यह सरकार पेश कर चुकी है पर यह बात न तब कही गयी और न बैंकों के दुरवस्था को रोकने के लिये सरकार ने कोई उपाय किये।
हर सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार के कामकाज पर सवाल उठाती है। यह एक मानवीय कमज़ोरी है। नौकरशाही में भी यही होता है। हम भी नौकरी में थे तो, यही कहते और सुनते थे कि खराब कानून व्यवस्था हमे विरासत में मिली है और अब जाकर तो कुछ ठीक ठाक हुआ है। पर यह बहाना भी लंबा नहीं चलता था। पर यहां तो सरकार इसे 6 साल से खींच रही है और सरकार के समर्थक तो सोशल मीडिया पर लगातार यही तर्क दे रहे हैं कि पिछला कूड़ा साफ किया जा रहा है।
आज के वित्तमंत्री के इस बयान पर कि, बैंकिंग सेक्टर को सबसे अधिक नुकसान डॉ मनमोहन सिंह और डॉ रघुरामराजन के कार्यकाल में हुआ है, मेरा यह कहना है कि, सरकार 2004 से 2019 तक सभी बैंकों के बारे में एक श्वेतपत्र जारी करे। श्वेतपत्र में साफ साफ यह बताये कि,
● किस साल किस किस संस्थान को कितना रुपया ऋण दिया गया था।
● किसके सिफारिश पर ऋण दिया गया, और बैंक के किस अधिकारी ने केवल सिफारिश पर ही ऋण दे दिया।
(.वित्तमंत्री ने कहा है कि तब फोन पर ऋण दिए जाते थे )
● कितनो के ऋण समय पर मय व्याज के वापस नहीं आये।
● ऋण न आने पर क्या कार्यवाही की जानी चाहिये थी, औऱ क्या कार्यवाही नहीं की गई।
● एनपीए क्यो हुये और इसके लिये किसकी जिम्मेदारी है।
● सिफारिश पर अपात्र को ऋण देने के मामले या बड़ी राशि के ऋण को डिफॉल्ट करने के मामले में बैंक या सरकार के वित्त मंत्रालय या पीएमओ क़ी कितनी भूमिका है।
● आज तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी सरकार ने डॉ रघुरामराजन तत्कालीन आरबीआई गवर्नर, द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गयी उन बड़े लोन डिफान्टर्स की सूची सार्वजनिक नहीं की है। क्यों ?
● उनके नाम सार्वजनिक करने से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है, यही सरकार बता दे।
● अगर बैंक का ऋण लेना और फिर उसे गटक जाना पूंजीपतियों की एक आदत बनती जा रही है तो सरकार उन्हें चेतावनी दे, और न सुधार हो तो नाम सार्वजनिक करें। ऐसे कर्ज़खोरों के डिफ़ॉल्टरी का खामियाजा ईमानदारी से लोन लेकर अपनी ज़रूरतें काट कर, नियमित ईएमआई देने वाला मध्यम वर्ग क्यों भुगते ?
इन सब जिज्ञासाओं और विन्दुओं को समेटता हुआ, सरकार को बैंकिंग सेक्टर के बारे में एक श्वेत पत्र लाना चाहिये। दोषी चाहे मनमोहन सिंह हो, या रघुरामराजन, इनके दोष जनता के सामने आने चाहिये। कोई उद्योगपति एनपीए या कर्ज़ न चुका पाने के संताप में आत्महत्या नहीं करता है। मरता है तो दस बीस हज़ार कमा कर, व्याज की आस में बैंकों में पैसा रखने वाला, सामान्य व्यक्ति जब उसे अपने ही धन के लिये नोटबंदी के समय हफ़्तों लाइन में खड़ा होना पड़ा, या 90 लाख रुपये रख कर भी वक़्त पर जब उसे अपना ही पैसा नहीं मिला तो वह व्यक्ति। क्या यह सरकार के आर्थिक नीतियों की विफलता नहीं है ?
मैं कोई बैंकिग एक्सपर्ट नहीं हूं। पर एक बात मैं कहना चाहता हूं कि, बैंकर और खताधारक के बीच जो महत्वपूर्ण रिश्ता है वह है परस्पर विश्वास का, और यह परस्पर विश्वास टूटा है 2016 के नोटबंदी के समय जब बैंकों पर लोग बदहवासी से भरे उमड़ पड़े थे, और अब पीएमसी बैंक के डूबने की खबर पर जब खताधारक रोज़ ही सोशल मीडिया में अपनी व्यथा सुना रहे हैं। यह सब सवाल मेरे जेहन में उठ रहे हैं, जिन्हें आप से मैं साझा कर रहा हूँ। आप की असहमति का भी स्वागत है।
© विजय शंकर सिंह
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