Saturday, 26 October 2019

कविता - सौदा / विजय शंकर सिंह

सरदार ने कहा, 
गिरोह में आओ, 
जो कहा जा रहा है वह करो, 
चुपचाप, 
बिना सोचे समझे, 
खामोश बना बेचारा वह,
सरदार की बातें सुनता रहा,
सब चले गए, 
एक कारिंदा रह गया। 

कारिंदे ने उससे कहा, 
यह फोन सुनो, 
फोन से मरी मरी सी आवाज आयी, 
कुछ बात हुयी, 
इस बीच सरदार का कारिंदा, 
देहभाषा पढता रहा उसकी,
भर्राहट और डरी हुयी आवाज़ ने
उसके होश उड़ा दिये थे,
वह बेबस सा निढाल हो गया।

कुछ सोचा तुमने ?
कारिंदे ने डराने और समझाने की टोन में,
कान में फुसफुसा कर उससे कहा, 
हमारे कब्जे में कैद है, 
जल्दी ही तुम्हारे सामने होगा, 
और भी बहुत कुछ मिलेगा तुम्हे, 
ज्यादा सोचो मत, 
सौदा बुरा नहीं है,
बस हां कर दो तुम।

मोगाम्बो की आवाज़ गूंजी, 
क्या सोचा तुमने, 
अरे सोचा कुछ ? 
उसके सामने एक तरफ, 
आज़ादी थी, खुद मुख्तारी थी, 
अपना वजूद था, 
और दूसरी तरफ, 
कब्जे में पड़े उसकी बेबसी थी। 
वह गिरोह में शामिल हो गया ।

© विजय शंकर सिंह 

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