Tuesday, 15 October 2019

अर्थव्यवस्था के सुधार हेतु प्रोफेशनल दृष्टिकोण की आवश्यकता है / विजय शंकर सिंह

जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है वैसे वैसे देश की आर्थिक स्थिति गम्भीर होती जा रही है। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया, नीति आयोग, विदेशी वित्त पर्यवेक्षक कम्पनियां और देश के पूंजीपति घराने, विभिन्न मजदूर संगठन और अन्य अर्थशास्त्र में रुचि रखने वाले लोग, भले ही उनकी विचारधारा कुछ भी हो, पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि देश की आर्थिक स्थिति मंदी की ओर जा रही है । आर्थिक मन्दियां आती जाती रहती हैं यह अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक तत्व है। पर हैरानी इस मंदी पर नहीं बल्कि मंदी को लेकर देश के सत्ता तँत्र में जिस जागरूकता, चिंता और उस व्याधि से निपटने जी इच्छा शक्ति की आवश्यकता है,  वह  वर्तमान परिस्थितियों में कहीं भी दिख नहीं रही है, पर है । या तो सरकार, आर्थिक मोर्चे पर दिशाहीन है या उसे गंभीरता का अंदाज़ा नहीं है। आज का विमर्श इसी विषय पर है।

2014 की परिस्थितियों को ध्यान से याद कीजिए तो उस समय यूपीए 2 की सरकार घोटालों के आरोपों से घिरी हुयी थी और नरेंद मोदी के नेतृत्व में भाजपा एक भ्र्ष्टाचार मुक्त और समृद्ध भारत के सपने को लेकर जनता के बीच आयी थी। उस समय के संकल्पपत्र में भाजपा के सारे वादे आर्थिक मुद्दों से जुड़े थे। गुजरात मॉडल को विकास के आदर्श मॉडल के रूप में देश मे प्रस्तुत किया गया था । अन्ना हजारे के लोकपाल लाओ आंदोलन ने यूपीए 2 को बैकफुट पर ला दिया था और भाजपा विशेषकर नरेंद मोदी एक त्राता के रूप में उभरते आ रहे थे। जो आर्थिक वादे भाजपा द्वारा किये गए, उसमे विकास के कई वायदों के साथ साथ 2 करोड़ लोगो को प्रतिवर्ष रोजगार देने, विदेशी निवेश बढ़ाने, देश का औद्योगिक विकास तेज करने,  भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने आदि आदि लुभावने वादे किये गए थे। आदतन नेताओं ने वादे किये और आदतन हमने उन वादों पर यकीन भी कर लिया। खूब धूम धड़ाके से चुनाव हुआ और भाजपा सरकार बनी तथा नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने।

2014 से 2019 तक की कोई आर्थिक उपलब्धि सरकार खुद ही 2019 के चुनाव प्रचार में नहीं बता पायी। सरकार ने जानबूझकर चुनाव प्रचार की दिशा और मुद्दा पुलवामा हमले के 40 शहीद सीआरपीएफ के जवानों और बालाकोट एयर स्ट्राइक तक ही सीमित रखा। कारण साफ था कि मंदी की सुगबुगाहट हो गयी थी और उद्योग से लेकर किसानों तक निराशा पसरी पड़ी थी। 2019 में फिर सरकार की वापसी हुई। पर न मंदी के कदम थमें न मजदूर और किसानों की बेहतरी हुयी।

2014 के बाद भाजपा सरकार की क्या आर्थिक नीति होगी यह किसी को पता नहीं था। आज भी सरकार की आर्थिक नीति क्या है यह भी सरकार को पता नहीं है। 2014 से 2016 तक सामान्य रूप से आर्थिक दशा चलती रही। पर अचानक 2016 में सरकार ने जब 1000 और 500 रुपये के नोट चलन से बाहर कर दिये तो आर्थिक स्थिति पर एक ब्रेक लगा और तभी से आर्थिक स्थिति गिरने लगीं। सरकार ने नोटबंदी क्या सोच कर की, यह तो सरकार ही बता पाएगी। आज तक सरकार ने यह नहीं बताया कि जिन आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिये यह मास्टरस्ट्रोक उठाया गया उनमे से कितने पूरे हुये औऱ कितने पूरे नहीं हुए।

नोटबंदी के बाद कर सुधार के नाम पर जीएसटी कानून लागू हुआ। यह एक अच्छा कदम था, पर अपनी प्रक्रियागत जटिलताओं और अनेक किंतु परन्तु के कारण यह कर सुधार भी सफल नहीं हो सका। पहले सोचा गया था कि इन दोनों सुधारात्मक कदमो से जो मंदी आ रही है वह अस्थायी होगी, और बाजार स्वतः इसे दुरुस्त कर लेगा, पर यह न हो सका। सरकार एक आलमे बदहवासी में नज़र आई और फिर धीरे धीरे, औद्योगिक उत्पादन गिरा, बाज़ार में क्रय शक्ति घटी, रियल इस्टेट सेक्टर बैठना शुरू हुआ, टेक्सटाइल में सुस्ती आयी, जब यह सब हुआ तो नए रोजगार सृजन की बात तो छोड़ ही दीजिए, जो नौकरियां थीं वह भी कम होने लगीं। इस सुस्ती और मंदी का असर कर संग्रह पर पड़ा। जब कर संग्रह पर असर पड़ा तो राजकोषीय घाटा बढ़ा। आयात निर्यात का संतुलन बिगड़ा तो व्यापार घाटा बढ़ा। फिर यह मंदी जिसे केवल आर्थिक मामलों के जानकार ही भांप रहे थे अब सबको दिखने लगी। रोग तो दिखा पर रोग का कारण लोग नहीं समझ पाए।

आर्थिक मंदी के खबरों के बीच सबसे बड़ी चिंता यह है कि सरकार इस मंदी को लेकर न तो चिंतित दिख रही है और न ही स्वीकार कर रही है कि ऐसी कोई गिरावट अर्थव्यवस्था में आ रही है। जबकि इस गिरावट की ओर सबसे पहले संकेत सरकार के ही आर्थिक सलाहकार अरविंद पनगढ़िया ने ही दिए थे । पनगढ़िया ने आर्थिक सलाहकार का अपना पद छोड़ा और वे अमेरिका वापस चले गये। फिर आरबीआई की तरफ से गिरावट की चेतावनी मिलने लगी। सरकार के पास धन की कमी हो गयी और आरबीआई से संचित धन लेने की उसे जरूरत पड़ी। इस मुद्दे पर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। नए गवर्नर शशिकांत दास आये तो उन्होंने संचित धन से 1,76,000 करोड़ रुपये सरकार को दे भी दिए, पर यह भी आगाह किया कि यह गिरावट तेजी से असर कर रही है। फिर कुछ उद्योगपतियों के बयान आये कि इस गिरावट का असर उनके यहां भी पड़ने लगा है। भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का भी बयान आया कि यह मंदी है और उन्होंने तो यह भी कहा कि इस मंदी से निपटने के लिये सरकार के पास न तो इच्छाशक्ति है और न ही काबिल लोग। सरकार के ही अर्थशास्त्री रथिन राय ने एक लंबा  लेख लिखकर में इस मंदी के बारे में स्पष्ट संकेत भी दिए।

हम एक वैश्विक अर्थव्यवस्था के युग मे हैं। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक दूसरे को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती है। ऐसी स्थिति में दुनियाभर की प्रमुख सर्वेक्षण और आर्थिक एजेंसियां भी महत्वपूर्ण देशों की अर्थव्यवस्था पर नज़र रखती है। भारत की इस मंदी को सबसे पहले विश्व बैंक ने भांपा और भारत का विकास दर ( जीडीपी ) गिरने की बात कही, फिर आईएमएफ ने चेतावनी दी, फिर तो निवेश की राय देने वाली एजेंसी मूडीज ने भी यह मान लिया कि देश मे आर्थिक मंदी का असर आ रहा है। दो दिन पहले आईएमएफ के प्रमुख ने बयान दिया कि वैसे तो मंदी का असर पूरी दुनिया मे है, पर भारत मे इसका असर और व्यापक होगा। आज ही अखबार में छपी एक खबर के अनुसार, आरबीआई ने पहले अनुमानित विकास दर, 6.9 बतायी थी, अब वह दर उसने घटा कर 6.1 % कर दिया है। इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों, मूडीज ने पहले घोषित दर 6.8 को 6.2, फिंच ने 6.8 से 6.6 और एडीबी ने 7 से घटाकर 6.5 कर दिया है। जब इरादा और घोषणा 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का हो तो क्या सरकार अपने ही संस्थान आरबीआई, नीति आयोग और अंतरराष्ट्रीय संस्थान विश्व बैंक, आईएमएफ और मूडीज के इन चेतावनी पर ध्यान दे रही है ?

इसका उत्तर है नहीं। सरकार के किसी भी मंत्री का बयान इन आर्थिक संकेतकों से दिखती हुयी आर्थिक मंदी की आहट की ओर जा रहा है, ऐसा संकेत नहीं देता है। इसके विपरीत वित्तमंत्री का बयान कि कोई मंदी नहीं है, और कानून मंत्री का बयान कि एक दिन में फिल्में जबरदस्त कमाई कर रही हैं अतः मंदी कहां है जैसे प्रत्यक्ष मूर्खतापूर्ण, हास्यास्पद और असंवेदनशील बयान आ रहे हैं। प्रधानमंत्री इन मसलों पर पहले भी नहीं बोलते थे और अब भी वे नहीं बोलते हैं। सरकार की प्राथमिकता में वित्त व्यवस्था जैसी कोई चीज, लगता है, है ही नहीं। अगर होती तो निश्चय ही सरकार कोई न कोई ऐसा कदम उठाती जिससे यह गिरावट थमती और कुछ सार्थक संकेत मिलते।

सरकार ने खूबसूरत और आकर्षक नामों वाली मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया, मुद्रा लोन जैसी योजनाओं की शुरुआत की पर क्या इन योजनाओं का कोई लाभ देश की बेरोजगारी को कम कर सका और देश की अर्थव्यवस्था को तेज गति दे सका है, के सवाल पर सरकार की चुप्पी उसे ही सन्देह के घेरे में डाल देती है। वाइब्रेंट गुजरात, प्रवासी सम्मेलन और विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिये प्रधानमंत्री जी ने विदेशों में अनेक आयोजन किये पर क्या जितने विदेशी निवेश आने की उम्मीद थी, वह आये ? उत्तर होगा बिल्कुल नहीं। अगर शेयर मार्केट को आधार माने तो विदेशी निवेशकों ने अपना पैसा पूंजी बाजार से खींचा ही है।

अब एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि सरकार की मौलिक आर्थिक नीति क्या है। अपने तमाम आर्थिक वादों और दावों के बाद भी सरकार का कोई भी ऐसा दस्तावेज सामने नहीं आया है जिससे सरकार की आर्थिक दृष्टि का पता चलता है। नितिन पाई एक अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने एक लंबा लेख आर्थिक मंदी पर लिखा है और उन कारणों की पड़ताल की है जिससे यह मंदी आयी है। उनका कहना है कि इसका सबसे बड़ा कारण है, लोगों के पास नकदी का अभाव। लोगों की आदतों की भी चर्चा करते हुये वे कहते हैं कि लोग बाजार में कम जा रहे हैं और कम खर्च कर रहे हैं। यह मितव्ययिता नहीं है बल्कि यह नकदी का अभाव है। अगर यह मितव्ययिता होती तो लोगों की बचत बढ़ती। पर लोगों द्वारा बचत भी नहीं की जा रही है। बचत न बढ़ने से सरकार को धन भी जो उसे विभिन्न बचत योजनाओं में मिलता था, नहीं मिल पा रहा है। निवेशक भी अनुत्पादक बचतों में निवेश कर रहे हैं। पहले यह निवेश शेयर मार्केट, म्युचुअल फंड और रियल एस्टेट में अधिक होता था, पर शेयर मार्केट के लगातार निराशाजनक प्रदर्शन और रियल एस्टेट के अप्रत्याशित रूप से बैठ जाने के कारण निवेशक, आसान और सुरक्षित निवेश का उपाय चुन रहे हैं, जैसे सोना।

नितिन पाई इसका समाधान भी सुझाते हैं। उनके अनुसार, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट जो सात वर्षों में सबसे कम 1.1% तक आ गयी है और कर संग्रह 19 महीने में सबसे नीचे है, सबसे चिंताजनक आंकड़े हैं। जब तक निर्यात नहीं बढ़ेगा, उत्पादन में तेजी नहीं आएगी रोजगार के अवसर नहीं सृजित होंगे तब तक इस आर्थिक मंदी से पार नहीं पाया जा सकेगा। सबसे पहले निजी आयकर में कमी और जीएसटी की प्रक्रिया को सरल एवं उसके कर स्लैब को कम करना होगा। जब निजी आयकर में कमी और सरल जीएसटी होगी तो लोगों के पास धन बचेगा और उससे बाजार में गति आएगी। सरकार ने निजी आयकर के बजाय मंदी से निपटने के उपायों के रूप में कॉरपोरेट लॉबी के दबाव में कॉरपोरेट टैक्स कम किये हैं, जिसका असर कुछ दिन तक शेयर बाजार पर तो पड़ा पर फिर शेयर बाजार डूबने लगा। सरकार के इस कदम का भी बहुत सार्थक लाभ नहीं मिला। सरकार ने ऋण मेलों का आयोजन किया और वहां भी कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली।

रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का एक महत्वपूर्ण बयान आया है कि, " भारत की अर्थव्यवस्था काफी बड़ी हो गई है और किसी एक व्यक्ति के द्वारा इसको चलाया नहीं जा सकता है. इसके परिणाम घातक निकले है । " रघुरामराजन के इस बयान को अर्थव्यवस्था पर समवेत और विशेषज्ञों की सलाह को दरकिनार करके सरकार के एकाधिकार वादी होंते जा रहे स्वरूप पर एक तीखी पर सच्ची टिप्पणी के रूप में देखा जाना चाहिये। राजन इस बिगड़ती हालत के लिये मूलरूप से नोटबंदी और जीएसटी के फैसले को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं,  कि अगर नोटबंदी और जीएसटी के फैसले नहीं लिए गए होते तो अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही होती. बिना किसी सलाह या समीक्षा के नोटबंदी को लागू करने से लोगों को नुकसान हुआ और इसे करने से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हुआ........2016 में जो जीडीपी 9 फीसदी के पास थी, वह अब घटकर 5.3 फीसदी के स्तर पर आ गई है । उन्होंने जीडीपी ग्रोथ में आई गिरावट के लिए निवेश, खपत और निर्यात में सुस्ती के अलावा एनबीएफसी क्षेत्र के संकट को जिम्मेदार ठहराया है। बढ़ता राजकोषीय घाटा भारतीय अर्थव्यवस्था को एक बेहद 'चिंताजनक' स्थिति की तरफ धकेल रहा है ।

वक़्त की सबसे बुरी बात यह होती है कि उसे हम पीछे नहीं ले जा सकते हैं। सरकार माने या न माने पर आज के आर्थिक मंदी की जड़ में सरकार के दो महत्वपूर्ण निर्णय, नोटबंदी और जीएसटी का बिना तैयारी और सोचे समझे लागू करना है। हम अब उन फैसलों को पलट नहीं सकते । अधिक से अधिक यह किया जा सकता है कि वर्तमान मंदी को दूर करने और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये कुछ सार्थक उपाय सरकार द्वारा उठाया जाय। जैसा कि रघुरामराजन ने अपने बयान में कहा है कि अर्थव्यवस्था का आकार इतना बड़ा हो गया है कि यह किसी एक व्यक्ति के बस का नहीं है कि वह इसे सुधारने के लिये कोई फैसला ले कर उसे रातोरात लागू कर दे। सरकार को पहले यह तथ्य गम्भीरता से स्वीकार करना होगा कि हम एक गम्भीर आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहे हैं। उत्पादन से लेकर रोजगार तक के सारे सूचकांक निराशाजनक और चिंताजनक संकेत दे रहे हैं।

सरकार को चाहिए कि वह प्रोफेशनल अर्थशास्त्रियों का एक टास्क फोर्स गठित करे जो नक़दी संकट, उत्पादन, निर्यात, कृषि आदि अर्थव्यवस्था के मूलभूत संकटों को दूर करने में सहायक हो। देश मे ऐसे प्रोफेशनल अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है। हमारे राजनीतिक नेतृत्व को एक जबरदस्त मुगालता यह रहता है कि वे समझते हैं कि उनके पास हर व्याधि की दवा है। राजनीतिक नेतृत्व का एक माइंडसेट होता है जो जाने या अनजाने हर कदम में राजनीतिक लाभ हानि ढूंढता है। जबकि प्रोफेशनलिज़्म मूल समस्या के प्रोफेशनल हल की ओर ले जाता है। यह हल राजनीतिक रूप से राजनीतिक नेतृत्व को हो सकता है असहज भी कर दे। पर जब उद्देश्य ही देश की आर्थिक ताक़त को गति देना और फिर से उसे एशिया की सबसे तेज गति की अर्थव्यवस्था बनाना हो तो राजनीतिक गुणा भाग के खतरे उठाने ही होंगे। आज देश को एक स्टेट्समैन जैसे नेतृत्व की ज़रूरत है जो इस आसन्न आर्थिक मंदी के भंवर से डूबने के पहले ही बचा लें। कम से कम यह उम्मीद तो करें हम कि कामयाब हों।

© विजय शंकर सिंह

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