Wednesday, 2 October 2019

मोहनदास से महात्मा तक का सफर / विजय शंकर सिंह

आज 2 अक्टूबर है । आज का दिन हम सब गांधी जयंती के रूप में मनाते हैं। बीसवीं सदी में गांधी निःसंदेह एक महानतम शख्सियत थे। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के शीर्ष नेता तो वे थे ही, पर वे ऐसे अकेले नेता थे, जिन्होंने एशिया, अफ्रीका के ग़ुलाम देशो को खुदमुख्तारी के लिये न केवल प्रेरित किया बल्कि अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोप सहित विश्व के अनेक समर्थ और साम्राज्यवादी देशों में भी पर्याप्त सम्मान पाय। आज गांधी की विचारधारा जो उनके सत्य से प्रयोग से लेकर दक्षिण अफ्रीका में अपने साथियों के सम्मान के लिये अहिंसक और सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ परिपक्व होते हुए भारत के आज़ादी के आंदोलन में अपनी महती भूमिका का निर्वाह करते हुये, विश्व भर में फैली, वह केवल राजनीतिक विचारधारा के ही कठघरे में नहीं रही। साहित्य, संगीत, फ़िल्म, समाज, श्रम आंदोलन, आदि मानव व्यापार से जुड़े सभी अंगों को उनकी विचारधारा से स्पर्श किया। यह गांधी स्कूल ऑफ थॉट कहा जाता है।

पर मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी और राष्ट्रपिता गांधी तक उनकी रूपांतरण यात्रा की शुरुआत दक्षिण अफ्रीका के एक छोटे स्टेशन पीटरमैरिटज़्बुर्ग से शुरू हुयी थी। यह छोटा सा स्टेशन गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का पहला साक्षी बना। 7 जून 1893 को युवा मोहन दास अंग्रेज़ी वेशभूषा में प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर एक ऐसे डिब्बे में सवार हुए जिसे केवल गोरों के लिये आरक्षित बताया जाता था। गांधी जी के डिब्बे में बैठने के बाद एक गोरा आया और उसकी भृकुटि तन गयी। उसकी नज़र पाश्चात्य वेशभूषा में बैठे  काले गांधी पर पड़ी ।  वह रेलवे के एक अफसर को बुला कर ले आया। रेलवे अफसर ने गांधी का टिकट देखा। टिकट सही था। गांधी सही डिब्बे में बैठे थे।

रेलवे अफसर ने गांधी को डिब्बे से उतर कर अन्य डिब्बे में जाने के लिये कहा। गांधी ने प्रतिवाद किया। अपने वैध टिकट का हवाला दिया। पर उस रेलवे अफसर और गोरे सहयात्री ने एक न सुनी। उन्होंने पहले गांधी का सामान स्टेशन के प्लेटफार्म पर फेंका फिर गांधी को उतर जाने को कहा। सार्वजनिक अपमान से आहत गांधी ने उतरने से इनकार कर दिया। यह अन्याय के खिलाफ उनका पहला मौन प्रतिवाद था। बाद में बलपूर्वक उन्हें स्टेशन के प्लेटफार्म पर धक्का देकर उतार दिया गया। गांधी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। ट्रेन चली गयी और गांधी उसी प्लेटफार्म पर बैठे रहे। अपमान से आहत गांधी न तो हिंसक हुये और न ही उत्तेजित। यह शांत प्रतिरोध दुनिया मे भविष्य के आंदोलन के एक नए तरीके का सूत्रपात था।

तब न तो गांधी को पता था, न ही उस गोरे अंग्रेज को जिसे एक काले आदमी के साथ बैठने पर आपत्ति थी, और न ही उस रेलवे के गोरे गार्ड को जिसने गांधी जी को मय सामान के डिब्बे के बाहर फेंक दिया था, यह घटना न केवल मोहनदास करमचंद गांधी के जीवन मे एक टर्निंग पॉइंट बनेगी बल्कि यह घटना महान ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत की एक कील बन जाएगी। इतिहास ऐसी ही सामान्य और लग्भग भुला देने वाली घटनाओं से भी बनता है।

महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका दादा अब्दुल्ला जो गुजरात के एक सम्पन्न व्यापारी थे, के वकील के रूप में उनका मुक़दमा लड़ने गये थे। वहां उन्हें, वहां जाकर, रंगभेद और गोरों के श्रेष्ठतावाद का आभास हुआ। रुडयार्ड किपलिंग का प्रबल श्रेष्ठतावाद कि, गोरी जाति दुनिया पर शासन करने के लिये ही धरा पर अवतरित हुयी है, अंग्रेजों के दिमाग मे गहरे पैठा हुआ था। यह एंग्लो सैक्सन जाति का जातिगत और नस्लगत दम्भ था।  दक्षिण अफ़्रीका एक ब्रिटिश उपनिवेश था। कहते हैं, आधुनिक मानव की बसाहट दक्षिण अफ़्रीका में एक लाख साल पुरानी है। यूरोपीय लोगों के आगमन के दौरान क्षेत्र में रहने वाले बहुसंख्यक स्थानीय लोग आदिवासी थे, जो अफ़्रीका के विभिन्न क्षेत्रों से हजार साल पहले आए थे। 4 थी - 5 वीं सदी के दौरान बांतू भाषी आदिवासी दक्षिण को ओर बढ़े और दक्षिण अफ़्रीका के वास्तविक निवासियों, खोई सान लोगों, को विस्थापित करने के साथ-साथ उनके साथ शामिल भी हो गए। यूरोपीय लोगों के आगमन के दौरान कोसा और ज़ूलु दो बड़े समुदाय थे।

केप समुद्री मार्ग की खोज के करीबन डेढ़ शताब्दी बाद 1762 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस जगह पर खानपान केंद्र (रिफ्रेशमेंट सेंटर) की स्थापना की, जिसे आज केप टाउन के नाम से जाना जाता है। 1806 में केप टाउन ब्रिटिश कॉलोनी बन गया। 1820 के दौरान बुअर (डच, फ्लेमिश, जर्मन और फ्रेंच सेटलर्ज़) और ब्रिटिश लोगों के देश के पूर्वी और उत्तरी क्षेत्रों में बसने के साथ ही यूरोपीय बसाहट में वृद्धि हुई। इसके साथ ही क्षेत्र पर क़ब्ज़े के लिए कोसा, जुलू और अफ़्रिकानरों के बीच झड़पें भी बढ़ती गई।

हीरे और बाद में सोने की खोज के साथ ही 19 वीं सदी में द्वंद शुरू हो गया, जिसे अंग्रेज़-बुअर युद्ध के नाम से जाना जाता है। हालाँकि ब्रिटिश ने बुअरों पर युद्ध में जीत हासिल कर ली थी, लेकिन 1910 में दक्षिण अफ़्रीका को ब्रिटिश डोमिनियन के तौर पर सीमित स्वतंत्रता प्रदान कर दी गयी।

1961 में दक्षिण अफ़्रीका को गणराज्य का दर्जा मिलने के बावजूद सरकार ने रंगभेद की नीति को जारी रखी । काले दक्षिण अफ़्रीकी और उनके सहयोगियों के सालों के अंदरुनी विरोध, कार्रवाई और प्रदर्शन के परिणामस्वरूप आख़िरकार 1990 में दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने वार्ता शुरू की, जिसकी परिणति भेदभाव वाली नीति के ख़त्म होने और 1994 में लोकतांत्रिक चुनाव से हुई। देश फिर से राष्ट्रकुल देशों में शामिल हुआ। दक्षिण अफ़्रीका, अफ़्रीका में जातीय रूप से सबसे ज़्यादा विविधताओं वाला देश है और यहाँ अफ़्रीका के किसी भी देश से ज़्यादा सफ़ेद लोग रहते हैं।

1893 की यह घटना, दुनिया के इतिहास में एक अनोखी घटना थी दुनियाभर के उन सभी वंचितों और उपेक्षित लोगों को अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने का एक सशक्त अधिकार दिया। महात्मा गांधी की पहली जीवनी लिखने वाले जोसेफ जे डोक ने लिखा है,

“He himself was… the child of an ancient and noble race. His father, grandfather and uncle had been Prime Ministers of their respective Courts. His childhood and youth had been spent in India, familiar with the splendour of an Eastern palace. In manhood he had known nothing of colour-prejudice, but had been granted free access to polite English society… By profession he was a barrister, trained in the fine old English Law Schools of the Inner Temple, and called to the Bar in London…. Here in Natal it was all changed.”

( वे स्वयं एक प्राचीन और उच्च परिवार से आते थे। उनके पिता, चाचा और दादा, सभी रियासतों के दरबार मे दीवान रह चुके थे । उनका बचपन और युवावस्था पूर्व ( भारत ) के संपन्न महलों में बीता था। उन्होंने अपने जीवन मे रंग के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को कभी न तो देखा था और न ही महसूस किया था, इसके विपरीत उन्होंने इंग्लैंड में भद्र ब्रिटिश समाज को देखा था। पेशे से वे एक बैरिस्टर थे, और ब्रिटिश के  परंपरागत कानून के स्कूल इनर टेम्पल से शिक्षित और लंदन के बार से जुड़े थे। पर यहां नेटाल में जो उन्होंने देखा, उसने उन्हें पूरी तरह बदल दिया। )

यह बात सच है कि रेलवे प्लेटफार्म पर जब उन्हें अपमानित कर के जबरदस्ती धक्के मार कर उनके निजी सामान के साथ फेंक दिया गया तो, इस घटना ने मोहनदास करमचंद गांधी को, युग प्रवर्तक गांधी के रूप में बदल दिया। पीटरमेरितज़्बुर्ग  स्टेशन के प्लेटफार्म पर जो व्यक्ति गोरों द्वारा अपने काले रंग की वजह से फेंका गया था, वह जब वहां से उठा तो वह, दक्षिण अफ़्रीका में वकालत करने के लिये वाला एक आम भारतीय नहीं रहा, वह दक्षिण अफ़्रीका में पूरे भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला एक नया गांधी बनने वाला था। वह एक रेलयात्री के रूप में स्टेशन के प्लेटफार्म पर फेंक दिए गए थे पर जब वहां से उठे तो दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की एक उम्मीद की तरह उठे। एक वकील का एक क्रांतिकारी के रूप में उनका यह रूपांतरण था।

गांधीजी के निःस्वार्थ कार्यों और वहाँ उनकी अच्छी खासी वकालत को देखते हुए एक समय तो ऐसा लगने लगा था कि वह नेटाल में बस ही जायेंगे। शुरू में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका अकेले ही गये थे। उनका उद्देश्य केवल दादा अब्दुल्ला का ही एक मुकदमा था। उन्होंने सोचा था कि इस मुक़दमे के खत्म होते ही वह वापस स्वदेश लौट आएंगे। पर नियति ने तो कुछ और ही सोच रखा था। सन् 1896 के मध्य में वह अपने परिवार को अपने साथ नेटाल ले जाने के उद्देश से भारत आये। अपनी इस यात्रा के दौरान उनका लक्ष्य दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के लिए अपने देश में यथाशक्ति समर्थन पाना और उनके पक्ष में जनमत तैयार करना भी था।

अपने शहर, राजकोट में रहकर उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्या पर एक पुस्तक भी लिखी और उसे छपवाकर देश के प्रमुख समाचार पत्रों में उसकी प्रतियाँ भेजी। इसी समय राजकोट मे  प्लेग की महामारी उग्र रूप से फैल गयी थी। गांधी जी स्वयंसेवक बनकर अपनी सेवाँए देने लगें। वहाँ की दलित बस्तियों में जाकर उन्होंने प्रभावितों की हर संभव सहायता की। तब प्लेग फैलता भी बहुत था।

उस अवधि में उनकी मुलाकात देश के प्रखर नेताओं बदरुद्दीन तैय्यब, सर फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बेनर्जी, लोकमान्य जिलक, गोखले आदि से हुई और इन नेताओं का गांधी के  व्यक्तित्व का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। गोखले ने गांधी में संभावना तलाश ली थी। गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु के रूप में जाने जाते हैं। तब तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियां तेज हो गई थी और भारतीय अस्मिता के एक मंच मिल चुका था। इन सभी बड़े नेताओं के समक्ष उन्होंने दक्षिण भारतीय प्रवासी भारतीयों की समस्याओं को विस्तार से रखा। सर फिरोजशहा मेहता की अध्यक्षता में गांधीजी द्वारा भाषण देने के लिये एक सभा का आयोजन बंबई में हुआ। इसके बाद दूसरी सभा  कलकत्ता में गांधीजी द्वारा संबोधित की जानी थी । लेकिन कलकत्ता की जनसभा के पहले ही उन्हें दक्षिण अफ्रीका से तुरन्त आने का निमंत्रण मिला और वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वर्ष 1896 के नवंबर महीने में डरबन के लिए रवाना हो गये।

भारत में गांधीजी ने जो कुछ किया और कहा उसकी सही रिपोर्ट जो नेटाल नहीं पहुँची। उसे बढ़ा-चढ़ाकर तोड़-मरोड़ कर अंग्रेजों और सरकार के समक्ष पेश किया गया। इसे लेकर वहाँ के अंग्रेज वाशिंदे नाराज़ और उत्तेजित हो गए, और उन्होंने गांधी का दक्षिण अफ्रीका आगमन पर प्रबल विरोध करने का निर्णय बंदरगाह पर ही किया। 'क्रूरलैंड` नामक जहाज से जब गांधीजी नाताल पहुँचे तो वहाँ के गोरों ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया। उन पर सड़े अंडों और कंकड़ पत्थर की बौछार होने लगी। भीड़ ने उन्हें लात-घूसों से पीटा। अगर पुलिस सुपरिंटेंडंट की पत्नी ने बीच-बचाव न किया होता तो उस दिन उनके प्राण पखेरू उड़ गये होते। उधर लंदन के उपनिवेश मंत्री ने गांधीजी पर हमला करने वालों पर कार्रवाई करने के लिए नाताल सरकार को तार भेजा। गांधीजी ने ओरपियों को पहचानने से इंकार करते हुए उनके विरुद्ध कोई भी कार्रवाई न करने का अनुरोध किया। गांधीजी ने कहा,
"वे गुमराह किये गये हैं, जब उन्हें सच्चाई का पता चलेगा तब उन्हें अपने किये का पश्चाताप खुद होगा। मैं उन्हें क्षमा करता हूँ।"
अंग्रेजों और दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार के लिये गांधी जी का यह बयान अचंभित करने वाला था। उनके लिये यह एक बिल्कुल नयी चीज़ थी।

दक्षिण अफ्रीका की दूसरी यात्रा के बाद गांधीजी में अद्भुत बदलाव आया। पहले वे अँग्रेजी बैरिस्टर की तरह रहते और जीवन जीते थे। लेकिन अब वे मितव्ययिता को अपने जीवन में स्थान देने लगे। उन्होंने अपने खर्च और अपनी आवश्यकताओं को कम कर दिया। गांधीजी ने 'जीने की कला` सीखी। कपड़ा प्रेस करने से लेकर अपना कपड़ा सिलने तक आदि घरेलू काम वे खुद करने लगे। वे अपने बाल खुद काटते। साफ-सफाई भी करते। इसके अलावा वे लोगों की सेवा के लिए भी समय निकाल लेते। वे प्रतिदिन दो घंटे का समय एक चैरिटेबल अस्पताल में देते, जहाँ वे एक कंपाउंडर की हैसियत से काम करते थे। वे अपने दो बेटों के साथ-साथ भतीजे को भी पढ़ाते थे।

वर्ष 1899 में बोअर-युद्ध छिड़ा। गांधीजी की पूरी सहानुभूति बोअर के साथ थी जो अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे। गांधीजी ने सभी भारतीयों से उनका सहयोग देने की अपील की। उन्होंने लोगों को इकठ्ठा किया और डॉ. बूथ की मदद से भारतीयों की एक एंबुलैंस टुकड़ी बनाई। इस टुकड़ी में 1,100 स्वयंसेवक भर्ती किये गये, थे जो कि सेवा के लिए तत्पर थे। इस टुकड़ी का कार्य घायलों की देखभाल में जुटना था। गांधीजी के नेतृत्व में सभी स्वयंसेवकों ने अपनी अमूल्य सेवाएँ दी। गांधीजी जाति, धर्म, रूप, रंग भेद से दूर रहकर केवल मानवता की सेवा में जुटे थे। उनके इस कार्य की प्रशंसा में वहाँ के समाचार पत्रों ने खूब लिखा।

1901 में युद्ध समाप्त हो गया। गांधीजी ने भारत वापसी का मन बना लिया था। शायद उन्हें दक्षिण अफ्रीका में अच्छी सफलता मिली थी, लेकिन वे 'रूपयों के पीछे न भागने लगें` इस भय के कारण भी वे भारत आने के पक्ष में थे। लेकिन नाताल के भारतीय उन्हें सरलता से छोड़ने वाले नहीं थे। आखिर इस शर्त पर उन्हें इजाजत दी गई कि यदि साल-भर के अंदर अगर उनकी कोई आवश्यकता आ पड़ी तो वे भारतीय समाज के हित के लिए पुनः लौट आयेंगे।

मोहनदास करमचंद गांधी से लेकर, महात्मा गांधी के रूपांतरण को जानने और समझने के लिये दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा किये गए सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों को पढ़ना और समझना बहुत ज़रूरी है। हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार गिरिराज किशोर जी ने गांधी जी के दक्षिण अफ़्रीका प्रवास पर एक बेहद सधा हुआ और प्रमाणिक उपन्यास, पहला गिरमिटिया लिखा है। आप इसे पढ़ सकते हैं। अभी रामचंद्र गुहा ने गांधी बिफोर इंडिया के नाम से भी एक इतिहास पुस्तक लिखी है। मेकिंग ऑफ महात्मा के नाम से एक बहुत अच्छी फिल्म भी गांधी जी के उस कालखंड पर बनी है। गांधी जी द्वारा लिखी गयी अपनी आत्मकथा सत्य से मेरे प्रयोग तो दक्षिण अफ्रीका में उनकी गतिविधियों के बारे में जानने का एक मूल श्रोत तो है ही। गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका छोड़ देने के बाद भी गांधी के ही सिखाये रास्ते पर चल कर महान दक्षिण अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला ने अपना अभीष्ट प्राप्त किया। रंगभेद के खिलाफ गांधी की लड़ाई ने महान अमेरिकी मानवाधिकारवादी मार्टिन लूथर किंग द्वितीय को प्रेरित किया और वे भी अपने लक्ष्य में सफल रहे।
आज महात्मा गांधी की जयंती पर उनका कोटि कोटि नमन !

( विजय शंकर सिंह )

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