Wednesday, 30 October 2019

पटेल और नेहरू के आपसी संबंध, आइये दिग्गजों की बात करें / विजय शंकर सिंह


आज 31 अक्टूबर को सरदार बल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन भी है। सरदार पटेल पर बहुत कुछ लिखा गया है और यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा। मस्तिष्क के खोजीपन का कोई अंत नहीं है। पर राजमोहन गांधी द्वारा लिखी गयी पटेल की जीवनी, पटेल अ लाइफ उनके जीवन पर लिखी गयी सबसे प्रमाणिक पुस्तकों में से एक है। यह लेख, उसी पुस्तक के एक अंश जो नेहरू और पटेल के बीच हुये पत्राचार से सम्बंधित उस पुस्तक में है पर आधारित है। 

कुछ मित्रों के लिये नेहरू और पटेल का विवाद बहुत मौज़ू विषय है। उन मित्रों को न पटेल से प्रेम है और न नेहरू से कोई अनुराग, बल्कि वे इस वैचारिक मतभेद के माध्यम से यह दिखाना चाहते हैं कि पटेल को नेहरू पसंद नहीं करते थे और नेहरू की ज़िद से कुछ जटिल समस्याएं पैदा हुई।

30 जनवरी 1948 को शाम महात्मा गांधी की हत्या हो चुकी थी। देश के लिये यह बेहद संकट और दुख की घड़ी थी। गांधी जी की हत्या के पहले भी प्रयत्न हो चुके थे। पटेल गृह मंत्री थे। गांधी जी की सुरक्षा को लेकर उनपर बहुत आक्षेप लगे। उनके इस्तीफे की भी मांग हुयी। महात्मा गांधी की हत्या हो गयी तो सरदार सबके निशाने पर आ गए क्योंकि वे देश के गृह मंत्री थे। सरदार गांधी के निकटतम शिष्यों में से एक थे। सरदार नाम ही उन्हें गांधी ने बारडोली के प्रख्यात किसान सत्याग्रह के बाद दिया था। 

गांधी जी की 30 जनवरी को हत्या हुयी और 3 फरवरी को दिल्ली के स्टेट्समैन अंग्रेजी दैनिक में एक खबर प्रकाशित हुआ। खबर  में लिखा था, 
" सरदार पटेल को उनके अधीनस्थ सुरक्षा विभाग की विफलता के लिये त्यागपत्र दे देना चाहिये। जब गांधी जी पर बम फेंका गया था, तभी से गांधी जी के खिलाफ लोगों में असंतोष पनप रहा था, और इसकी चेतावनी सुरक्षा विभाग को दी जा चुकी थी। "

उसी दिन जयप्रकाश नारायण और उनके समाजवादी मित्रो ने गृह मंत्री सरदार पटेल से इस्तीफा मांगा और एक नए गृहमंत्री के नियुक्ति की मांग की। जयप्रकाश नारायण जो समाजवादी आंदोलन और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ नेता थे ने कहा, कि 
" अब एक नए गृहमंत्री की ज़रूरत है जो घृणा के इस वातावरण को नियंत्रित कर सके। 74 साल का एक व्यक्ति जिसके पास तमाम विभाग हैं, वह उन विभागों को कैसे सँभाल सकता है जबकि 30 वर्ष के एक युवा के भी बस में नहीं है कि वह इतने सारे विभागों को संभाल सके। "
यह निशाना सरदार पटेल पर था। 

पटेल इस आलोचना और तीखी प्रतिक्रिया पर स्तब्ध रह गए। यही बात मृदुला साराभाई ने भी एक निजी बातचीत में कहीं कही थी, जो पटेल की जानकारी में आयी। पटेल स्वयं गांधी हत्या के शोक से मर्माहत थे ऊपर से उनके कार्यप्रणाली और दक्षता को लेकर की जा रही यह सब टीका टिप्पणी उन्हें विचलित कर रही थी। सरदार एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। स्तब्ध और व्यथित सरदार पटेल ने तुरन्त अपना इस्तीफा लिख दिया और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उस इस्तीफे में यह याद दिलाया कि उनका एक इस्तीफा देने संबंधी पत्र, पहले से ही, उनके (जवाहरलाल नेहरू) की मेज पर पड़ा है। दरअसल पटेल इन सारी आलोचनाओं के पहले ही, गांधी हत्या के बाद दूसरे ही दिन, अपना त्यागपत्र देने की पेशकश, जवाहरलाल नेहरू से कर चुके थे। 

सरदार पटेल ने अपने इस त्यागपत्र में स्टेट्समैन के 3 फरवरी 1948 की खबर का उल्लेख करते हुये लिखा कि, 
" स्टेट्समैन के संवाददाता ने एक संवैधानिक दायित्व की बात की है, और मैं समझता हूँ, उसने एक सही विंदु उठाया है। यह मेरे त्यागपत्र देने का एक अतिरिक्त कारण है । " 
सरदार ने अखबार में छपी एक खबर को भी कितना महत्व दिया, इससे तब के मीडिया की स्वतंत्रता और एक अत्यंत वरिष्ठ राजनेता के उदात्त और लोकतांत्रिक चरित्र को समझा जा सकता है। आज के वक़्त में यह उदाहरण शायद ही मिले। अपने त्यागपत्र में सरदार आगे लिखते हैं, 
" में इस गंभीर संकट ( महात्मा गांधी की हत्या ) की घड़ी में, आप को असहज नहीं करना चाहता हूं। लेकिन जब जनता की यही मांग ( पटेल का त्यागपत्र ) है, जो एक चुनौती भी है, और यह औचित्यपूर्ण भी,  मैं आप से अनुरोध करूँगा कि आप मेरी सहायता ( त्यागपत्र स्वीकार कर ) कीजिये। " 
सरदार पटेल का यह त्यागपत्र, सरदार पटेल करेस्पांडेंस वॉल्यूम 2, पृष्ठ संख्या 279 पर है । 
सरदार पटेल यहां जनमत और प्रेस की आलोचना के कारण चाहते थे कि नेहरू उनका त्यागपत्र स्वीकार कर लें। सरदार का यह दूसरा त्यागपत्र था। उनका पहला इस्तीफा जवाहरलाल नेहरू के पास पहले से ही पड़ा था, जो उन्होंने 31 जनवरी को ही दे दिया था। लेकिन जिसे नेहरू ने स्वीकार नहीं किया था। 

अजब स्थिति थी। नेहरू की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। पटेल को यह भी पता नहीं चल पा रहा था कि उन्हें आगे गृहमंत्री के रूप में काम करना भी है या नहीं। गांधी हत्या एक बड़ी घटना थी। सब स्तब्ध थे। शिशु भारत अभी जन्मा ही था। गांधी के शव के सामने दोनो ही एक दूसरे से गले लग कर शोकाकुल थे। दोनो ने ही मृत्यु के बाद राष्ट्र को सम्मिलित रूप से संबोधित भी किया। पहले नेहरू बोले फिर पटेल ने अपने उद्गार व्यक्त किये। पर इस्तीफे पर न सरदार पटेल ने कुछ पूछा और न नेहरू ने कुछ कहा। सस्पेंस दोनो के ही बीच था। बाहर अभी कुछ पता नहीं था। 

जयप्रकाश नारायण जिन्होंने स्टेट्समैन अखबार की खबर के बाद इस्तीफे के बारे में अपनी राय दी थी, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है,  उस समय जवाहरलाल नेहरू के ही यहां रहते थे और मृदुला साराभाई भी नेहरू जी के करीब थीँ। पटेल को यह अनुमान था कि हो न हो नेहरू के ही मन की बात कि पटेल को इस्तीफा दे देना चाहिए, जयप्रकाश नारायण ने स्टेट्समैन के द्वारा कही हो। 

लेकिन पटेल का यह त्यागपत्र जो उनके सचिव विद्या शंकर के पास था, जिसे उन्हें नेहरू को भेजना था, के संदर्भ में मणिबेन ( सरदार पटेल की पुत्री ) विद्या शंकर के पास गयीं और उस त्यागपत्र को नेहरू के पास, भेजने के लिये मना किया, और कहा कि, 
" नियति ने जो कुछ भी किया है ( यानी गांधी जी की हत्या ) उसके लिये गृह मंत्रालय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। यह पत्र अगर सरदार पटेल के दुश्मनों के हाँथ पड़ गया तो, आज जो दोनों की ( नेहरू और पटेल ) का साझा नेतृत्व देश को मिल रहा है, उसमे व्यवधान पड़ जायेगा, जो इस संकट की घड़ी में देश के लिये बहुत बुरा होगा।'
सरदार ने जब मणिबेन की बात सुनी तो उन्होंने अपने सचिव को वह पत्र भेजने के लिये अधिक जोर नहीं दिया। 

आखिर मणिबेन की ही बात सच निकली। सरदार पटेल और उनके सचिव विद्या शंकर, नेहरू के बारे में विपरीत अनुमान लगा रहे थे। 
आखिर कार 3 फरवरी 1948 को ही जिस दिन स्टेट्समैन में पटेल को इस्तीफा दे देना चाहिए, वाला पत्र छपा था, उसी शाम को नेहरू ने पटेल को एक पत्र लिखा। यह पत्र, सरदार पटेल करेस्पांडेंस वॉल्यूम 2 के पृष्ठ संख्या 204 और 205 पर छपा है। 

नेहरू अपने पत्र में लिखते हैं ,
" बापू की मृत्यु के साथ साथ सब कुछ बदल गया और हमे एक बदली हुयी और कठिन दुनिया का सामना करना है। मैं अपने और आप के बारे में लगातार उठ रही फुसफुसाहटों और अफवाहों से अत्यधिक पीड़ा महसूस कर रहा हूँ, जो हमारे आप के बीच के मतभेदों को अनावश्यक रूप से बहुत बढा चढा कर पेश की जा रही हैं। हमें आपस मे मिलकर, इस शरारत को यही समाप्त करना होगा। 

एक चौथाई सदी से भी अधिक समय से हम एक दूसरे के साथ बहुत आत्मीयता से साथ साथ रहे हैं और हमने साथ साथ मिलकर कई तूफान झेले हैं और कठिनाइयों का सामना किया है। मैं पूरी निष्ठा से यह बात कह सकता हूँ कि इस दौर में आप के प्रति मेरे मन में, जो प्रेम और सम्मान बढ़ा है उसे कोई भी बात ( अफवाह या दुष्प्रचार ) किसी भी दशा में कम नहीं कर सकता है। 

बहरहाल, बापू की मृत्यु के बाद उपजे इस संकट का सामना, या यूं कहें कि इस संकट से आप भी रूबरू हैं, अतः हम दोनों को एक दोस्त और एक सहयोगी की तरह इस मुसीबत की घड़ी में मिलकर इस मुश्किल वक़्त का सामना करना है। यह न केवल लोगों को दिखाने के लिये, बल्कि एक दूसरे के प्रति सम्पूर्ण वफादारी और परस्पर विश्वास के साथ हमे आगे काम करना होगा। अपनी तरफ से मैं आप को आश्वस्त कर दूं, कि आप मुझसे इन सब ( वफादारी और परस्पर विश्वास ) की उम्मीद कर सकते हैं। 

मैंने सोचा था, आप से इन विषयों ( मतभेद और त्यागपूर्ण मांगने की अफवाहों और स्टेट्समैन में छपी 3 फरवरी की खबर पर ) आप से लंबी बात करूं, पर वर्तमान परिस्थितियों ( गांधी हत्या के बाद उत्पन्न संकट ) के कारण समय का इतना अभाव है कि यह हो नहीं सका। बहरहाल, मैं आप से बात करने तक का इंतजार नहीं करना चाहता  हूँ, इसलिए यह पत्र अपने स्नेह और मित्रता के साथ आप को अपनी बात कहते हुये भेज रहा हूँ। " 

जवाहरलाल नेहरू के इस सुदर और आत्मीयता से भरे पत्र का उत्तर सरदार पटेल ने जो दिया उसे आप यहां पढ़ें। सरदार पटेल का यह उत्तर भी, सरदार पटेल के सेलेक्टेड करेस्पांडेंस वॉल्यूम 2 के पृष्ठ 205 और 206 पर दिया गया है। 

पटेल ने नेहरू के पत्र के जवाब में यह लिखा, 
" मैं अंदर तक आप की यह आत्मीयता महसूस कर रहा हूँ, और सच मे आप के पत्र में जो स्नेह और गर्माहट है, उससे मैं अभिभूत हूँ। आपने जो भावनाएं खुल कर व्यक्त की हैं उनका मैं तहे दिल से समर्थन करता हूं। हम दोनों लम्बे समय तक एक साझे उद्देश्य के लिये एक दूसरे के साथी रहे हैं। हमारे देश का हित, और हम दोनों का परस्पर प्रेम और सम्मान, जो अपने विचार वैभिन्यता के बावजूद बराबर रहा है, इन सब मतभेदों के ऊपर और अलग है जिनका उल्लेख आपने किया है। वही परस्पर प्रेम और सम्मान हमें एकजुट रखे हुये हैं। 

सौभाग्य से मुझे बापू से उनकी मृत्यु के पूर्व एक घण्टे तक बात करने का अंतिम अवसर मिला है । उनकी राय भी यही थी कि हम दोनों एक साथ एकजुट होकर रहें। मैं आप को आश्वस्त करता हूं कि मैं पूरी दृढ़ता और इसी भावना के साथ ( जो आपने अपने पत्र में व्यक्त किया है ) अपने दायित्वों ( गृहमंत्री ) का निर्वहन करूँगा। "

इसके ठीक एक दिन पहले संविधान सभा में कांग्रेस पार्टी को सम्बोधित करते हुये सरदार पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को मेरे नेता कह कर संबोधित किया था। 

आज सरदार बल्लभभाई पटेल के जन्मदिन पर उनके चरित्र के इस महान पक्ष को हमारी नयी पीढ़ी के पाठकों को जानना चाहिये ताकि वे दुष्प्रचार के प्रदूषण से बच सकें । सरदार पटेल को उनके जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण। 

© विजय शंकर सिंह 

31 अक्तूबर - इंदिरा जी की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुये / विजय शंकर सिंह



31 अक्टूबर 1984 को दोपहर तक यह खबर फैल चुकी थी कि, दिल्ली में कुछ ऐसा घट गया है जो शायद भारत के इतिहास में एक बड़ी घटना हो। 7 सफदरजंग रोड जो तब प्रधानमंत्री का आधिकारिक आवास था, में इंदिरा गांधी एक विदेशी टीवी चैनल को इंटरव्यू देने जा रही थीं तभी उनकी सुरक्षा में नियुक्त दो सिख जवानो, ने उन पर घात लगा कर हमला किया और वे बुरी तरह घायल हो गयीं। तत्काल उनको वहीं से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में ले जाया गया जहां शाम तक उनकी मृत्यु की घोषणा हो गयी। मृत्यु तो ध्रुव सत्य है और शायद यही अटल है, पर उनकी मृत्यु इस तरह होगी यह किसी ने अनुमान नहीं लगाया था। यह दिन न केवल एक प्रधानमंत्री की हत्या के कारण देश के इतिहास में काला दिन था, बल्कि यह दिन, सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाले उन दो जवानों, सतवंत सिंह और बेअंत सिंह द्वारा दारुण विश्वासघात का दिन भी था। पुलिस बल का एक सदस्य होने के नाते, यह हम सब वर्दीधारी बलो के सदस्यों लिये, एक शर्मनाक दिन था। इस घटना का उन्हें पूर्वाभास था या यह भी कोई संयोग कि, ठीक एक दिन पहले वे भुवनेश्वर में एक सभा मे भाषण देते हुये कहती हैं कि अगर उन्हें कुछ हो जाय तो उनके रक्त का एक एक कतरा इस देश के लिये समर्पित होगा। दुर्योग देखिये, उनका एक एक कतरा खून बहा और वह देश की मिट्टी में समा गया। आज भी वह जगह सुरक्षित है जहां उन पर हमला हुआ था। 31 अक्टूबर की शाम तक उनके मृत्यु की घोषणा होती है और राजीव गांधी को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह शपथ दिला देते हैं। इतिहास के एक अध्याय का अंत हुआ और पर अंतिम पृष्ठ रक्तरंजित और दुःखद था।

इंदिरा अपने महान पिता के समान ही देश के प्रधानमंत्री के पद पर 1966 से 1977 औऱ फिर 1980 से 1984 तक नियुक्ति रहीं। उनके पिता जवाहरलाल नेहरू 1947 से 1964 तक लगातार इस पद पर बने रहे। 1964 में नेहरू जी के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। 1966 में जब शास्त्री जी का निधन ताशकंद में हो गया तब इंदिरा जी को कांग्रेस ने अपना नेता चुना। लाल बहादुर शास्त्री 1965 के भारत पाक युद्ध के नायक थे। वे ताशकंद में एक शांतिवार्ता के लिये गये थे। पर जीवित नहीं लौट पाए। 1966 में  कांग्रेस में किंगमेकर के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष, के कामराज नाडार, अतुल्य घोष, एसके पाटिल एस निजलिंगप्पा आदि अन्य पुराने तपे तपाये नेता थे। पर इन्होंने इंदिरा के रूप में एक गूंगी गुड़िया चुनी थी। एक मोहरा या कठपुतली के रूप में उन्होंने सोचा था कि इंदिरा उनके इशारों पर चलेंगी, पर पुराने और बुजुर्ग नेताओं का भ्रम 1969 तक आते आते टूट गया औऱ जो नयी इंदिरा उभर कर आयीं वह एक नयी रोशनी थी।

1967 में कांग्रेस को कई राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में झटका लगा था। तब डॉ राममनोहर लोहिया जीवित थे और किसी भी सरकार को उन जैसी प्रतिभा असहज कर सकती थी। उनके गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत ने समाजवादी और जनसंघी विचारधारा के लोगों को एक पाले में खड़ा कर दिया। कांग्रेस को अपना चला आ रहा वैचारिक आधार बदलने की चुनौती थी। इंदिरा कांग्रेस को एक नया वैचारिक कलेवर देना चाहती थीं, और उन्होंने तब आत्मविश्वास से भरे दो साहसिक कदम उठाया, एक, बैंको का राष्ट्रीयकरण और दूसरा राजाओं के प्रिवी पर्स और उनके विशेषाधिकार का खात्मा। 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ही सरकारी बैंक था। शेष बैंक या तो बड़े पूंजीपति घरानों के थे, या राजाओं के। इंदिरा गांधी ने 14 बैंकों को राष्ट्रीयकृत कर के अपने प्रगतिशील विचारों की एक झलक दे दी। 1969 में ही राजाओं के प्रिवी पर्स जो उन्हें भारत संघ में विलय के समय एक वादे के रूप में दिया गया था को भी समाप्त कर दिया गया, पर राज्यसभा में उक्त बिल के पास न होने के कारण, 1971 में उसे पुनः पारित करा कर यह राज भत्ता खत्म कर दिया गया। 1969 में ही,  कांग्रेस दो भागों में टूट गयी। एक मे पुराने धुरंधर नेता थे जिसे तब के अखबारों ने सिंडिकेट कहा, और इंदिरा के साथ वाली कांग्रेस, कांग्रेस आई, यानी इंदिरा कांग्रेस कहलाई। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी को प्रबल बहुमत मिला और वह कांग्रेस की सर्वमान्य नेता बन गयी।

1971 सिर्फ पांचवें लोकसभा चुनाव के लिए ही नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान युद्ध के लिए भी जाना जाता है। यह साल इंदिरा गांधी के लिए बेहद अहम था। इस वक्त तक कांग्रेस के दो फाड़ हो चुके थे। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सारे पुराने दोस्त उनकी बेटी इंदिरा के खिलाफ थे। इंदिरा को कांग्रेस के भीतर से ही चुनौती मिल रही थी। मोरारजी देसाई और कामराज फिर से मैदान में थे। चुनावी मैदान में एक तरफ इंदिरा की नई कांग्रेस और दूसरी तरफ पुराने बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं की कांग्रेस (ओ) थी। दरअसल, 12 नवंबर 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा गया गया था। उनपर पार्टी ने अनुशासन के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। इस कदम से बौखलाईं इंदिरा गांधी ने नई पार्टी कांग्रेस (आर - रूलिंग  ) बनाई। सिंडिकेट ने कांग्रेस (ओ) का नेतृत्व किया। इंदिरा गांधी अपने एक नारे 'गरीबी हटाओ' की बदौलत फिर से सत्ता में आ गईं। उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस नेे लोकसभा की 545 सीटों में से 352 सीटें जीतीं। जबकि कांग्रेस (ओ) के खाते में  सिर्फ 16 सीटें ही आई।

सागरिका घोष अपनी किताब 'इंदिरा- भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री' में लिखती हैं कि अपने प्रमुख सचिव पीएन हक्सर की सलाह पर इंदिरा गांधी ने 1971 में मध्यावधि चुनाव करवा डाले। वह बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की जड़ों पर आघात और कांग्रेस बंटवारे की पृष्ठभूमि में लोकप्रिय नारे 'गरीबी हटाओ' के साथ चुनाव मैदान में उतरी थीं। जबकि विरोधियों का नारा था 'इंदिरा हटाओ'। इस तरह 18 मार्च 1971 के दिन इंदिरा गांधी को तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। दिसंबर 1971 में निर्णायक युद्घ के बाद भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को 'मुक्ति' दिला दी। बांग्लादेश का जन्म हुआ। सागरिका घोष लिखती हैं, बांग्लादेश युद्ध के बाद तो इंदिरा गांधी की लोकप्रियता कुलांचें भरने लगीं।

इतनी सफलता और विशेषकर बांग्लादेश के युद्ध मे उनकी दृढ़ता, अमेरिका के महाबली निक्सन और कूटनीतिज्ञ किसिंजर के सामने भी न झुकने वाली लौह महिला, कठिन समय मे सोवियत रूस के साथ अत्यंत घनिष्ठ संबंध बनाकर राजनय को एक नयी परिभाषा देने वाली इंदिरा ने भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास तो बदला ही भूगोल भी बदल कर रख दिया और पचीस साल में ही जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद न केवल खंडित हो गया बल्कि अप्रासंगिक भी हो गया। अब इंदिरा शिखर पर थीं। जहां पहुंचना कठिन तो होता है, पर टिके रहना और भी कठिन होता है। और यही हुआ भी।

1975 में वे राजनारायण द्वारा दायर एक चुनाव याचिका में इलाहाबाद हाईकोर्ट से चुनाव याचिका का मुकदमा हार गयीं। उनको चुनाव में सरकारी संसाधन के दुरुपयोग का दोषी पाया गया। उनका चुनाव निरस्त हो गया। कायदे से उन्हें अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिये था। पर उन्होंने त्यागपत्र देने के बजाय, पद पर ही बने रहना उचित समझा, जो एक बड़ी भूल साबित हुयी।  उधर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार तथा अन्य आरोपो के खिलाफ सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन चल रहा था। आंदोलन बहुत व्यापक था। इसी बीच इस फैसले के कारण, उनके त्यागपत्र की मांग तेज़ हुयी और इसी के बाद 26 जून 1975 को उन्होंने देश मे आपातकाल की घोषणा कर दी और नागरिक आज़ादी पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगा दिए। यह क्रम 1977 तक चला। यह दो साल देश के इतिहास के काले अध्याय के रूप में माना जाता है। इंदिरा अब चाटुकारों से घिर गयी थी। एक कॉकस ने उन्हें घेर लिया था। चंद्रशेखर, मोहन धारियां, कृष्णकांत आदि युवा तुर्क कहे जाने वाले नेता कांग्रेस त्याग चुके थे और 1977 में जब चुनाव की घोषणा हुयी तो, जगजीवन राम, नंदिनी सत्पथी और हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस छोड़ी और कांग्रेस फ़ॉर डेमोक्रेसी के नाम से एक नया दल बनाया।

1977 में कम्युनिस्ट दलों को छोड़ कर अन्य समाजवादी, जनसंघ, कांग्रेस ओ जैसे विरोधी दलों ने खुद को भंग कर के एक नया दल बनाया, जनता पार्टी जिसके प्रेरणास्रोत बने जेपी और आचार्य जेबी कृपालानी। 1971 में जिस जनता ने इंदिरा को सर पर बिठाया था, उसी जनता ने 1977 में उन्हें बुरी तरह हराया। वे खुद चुनाव हार गयीं। इतिहास ऐसे उत्थान पतन के रोचक किस्सों से भरा पड़ा है। 1977 से 1980 के बीच उनपर ईमर्जेन्सी की ज्यादतियों के लिये, शाह कमीशन बैठा। जांचे हुयी। उन्हें गिरफ्तार भी किया गया। पर जनता पार्टी अलग अलग बेमेल दलों के गठजोड़ के कारण लंबी नहीं चल सकी और 1980 तक आते आते टूट गई। 1980 के चुनाव में इंदिरा जी की दूसरी पाली शुरू हुयी जो 1984 के 31 अक्टूबर तक चली जब तक वे शहीद नहीं हो गईं।

1980 के बाद देश के सामने मुख्य चुनौती थी, सिख आतंकवाद। यह खालिस्तान आंदोलन का आतंकवाद था जो पाकिस्तान प्रायोजित था। यह आतंकवाद ही उनकी जान का दुश्मन बना। इंदिरा का सबसे बड़ा योगदान था बांग्लादेश के निर्माण में सक्रिय योगदान। दुनिया के सैन्य इतिहास में बांग्लादेश का युद्ध एक अप्रतिम युद्ध है। मात्र 17 दिन के युद्ध ने पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिए। भारतीय सेना के इतिहास में यह सबसे गौरवपूर्ण क्षण था जब 90,000 से भी अधिक सैनिकों ने अपने कमांडर इन चीफ के साथ अपनी बेल्ट और कैप उतार कर हमारे जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष रखे और अपने शस्त्र भूमि पर रख कर आत्मसमर्पण कर दिये। कूटनीतिक मोर्चे पर भी इंदिरा पूरी तरह खरी उतरी। यूएनओ में युद्ध विराम के तमाम प्रस्ताव बराबर एक के बाद सोवियत रूस द्वारा वीटो किये जाते रहे, और अमेरिका यह सब होते देखता रहा, पर कुछ कर न सका। इंदिरा उंस समय एक दक्ष स्टेट्समैन की तरह अंतराष्ट्रीय पटल पर उभर कर आती हैं। आज़ाद भारत के इतिहास में वह अब तक का सबसे गौरवपूर्ण क्षण था।

इंदिरा के उत्थान पतन से एक सीख मिलती है कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है। उसी ने 1971 में जब इंदिरा को प्यार दिया तो सर आंखों पर बिठा लिया और जब इंदिरा गांधी का आचरण अधिनायकवादी और तानाशाही भरा होने लगा तो उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। एक राजनेता के रूप में उनसे गलतियां भी हुईं, उन्होंने इसका खमियाजा भी भुगता पर वे भारत के अब तक के इतिहास में एक अमिट हस्ताक्षर हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि और उनका स्मरण।

© विजय शंकर सिंह 

Tuesday, 29 October 2019

एक कविता, ताल्लुक़ / विजय शंकर सिंह

ताल्लुक टूट गया है
यह ज़िक्र न करना किसी से ,
लोग देखेंगे,
ताने भरी नज़रों से ,
कुछ न कुछ पूछेंगे वे ,
होंठों में छिपी हुयी शातिर मुस्कान लिए,
ओढ़ी हुयी भलमनसाहत और,
सहानुभूति की चाशनी में ,
पगे हुए , कुछ लफ़्ज़ों की बाज़ीगरी से ।

सुनो ,
कह देना अब वह मसरूफ है ,
और, मसरूफ मैं भी हूँ !

वक़्त के गर्द ने ,
छुपा ली है,
वे सारी फूलों भरी राहें,
जिन पर बिखरे थे किस्से ,
इश्क़, मुलाक़ात और कहकहों के !
अब कोई हरियाली वहाँ नहीं है,
और न बचें हैं वे वृक्ष ,
नशेमन थे जिनमें उन परिंदों के,
जिनके कोलाहल से,
जीवंत रहती थी ज़िंदगी !

अब एक सपाट सी सड़क है वहां,
और  , कहीं कहीं वह भी नहीं !

कहना उस से,
पर हाँ , सोच कर मुस्कुराते हुए,
ज़िंदगी तो गुजरती ही है
ऐसे मुकामों और बियाबाँ से,
उसकी तासीर ही ऐसी है !

वैसे भी ग़म ए रोज़गार और गम ए हयात ,
ग़म ए इश्क़ पर भारी पड़ते है !!

© विजय शंकर सिंह

कश्मीर में यूरोपीय यूनियन के सांसदों का अनधिकृत दौरा / विजय शंकर सिंह

भारतीय सांसद कश्मीर में नहीं घुस सकते। ग़ुलाम नबी आजाद जिनका घर है वे वहां नही जा सकते। सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी अपने बीमार जम्मूकश्मीर के विधायक से मिलने सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही जा पाये। पर यूरोपीय यूनियन के 11 देशों के 27 सांसद, अनधिकृत यात्रा पर वहां के हालात जानने के लिये जा सकते हैं। यही इस बात का प्रमाण है कि वहां सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। यूरोपीय यूनियन के जो सांसद अनधिकृत रूप से लोग वहां जा रहे हैं, वे धुर दक्षिणपंथी प्रो हिटलर की मानसिकता के हैं। यह सभी निजी यात्रा पर जा रहे हैं और यूरोपीय यूनियन ने किसी भी प्रकार की अधिकृत कूटनीतिक उद्देश्य का खंडन किया है।

शायद यह भी भारतीय विदेशनीति के इतिहास में पहलीं घटना होगी कि देश के एक आंतरिक मामले में मुआयना करने हेतु कोई विदेशी शिष्ट मंडल भारत सरकार द्वारा आमंत्रित किया गया हो। यूरोपीय संघ के 27 सांसद कश्मीर का दौरा करने आ रहे हैं। हालांकि यह यूरोपीय यूनियन का अधिकृत शिष्टमंडल नहीं है बल्कि वहा के दक्षिणपंथी दल के सांसद हैं और निजी हैसियत से वहां आ रहे हैं।

अगर कश्मीर की स्थिति नागरिक आज़ादी के प्रतिबन्धों रहित 5 अगस्त के पूर्व की स्थिति होती और वे पर्यटन या किसी भी काम के लिये आते तो कोई विशेष बात नहीं थी, पर जिस राज्य में देश के विरोधी दल के नेताओ को केवल इसलिए नहीं जाने दिया गया कि वहां की स्थिति ठीक नहीं है, और अब विदेशी सांसदों को निमंत्रित कर के वहां भेज देना, अनेक आशंकाओं को जन्म देता है।  मज़े की बात यह भी है कि यूरोपीय यूनियन के कुछ देशों से आने वाले सांसदों की इस यात्रा की जानकारी, उनके दूतावासों को भी नहीं है।

यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधि मंडल को कश्मीर जाने देना और भारतीय सांसदों को वहां जाने से रोकना यह सांसदों के विशेषाधिकार का हनन भी है। यह संप्रभुता के विपरीत भी है। जब भारतीय सांसद कश्मीर गये तो श्रीनगर एयरपोर्ट पर ही उन्हें रोक दिया गया था और उन्हें न तो राज्यपाल से मिलने दिया गया और न ही जनता से। 

यह शिष्टमंडल अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को रद्द करने के बाद वहां की स्थिति का आकलन करेगा। इन 27 सांसदों में से कम से कम 22 सदस्य दक्षिणपंथी या कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा वाले यूके, फ्रांस, जर्मनी, इटली, पोलैंड, चेक रिपब्लिक और स्लोवाकिया जैसे देशों की पार्टियों से ताल्लुक रखते हैं।

इन सदस्यों में वे शामिल हैं जो इटली में परदेसियों के बसने के विरोधी हैं, यूके में ब्रेक्जिट का समर्थन करते हैं और देशांतरण के खिलाफ विचार रखते हैं।

● इनमें पोलैंड के जनप्रतिनिधि रिशर्ड सरनेस्की भी हैं जिन्हें यूरोपियन यूनियन के वाइस प्रेसिडेंट पद से बर्खास्त कर दिया गया था। फरवरी 2018 में एक राजनेता पर नाज़ीवादी अभद्र टिप्पणी करने के आरोप में यह कार्रवाई की गई थी। ऐसा पहली बार हुआ था जब ईयू के प्रतिनिधियों ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल एक वरिष्ठ पदाधिकारी को बर्खास्त करने में किया था।

● फ्रांस की सांसद थियरी मरियानी ने जुलाई 2015 में रूसी अधिकारियों के साथ क्रीमिया का दौरा किया था। क्रीमिया पर रूस ने 2014 में कब्जा किया था। यह सांसद सार्वजनिक तौर पर क्रीमिया में रूस की कार्रवाई का समर्थन कर चुकी हैं। उन पर अजरबैजान देश में मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की तरफ आंखें मूंदने का भी आरोप लग चुका है।

● पोलैंड के राजनेता कोस्मा ज्लोटोवोस्की ने नवंबर 2018 में एक ट्वीट से विवाद खड़ा कर दिया था। उन्होंने अपने ट्वीट में हैशटैग #WhyNotSvastika का इस्तेमाल किया था। यह नाज़ी प्रतीक स्वास्तिक के निशान से जुड़ा हुआ था। शॉपिंग वेबसाइट एमेजॉन पर सोवियत थीम की सामग्री बेचे जाने के विरोध में चलाए जा रहे ऑनलाइन कैंपेन के समर्थन में उन्होंने यह ट्वीट किया था।

● पोलैंड के ही सांसद बोगडॉन रोजोंका ने यहूदियों पर एक टिप्पणी करके इस समुदाय को आहत कर दिया था। उन्होंने ट्वीट कर हैरानी जताई थी कि ”नरसंहार के बावजूद इतने बड़ी संख्या में यहूदी बच कैसे गए?”

यूरोपियन यूनियन ने अधिकृत रूप से कहा है कि,
" शिष्टमंडल की यह यात्रा , भारत की कोई आधिकारिक यात्रा नहीं है। यह एक एनजीओ द्वारा आमंत्रित और निवेदित यात्रा है। हमने इस तरह की कोई यात्रा प्रायोजित नहीं की है। "

ईयू के विदेश मंत्री, फेडरेका ने भारतीय विदेश मंत्री के सामने, कश्मीर में नागरिक आज़ादी के पाबंदी पर भी सवाल उठाया था। यह शिष्टमंडल 27 नेताओ का जो यूनियन के 11 देशों से हैं, और कश्मीर के नेताओं और जनता से मिलेंगे।  इस पर महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि, इस शिष्टमंडल को जनता और नेताओं से खुल कर मिलने दिवा जाएगा।

एक रोचक तथ्य है कि, ययूरोपीय यूनियन के 27 सांसदों में से, 22 सांसद धुर दक्षिणपंथी दलों जैसे ल पेन और ब्रेकसिट पार्टी से हैं। इस यात्रा की भूमिका अमेरिकी कांग्रेस में यह मुद्दा उठने पर कि कश्मीर में विदेशी राजनयिक और विदेशी प्रेस तथा मीडिया को अपने नियमित काम से भी नहीं जाने दिया जा रहा है, तब बनी। विदेशी मीडिया के कश्मीर में प्रतिबंधित किये जाने पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार संगठन ने भी आपत्ति जताई थी। 28 अक्टूबर को यूरोपीय यूनियन के इन सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की और प्रधानमंत्री जी ने कहा कि क्षेत्र का विकास उनका प्रमुख उद्देश्य है यह यूरोपीय यूनियन के सांसद स्वयं देख कर समझ सकते हैं। प्रधानमंत्री जी के अनुसार,
"जम्मूकश्मीर की यात्रा से शिष्टमंडल को जम्मू, कश्मीर और लदाख की सांस्कृतिक, धार्मिक, विविधता को देखने और समझने की मदद मिलेगी। "
यूरोपीय यूनियन में फ्रांस के धुर दक्षिणपंथी सांसद थेरी मैरियानी ने कहा है कि
" हम कश्मीर के उन हालात को देखने जा रहे हैं, जो वह हमें दिखाना चाहिते हैं।

यह भी एक विडंबना है कि इसी कश्मीर का दौरा करने के लिए विदेशी पत्रकारों को अनुमति नहीं दी गई, दिल्ली स्थित राजनयिकों ने कश्मीर जाने की अनुमति मांगने पर सरकार ने नहीं दी, अमरीकी कांग्रेस के क्रिस वॉन होलेन को श्रीनगर जाने का अनुरोध भारत ने ठुकरा दिया और अब ऐसा क्या हुआ कि भारत ने यूरोपीयन संघ के 27 सांसदों को कश्मीर जाने की अनुमति दे दी है ? अगर यह दौरा आधिकारिक नहीं है, निजी है तो क्या इन सांसदों की राय का कोई महत्व नहीं होगा, क्या यह उचित नहीं होता कि ये सांसद भारत के प्रेस से मिलते, सवाल जवाब का सामना करते जिससे पता चलता कि वे किसके कहने पर आए हैं और कश्मीर किन सवालों को लेकर जा रहे हैं. यही नहीं 27 सांसद किस दल के हैं, उनके दलों का अपने अपने देश में कश्मीर पर क्या रुख रहा है, यह सब स्पष्ट नहीं है।

सितंबर महीने में कश्मीर पर यूरोपियन संघ की संसद में और विदेश मामलों की कमेटी के भीतर कश्मीर पर चर्चा हो चुकी है. यूरोपीयन संघ की वाइस प्रेसिडेंट ने अपने भाषण में कश्मीर को लेकर चिन्ता तो जताई थी मगर भारत के खिलाफ कोई प्रस्ताव पास नहीं किया था. अमरीकी संसद में भी मानवाधिकार की सब कमेटी में कश्मीर के सवालों को लेकर चर्चा हुई थी और भारत की आलोचना की गई थी।

पहले इन यूरोपीय यूनियन के नेताओ को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, कश्मीर का इतिहास भूगोल बताएंगे और वे परिस्थियां बताएंगे कि क्यों यह परिवर्तन 5 अगस्त 2019 को किया गया है। जब यह अधिकृत प्रतिनिधि मंडल ही नहीं है तो उसके समक्ष नतमस्तक हो कर यह सफाई पेश करने की ज़रूरत ही क्या है। यही सब इतिहास भूगोल, कारण, परिणाम, किंतु, परन्तु तो भारतीय सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल जिसमे सभी दलों के लोग हों को भी तो समझाया जा सकता है ?

यूरोपीय यूनियन के सांसदों के कश्मीर के दौरे पर भाजपा सांसद डॉ सुब्रमण्यम स्वामी की यह प्रतिक्रिया, उचित और महत्वपूर्ण है,
"मैं अचंभित हूं कि विदेश मंत्रालय ने यूरोपीय संघ के सांसदों को जम्मू और कश्मीर के घाटी वाले इलाके में जाने के लिए व्यवस्था की है। वह भी तब, जब वह अकेले जाएंगे और यह कोई European Union का आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल नहीं होगा। यह हमारी राष्ट्रीय नीति से समझौता है। मेरी सरकार से अपील है कि वह इस दौरे को रद्द करे, क्योंकि यह अनैतिक है।"

ईयू कार्यालय ने भारत सरकार को मेल भेज कर यह जानकारी दी है कि, जो 27 सांसद यूरोपीय यूनियन के भारत गये हैं वे अपनी निजी यात्रा पर हैं यूनियन का उनकी इस यात्रा से कुछ भी लेना देना नहीं है। यूरोपीय यूनियन की संसद के संचार महानिदेशक, जेम डच गुलियट ने कहा है कि, 

“ एमईपी, मेम्बर ऑफ द यूरोपीय पार्लियामेंट, के जो सदस्य भारत गये हैं, यह उनकी निजी यात्रा है, और वे यूरोपीय संसद के किसी अधिकृत शिष्टमंडल के सदस्य नहीं हैं। वे यूरोपीय यूनियन के संसद का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं। " 

कभी कहा गया था कि कश्मीर को कभी भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दा नहीं बनने नहीं दिया जाएगा। अब यूरोपीय यूनियन के सांसदों के इस अनधिकृत दौरे से क्या यह संदेश दुनियाभर में नहीं जाएगा या सरकार की कश्मीर नीति बदल गयी है ? आतंकवाद एक बड़ी और जटिल समस्या है। यह आतंकवाद पाक प्रायोजित है, यह दुनियाभर को पता है। पर क्या कश्मीर की जनता को लंबे समय तक नागरिक और संविधान प्रदत्त आज़ादी से वंचित कर के आतंकवाद पर केवल सुरक्षा बलों के जरिये ही काबू पाया जा सकता है ? 

एक बंद और घुटता हुआ शहर, घरों की बंद खिड़कियां, उसकी दरारों से झांकते सहमे और उत्सुक चेहरे, डल गेट के आगे का ठंडा और धुंध भरा सन्नाटा, खाली शिकारे और बोट हाउस, कदम कदम पर लोहे के बड़े बड़े कोलैप्सेबल बैरियर, जिरह बख्तर पहने सुरक्षा कर्मियों की सतर्क और अनवरत खोजी निगाहें, अगर इनकी भाषा पढ़ने की आप को समझ है तो आप कश्मीर की वर्तमान दशा का अनुमान लगा सकते हैं।

© विजय शंकर सिंह 

Monday, 28 October 2019

चुनाव, और गायब होते जीवन से जुड़े मुद्दे / विजय शंकर सिंह

किसी भी देश मे चुनाव जनमत का अक़्स होता है। यह जनता की राय नहीं होती है यह केवल जनता का इतना मत होता है कि वह अमुक दल या व्यक्ति को चाहती है या अमुक व्यक्ति या दल को नहीं चाहती है। जिस विंदु पर जनता की राय ली जाती है, वह प्रक्रिया जनमतसंग्रह या रेफरेंडम कहलाती है। आज का विमर्श हाल ही में हुये महाराष्ट्र, हरियाणा के विधानसभा चुनाव और कश्मीर में हुये बीडीसी के चुनाव के सम्बंध में है। 

हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव 21 अक्तूबर को सम्पन्न हुये और 23 को मतगणना भी हो गयी। महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला जबकि हरियाणा विधानसभा में त्रिशंकु स्थिति रही और किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। लेकिन भाजपा के 40 विधायकों ने दुष्यंत चौटाला की पार्टी जेजेपी 8 विधायको के साथ मिलकर सरकार बनाई है। जेजेपी पूरे चुनाव के दौरान भाजपा के खिलाफ थी पर चुनाव के बाद वह भाजपा की सहयोगी पार्टी बन गयी। भारतीय राजनीति के लिये यह कोई अनोखी बात नहीं। हमे यह नहीं भूलना चाहिये कि दल बदल की परंपरा हरियाणा में बहुत पुरानी है। आयाराम गयाराम जैसे मुहावरे का जन्म ही हरियाणा में हुआ था। 

यह देखना दिलचस्प होगा कि, हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में  जनता किन मसलों पर सरकार से उसका मन्तव्य चाहती थी और सरकार की पार्टी भाजपा ने किन मुद्दों को उनके बीच रखा। हरियाणा में मुख्य मुद्दा बेरोजगारी और मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में गिरावट के कारण, जन असंतोष का था। पिछले पांच साल में हरियाणा में बेरोजगारी की दर बहुत अधिक बढ़ गयी है। नए रोजगार का सृजन तो हुआ नहीं, ऊपर से हरियाणा के फरीदाबाद, गुणगांव के औद्योगिक इलाक़ो के उद्योगों में गिरावट आने से जो नौकरियां थी वह भी कम हो गयीं। सरकार ने इस औद्योगिक उत्पादन के गिरावट को रोकने के लिये कोई कदम भी नहीं उठाया। हालांकि सरकार बहुत कुछ कर भी नहीं सकती थी। इसका कारण, राज्य सरकारों के पास ऐसे मामलों में सीमित विकल्प का होना है । क्योंकि औद्योगिक और निवेश नीति भारत सरकार के आर्थिक नीतियों के आधार पर चलती है। चूंकि पूरे देश मे आर्थिक मंदी का दौर चल रहा है अतः हरियाणा इससे अछूता नहीं रह सकता है। 

आंकड़ों के अनुसार, हरियाणा में बेरोजगारी की दर देशभर के बड़े राज्यों में सबसे अधिक है। सैंटर फार मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सी.एम.आई.ई.) द्वारा जनवरी 2019 से अप्रैल 2019 में बेरोजगारी की स्थिति पर जारी रिपोर्ट के अनुसार जहां पूरे देश में बेरोजगारी दर 6.9 प्रतिशत थी, वहीं हरियाणा में यह दर 20.5 प्रतिशत थी जो कि अन्य किसी भी बड़े राज्य से अधिक थी। हरियाणा से अधिक बेरोजगारी दर सिर्फ त्रिपुरा में थी। इसी संगठन की अगस्त 2019 के अंतिम सप्ताह की रिपोर्ट के अनुसार भी यही स्थिति बरकरार थी। 

भारत में बेरोजगारी की स्थिति पर प्रकाशित होने वाली इस सबसे विश्वसनीय रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2019 में हरियाणा में कुल 19 लाख बेरोजगार थे, जिनमें से 16.14 लाख दसवीं पास थे और 3.88 लाख उच्च शिक्षा प्राप्त थे (ग्रैजुएट या ऊपर)। बेरोजगारी की बुरी अवस्था का परिचायक यह भी है कि 10 वीं या 12 वीं पास युवाओं में बेरोजगारी दर 29.4  प्रतिशत जैसे ऊंचे स्तर पर है। सबसे भयावह स्थिति 20 से 24 वर्ष के उन युवाओं की है जो पढ़ाई पूरी कर अब रोजगार ढूंढ रहे हैं। इस वर्ग में 17 लाख में से 11 लाख युवा बेरोजगार हैं और बेरोजगारी की दर रिकॉर्ड तोड़ गति से बढ़ रही है। इतने भयावह आंकड़े पर दुनिया में कहीं भी मीडिया की सुर्खियां बनतीं, सड़क पर आंदोलन होते लेकिन हरियाणा में अजीब चुप्पी है। 

अगर सिर्फ सरकारी आंकड़ों की बात करें तो पिछले साल भारत सरकार के राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भी हरियाणा में राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुनी बेरोजगारी थी। आंकड़ों को भूल भी जाएं तो हर गांव और मुहल्ले में बेरोजगार युवकों की फौज देखी जा सकती है। सरकारी नौकरी का बैकलॉग भरने के वादे की स्थिति यह है कि सरकार इन प्रश्नों का जवाब देने से बच रही है: सत्ता ग्रहण करते समय सरकारी विभागों और अर्ध सरकारी विभागों में नौकरियों का कितना बैकलॉग था, उनमें से कितनी नौकरियां अब तक भरी गईं और कितने पद आज भी रिक्त पड़े हैं, इसका कोई संतोषजनक उत्तर सरकार के पास नहीं है। एक आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश के 15 जिलों में ही 15 लाख से अधिक बेरोजगार थे। रोजगार कार्यालय में पंजीकृत इन युवाओं में से मात्र 647 को रोजगार मिला। इस गंभीर स्थिति पर कार्रवाई या सुधार करने की बजाय भाजपा की सरकार ने सूचना देने वाले अधिकारियों पर ही कार्रवाई कर दी। बाद में 26 फरवरी 2019 को विधानसभा में दावा किया कि पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या केवल 6.18 लाख है। इनमें भी सरकार केवल 2461 युवाओं को ही काम दिलवा पाई थी। यानी कि आर.टी.आई. सूचना की मानें या विधानसभा के जवाब को, यह स्पष्ट है कि हरियाणा सरकार रोजगार कार्यालय में पंजीकृत 1 प्रतिशत युवाओं को भी रोजगार नहीं दे पाई। 

महाराष्ट्र हरियाणा की तुलना में एक बड़ा राज्य है और कृषि के मामले में हरियाणा की अपेक्षा कम विकसित है। पर कुछ क्षेत्रों में जहां सिंचाई की सुविधा है वहां खेती बहुत ही अच्छी है। गन्ना, प्याज, कपास वहां की मुख्य फसल है। फिर भी वहां के किसान हरियाणा की तुलना में बहुत पीड़ित हैं। हाल के वर्षों में सबसे अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र से ही आये हैं। उसमे भी सबसे अधिक विदर्भ से आये मामले हैं। इसका कारण वहाँ सूखा और सिंचाई की पर्याप्त सुविधा का न होना है। इस प्रकार वहां इस चुनाव में मुख्य मुद्दा किसानों की आत्महत्या और उनकी समस्या होनी चाहिये थी। दो बड़े बड़े और प्रभावी किसान लोंग मार्च किसान सभा द्वारा, नाशिक और पुणे से मुंबई तक किसानों द्वारा निकाले गए, सरकार ने कर्ज़ माफ करने, सिंचाई सुविधा को बढ़ाने आदि के लिये वादे भी किये पर कोई उल्लेखनीय लाभ सरकार किसानों तक नहीं पहुंचा सकी। आत्महत्या की दुःखद दर रुक नहीं पायी और अब भी स्थिति जस की तस है। 
अब एक नज़र महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या पर डालें। महाराष्ट्र के विदर्भ में पिछले पांच महीने में  504 किसानों ने आत्महत्या की.है। अब भी राज्य में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। आंकड़ों के अनुसार, राज्य में पिछले पांच महीने में यानी मई के आख़िर तक 1092 किसानों ने आत्महत्या की है। साल 2017 के मुकाबले यह आंकड़ा सिर्फ 72 कम है। यानी पिछले साल 1164 किसानों ने आत्महत्या की थी।.टाइम्स ऑफ इंडिया की एक ख़बर के अनुसार, राज्य के सूखाग्रस्त इलाके मराठवाड़ा में पिछले पांच महीनों में 396 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, जबकि साल 2017 में मई तक इस क्षेत्र के 380 किसानों ने आत्महत्या की थी.। किसान संगठनों का मानना है कि जब तक उन्हें, उनकी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक किसानों की आमदनी में कोई भी बढ़ोतरी नहीं होगी।.

इस प्रकार हरियाणा में मुख्य मुद्दा होना चाहिये था युवा आक्रोश और बेरोजगारी तथा महाराष्ट्र में मुख्य मुद्दा किसानों की आत्महत्या होनी चाहिये थी। बाकी अन्य मुद्दों को दरकिनार भी कर दें तो यह सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे थे। लेकिन दोनों ही सरकारों ने 21 अक्टूबर 2019 के चुनाव में इन मुद्दों पर चुप्पी साथ ली। भाजपा जिस मुद्दे को लेकर जनता के बीच गयी, वह मुद्दा था अनुच्छेद 370 के हटाने का। पाकिस्तान की बरबादी का और कश्मीर में आतंकवाद का। प्रधानमंत्री सहित सभी भाजपा के नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान अनुच्छेद 370 को हटाने, पाकिस्तान के थर थर कांपने को अपनी उपलब्धि बताया और इसे चुनावी मुद्दा बनाकर जनता से वोट मांगे। अनु 370 भाजपा के ही कार्यकाल में 5 अगस्त 2019 को जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल के संसद से पारित होते ही निष्प्रभावी हो गया। यह भाजपा का एक चुनावी वादा भी था और निश्चय ही भाजपा इसे अपनी उपलब्धि मान भी सकती है, और है भी। पर इस उपलब्धि से हरियाणा और महाराष्ट्र की मूल समस्याओं जिनका उलेख मैंने ऊपर किया है का समाधान तो नहीं हो सकता है। अगर यही चुनाव जम्मूकश्मीर विधानसभा का होता तो निश्चय ही, अनु 370, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद आदि जो सीधे उंस राज्य से जुड़े हैं, या देश की लोकसभा का होता तो, यह  महत्वपूर्ण मुद्दे होते और चुनाव परिणाम उस मुद्दे पर कुछ हद तक रायशुमारी भी होते। 

अब एक नज़र हाल ही में हुये जम्मूकश्मीर के ब्लॉक डेवलपमेंट कॉउंसिल (बीडीसी) के चुनाव के परिणामों पर डालें। यह चुनाव अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद हुये हैं। गुरुवार, 24 अक्टूबर 19 को हुये बीडीसी के चुनाव में, भाजपा को राज्य की 280 ब्लॉक सीटों में से सिर्फ 81 सीटों पर ही जीत हासिल हुई। वहीं भाजपा का मजबूत गढ़ माने जाने वाले जम्मू क्षेत्र में भी भाजपा को 148 ब्लॉक सीटों में से सिर्फ 52 सीटों पर ही जीत मिल सकी। फारुख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस, ( एनसी ) महबूबा मुफ्ती की प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट, ( पीडीपी ) और कांग्रेस ने जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 जिस प्रकार से पारित किया गया है, उसके तरीके और जम्मूकश्मीर राज्य में लंबे समय से चले आ रहे, नागरिक आज़ादी  पर प्रतिबंधों के कारण विरोध स्वरूप इन चुनावों का बहिष्कार कर दिया था। इस चुनाव में भाजपा के समक्ष कोई दलगत विपक्ष नहीं था। उसके खिलाफ चुनाव लड़ने वालों में केवल निर्दलीय ही थे। भाजपा को कश्मीर क्षेत्र की 137 ब्लॉक सीटों में से 18 पर ही जीत हासिल हुई। जम्मू में यह आंकड़ा 148 में से 52 सीटों का रहा। वहीं पैंथर पार्टी ने आठ और बाकी सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की। साल 2014 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जम्मू की 37 विधानसभा सीटों में से 25 पर जीत दर्ज की थी।

राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के अनुसार,  करीब 26,000 पंचों और सरपंचों ने चुनाव के दौरान वोट डाले और वोटिंग प्रतिशत 98% से ज्यादा रहा। यह भी तब, जब मतदाताओं को बुलेटप्रूफ पुलिस गाड़ियों में मतदान केन्द्र तक लाया गया। काकापोरा इलाके में एक पंचायत घर की सुरक्षा में 100 से ज्यादा की संख्या में सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे। इस सीट पर कुल 9 मतदाताओं में से 8 कश्मीरी पंडित थे। जम्मू के 20 ब्लॉक जो कि 11 विधानसभा सीटों में फैले हैं, इनमें साल 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की थी। अब ब्लॉक चुनावों में भाजपा को सिर्फ 9 सीटों पर जीत मिली। कठुआ जिले में 19 ब्लॉक में भाजपा को 9 सीटों पर जीत मिली, जबकि विधानसभा चुनावों में यहां कि पांचों विधानसभा सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी।

अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ के अनुसार , प्रधानमंत्री जी ने शुक्रवार को जम्मू और कश्मीर में हुए बीडीसी चुनाव में “98% की ऐतिहासिक भागीदारी” की प्रशंसा की और इसे “ऐसी खबर जो हरेक भारतीय को गौरवशाली बनाएगी” कहा। इसका संबंध उन्होंने 5 अगस्त को जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति खत्म करने से जोड़ दिया। पीएम ने ट्वीट किया, “भारत की संसद को इस बात पर गर्व होगा कि इस साल अगस्त में लिए गए उसके ऐतिहासिक निर्णय के कारण जम्मू और कश्मीर के लोग बेजोड़ उत्साह के साथ अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग कर पाए जिसका पता 98% की ऐतिहासिक भागीदारी और वह भी बिना किसी हिंसा या गड़बड़ी के, से चलता है।” लेकिन प्रधानमंत्री जिस चुनाव में भागीदारी का जिक्र कर रहे थे वह प्रत्यक्ष चुनाव नहीं है बल्कि अप्रत्यक्ष चुनाव है जिसमें मतदाता स्वयं निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं , राज्यसभा या राष्ट्रपति के चुनाव की तरह जिसमें भागीदारी आमतौर पर 100 प्रतिशत के करीब रहती है। कौंसिल पंचायती राज व्यवस्था का दूसरा चरण है ।

हालांकि, बीडीसी के चुनाव परिणाम जनता की रायशुमारी नहीं कही जा सकती है पर हवा की दिशा का अनुमान ज़रूर उससे लगाया जा सकता है। जिस प्रकार से जम्मू क्षेत्र में भाजपा को कम सीटों पर सफलता मिली है उसे देखते हुये यह कहा जा सकता है अनुच्छेद 370 के हटाये जाने पर जनता अभी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। मुझे यह नहीं पता कि इस बीडीसी के चुनाव में भाजपा ने अनुच्छेद 370 को कोई मुद्दा बनाया था या नही , पर जनता कुछ मुद्दे स्वयं स्पष्ट करती है और एक अंडरकरेंट उन मुद्दों की जनमन में प्रवाहित होती रहती है। हो सकता है ऐसा भी हो, पर विधानसभा की तुलना में बीडीसी का चुनाव बहुत छोटा और अप्रत्यक्ष होता है जिससे पब्लिक का मूड भले ही भांप लिया जाय, पर उसके आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना, जल्दीबाजी ही होगी।

इस चुनाव की समीक्षा में एडीआर ने भी अपना एक त्वरित और रोचक अध्ययन किया है। अपने अध्ययन में, महाराष्ट्र और हरियाणा में दागी विधायकों की बढ़ी संख्या पर एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने चिंता जताई है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म एक संस्था है जो चुनाव में भाग लेने वाले प्रत्याशी और अन्य आंकडो पर अध्ययन करती रहती है और के अपनी रिपोर्ट देती है। यह संस्था मुख्यतः चुनाव सुधारो पर काम करती है। लोकतंत्र के लिये यह परमावश्यक है कि चुनाव न सिर्फ निष्पक्ष हों बल्कि जो चुने जांय उनकी भी क्षवि साफ सुथरी हो। 

एडीआर की वेबसाइट के अनुसार महाराष्ट्र चुनाव में चुनकर आए 285 विधायकों में से 176 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 113 विधायकों पर गंभीर अपराध के मामले हैं। बीजेपी के 105 विधायकों में से 65 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। शिवसेना के 55 विधायकों में से 31 पर आपराधिक मामले दर्ज है। एनसीपी 53 विधायकों में से 32 पर आपराधिक मामले दर्ज है। कांग्रेस के 44 विधायकों में से 26 आपराधिक मामले दर्ज हैं। निर्दलीय 12 विधायकों में से छह विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

हरियाणा चुनाव में चुनकर आए 90 विधायकों में से 12 विधायकों ने अपने हलफ़नामे में आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जिनमें से 7 विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। कांग्रेस के 31 विधायकों में से चार विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बीजेपी के 40 विधायकों में से 2 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के 10 विधायकों में से 1 विधायकों पर आपराधिक मामला दर्ज हैं। वही निर्दलीय 7 विधायकों में से 3 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

दोनों राज्यों में 348 विधायक करोड़पति
महाराष्ट्र विधानसभा में चुनकर आए 285 विधायकों में से 264 विधायक करोड़पति हैं। औसतन एक विधायक के पास 22 करोड़ की संपत्ति है। बीजेपी के 105 विधायकों में से 100 विधायक करोड़पति हैं। शिवसेना के 55 विधायकों में से 51 विधायक करोड़पति हैं। एनसीपी के 53 में से 47 विधायक करोड़पति हैं वही इंडियन नेशनल कांग्रेस के 44 में से 42 विधायक करोड़पति हैं। बीजेपी की टिकट पर चुनाव लड़ने वाले पराग शाह जो कि घाटकोपर ईस्ट से चुनाव जीत कर आए हैं, महाराष्ट्र के सबसे रईस विधायक हैं। इनकी घोषित संपत्ति 500 करोड़ से अधिक है। वहीं विनोद भीमा निकोल सीपीआईएम के दहानू पालघर से विधायक हैं, उनकी कुल संपत्ति मात्र ₹51082 है। जो कि संपत्ति के मामले में सबसे कम संपत्ति वाले विधायक हैं।

हरियाणा विधानसभा के चुनकर आए 90 विधायकों में से 84 विधायक करोड़पति हैं। विधायकों की औसत संपत्ति 25.26 करोड़ है। बीजेपी के 40 विधायकों में से 37 विधायक करोड़पति हैं। कांग्रेस के 31 विधायकों में से 29 विधायक करोड़पति हैं। जननायक जनता पार्टी के चुनकर आए दसों विधायक करोड़पति हैं। वही चुनकर आए 7 निर्दलीय विधायकों में से 6 निर्दलीय विधायक करोड़पति हैं।

मेहम और रोहतक विधानसभा से चुनकर आए निर्दलीय विधायक बलराज कुंडू सबसे अधिक संपत्ति वाले विधायक हैं। इनकी कुल संपत्ति 141 करोड़ (लगभग) है। वहीं इंडियन नेशनल कांग्रेस की टिकट पर इसराना पानीपत से चुनाव जीत कर आये विधायक बलबीर सिंह सबसे कम संपत्ति वाले प्रदेश के विधायक हैं, इनकी कुल संपत्ति लगभग ₹40 लाख हैं।ADR की मध्यप्रदेश समन्वयक रोली शिवहरे कहती हैं चुनावों में धनबल का अपना महत्व है जिसने आम आदमी को प्रतिनिधित्व से बहुत दूर कर दिया है। अब पैसे के बिना चुनाव लड़ना तो दूभर है ही, जीतना नामुमकिन सा दिखता है।

महाराष्ट्र के चुने गए 117 विधायकों ने अपनी शैक्षणिक योग्यता पांचवी से 12वीं के बीच हलफ़नामे पर घोषित की हैं। वही 157 विधायक ऐसे हैं जिन्होंने अपनी शैक्षणिक योग्यता स्नातक या उससे अधिक घोषित की है। हरियाणा के 90 मे से 27 विधायकों ने अपनी शैक्षणिक योग्यता 5वीं से 12वीं के बीच घोषित की हैं। वहीं 90 विधायकों में से 62 विधायकों ने अपनी शैक्षणिक योग्यता स्नातक या उससे अधिक घोषित की है। महाराष्ट्र में 285 विधायकों में से 24 महिला विधायक चुनी गई हैं। वहीं हरियाणा में 90 विधायकों में से महिला विधायकों की संख्या 10 हैं। पिछले चुनाव की अपेक्षा दोनों राज्यों में महिला विधायकों की संख्या बड़ी तो है, पर यह बढ़ोतरी काफी सामान्य है और अभी भी बराबरी से बहुत दूर है। 

लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चुनाव जनापेक्षा का आईना होता है। हालांकि अभी चुनाव घोषणापत्र बहुत अधिक महत्व और प्रासंगिक नहीं होते है, जिनपर जनता खुलकर अपनी राय दे। वह बौद्धिक बहस के ही इर्दगिर्द केंद्रित रहते हैं। जनता अपनी मूल समस्याओं, रोज़ी, रोटी, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की अपेक्षा हर सरकार से करती है, पर जब वह वोट देने अपने मतदान केंद्र पर जाती है तो जीवन से जुड़े यह मुद्दे गौण हो जाते हैं और वह धर्म जाति के मुद्दों के पचड़े में उलझ जाती है और उसका चयन बटन इन्ही दिशा में चला जाता है। वह सरकार से असंतुष्ट तो दिखती है, उसे कोसती भी है फिर उसके दिमाग में, खून, पानी से गाढ़ा होता है, का भाव उन सभी मुद्दों को दबा देता है, और जाने अनजाने जिन मुद्दों पर वह सरकार के खिलाफ कभी आंदोलनरत रही होती है, समय आने पर वह मुद्दों पर अपनी बात कह नहीं पाती है। राजनीतिक दलों को रोज़ी, रोटी, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे बराबर असहज करते रहे हैं। इसीलिए वे उन मुद्दों पर जनता को नही जाने देने की कोशिश करते हैं और उन भावुकता भरे धर्म और जाति के मुद्दों पर घसीट लाते हैं, जिसमे उन्हें कुछ करना ही नहीं है, बस लनतरानी हाँकनी हो। 

लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी जनता मूल मुद्दों के आधार पर अपना फैसला सुना ही देती है। हरियाणा और महाराष्ट्र में यही हुआ है। हरियाणा में सरकार बन गयी है और महाराष्ट्र में अभी गृहकलह जारी है। देखते हैं आगे क्या होता है। जनमत के दृष्टिकोण से, जम्मूकश्मीर में हुये बीडीसी के अप्रत्यक्ष चुनाव का कोई विशेष महत्व नहीं है। अनुच्छेद 370 के इस परिवर्तन और जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक 2019 को वहां की जनता किस रूप में लेती है यह तभी पता लगेगा जब वहां स्थिति सामान्य होगी। फिलहाल तो, हरियाणा और महाराष्ट्र की जनता ने इस विंदु को बहुत भाव नहीं दिया है। 

© विजय शंकर सिंह 


Saturday, 26 October 2019

कविता - सौदा / विजय शंकर सिंह

सरदार ने कहा, 
गिरोह में आओ, 
जो कहा जा रहा है वह करो, 
चुपचाप, 
बिना सोचे समझे, 
खामोश बना बेचारा वह,
सरदार की बातें सुनता रहा,
सब चले गए, 
एक कारिंदा रह गया। 

कारिंदे ने उससे कहा, 
यह फोन सुनो, 
फोन से मरी मरी सी आवाज आयी, 
कुछ बात हुयी, 
इस बीच सरदार का कारिंदा, 
देहभाषा पढता रहा उसकी,
भर्राहट और डरी हुयी आवाज़ ने
उसके होश उड़ा दिये थे,
वह बेबस सा निढाल हो गया।

कुछ सोचा तुमने ?
कारिंदे ने डराने और समझाने की टोन में,
कान में फुसफुसा कर उससे कहा, 
हमारे कब्जे में कैद है, 
जल्दी ही तुम्हारे सामने होगा, 
और भी बहुत कुछ मिलेगा तुम्हे, 
ज्यादा सोचो मत, 
सौदा बुरा नहीं है,
बस हां कर दो तुम।

मोगाम्बो की आवाज़ गूंजी, 
क्या सोचा तुमने, 
अरे सोचा कुछ ? 
उसके सामने एक तरफ, 
आज़ादी थी, खुद मुख्तारी थी, 
अपना वजूद था, 
और दूसरी तरफ, 
कब्जे में पड़े उसकी बेबसी थी। 
वह गिरोह में शामिल हो गया ।

© विजय शंकर सिंह 

जम्मूकश्मीर सरकार ने 7 आयोगों को भंग कर दिया / विजय शंकर सिंह

जम्मू कश्मीर सरकार ने मानवाधिकार, सूचना, और विकलांग अधिकार आयोग सहित सात आयोगों को भंग कर दिया है। जब 5 अगस्त 2019 को देश का अभिन्न अंग वाला राज्य जम्मूकश्मीर जब तोड़ कर अलग अलग जम्मूकश्मीर और लदाख में बांट कर केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया तो यह दावा सरकार ने किया था कि, अब इस महत्वपूर्ण राज्य की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। पचहत्तर दिन से एक पूरा राज्य जेलखाना बना हुआ है, नागरिको की नागरिक आज़ादी पर बंदिशें हैं और ज़ुबानों पर पहरे। 

जम्मूकश्मीर में केंद्र सरकार ने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को हटा दिया था, जिसके बाद से वहां पर कई तरह की पाबंदियां लागू थीं. घाटी में स्कूल, कॉलेज, मोबाइल फोन, इंटरनेट, पर्यटकों की आवाजाही लंबे समय से प्रभावित है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा था कि इंटेलिजेंस एजेंसी सच नहीं बताती हैं, ना यहां और ना दिल्ली को। इस समय जम्मूकश्मीर क्षेत्र दुनिया का सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्र है। इतनी अधिक फौज 1965, 71 और करगिल  पिछले युद्धों में भी नहीं थी। 

तब सरकार ने कहा था कि तीन माह में राज्य की कानून व्यवस्था की स्थिति सुधरने लगेगी। 1971 के भारत पाक युद्ध के बाद जब उभय देशों में शिमला समझौता हुआ था  तो, जम्मूकश्मीर के बारे में दुनियाभर के देशों की एक ही राय थी कि यह भारत पाक का  द्विपक्षीय मसला है और इसे उभय पक्ष को मिल कर हल करना है। भारत दुनिया के सभी मुल्क़ों को इसी स्टैंड पर कायम रखने के लिये कूटनीतिक रूप से सफल भी रहा। पर आज, दुनियाभर में जम्मूकश्मीर में हो रहे मानवाधिकार हनन के मसलों पर यूएनओ से लेकर दुनियाभर की मीडिया में भारत की क्षवि एक मानवाधिकार का हनन करने वाले देश के रूप में बन रही है।

हमने कभी मानवाधिकार का हनन नहीं किया है। हम एक सभ्य सुसंस्कृत और सभ्य समाज के हैं। यह हमारी प्रिय प्रतिक्रिया रहती है। कमोबेश हम ऐसे हैं भी। पर  22 अक्टूबर को जब सरकार ने जम्मूकश्मीर में, मानवाधिकार आयोग, सूचना आयोग विकलांग अधिकार आयोग को भंग कर दिया तो इस मूर्खतापूर्ण और जनहित विरोधी गतिविधियों की प्रतिक्रिया दुनियाभर में विपरीत ही होगी। सरकार ने किन कारणों से यह अभूतपूर्व उठाया है यह अभी उसने सार्वजनिक भी नहीं किया है। 

राज्य प्रशासन ने जिन 7 आयोगों ख़त्म करने का आदेश जारी किया है वे हैं, जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार आयोग, राज्य सूचना आयोग,राज्य उपभोक्ता निवारण आयोग,राज्य विद्युत नियामक आयोग,महिला एवं बाल विकास आयोग,दिव्यांग जनों के लिए बना आयोग,और राज्य पारदर्शिता आयोग। 1997 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस सरकार द्वारा गठित जम्मू-कश्मीर राज्य मानवाधिकार संरक्षण आयोग भी अब समाप्त हो जाएगा. यह आयोग जम्मू-कश्मीर में विभिन्न मानवाधिकारवादी संगठनों द्वारा राज्य पुलिस व सुरक्षाबलों पर आतंकवाद को कुचलने की आड़ में आम लोगों को प्रताडि़त किए जाने की शिकायतों का संज्ञान लेते हुए ही बनाया गया था। 

एसएसी को 2002 में मुफ्ती मोहम्मद सईद के पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन द्वारा बनाया गया था ताकि राजनेताओं की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय की जा सके और उनके कार्यों पर नज़र रखी जा सके. इस आयोग के दायरे में मुख्यमंत्री, मंत्री और विधान सभा के सदस्यों और विधान परिषद के सदस्यों की जवाबदेही तय थी। यह एक प्रकार से एक ऐसा मंच था, जहां जनता अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के सवाल कर सकती थी। 

जम्मूकश्मीर लंबे समय से आतंकवाद और अलगाववाद से पीड़ित रहा है। अलगाववाद से प्रेरित आतंकवाद एक प्रकार का छद्म युद्ध होता है। इस युद्ध मे दुश्मन जनता के बीच मे ही कहीं न कहीं छुपा बैठा होता है। यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं जिस जनता के बीच आतंकी बैठा है वह जनता या वह लोग उसके साथ हों ही। अधिकांश जनता आतंकी के साथ कभी भी नहीं रहती पर वह खुल कर विरोध भी उनका नहीं कर सकती है। इसका मुख्य कारण भय और अधिकतर का पुलिस पर विश्वास का न होना ही है। जब दुश्मन जनता में घुला मिला बैठा हो, तो उसे ढूंढ कर निकालना कठिन होता है। ऐसी दशा में सबसे बड़ी चुनौती सुरक्षा बलों के लिये यह होती है कि वह जनता में घुसे हुये आतंकी तत्वों को पहचान कर उसे, अलग करें और फिर उन्हें निष्क्रिय कर दें। यह बिल्कुल सर्जरी के समान है। इस शल्य क्रिया की सफलता पर ही सुरक्षा बल की दक्षता का पता चलता है। 

ऐसी परिस्थिति में यह सबसे अधिक ज़रूरी है कि जनता का सरकार और पुलिस पर प्रबल विश्वास हो, और जनता पुलिस द्वारा आतंकियों के विरुद्ध की जा रही कार्यवाहियों के प्रति उदासीन न हो। यह उदासीनता आतंकियो को बल ही प्रदान करेगी। जनता में यह भरोसा पनपे और तँत्र पर भरोसा जमे, यह काम राजनीतिक दलों का है जिन्हें जनता को बराबर यह एहसास दिलाते रहना होगा कि अलगाववाद और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद अंततः उन्हे और उनके मुल्क को बरबाद कर देगा। पर 5 अगस्त के बाद जब से नागरिक गतिविधियों पर सरकार ने पाबंदी लगा रखी है, और आज जब लगभग ढाई महीने इस पाबंदी के हो गए है , सरकार ने उक्त पाबंदी के हटाये जाने और स्थिति को सामान्य बनाये जाने का कोई उपक्रम नहीं किया। इसके विपरीत, आज जनता से सीधे जुड़े जनहितकारी आयोगों को समाप्त कर दिया गया। 

जनता खामोश हो जाना एक प्रकार का अशनि संकेत होता है। आज कश्मीर में यही हो रहा है। घाटी में कुछ स्थानों पर लोगों ने अहिंसक असहयोगात्मक रुख अपनाना शुरू कर दिया है। राजनीतिक गतिविधियां लगभग ठप है। मुख्य धारा के बडे नेता पब्लिक सेफ्टी एक्ट के अंतर्गत बंदी हैं या घरों में कैद है। भाजपा का कोई जनाधार कश्मीर के में नहीँ है। यहां तक कि लद्दाख में भी नही जिसने जम्मूकश्मीर पुनर्गठन बिल 2019 का समर्थन किया था। ऐसा वहाँ हुये ब्लॉक के बीडीसी के चुनाव से स्पष्ट हो गया। जबकि इस चुनाव में भाजपा को छोड़ कर सभी राजनैतिक दलों ने चुनाव का बहिष्कार किया था। राजनीतिक दलों द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सामुहिक बहिष्कार इस बात का प्रमाण है कि जन आक्रोश और भाजपा तथा  केंद्र सरकार के प्रति अविश्वास कहीं गहरे तक पैठ चुका है। 

भारतीय मीडिया जम्मूकश्मीर की खबरों पर थोड़ा चुप है। पर सोशल मीडिया और विदेशी मीडिया के माध्यम से आने वाली खबरें, निश्चित ही चिंता करने वाली हैं। अमेरिका जो आजकल हमारा हमराह बना हुआ है वहां के दोनों महत्वपूर्ण अखबार, वाशिंगटन टाइम्स और न्यूयॉर्क टाइम्स सहित अन्य बड़े अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान जम्मूकश्मीर के इस पाबंदी और ज़ुबांबन्दी जैसे अलोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों के विरोधी कदमो को उजागर कर रहे हैं। मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करने वाले इन संस्थानों की अचानक पंगु करने  वाले इस आदेश से हम दुनियाभर में हमारी क्षवि एक तानाशाही मानसिकता वाले देश की बनेगी। 

© विजय शंकर सिंह 

Friday, 25 October 2019

भाजपा की सत्ता के लिये गोपाल कांडा का जुगाड़ / विजय शंकर सिंह

महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा के चुनाव हो चुके हैं, और महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल चुका है। अब बचा हरियाणा। हरियाणा में छुट्टा घोड़ो के घर मे घुस कर बांधने, छानने और लादने की कार्यवाही शुरू हो गयी है । मतगणना के दिन रात में ही जब चुनाव परिणाम लगभग घोषित हो गए थे, तो दो घोड़े पकड़ कर विशेष विमान से सरदार के पास भेजे गए हैं। अन्य की तलाश और सौदेबाजी चल रही है। यह बात मैं हरियाणा के नवनिर्वाचित विधायकों के लिये कह रहा हूँ।

अब इस खरीद फरोख्त में एक किरदार का आगाज़ हुआ है, जिसका नाम है गोपाल कांडा । यह नाम और गीतिका शर्मा के नाम याद हैं  आप को ? गीतिका शर्मा जिसके पूरे परिवार को गोपाल कांडा ने बरबाद कर के तहस नहस कर दिया था। गीतिका की माँ ने इस गोपाल के दुर्दांत कांड से ऊब कर आत्महत्या कर ली थी और बेटी को मजबूर कर दिया गया मरने के लिए । इस कांडा ने अपने बचाव के लिए पहले मीडिया का दामन पकड़ा, पर बच न सका अंततः जेल भेजा गया। वही गोपाल कांडा अब सिरसा से निर्दलीय चुनाव लड़कर जीत गया है । जिसकी जरूरत सत्ता की भूख मिटाने के लिए भाजपा को आज आ पड़ी है। उसी गोपाल कांडा को स्पेशल चार्टर्ड प्लेन से कल रात दिल्ली तलब किया गया । वह अपने साथ 6 निर्दलीय विधायकों का जुगाड़ कर रहा है।

भाजपा और उसके समर्थक कहते है कि बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओं उनका मिशन है । पर क्या इस कांडा के कांड को भुलाया जा सकता है ? सोच कर देखिये जिन लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिये, आज वे किंगमेकर की भूमिका में संस्कार धर्म रक्षक और राष्ट्र निर्माण का ठेका लेने वाले दल के लिये सत्ता के जुगाड़ में लगे हैं। जैसे ही पार्टी में वैकेंसी हुयी, वैसे ही बेटी बचाओ के नाम पर बेटी शोषक गिरोह का यह शख्स घोड़ा पकड़ कोर ग्रुप में खींच लिया गया और वह विधायकों की खरीद फरोख्त में लग गया। बधाई माननीय गोपाल कांडा जी और सिरसा के अत्यंत धैर्यवान मतदाता बंधु ! गोपाल कांडा, आप बिल्कुल सही जगह पर आ गए हैं। यहां आप सीबीआई, ईडी आदि से भी सुरक्षित रहेंगे और रहा सवाल क्षवि का तो उनमें और आप मे बस उन्नीस बीस का ही फर्क है। चुनाव लड़ने में जो खर्चा पानी हुआ उसे भी निकालना है न । दुनिया मे मुफ्त कुछ भी नही है। खून में व्यापार जो है । सर्वेगुणा कांचनामाश्रयन्ति !!

2012 के अखबारों की एक खबर पढें। साल 2009 में कांग्रेस को हरियाणा में 35 सीटें मिली थीं, पाँच विधायक भजनलाल की पार्टी से टूट कर आ मिले थे, संख्या 40 हो गयी थी. पर, सरकार बनाने के लिए और विधायकों की दरकार थी. तब गोपाल कांडा निर्दलीय जीते थे। उन्होंने बाक़ी निर्दलियों को साथ लाकर भूपिंदर हुड्डा को मुख्यमंत्री बनवा दिया। आपराधिक मामलों के बाद भी हुड्डा ने कांडा को गृह राज्यमंत्री का पद दिया. तीन साल बाद गीतिका शर्मा के आत्महत्या मामले में नाम आने और गिरफ़्तार होने के बाद कांडा को इस्तीफ़ा देना पड़ा था।.

अब फिर गोपाल कांडा 40 की संख्या वाली भाजपा के लिए निर्दलीय विधायक जुटा रहे हैं। कांडा कांड में गीतिका आत्महत्या सिर्फ़ एक अध्याय है। यह कांड, हमारी लोकशाही भारतीय राजनीति, प्रशासन और व्यवसाय में कहीं घुन लगते जाने औऱ खोखला होते जाने की एक दारुण कथा है । चौटाला परिवार की छांव में कभी गोपाल कांडा की तरक़्क़ी हुयी,  आगे बढ़े, कैसे ताक़तवर नौकरशाही ने उनकी मदद की और धन का क्या आगम था,  कहाँ से आता रहा आदि प्रश्न बहुत से हैं। करोगे बात तो हर एक बात याद आएगी। कांडा अपवाद नहीँ है। वह राजनीति मे देश और दुनिया की अनेक ऐसे चटखारे लेकर कहे सुने जाने वाले किस्सों  में मात्र एक कथा है। आज जो सरदार के लिये अस्तबल अस्तबल घूमकर घोड़ा खोज रहे है, उन्हें  गुड़ खिला कर पकड़ रहे है और भाजपा का खेवनहार बने है उसी के खिलाफ भाजपा 2012 में गीतिका के लिये न्याय की मांग के साथ एक अभियान यात्रा चला रही थी। कल का खलनायक आज के नायक के रूप में उभर रहा है। आखिर राजनीति, दुष्टों की आखिरी पनाहगाह जो है !

हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद किसी भी पार्टी की सरकार बनती नहीं दिख रही है। ऐसे में बीजेपी ने चाहे जैसे हो, सरकार बनाने की कोशिश शुरू कर दी है. सिरसा से हरियाणा जनहित पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते गोपाल कांडा ने संकेत दिए हैं कि वह बीजेपी को समर्थन करेंगे। बीजेपी ने इसके लिए प्रयास भी तेज कर दिए हैं। गोपाल कांडा और रानियां से जीते निर्दलीय विधायक रणजीत सिंह चौटाला को लेकर बीजेपी की सांसद सुनीता दुग्गल दिल्ली रवाना हो गई हैं। कांडा और रणजीत सिंह चौटाला को एक चार्टर्ड प्लेन से दिल्ली लाया जा रहा है।

दिल्ली में फिर इन घोड़ो के मोलभाव होंगे। धन के लिये गिरोही पूंजीपतियों को सन्देश  भेजे जाएंगे। कथित, स्वयंभू और स्वघोषित चाणक्य जैसा एक किरदार धन, अधिकार, मद और राजनीति के साम दाम दंड भेद के कॉकटेल से सत्ता का रसायन आसुत करेगा और तब वे कहेंगे कि जनसेवा के लिये यह सब बड़ा ज़रूरी था। हे आचार्य चाणक्य, क्षमाप्रार्थी हूँ । हमने तो अपने  महानतम समकालीन प्रतीक पुरुष की हत्या कर दी है, और हमारी बेशर्मी इतने गहरे अंधकूप में उतर गई है हम उस हत्यारे को हत्यारा कहने से भी परहेज करने लगे हैं।  राजनीति में तो नैतिकता कहीं और कभी भी नहीं रही है। न सतयुग में, न द्वापर में और न त्रेता में। जब जब राज की बात चली है नीति की धज्जियां उड़ी है। येन केन प्रकारेण, सत्ता का पाना और उसे बचाये रखना यही राजनीति का परमोद्देश्य हो गया है। और हम सब यानी जनता, धूमिल के शब्दों में कहूँ तो, जनता, एक भेड़ है, जो दूसरों की ठंड के लिये पीठ पर ऊन की फसल ढोती है। 

© विजय शंकर सिंह 

Thursday, 24 October 2019

कविता - घोड़े / विजय शंकर सिंह

घोड़े खरीदने वे अस्तबल में आये हैं, 
घोड़े उनके लिये बहुत ज़रूरी है। 
बहुत अनुराग है उनको घोड़ो से, 
इसी से तो 
गाड़ियों की कम बिक्री पर 
उनके कान पर कोई जूं भी न रेंगी, 
डूबते व्यापार से, बढ़ते बेरोजगारों से, 
कभी डूबते, तो कभी सूखते, 
सिसकते किसानों से, 
बाजार में पसरते सन्नाटे से।

काम धंधों की कोई फिक्र नहीं, 
लुटते पिटते गरीबो का कोई दर्द नही,
पंक्तियों में खड़े मरते हुए लोगों पर, 
मिहिरकुल जैसा पागल अट्टहास लिये, 
वे घोड़ो और 
लाउडस्पीकर की तलाश में जुटे रहे। 

लुटने के बजाय उनकी हमदर्दी 
लूटने वालों के साथ रही। 
निश्चिन्त भाव से निर्द्वन्द्व हो, 
लूट कर सकें उनके वे, 
ज़रूरी है उसके लिये कि वे घोड़ों पर, 
नज़र रखे, मोलभाव करते रहें, 
धन की आपूर्ति के लिये वे तो हैं ही। 
उन्हें पता है घोड़ो के दम पर तो
बड़े बड़े साम्राज्य बनाये 
और बिगाड़े जाते हैं !!

© विजय शंकर सिंह 

Wednesday, 23 October 2019

दो ग़ज़ ज़मीन भी ना मिली, कू ए यार में / विजय शंकर सिंह

साल 1857 की दस मई को जब मेरठ छावनी में सौनिको ने विद्रोह कर दिया तो, उन्होंने अंग्रेज़ों को मारना शुरू कर दिया। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के साथ साथ इस विप्लव की घटनाओं पर किस्से कहानियां, और उपन्यास भी बहुत लिखे गये हैं। ऐसा ही एक औपन्यासिक वृतांत है जूलियन रैथबॉन का उपन्यास द म्यूटिनि। एक अंग्रेज परिवार के माध्यम से इस विप्लव की दास्तान इस उपन्यास कथा में कही गई है। विप्लव तो हो गया पर इस संग्राम का कोई एक शीर्ष नेता नहीं था। मेरठ से सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर दिए। 60 मील दूर दिल्ली पहुंच कर सैनिकों ने नाव के पुल से यमुना पार किया और लालकिला को घेर लिया। मक़सद था भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर को इस विद्रोह की कमान सौंपना। आखिरी मुग़ल को भले ही जिल्ले इलाही, ( ईश्वर की छाया ) तथा अन्य भारी भरकम पदवियों से संबोधित किया जाता हो, पर वास्तविकता यही थी कि, उसकी बादशाहत बस दिल्ली से पालम तक थी। भले ही बादशाह के हुक़ूमत की सीमा बस इतनी ही बची हो, लेकिन, बादशाह तब भी दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो के हैंग ओवर में ही मुब्तिला था।

बहादुर शाह जफर ने 'दमदमें में दम नहीं है, खैर मांगो जान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की', कहते हुये इस विप्लव का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। पर यह विद्रोह लम्बा नहीं चल सका। बहादुर शाह जफर को हुमायूं के मकबरे से अंग्रेज़ों ने गिरफ्तार कर लिया और उन्हें विद्रोह का मुख्य दोषी साबित कर के पहले कलकत्ता और फिर रंगून भेज दिया। रंगून में जफर से एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार ने इंटरव्यू लिया और जब उनसे उनका जुर्म पूछा तो बहादुर शाह जफर ने कहा कि उनका सबसे बड़ा जुर्म है अपने मुल्क और अवाम की सरपरस्ती और बेहतरी के लिये कुछ न करना। फिर यह कहा कि उन्हें अपने मुल्क और अवाम के प्रति की गयी लापरवाही और नज़र अंदाज़ी की उचित सजा मिली है। अंत मे 1862 में इस अंतिम मुग़ल बादशाह को दो ग़ज़ ज़मीन भी दफन के लिये अपने वतन, कू ए यार में नहीं मिल सकी। वह इरावदी नदी के किनारे रंगून शहर के एक बियाबान में सुपुर्दे खाक हो गया।

1857 के विप्लव से अंग्रेज़ों ने एक सीख यह ग्रहण की कि भारत मे हिन्दू मुस्लिम सद्भाव का बने रहना उनके अस्तित्व के लिये सदैव एक चुनौती रहेगी। यही कारण था कि इस सद्भाव को भग्न करने के लिये उन्होंने खिलाफत आंदोलन के बाद जब भी और जो भी उन्हें मौका मिला हर तरह का प्रयास किया जिससे हिन्दू मुस्लिम मतभेद बढ़े और समाज बिखरे । उन्होंने धर्मगत आधार पर अलग निर्वाचक मंडलों का गठन किया ।जिस ब्रिटिश लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता एक मूल रूप में थी, उसी मदर ऑफ परलियमेंट्स कही जाने वाले ब्रिटेन ने भारत मे धार्मिक विभाजन की नींव डाली। अंग्रेज़ो ने धर्म के आधार पर गठित मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा को सदैव अपनी सरपरस्ती में रखा। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यह दोनों ही साम्रदायिक दल एक दूसरे धर्मों के प्रबल विरोधी होते हुए भी आज़ादी के आंदोलन के खिलाफ थे। 

हेरिटेज टाइम्स ने बहादुर शाह जफर पर एक बेहद प्रेरक प्रसंग का उल्लेख किया है। नेताजी सुभाष बोस ने 1857 से निर्वासित जफर की मजार पर जाकर उक्त विप्लव के नायक बहादुर शाह जफर को खिराजे अकीदत पेश की । बहादुरशाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री देने वालों में सबसे बड़ा नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस का है, जिन्होंने अखंड भारत के लीडर और आज़ाद हिंद फौज के कमांडर इन चीफ की हैसियत से रंगून में बहादुरशाह ज़फ़र की मज़ार पर आज़ाद हिंद फ़ौज के अफ़सरों के साथ 1942 में सलामी दी थी और ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया था।

1947 में हिंदुस्तान आज़ाद होता है, साथ मे बटवारा भी, बर्मा पहले से वजूद में था; पाकिस्तान वजूद में आता है, फिर 1971 में बंग्लादेश! रह रह कर इन मुल्क के लीडर आख़री मुग़ल शहंशाह के मज़ार पर हाज़री देने गए। पाकिस्तान के के प्रधानमंत्री रहते हुए मियां नवाज़ शरीफ़ और राष्ट्रपति रहते हुए अयूब ख़ान, परवेज़ मुशर्रफ़ और आसिफ़ अली ज़रदारी ने बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री दी और फूल चढ़ाए। साथ ही बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहते हुए बेगम ख़ालिदा ज़िया ने बहादुर शाह ज़फ़र के मक़बरे कि ज़यारत की। हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री रहते हुए राजवी गांधी और नरेंद्र मोदी ने, राष्ट्रपति रहते हुए एपीजे अब्दुल कलाम ने, उपराष्ट्रपति रहते हुए भैरोंसिंह शेखावत और हामिद अंसारी ने, विदेशमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी और जसवंत सिंह ने हिंदुस्तान के इस जिलावतन हुक्मरां बहादुर शाह ज़फ़र की क़ब्र पर हाज़री दी।

एक ज़माना था के जब भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा सब एक-दूसरे से जुड़े थे; यानी एक मुल्क थे। और आज एक दूसरे से अलग- अलग हैं। वो दौर था जब लोग काबुल से निकलते थे, पेशावर, दिल्ली, कलकत्ता होते हुए सीधे रंगून निकल जाते थे।

हाल तक हमें रंगून से एक गाना जोड़ते आया है, जिसका बोल है - ‘मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफ़ून, तुम्हारी याद सताती है।’ वैसे रंगून आज से नहीं पिछले डेढ़ सदी से हमारी यादों का हिस्सा है। अंग्रेज़ों ने 1857 में दिल्ली पर क़ब्ज़ा किया। मेजर हडसन ने मुग़ल शहज़ादों का ख़ून पीया, उनके सिर तश्त में रखकर अस्सी बरस के बूढ़े बाप को दस्तऱख्वान पर भिजवाए। बहादुर शाह ज़फ़र को एक नाजायज़ और ज़ालिमाना मुक़दमा चलाकर जिलावतन किया। फिर रंगून में उन्हें क़ैद किया और मरने के छोड़ दिया और उन्हे उनके मुल्क हिंदुस्तान में दफ़न होने की ख़ातिर दो ग़ज़ ज़मीन के लिए तरसाया। हद तो यह है के बादशाह के लिए रंगून में ज़मीन नही थी … उनके लिए उस सरकारी बंगले के पीछे ज़मीन पर खुदाई की गयी जहां उन्होने 7 नवंबर 1862 को आख़री सांस ली.. और बादशाह को ख़ैरात में मिली मिटटी के निचे डाल दिया गया ... और इस तरह एक सूरज ग़ुरूब हो जाता है।

पर हिंदुस्तान के अंतिम मुग़ल शहंशाह
आज़ाद हिंद फ़ौज के सिपाही 'कर्नल' निज़ामुद्दीन के हिसाब से सुभाष बोस ही वो इंसान थे जिन्होंने आख़िरी मुग़ल शहंशाह बहादुरशाह ज़फर की क़ब्र को पूरी इज़्ज़त दिलवाई। उनके अनुसार "ज़फर की क़ब्र को नेताजी बोस ने ही पक्का करवाया था। वहाँ क़ब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी क़ब्र के सामने चारदीवारी बनवाई थी।"

16 दिस्मबर 1987 को प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यहां के विज़िटर्स बुक में अपना पैग़ाम लिख कर ख़िराज ए अक़ीदत पेश किया था, जो कुछ इस तरह था के अगर्चे आप हिंदुस्तान में दफ़न नही हैं, मगर हिन्दुस्तान आपका है, आपका नाम ज़िन्दा है, मै उस याद को ख़िराज ए अक़ीदत पेश करता हुं जो हमें हमारी पहली जंग ए आज़ादी की याद दिलाती है, जो हमने जीती थी।

9 मार्च 2006 को जब हिंदुस्तान के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने मज़ार पर हाज़िरी दी; तब उन्होने वहां के विज़िटर्स बुक में लिखा : ‘आपने अपने एक शेर में लिखा है कि मेरे मज़ार पर कोई नहीं आएगा, न कोई फूल चढ़ाएगा, न शमा जलाएगा.. लेकिन आज मैं यहां सारे हिंदुस्तान की तरफ़ से आपके लिए फूल लेकर आया हूं और मैंने शमां रौशन की हैं।’

हेरिटेज टाइम्स के अनुसार, 26 दिस्मबर 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बर्मा के महामहिम डॉक्टर बॉ मॉऊ के साथ आख़री मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री देने के बाद एक ऐतिहासिक भाषण दिया जो कुछ इस तरह से है :-

महामहिम और मित्रों,
आज हम आज़ाद हिंदुस्तान के आख़री शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर जमा हुए हैं, यह शायद इतिहास का अजीब गौरवशाली संयोग है कि जहां भारत के अंतिम सम्राट की क़ब्र बर्मा में सरज़मीन पर है, वहीं स्वातंत्र बर्मा के अंतिम राजा की अस्थियां हिंदुस्तान की मिट्टी में है!

हम अपना अडिग इरादा इस पवित्र स्मारक के सामने व्यक्त करते हैं, उसकी मज़ार के सामने खड़े हो कर व्यक्त कर रहे हैं, जो हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई का अंतिम योद्धा था, वह जो मनुष्यों के बीच एक शहंशाह था और जो शहंशाहों के बीच एक मनुष्य था। हमने बहादुर शाह ज़फ़र की यादों को संजो कर रखा है। हम हिंदुस्तानी, चाहे किसी भी मज़हब के मानने वाले क्युं न हों, बहादुर शाह ज़फ़र को हमेंशा याद करते हैं, न केवल इस लिए कि वह वही आदमी था, जिसने दुशमन पर बाहर से हमला करने के लिए देशवासियों को उत्तेजित किया था, बल्कि इस लिए भी क्युंके उसके झण्डे के नीचे सभी प्रान्तो के हिंदुस्तानी जमा हुए थे और लड़े थे।

© विजय शंकर सिंह 

Monday, 21 October 2019

आर्थिक समस्याएं सरकार की प्राथमिकता में क्यों नहीं है ? / विजय शंकर सिंह

21 अक्टूबर को महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के लिये चुनाव हो रहे हैं और अब मतगणना शेष है। पर इस चुनावो में प्रचार हेतु सत्तारूढ़ दल ने अपने एजेंडे में अनुच्छेद 370, सर्जिकल स्ट्राइक, सावरकर और कश्मीर तो रखा, पर महाराष्ट्र को हिला देने वाला बैंकिंग घोटाला, पीएमसी बैंक से जुड़े मसले और खाताधारकों की मौतें, पांव पसारती आर्थिक मंदी आदि जनता को सीधे प्रभावित करते हुये मुद्दे क्यों नहीं सत्तारूढ़ दल के एजेंडे में शामिल किये गए ? आज का विमर्श इसी विषय पर है। 

राष्ट्र का सैन्यबल से मजबूत होना ही राष्ट्र निर्माण नही है। राष्ट्र की निर्मिति होती है राष्ट्र के नागरिकों के सुख सुविधा और समृद्धि के मापदंड से। एक मजबूत सैन्यबल भी धन चाहता है। बिना धन के कोई भी राष्ट्र बड़ा और मजबूत सैन्यबल की तो बात ही छोड़िये, एक छोटी मोटी सेना भी संभाल नहीं सकता है। आज भी जो देश सैन्यबल के आधार पर दुनिया मे अपना स्थान रखते हैं, वे आर्थिक दृष्टि और आर्थिक संकेतकों में भी एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। चाहे अमेरिका हो, या रूस हो या चीन हो, इन सबकी आर्थिक हैसियत और इनकी सैन्य क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करें तो आप इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। 

बात आज ग्लोबल हंगर इंडेक्स की है। 117 देशों में हमने 102 स्थान प्राप्त किया है। यह देश की आर्थिक नीतियों को बनाने और लागू करने वाले नीति नियंताओं की प्रतिभा और मेधा पर एक सवाल उठाता है। आर्थिक क्षेत्र के अन्य संकेतक चाहे वह विकास की दर से जुड़े हों, या मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से, या बैंकिंग सेक्टर से, या आयात निर्यात से या कर संग्रह से होने वाली सरकारी आय से, या बेरोजगारी से, या अन्य कोई भी अर्थ संकेतक यह संकेत नहीं दे रहा है कि आखिर हमने पिछले 6 सालों में क्या पाया । आर्थिक रूप से टूटता देश दुनियाभर के लिये एक आसान चारागाह बन जाता है। उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख कम होती जाती है और देश के अंदर असंतोष तो उपजता ही है। यह भी विडंबना है कि हनारे अन्न भंडार भरे पड़े हैं। वे मौसम और चूहों की मार से बरबाद हो रहे हैं, और हम दुनिया के सबसे भूखे देशों में से एक है। इससे बड़ी विडंबना यह है कि साल दर साल भुखमरी में अव्वल पहुंचने के करीब होते हुए भी सत्ता और नीति नियंताओं को इसकी कोई चिंता भी नहीं दिख रही है। 

हालांकि अभी यह स्थिति सुधारी जा सकती है। पर स्थिति बहुत बिगड़े, उस दशा में उस स्थिति पर पहुंचने के पहले ही अगर सरकार कोई सार्थक उपाय नहीं करती तो सिवाय अतीत को कोसने के कुछ भी शेष नहीं बचेगा। आज बैंकिंग सेक्टर से जुड़ी मुम्बई से आने वाली चार मौतों की खबरें अगर आप को लगता है कि भविष्य के अशनि संकेत नहीं हैं तो आप आने वाले तूफान से अनभिज्ञ हैं। यह सभी सदमे से मरने या आत्महत्या करने वाले व्यक्ति कोई, आर्थिक हैसियत में किसी विपन्न या निम्न वर्ग के नहीं थे। एक के खाते में तो 90 लाख जमा थे। सोचिये जिसके खाते में 90 लाख जमा हों, वह कितनी निश्चिंतता से जीवन बिता सकता है ? पर 90 लाख रुपये रख कर भी, सिर्फ उसे वक्त पर न मिलने के काऱण, उस व्यक्ति को आत्महत्या जैसे दुःखद मार्ग का सहारा लेना पड़ा। क्या यह सत्ता, बैंकिंग सेक्टर और हम सबके लिये शर्म की बात नहीं है। 

यह बात पीएमसी बैंक की है। हम एक ऐसे वक्त में आ गए हैं जहां, विदर्भ के सूखा पीड़ित क्षेत्र का किसान भी पेंड से लटक कर आत्महत्या कर लेता है और मुंबई के एक बैंक में सुरक्षित निवेश से रखे हुए 90 लाख रुपये का खाताधारक भी आत्महत्या कर लेता है। पीएमसी बैंक के लोगों ने जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से अपनी समस्या का हल पूछा तो वे, टीवी पर सुरक्षा घेरे में भागती नज़र आईं। उंस समय उनका बच निकलना भी उचित ही था।  जब एक सामान्य खाताधारक को, उसके अपने ही पैसे के लिये जिसे वह एक विद्ड्राल स्लिप पर भर कर निकाल सकता है, देश के वित्तमंत्री से अपने ही जमा पैसों के निकालने  लिये असहज भरे सवाल करना पड़ जाय और सरकार, बजाय इन सवालों के समाधान के,  भागती नज़र आये तो समझ लीजिए, या तो सरकार असंवेदनशील है या जिस आर्थिक और बैंकिंग दुरवस्था में खाताधारक आ गए हैं, उसे सुधारना उनके बस में नहीं है। 

चार खाताधारकों की मौत, तीन को हार्ट अटैक, एक डॉक्टर ने की आत्महत्या! क्या यह खबर आक्रोशित नहीं करती हमें ? पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक घोटाले से पीड़ित एक और खाताधारक 59 साल के फत्तोमल पंजाबी की मंगलवार को हार्ट अटैक के कारण मौत हुई है। पीएमसी बैंक घोटाले के कारण बीते 24 घंटे में यह दूसरे खाताधारक की मौत है। यह सिलसिला यहीं थम जाय,, हमे ऐसी आशा करनी चाहिये। इस असामयिक और दुःखद मृत्यु की जिम्मेदारी कौन लेगा। सरकार तो लेने से रही। उसने जब पुलवामा शहीदों के मृत्यु की जिम्मेदारी नहीं ली तो इन अभागे खाताधारकों की क्या जिम्मेदारी लेंगे। ईश्वर और नियति पर यह जुर्म चिपकाते जाइये। उन्हें आदत है यह सब देखने और देख कर भी चुप रह जाने की।

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का आज बयान आया है कि बैंकिंग सेक्टर की इस दुरवस्था के लिये 2004 से 2014 तक का यूपीए,  या डॉ मनमोहन सिंह की सरकार और डॉ रघुरामराजन की आरबीआई गवर्नरशिप जिम्मेदार है। वित्तमंत्री के इस बयान को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये। हो सकता है उनकी बात में दम हो और यूपीए सरकार ही इसके लिये जिम्मेदार हो। पर यह बयान आज 6 साल बाद आ रहा है। 2014 के तत्काल बाद जो आर्थिक सर्वेक्षण सरकार बजट के पहले संसद में पेश करती है, तब तो सरकार ने यह बात कही नहीं। 2014 के बाद 2019 तक लगातार 6 बजट यह सरकार पेश कर चुकी है पर यह बात न तब कही गयी और न बैंकों के दुरवस्था को रोकने के लिये सरकार ने कोई उपाय किये। 

हर सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार के कामकाज पर सवाल उठाती है। यह एक मानवीय कमज़ोरी है। नौकरशाही में भी यही होता है। हम भी नौकरी में थे तो, यही कहते और सुनते थे कि खराब कानून व्यवस्था हमे विरासत में मिली है और अब जाकर तो कुछ ठीक ठाक हुआ है। पर यह बहाना भी लंबा नहीं चलता था। पर यहां तो सरकार इसे 6 साल से खींच रही है और सरकार के समर्थक तो सोशल मीडिया पर लगातार यही तर्क दे रहे हैं कि पिछला कूड़ा साफ किया जा रहा है।

आज के वित्तमंत्री के इस बयान पर कि, बैंकिंग सेक्टर को सबसे अधिक नुकसान डॉ मनमोहन सिंह और डॉ रघुरामराजन के कार्यकाल में हुआ है, मेरा यह कहना है कि, सरकार 2004 से 2019 तक सभी बैंकों के बारे में एक श्वेतपत्र जारी करे। श्वेतपत्र में साफ साफ यह बताये कि, 
● किस साल किस किस संस्थान को कितना रुपया ऋण दिया गया था। 
● किसके सिफारिश पर ऋण दिया गया, और बैंक के किस अधिकारी ने केवल सिफारिश पर ही ऋण दे दिया। 
(.वित्तमंत्री ने कहा है कि तब फोन पर ऋण दिए जाते थे )
● कितनो के ऋण समय पर मय व्याज के वापस नहीं आये। 
● ऋण न आने पर क्या कार्यवाही की जानी चाहिये थी, औऱ क्या कार्यवाही नहीं की गई। 
● एनपीए क्यो हुये और इसके लिये किसकी जिम्मेदारी है। 
● सिफारिश पर अपात्र को ऋण देने के मामले या बड़ी राशि के ऋण को डिफॉल्ट करने के मामले में बैंक या सरकार के वित्त मंत्रालय या पीएमओ क़ी कितनी भूमिका है। 
● आज तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी सरकार ने डॉ रघुरामराजन तत्कालीन आरबीआई गवर्नर, द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गयी उन बड़े लोन डिफान्टर्स की सूची सार्वजनिक नहीं की है। क्यों ? 
● उनके नाम सार्वजनिक करने से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है, यही सरकार बता दे। 
● अगर बैंक का ऋण लेना और फिर उसे गटक जाना पूंजीपतियों की एक आदत बनती जा रही है तो सरकार उन्हें चेतावनी दे, और न सुधार हो तो नाम सार्वजनिक करें। ऐसे कर्ज़खोरों के डिफ़ॉल्टरी का खामियाजा ईमानदारी से लोन लेकर अपनी ज़रूरतें काट कर, नियमित ईएमआई देने वाला मध्यम वर्ग क्यों भुगते ? 

इन सब जिज्ञासाओं और विन्दुओं को समेटता हुआ, सरकार को बैंकिंग सेक्टर के बारे में एक श्वेत पत्र लाना चाहिये। दोषी चाहे मनमोहन सिंह हो, या रघुरामराजन, इनके दोष जनता के सामने आने चाहिये। कोई उद्योगपति एनपीए या कर्ज़ न चुका पाने के संताप में आत्महत्या नहीं करता है। मरता है तो दस बीस हज़ार कमा कर, व्याज की आस में बैंकों में पैसा रखने वाला, सामान्य  व्यक्ति जब उसे अपने ही धन के लिये नोटबंदी के समय हफ़्तों लाइन में खड़ा होना पड़ता है, या 90 लाख रुपये रख कर भी वक़्त पर जब उसे अपना ही पैसा नहीं मिलता है तब। क्या यह सरकार के आर्थिक नीतियों की विफलता नहीं है ? 

मैं कोई बैंकिग एक्सपर्ट नहीं हूं। पर एक बात मैं कहना चाहता हूं कि, बैंकर और खताधारक के बीच जो महत्वपूर्ण रिश्ता है वह है परस्पर विश्वास का, और यह परस्पर विश्वास अब टूट रहा है । 2016 के नोटबंदी के समय जब बैंकों पर लोग बदहवासी से भरे उमड़ पड़े थे, और अब पीएमसी बैंक के डूबने की खबर पर जब खताधारक रोज़ ही सोशल मीडिया में अपनी व्यथा सुना रहे हैं, तो यह उसी टूटते बैंकिंग भरोसे का परिणाम है। यह सब सवाल मेरे जेहन में उठ रहे हैं, जिन्हें आप से मैं साझा कर रहा हूँ। 

खबर है बैंकिंग सिस्टम पर और बड़ी आफत आने वाली है। भारी कर्ज़ के बोझ से दबी नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी, डीएचएफएल 1135 करोड़ रुपये से अधिक के भुगतान में फंसी है और उसपर ईडी प्रवर्तन निदेशालय ने एक अंडरवर्ल्ड कनेक्शन के कारण छापा मारा है। आईबीआई की एक  रिपोर्ट के अनुसार, देश में काम करने वाली 10 हजार से अधिक नॉन बैंकिंग वित्तीय एनबीएफसी कम्पनियों पर कुल बकाया 20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा हो गया है और यह आंकड़ा बहुत भयावह है । इंडिया बुल्स ओर डीएचएफएल की भी इस राशि मे बड़ी भागीदारी है। डीएचएफएल द्वारा लिए गए 1 लाख करोड़ रुपए के कर्ज में 50% पैसा बैंकों ने दिया है। शेष रकम इसे बीमा कंपनियों और म्यूचुअल फंड्स से मिली है। लगभग 10% पैसा डिपॉजिट के माध्यम से आम लोगों का है अब यह कम्पनी दीवालिया घोषित होने को तैयार बैठी हुई है। डीएचएफएल में सबसे अधिक स्टेट बैंक का पैसा फंसा हुआ है, एसबीआई का अनुमान है कि, अगर कर्ज से दबी डीएचएफएल के डेट रिजॉल्यूशन प्लान को अंतिम रूप देने की कोशिश नाकाम रहती है तो उससे समूचे सिस्टम के लिए खतरा पैदा होगा। बाॅन्ड में किए गए निवेश पर बैंकों को सीधे (मार्केट- टू-मार्केट) नुकसान ही 12% का हो सकता है। लेकिन लोन प्रोविजनिंग में यह नुकसान काफी बड़ा हो सकता है।

खोजी वेबसाइट कोबरापोस्ट और आर्थिक मामलों पर नज़र रखने वाले, पत्रकार गिरीश मालवीय के एक लेख के अनुसार, डीएचएफएल  में राष्ट्रीय आवास बैंक (एनएचबी) का 24.35 अरब रुपये फंसा है। मार्च, 2019 तक एनएचबी को डीएचएफएल से इतना बकाया कर्ज वसूलना था। एनएचबी आवास वित्त संस्थानों को प्रोत्साहन देने वाली प्रमुख एजेंसी है।  वहीं पंजाब एंड महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक (पीएमसी) से उसे 1.75 अरब रुपये वसूलने थे। जून के अंत तक दोनों के सामान्य खाते थे। वधावन परिवार जिसकी डीएचएफएल में 39 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी है। वही परिवार रियल एस्टेट कंपनी एचडीआईएल का संचालन भी करता था। वधावन परिवार का पारिवारिक विभाजन 2013 के लगभग हुआ और इन कंपनियों को आपस मे बाँट लिया गया। पीएमसी बैंक के घोटाले में मुख्य आरोपी और डीएचएफएल के प्रमोटर ही है। इस तरह से डीएचएफएल द्वारा करीब 31 हजार करोड़ से ज्यादा की हेराफेरी की गयी है।. ओर यह यह संभवत: देश का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला हो सकता है। 

आर्थिक मंदी के बीच एक और बुरी खबर आ रही है कि 16 देशों के बीच रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) के अंतर्गत भारत कोई समझौता करने जा रहा है। भारत यदि आरसीईपी समझौते में हस्ताक्षर कर देता है तो उसे 16 देशों जिनमें चीन, जापान, भारत, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के अलावा ब्रुनेई, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलिपिंस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम भी शामिल हैं, तो उसकी कृषि और डेयरी व्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। आसियान और एफटीए देश डेयरी पर उत्पाद शुल्क कम करने के लिए भारत से बातचीत कर रहे हैं, क्योंकि आज की तारीख में दुनिया में डेयरी उत्पादों का सबसे बड़ा बाजार, भारत ही है। देश में डेयरी एक बहुत बड़ा सेक्टर है जो कि लगभग दस करोड़ लोगों को रोजगार देता है और देश के लगभग पचास करोड़ लोग किसी न किसी रूप में इस पर आश्रित हैं। 

एक उदाहरण देखिये। मात्र 48 लाख की आबादी वाला न्यूज़ीलैंड, 10,000 किसानों को रोजगार देकर 10 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) दूध का उत्पादन करता है और वह अपने कुल उत्पादन का 93 प्रतिशत निर्यात करता है । दूसरी ओर, भारत में 10 करोड़ परिवार अपनी आजीविका के लिए डेयरी उद्योग पर निर्भर हैं। यहां तक कि न्यूजीलैंड यदि अपने दूध उत्पाद का मात्र पांच प्रतिशत भी निर्यात करता है तो यह भारत के प्रमुख डेयरी उत्पादों जैसे दूध पाउडर, मक्खन, पनीर आदि के उत्पादन के 30 प्रतिशत के बराबर होगा। इसी प्रकार से आस्ट्रेलिया में भी जहां 6000 हजार से भी कम किसान 10 एमएमटी दूध का उत्पादन करते हैं। और इसमें से 60  प्रतिशत से अधिक निर्यात करते हैं। फिर भारत को आरसीईपी में डेयरी उत्पाद क्यों शामिल करना चाहिए और कम शुल्क पर आयात की अनुमति क्यों देनी चाहिए ? यहां एक बड़ा सवाल है कि क्या इससे आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड के किसानों की दोहरी आय सुनिश्चित करने के लिए है या भारतीय किसानों की ?

भारतीय उपभोक्ताओं को विश्व स्तर पर सबसे सस्ती दर पर दूध मिल रहा है और दूध उत्पादों को उपभोक्ता कीमत (80 प्रतिशत से अधिक) का उच्चतम हिस्सा मिल रहा है। हमारे किसान को उनके दूध की सबसे अधिक कीमत मिल रही है। लेकिन इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद न्यूजीलैंड से सस्ते आयातित दूध पाउडर के कारण किसानों से दूध की खरीद मूल्य में कमी आएगी। आज किसान को सहकारी और यहां तक कि अन्य निजी प्रोसेसरों से भी लगभग 28 से 30 रुपए प्रति लीटर दूध का भाव मिलता है। और ऐसे में यदि आइसीईपी के माध्यम से दूध के आयात की अनुमति दी जाती है तो किसानों के लिए खरीद मूल्य में भारी कमी आएगी। इससे लगभग पांच करोड़ ग्रामीण लोगों को अपनी आजीविका खोनी पड़ सकती है। और वे धीरे धीरे ही सही, डेयरी व्यावसाय छोड़ने के लिए मजबूर होंगे। इसका असर पशुपालन व्यवसाय पर भी पड़ेगा। 

अनाज उत्पादन यानी फसल, पशुधन, मत्स्य पालन और कृषि आगतों के लिए मांग एवं आपूर्ति के अनुमानों पर नीति आयोग के कार्यकारी समूह की रिपोर्ट (फरवरी, 2018) के अनुसार आगामी 2033 में दूध की मांग 292 मिलियन मिट्रिक टन होगी, जबकि भारत में तब 330 मिलियन मिट्रिक टन दूध का उत्पादन होगा। इस प्रकार भारत दूध उत्पादों का अधिशेष होगा और ऐसे हालात में आयात का सवाल ही  नहीं उठता। वहीं नीति आयोग की रिपोर्ट आगे बहुत अच्छे कृषि उत्पादन का सुझाव देती है जो 2033 मे दुधारु मवेशियों के लिए चारे उपलब्धता भी सुनिश्चित करेगा।

इस समय में भारत में डेयरी उद्योग 100 अरब अमेरिका डॉलर का है। और यदि सरकार की नीति ग्रामीण दूध उत्पादकों के प्रति सहयोगात्मक बनी रही तो अगले दशक में इस आकार को दोगुना करने का लक्ष्य है। वास्तव में दूध, किसानों की सबसे बड़ी (150 मिलियन मीट्रिक टन) कृषि उपज है। लेकिन आरसीईपी में भारत के शामिल हो जाने से यह लक्ष्य प्राप्त करना तो दूर की बात है जो अभी उत्पादन हो रहा है उसमें भी कमी आ जायेगी। 

इसके अलावा जैसे रबड़, पाम आयॅल आदि उद्योग भी प्रभावित होंगे। तेल आयात के  कारण किसानों का बहुत ही नुकसान पहले ही  हो चुका है। इसके अलावा हमारी खाद्य तेल की सुरक्षा भी प्रभावित होगी जो अब तक हुई भी है और इस समझौते के कारण ज्यादा प्रभावित हो सकती है। यानी कुल मिलाकर हर वह उद्योग जिसमे रोजगार सृजन बहुतायत से होता है, यानी ऑटो मोबाइल, टेलिकॉम, स्टील, कैमिकल आदि सभी सेक्टर इस समझोते से प्रभावित होंगे। एक उदाहरण साइकिल उद्योग का लीजिए। चीन आज की तारीख में 17 करोड़ साइकिल बेच रहा है और भारत मात्र 1.70 करोड़ साइकिल ही बेच पा रहा है। ऐसे में अगर चीन को भारत में आरईसीपी के जरिए फ्री ट्रेड की इजाजत दे दी गई तो पंजाब की साइकिल इंडस्ट्री पूरी तरह से तबाह हो जाएगी । अभी जो वाहन मंदी है उसका असर साइकिल उद्योग पर भी पड़ रहा है। 

यदि भारत इस समझौते पर हस्ताक्षर करता है तो स्वतंत्रता के बाद यह उसका सबसे बड़ा आत्मघाती कदम होगा। यह समझने वाली बात है यदि डेयरी उद्योग खतरे में आता है तो इससे हमारी खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाएगी। हम खाद्य तेलों की तरह डेयरी उत्पादों के आयातों पर निर्भर हो जाएंगे। 

आर्थिक मंदी के सभी चिंताजनक संकेतकों के बाद भी सरकार का कोई बयान और कदम ऐसा नहीं दिख रहा है जिससे यह कहा जाय कि सरकार इस आसन्न आर्थिक मंदी से निपटने के लिये मानसिक रूप से तैयार हो रही है। बल्कि सरकार के मंत्री इस मंदी का उपहास उड़ाते नज़र आ रहे हैं।  इसका सबसे बड़ा प्रमाण है हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में मूल जनसमस्याओं के बारे में जानबूझकर अनदेखी करना। महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जहां सबसे अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या की जाती है। पर इन आत्महत्याओं के कारणों और खेती किसानी की मूल समस्याओं से निपटने के लिये सरकार की कोई कार्ययोजना ही अब तक सामने नहीं आयी। असल मुद्दे से जी चुराना, जानबूझकर जनता का ध्यान भटकाना, और ऐसे एजेंडे पर कार्य करना जिससे देश का आपसी सद्भाव खंडित हो, यह कार्य भले ही किसी दल विशेष को लाभ पहुंचाये,पर मूल मुद्दों के हल करने से सरकार का जी चुराना अंततः देश का अहित ही करेगा। मूँदहु आंख कतहुँ कुछ नाहीं, की प्रवित्ति से आज तक तो किसी समस्या का समाधान हुआ नहीं है। 

© विजय शंकर सिंह 

Saturday, 19 October 2019

लखनऊ में कमलेश तिवारी की हत्या और उसके बाद / विजय शंकर सिंह

छह साल से लग्भग हर मुद्दे को सांप्रदायिक रंग सत्तारूढ़ दल, उसका पितृ संगठन, और उत्प्रेरक की भूमिका मे सरकार , देकर ध्रुवीकरण करने की कोरी कोशिश कर रही है। उनके इस एक सूत्री एजेंडे ने सरकार के मूल उद्देश्य और कार्य, गवर्नेंस, यानी सरकार चलाने का कार्य को नेपथ्य मे डाल दिया है। आर्थिक स्थिति चौपट हो रही है, अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में गिरावट है। क्या मजदूर, क्या किसान, क्या व्यापारी, क्या मध्यवर्गीय नौकरीपेशा समाज, क्या कुछ बड़े उद्योगपति भी, सभी के सभी इस गिरावट को भोग रहे है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक निराशा का वातावरण है। 

पर इन तमाम विसंगतियों और बुरी खबरों के बीच एक सुकून देने वाली खबर यह है कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हो पा रहा है। इनके बरगलाने का कोई खास असर नहीं पड़ रहा है। इसका काऱण या तो लोग धीरे धीरे परिपक्व हो रहे हैं या सब अपने रोजी रोटी पर जो संकट आ रहा है उससे धर्म और संप्रदाय के एजेंडे से दूर हट रहे हैं। मेरी आशंका थी कि कमलेश की हत्या के बाद हो सकता है कुछ गड़बड़ करने की कोशिश हो। पर लोग समझ रहे हैं। 

अभी हम पुलिस की ही थियरी पर यकीन करें और गुजरात कनेक्शन और बिजनौर के फतवे देने वाले लोगों को दोषी पाते हैं तो कमलेश तिवारी की हत्या पुलिस के अक्षमता का एक प्रमाण है। हत्या की धमकी नहीं थी वह, हत्या की खुली सुपारी थी। जो मारेगा इतना दिया जाएगा। क्या हम मध्ययुगीन बर्बर समाज मे रह रहे हैं कि एक आदमी खुलकर सुपारी दे रहा है, और उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है। होता तो यह कि सुपारी देने वाले के खिलाफ मुकदमा दर्ज होता, उसके अंडरवर्ल्ड कनेक्शन की जांच होती और उसके नतीजों से जो भी मिलता कमलेश तिवारी को समय समय पर आगाह किया जाता, और कमलेश को लगातार, उनके ऊपर खतरे का आकलन कर के सुरक्षा प्रदान की जाती है। 

जब कमलेश तिवारी के सिर काटने पर इनाम देने का फतवा दिया गया था, तब फतवा देने वाले लोगों की कोई धरपकड़ और जांच की गयी थी या नहीं, यह मुझे नहीं पता। पर अगर फतवा बाज़ों के आतंकी कनेक्शन की पड़ताल की गयी होती और कमलेश तिवारी की सुरक्षा का स्केल घटाया न गया होता तो हो सकता है कि यह बर्बर हत्याकांड न हुआ होता। 

एक तरफ हत्या करने की खुलेआम धमकी, उसकी कोई गम्भीरता से जांच नहीं करना, फिर कमलेश तिवारी की पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था न करना, कमलेश को भी आसन्न खतरे से समय समय पर अपडेट न करना, सुरक्षा व्यवस्था का स्केल कम कर देना, और चौबीस घँटे में ही हत्याकांड का खुलासा कर देना, यह सब सवाल किसी भी प्रोफेशनल पुलिस अफसर के मन मे उठ सकते हैं। 

लेकिन ऐसा मुझे लगता है नहीं किया गया। यह एक प्रोफेशनल पुलिसिंग का तरीका है जिसे आजमाया जाता है। कमलेश तिवारी जैसे हाई प्रोफाइल हत्या के मामले में पुलिस को घटना की सूचना मिलते ही उसके हाँथ पांव फूल जाते हैं। सरकार और डीजीपी मुख्यालय तुरन्त इस मोड में आ जाते हैं कि जल्दी केस का खुलासा करो। यह अनावश्यक दबाव और तनाव फेसबुक पर ही मुझसे जुड़े सभी पुलिस अफसर झेल चुके हैं और जो सेवा में हैं वे इसे कभी न कभी महसूस करते हैं। पर यह जल्दबाजी, पुलिस के विवेचक को कभी कभी विचलित भी कर देती है। ऐसे समय मे विवेचना टीम को समय और स्पेस देना चाहिये। प्रेस को जब तक सही दिशा न मिल जाय तक उन्हें भरोसे में लेकर शांत रहना चाहिये। 

हत्या की साज़िश और साज़िश को कार्यरूप में बदलना दो अलग अलग चीजें हैं। साज़िश तो खुल गयी। गुजरात की पुलिस से तेजी से काम कर के इसे खोल भी दिया। 6 मुल्ज़िम पकड़ भी लिये गये। लखनऊ पुलिस को बधाई। पर वे कौन थे, जो मिठाई का डिब्बा लेकर अंदर गये और 30 मिनट तक बातचीत, नाश्ता पानी करते रहे ? 
जब तक इन लोगों को पकड़ा नहीं जा सकेगा तब तक गुजरात कनेक्शन, फतवा वाले लोगों के पकड़ने से राजनीतिक मक़सद भले ही हल हो जाय, पर हत्याकांड की गुत्थी सुलझती हुयी नज़र नहीं आती है। 

पर हो सकता है लखनऊ पुलिस उन तक पहुंच भी गयी हो और अभी उसका खुलासा करने में मुक़दमे पर असर पड़े, इसलिए बताया न जा रहा हो।  तफतीश के कई पहलू होते हैं जब तक सब रहस्य खुल न जाँय तब तक उन्हें बताया भी नहीं जाता और बताया भी नहीं जाना चाहिये। धमकी के बाद भी अगर वह धमकी कार्यरूप बदल जाती है तो यह पुलिस के कार्यप्रणाली को संदेह के घेरे में ही डालती है। फिलहाल तो यही मीडिया और सोशल मीडिया पर आ रहा है। 

हिन्दू महासभा के नेता कमलेश तिवारी की हत्या दुःखद और निंदनीय। मैं कमलेश तिवारी को थोड़ा बहुत जानता था। वे अक्सर अपने साम्प्रदायिक कट्टरपंथी विचारों के कारण विवादित भी रहे। मैं उनके विचारधारा से कत्तई सहमत नहीं हूं, पर उनकी हत्या को निंदनीय और कायराना हरकत मानता हूं । समाज मे अगर हिंसक घृणा का माहौल जानबूझकर बनाया जाता रहेगा, तो उसका खामियाजा उनको भी भुगतना पड़ेगा, जो इस हिंसक और साम्प्रदायिक कट्टरपंथी विचारधारा के पोषक है। गांधी का यह कथन याद कीजिए, अगर आंख के बदले आंख लेने की हिंसक मनोवृत्ति बनी रही तो, पूरा समाज एक दिन विकलांग हो जाएगा। 

कमलेश तिवारी के दफ्तर मे एक चित्र टँगा है जो गांधी के हत्यारे गोडसे का है। उसके नीचे लिखा है मैंने गांधी को क्यों मारा। यह किताब गोडसे के जघन्य कृत्य को औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए अक्सर उसके समर्थक उद्धृत करते हैं। जिनका बौध्दिक दर्शन ही हिंसा और घृणा की पैरवी करता है वे यह नहीं जानते कि वे भी कभी इसके शिकार हो सकते हैं। लखनऊ पुलिस के लिये दिनदहाड़े हुआ यह जघन्य कृत्य एक बड़ी चुनौती है। मुल्ज़िम पकड़े जांय, उनके खिलाफ सुबूत जुटाए जांय और अदालत में उन्हें पेश किया जाय और सज़ा दिलाई जाय, यह सबसे अधिक ज़रूरी है। किसी भी महानगर में दिनदहाड़े होने वाली घटना के बाद पुलिस तुरन्त आलोचना और भर्त्सना के केंद्र में आ जाती है। 

सोशल मिडिया पर कमलेश की माता जी का एक वीडियो एबीपी न्यूज़ के माध्यम से तैर रहा है। उसमें उन्होंने किसी शिव गुप्ता पर अपना सन्देह जताया है। इस आदमी से किसी मंदिर का विवाद है। हो सकता है पुलिस इस एंगल पर भी काम करे। यह भी हो सकता है सुपारी देने वाले और इन हत्यारो के बीच कोई सीधा सम्बंध हो। पर जब तक हत्या का अपराध यानी गोली मारने और गला रेत देने वाले व्यक्ति पकड़ में नहीं आते हैं, और वे अपराध की स्वीकारोक्ति कर के हत्या में प्रयुक्त हथियार बरामद नहीं करा देते हैं, तब तक इस अपराध के खुलासे पर न तो जनता को यकीन होगा, न कमलेश के घर वालों को और न ही अदालत ही संतुष्ट हो सकेगी। 

© विजय शंकर सिंह 

Friday, 18 October 2019

लखनऊ में हिन्दू महासभा के कमलेश तिवारी की हत्या / विजय शंकर सिंह

हिन्दूमहासभा के नेता कमलेश तिवारी की हत्या दुःखद और निंदनीय। मैं कमलेश तिवारी को थोड़ा बहुत जानता था। वे अक्सर अपने साम्प्रदायिक कट्टरपंथी विचारों के कारण विवादित भी रहे। मैं उनके विचारधारा से कत्तई सहमत नहीं हूं, पर उनकी हत्या को निंदनीय और कायराना हरकत मानता हूं ।

समाज मे अगर हिंसक घृणा का माहौल जानबूझकर बनाया जाता रहेगा, तो उसका खामियाजा उनको भी भुगतना पड़ेगा, जो इस हिंसक और साम्प्रदायिक कट्टरपंथी विचारधारा के पोषक है। गांधी का यह कथन याद कीजिए, अगर आंख के बदले आंख लेने की हिंसक मनोवृत्ति बनी रही तो, पूरा समाज एक दिन विकलांग हो जाएगा। 

कमलेश तिवारी के दफ्तर मे एक चित्र टँगा है जो गांधी के हत्यारे गोडसे का है। उसके नीचे लिखा है मैंने गांधी को क्यों मारा। यह किताब गोडसे के जघन्य कृत्य को औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए अक्सर उसके समर्थक उद्धृत करते हैं। जिनका बौध्दिक दर्शन ही हिंसा और घृणा की पैरवी करता है वे यह नहीं जानते कि वे भी कभी इसके शिकार हो सकते हैं। 

लखनऊ पुलिस के लिये दिनदहाड़े हुआ यह जघन्य कृत्य एक बड़ी चुनौती है। मुल्ज़िम पकड़े जांय, उनके खिलाफ सुबूत जुटाए जांय और अदालत में उन्हें पेश किया जाय और सज़ा दिलाई जाय, यह सबसे अधिक ज़रूरी है। किसी भी महानगर में दिनदहाड़े होने वाली घटना के बाद पुलिस तुरन्त आलोचना और भर्त्सना के केंद्र में आ जाती है।

© विजय शंकर सिंह 

दुआ से भी नफरत , क्या बने बात जहां बात बनाये न बने / विजय शंकर सिंह

एक बात सुन लें। अगर आप चाहते हैं कि हम सबका धन बैंकों में सुरक्षित रहे, आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरे, लोगों की नौकरियां बचे, तो सरकार को सावरकर को भारत रत्न दे देने दीजिए। उन्हें एक नया इतिहास लिख भी देने दीजिये। नहीं तो यह अक्षम नेतृत्व बिना मुद्दे का मुद्दा बनाएगा और हम सब उसी के इंद्रजाल में उलझे रहेंगे। यह सारे पद्म पुरस्कार, कई बार विवादित हो चुके हैं। एक बार तो सुप्रीम कोर्ट ने इन पर रोक भी लगा दी थी। राजनीतिक व्यक्ति जब ईश्वर को भी राजनीतिक गुणा भाग के चश्मे से देखता है तो, भारत रत्न कोई बहुत बड़ी चीज नही है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जिन महान देशभक्तों को भारत रत्न नहीं मिला है वे किसी भारत रत्न प्राप्तकर्ता से कमतर हैं या उनका योगदान कम है। सावरकर को भारत रत्न दीजिये या न दीजिए, सावरकर की जो ऐतिहासिक स्थिति समाज मे है वह भारत रत्न पाने के बाद भी बनी रहेगी।

सरकार की एक बाद काबिले तारीफ है। वह जिस भी तथ्य, व्यक्ति, कथ्य, या विंदु को अपने बयानों और हरकतों द्वारा चर्चित तथा प्रासंगिक बनाते हैं, उनके बारे में नए नए तथ्य सामने आने लगते हैं। हम एक संचार क्रांति के युग मे हैं। तथ्यों को पढ़ना लिखना, खोज निकालना अब कठिन नहीं रहा। न ही तथ्यो के साथ छेड़छाड़ करना भी। पहले इनके एजेंडे पर, गांधी थे, नेहरू तो अब भी इनके पसंदीदा आइकन हैं, फिर पटेल आये, अब सावरकर आये हैं। सावरकर को भारत रत्न देने के पीछे का आधार यह बताया जा रहा है कि उन्होंने 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा और इस पर, मराठी में एक किताब भी उनके द्वारा लिखी गयी। यह बात सच है कि वे एक जुझारू क्रांतिकारी थे और अंग्रेजों ने उन्हें यातनापूर्ण जेल अंडमान के सेलुलर जेल में रखा था ।

लेकिन अंडमान के बाद जब वे ब्रिटिश राज से माफी मांग कर बाहर आये तो, वे राजभक्त बन चुके थे। वे आज़ादी के आंदोलन से अलग हो चुके थे। यही नहीं 1942 के सबसे प्रखर जन आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों के साथ और एमए जिन्ना के सहयोगी बन कर उनकी मुस्लिम लीग के साथ सरकार चला रहे थे। यह सब दस्तावेजों में है, और बहुत पुरानी बात भी नहीं है। इन सब घटनाओं पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, आगे भी लिखा जाता रहेगा। अगर, 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहना ही भारत रत्न पाने का मापदंड है तो, उसी स्वाधीनता संग्राम के महान नेतृत्वकर्ता, मंगल पांडेय, नाना राव पेशवा, बेगम हजरत महल, बेगम ज़ीनत महल, अजीमुल्ला खान, बाबू कुंवर सिंह, राजा राव बक्श सिंह, बहादुरशाह जफर, रानी झांसी, आदि अनेक नाम हैं जिन्होंने उस संग्राम का नेतृत्व किया था, उन्हें क्यों भुलाया जा रहा है ? सावरकर को भारत रत्न दे दीजिए पर इससे, सबसे अधिक खुश वे अंग्रेज होंगे जिन्होंने सावरकर को कृपा करके माफी दी थी और राजभक्ति की पेंशन भी।

और अंत मे यह, प्रसंग पढ़ लीजिए। यह प्रसंग, प्रसिद्ध आर्थिक पत्रकार और किसानो की व्यथा पर नियमित काम करने वाले, पी साईनाथ द्वारा ने सुनाया गया एक सन्दर्भ है।
" 1926 में एक लेखक चित्रगुप्त ने एक किताब लिखी लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर ... इस किताब ने लेखक ने सावरकर की शान में सिर्फ कसीदे पढ़े... 1987 में जब इसको रीप्रिंट किया गया तो एक बात किताब के जरिए सामने अाई कि, चित्रगुप्त खुद सावरकर थे जो चित्रगुप्त के नाम किताब लिख डाले और वो भी अपनी तारीफ के लिए। भारत रत्न बनता है। "

© विजय शंकर सिंह 

अब सावरकर को भारत रत्न दे दी दीजिये, सरकार / विजय शंकर सिंह

बात सुन लें। अगर आप चाहते हैं कि हम सबका धन बैंकों में सुरक्षित रहे, आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरे, लोगों की नौकरियां बचे, तो सरकार को सावरकर को भारत रत्न दे देने दीजिए। उन्हें एक नया इतिहास लिख भी देने दीजिये। नहीं तो यह अक्षम नेतृत्व बिना मुद्दे का मुद्दा बनाएगा और हम सब उसी के इंद्रजाल में उलझे रहेंगे। यह सारे पद्म पुरस्कार, कई बार विवादित हो चुके हैं। एक बार तो सुप्रीम कोर्ट ने इन पर रोक भी लगा दी थी। राजनीतिक व्यक्ति जब ईश्वर को भी राजनीतिक गुणा भाग के चश्मे से देखता है तो, भारत रत्न कोई बहुत बड़ी चीज नही है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जिन महान देशभक्तों को भारत रत्न नहीं मिला है वे किसी भारत रत्न प्राप्तकर्ता से कमतर हैं या उनका योगदान कम है। सावरकर को भारत रत्न दीजिये या न दीजिए, सावरकर की जो ऐतिहासिक स्थिति समाज मे है वह भारत रत्न पाने के बाद भी बनी रहेगी। 

सरकार की एक बाद काबिले तारीफ है। यह जिस जिस को भी प्रासंगिक बनाते हैं, उनके बारे में नए नए तथ्य सामने आते रहते हैं। पहले गांधी थे, नेहरू तो अब भी इनके पसंदीदा आइकन हैं, फिर पटेल आये, अब सावरकर आये हैं। सावरकर को भारत रत्न देने के पीछे का आधार यह बताया जा रहा है कि उन्होंने 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा और इस पर, मराठी में एक किताब भी लिखी। यह बात सच है कि वे एक जुझारू क्रांतिकारी थे और अंग्रेजों ने उन्हें यातनापूर्ण जेल अंडमान के सेलुलर जेल में रखा था । 

लेकिन अंडमान के बाद जब वे ब्रिटिश राज से माफी मांग कर बाहर आये तो, वे राजभक्त बन चुके थे। वे आज़ादी के आंदोलन से अलग हो चुके थे। यही नहीं 1942 के सबसे प्रखर जनांदोलन भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों के साथ और एमए जिन्ना के सहयोगी बन कर उनकी मुस्लिम लीग के साथ सरकार चला रहे थे। यह सब दस्तावेजों में है। और इन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, आगे भी लिखा जाता रहेगा। अगर, 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहना ही भारत रत्न पाने का मापदंड है तो, उसी स्वाधीनता संग्राम के महान नेतृत्वकर्ता, मंगल पांडेय, नाना राव पेशवा, बेगम हजरत महल, बेगम ज़ीनत महल, अजीमुल्ला खान, बाबू कुंवर सिंह, राजा राव बक्श सिंह, बहादुरशाह जफर, रानी झांसी, आदि अनेक नाम हैं जिन्होंने उस संग्राम का नेतृत्व किया था, उन्हें क्यों भुलाया जा रहा है ? सावरकर को भारत रत्न दे दीजिए पर सबसे अधिक खुश वे अंग्रेज होंगे जिन्होंने सावरकर को कृपा करके माफी दी थी और राजभक्ति की पेंशन भी। 

और अंत मे यह, प्रसंग पढ़ लीजिए। यह प्रसंग, प्रसिद्ध आर्थिक पत्रकार और किसानो की व्यथा पर नियमित काम करने वाले, पी साईनाथ द्वारा ने सुनाया गया एक सन्दर्भ है। 
" 1926 में एक लेखक चित्रगुप्त ने एक किताब लिखी लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर ... इस किताब ने लेखक ने सावरकर की शान में सिर्फ कसीदे पढ़े... 1987 में जब इसको रीप्रिंट किया गया तो एक बात किताब के जरिए सामने अाई कि, चित्रगुप्त खुद सावरकर थे जो चित्रगुप्त के नाम किताब लिख डाले और वो भी अपनी तारीफ के लिए। भारत रत्न बनता है। " 

© विजय शंकर सिंह 

Wednesday, 16 October 2019

बैंकिंग सेक्टर की वर्तमान दशा क्या सरकार के आर्थिक नीतियों की विफलता नहीं है ? / विजय शंकर सिंह

राष्ट्र का सैन्यबल से मजबूत होना ही राष्ट्र निर्माण नही है। राष्ट्र की निर्मिति होती है राष्ट्र के नागरिकों के सुख सुविधा और समृद्धि के मापदंड से। एक मजबूत सैन्यबल भी धन चाहता है। बिना धन के कोई भी राष्ट्र बड़ा और मजबूत सैन्यबल की तो बात ही छोड़िये, एक छोटी मोटी सेना भी संभाल नहीं सकता है। आज भी जो देश सैन्यबल के आधार पर दुनिया मे अपना स्थान रखते हैं, वे आर्थिक दृष्टि और आर्थिक संकेतकों में भी एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। चाहे अमेरिका हो, या रूस हो या चीन हो, इन सबकी आर्थिक हैसियत और इनकी सैन्य क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करें तो आप इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।

बात आज ग्लोबल हंगर इंडेक्स की है। 117 देशों में हमने 102 स्थान प्राप्त किया है। यह देश की आर्थिक नीतियों को बनाने और लागू करने वाले नीति नियंताओं की प्रतिभा और मेधा पर एक सवाल उठाता है। आर्थिक क्षेत्र के अन्य संकेतक चाहे वह विकास की दर से जुड़े हों, या मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से, या बैंकिंग सेक्टर से, या आयात निर्यात से या कर संग्रह से होने वाली सरकारी आय से, या बेरोजगारी से, या अन्य कोई भी अर्थ संकेतक यह संकेत नहीं दे रहा है कि आखिर हमने पिछले 6 सालों में क्या पाया । आर्थिक रूप से टूटता देश दुनियाभर के लिये एक आसान चारागाह बन जाता है। उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख कम होती जाती है और देश के अंदर असंतोष तो उपजता ही है।

हालांकि अभी वैसी स्थिति बिल्कुल नहीं है। पर उस स्थिति पर पहुंचने के पहले ही अगर सरकार कोई सार्थक उपाय नहीं करती तो सिवाय अतीत को कोसने के कुछ भी शेष नहीं बचेगा। आज बैंकिंग सेक्टर से आने वाली तीन मौतों की खबरें अगर आप को लगता है कि भविष्य के अशनि संकेत नहीं हैं तो आप आने वाले तूफान से अनभिज्ञ हैं। तीनो आत्महत्या करने वाले व्यक्ति कोई, आर्थिक हैसियत में किसी विपन्न या निम्न वर्ग के नहीं थे। एक के खाते में तो 90 लाख जमा थे। सोचिये जिसके खाते में 90 लाख जमा हों, वह कितनी निश्चिंतता से जीवन बिता सकता है ? पर 90 लाख रुपये रख कर भी, सिर्फ उसे वक्त पर न मिलने के काऱण, उस व्यक्ति को आत्महत्या जैसे दुःखद मार्ग का सहारा लेना पड़ा।

यह बात पीएमसी बैंक की है। हम एक ऐसे वक्त में आ गए हैं जहां, विदर्भ के सूखा पीड़ित क्षेत्र का किसान भी पेंड से लटक कर आत्महत्या कर लेता है और मुंबई के एक बैंक में सुरक्षित निवेश से रखे हुए 90 लाख रुपये का खाताधारक भी आत्महत्या कर लेता है। पीएमसी बैंक के लोगों ने जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से अपनी समस्या का हल पूछा तो वे, टीवी पर सुरक्षा घेरे में भागती नज़र आईं। उंस समय उनका बच निकलना भी उचित ही था।  जब एक सामान्य खाताधारक को, उसके अपने ही पैसे के लिये जिसे वह एक विद्ड्राल स्लिप पर भर कर निकाल सकता है, देश के वित्तमंत्री से अपने ही जमा पैसों के निकालने  लिये असहज भरे सवाल करना पड़ जाय और सरकार, बजाय इन सवालों के समाधान के,  भागती नज़र आये तो समझ लीजिए, या तो सरकार असंवेदनशील है या जिस आर्थिक और बैंकिंग दुरवस्था में खाताधारक आ गए हैं, उसे सुधारना उनके बस में नहीं है।

तीन खाताधारकों की मौत, दो को हार्ट अटैक, एक डॉक्टर ने की आत्महत्या! क्या यह खबर आक्रोशित नहीं करती हमें ? पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक घोटाले से पीड़ित एक और खाताधारक की मौत हो गई है. 59 साल के फत्तोमल पंजाबी की मंगलवार को हार्ट अटैक के कारण मौत हुई है. पीएमसी बैंक घोटाले के कारण बीते 24 घंटे में यह दूसरे खाताधारक की मौत है। यह सिलसिला यहीं थम जाय,, हमे ऐसी आशा करनी चाहिये। इस असामयिक और दुःखद मृत्यु की जिम्मेदारी कौन लेगा। सरकार तो लेने से रही। उसने जब पुलवामा शहीदों के मृत्यु की जिम्मेदारी नहीं ली तो इन अभागे खाताधारकों की क्या जिम्मेदारी लेंगे। ईश्वर और नियति पर यह जुर्म चिपकाते जाइये। उन्हें आदत है यह सब देखने और देख कर भी चुप रह जाने की।

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का आज बयान आया है कि बैंकिंग सेक्टर की इस दुरवस्था के लिये 2004 से 2014 तक का यूपीए,  या डॉ मनमोहन सिंह की सरकार और डॉ रघुरामराजन के आरबीआई गवर्नरशिप जिम्मेदार है। वित्तमंत्री के इस बयान को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये। हो सकता है उनकी बात में दम हो और यूपीए सरकार ही इसके लिये जिम्मेदार हो। पर यह बयान आज 6 साल बाद आ रहा है। 2014 के तत्काल बाद जो आर्थिक सर्वेक्षण सरकार बजट के पहले संसद में पेश करती है, तब तो सरकार ने यह बात कही नहीं। 2014 के बाद 2019 तक लगातार 6 बजट यह सरकार पेश कर चुकी है पर यह बात न तब कही गयी और न बैंकों के दुरवस्था को रोकने के लिये सरकार ने कोई उपाय किये।

हर सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार के कामकाज पर सवाल उठाती है। यह एक मानवीय कमज़ोरी है। नौकरशाही में भी यही होता है। हम भी नौकरी में थे तो, यही कहते और सुनते थे कि खराब कानून व्यवस्था हमे विरासत में मिली है और अब जाकर तो कुछ ठीक ठाक हुआ है। पर यह बहाना भी लंबा नहीं चलता था। पर यहां तो सरकार इसे 6 साल से खींच रही है और सरकार के समर्थक तो सोशल मीडिया पर लगातार यही तर्क दे रहे हैं कि पिछला कूड़ा साफ किया जा रहा है।

आज के वित्तमंत्री के इस बयान पर कि, बैंकिंग सेक्टर को सबसे अधिक नुकसान डॉ मनमोहन सिंह और डॉ रघुरामराजन के कार्यकाल में हुआ है, मेरा यह कहना है कि, सरकार 2004 से 2019 तक सभी बैंकों के बारे में एक श्वेतपत्र जारी करे। श्वेतपत्र में साफ साफ यह बताये कि,
● किस साल किस किस संस्थान को कितना रुपया ऋण दिया गया था।
● किसके सिफारिश पर ऋण दिया गया, और बैंक के किस अधिकारी ने केवल सिफारिश पर ही ऋण दे दिया।
(.वित्तमंत्री ने कहा है कि तब फोन पर ऋण दिए जाते थे )
● कितनो के ऋण समय पर मय व्याज के वापस नहीं आये।
● ऋण न आने पर क्या कार्यवाही की जानी चाहिये थी, औऱ क्या कार्यवाही नहीं की गई।
● एनपीए क्यो हुये और इसके लिये किसकी जिम्मेदारी है।
● सिफारिश पर अपात्र को ऋण देने के मामले या बड़ी राशि के ऋण को डिफॉल्ट करने के मामले में बैंक या सरकार के वित्त मंत्रालय या पीएमओ क़ी कितनी भूमिका है।
● आज तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी सरकार ने डॉ रघुरामराजन तत्कालीन आरबीआई गवर्नर, द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गयी उन बड़े लोन डिफान्टर्स की सूची सार्वजनिक नहीं की है। क्यों ?
● उनके नाम सार्वजनिक करने से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है, यही सरकार बता दे।
● अगर बैंक का ऋण लेना और फिर उसे गटक जाना पूंजीपतियों की एक आदत बनती जा रही है तो सरकार उन्हें चेतावनी दे, और न सुधार हो तो नाम सार्वजनिक करें। ऐसे कर्ज़खोरों के डिफ़ॉल्टरी का खामियाजा ईमानदारी से लोन लेकर अपनी ज़रूरतें काट कर, नियमित ईएमआई देने वाला मध्यम वर्ग क्यों भुगते ?

इन सब जिज्ञासाओं और विन्दुओं को समेटता हुआ, सरकार को बैंकिंग सेक्टर के बारे में एक श्वेत पत्र लाना चाहिये। दोषी चाहे मनमोहन सिंह हो, या रघुरामराजन, इनके दोष जनता के सामने आने चाहिये। कोई उद्योगपति एनपीए या कर्ज़ न चुका पाने के संताप में आत्महत्या नहीं करता है। मरता है तो दस बीस हज़ार कमा कर, व्याज की आस में बैंकों में पैसा रखने वाला, सामान्य  व्यक्ति जब उसे अपने ही धन के लिये नोटबंदी के समय हफ़्तों लाइन में खड़ा होना पड़ा, या 90 लाख रुपये रख कर भी वक़्त पर जब उसे अपना ही पैसा नहीं मिला तो वह व्यक्ति। क्या यह सरकार के आर्थिक नीतियों की विफलता नहीं है ?

मैं कोई बैंकिग एक्सपर्ट नहीं हूं। पर एक बात मैं कहना चाहता हूं कि, बैंकर और खताधारक के बीच जो महत्वपूर्ण रिश्ता है वह है परस्पर विश्वास का, और यह परस्पर विश्वास टूटा है 2016 के नोटबंदी के समय जब बैंकों पर लोग बदहवासी से भरे उमड़ पड़े थे, और अब पीएमसी बैंक के डूबने की खबर पर जब खताधारक रोज़ ही सोशल मीडिया में अपनी व्यथा सुना रहे हैं। यह सब सवाल मेरे जेहन में उठ रहे हैं, जिन्हें आप से मैं साझा कर रहा हूँ। आप की असहमति का भी स्वागत है।

© विजय शंकर सिंह