Wednesday 31 January 2018

गांधी हत्या पर के विक्रम राव का एक लेख / विजय शंकर सिंह

महात्मा गांधी की 30 जनवरी 1948 को हत्या कर दी गयी थी। यह पोस्ट लेख वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव द्वारा उनके फेसबुक टाइमलाइन से है।
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आखिर कौन था गांधीजी का हत्यारा ?

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) अन्ततः शायद मान ले अपने कोर्ट सलाहकार वकील अमरेन्द्र शरण (Chamber of Amrendra Sharan, Senior Advocate, Supreme Court) की रपट कि पुणेवासी नाथूराम विनायक गोड्से ही बापू का अकेला हत्यारा था। फिलहाल चार सप्ताह का समय दिया है याचिकाकर्ता को, जो कहता है कि हत्यारा अन्य व्यक्ति था। अभी भी भारत में एक तबका है, जो इतिहास को झुठलाना चाहता है। अभिनव भारत संस्था (Abhinav Bharat SEVA Samiti) के न्यासी डा. पंकज फडनवीस ने सर्वोच्च अदालत में गत माह एक रिट द्धारा नयें सिरे से बापू की हत्या (70वीं बरसी कल) की जांच कराने की मांग उठाई है। उनका यह दिमागी फितूर है कि बापू को ब्रिटिश गुप्तचर संस्था ने गोली मारी थी। इतना मितलीभरा झूठ ! अंग्रेज साम्राज्यवादी चाहते तो महात्मा गांधी को कभी भी मार सकते थे। किसी हिन्दू महासभाई अथवा मुस्लिम लीगी को रिश्वत दे देते।

लेकिन बापू की हत्या की तह में एक घिनौना मकसद था, एक निकृष्टतम सोच थी। एक कवि की आग्रहभरी पंक्ति थी, “जो बापू को चीर गई थी, याद करो उस गोली को।”  गोड्से के वे कारतूस महज दागने के लिये नहीं थे। इतिहास की धारा मोड़ने की राष्ट्रघातक, जनविरोधी सजिश थी। उग्र बनाम उदार हिन्दुओं की टकराहट थी। बल्कि वस्तुतः यह कायर तथा बदजात व्यक्ति की बुजदिलीभरी हरकत थी। गोड्से में यदि शौर्य होता तो सुरक्षा चक्र से घिरे राष्ट्र नायकों को निशाना बनाता। पाकिस्तान बनवाने में मोहम्मद अली जिन्ना के साथ इन लोगों की भी साझेदारी थी। लुकाटी थामे, डे़ढ पसली के, अठहत्तर वर्ष के, अधे नंगे संत पर धोखे से, गोली दागने वाला गोड्से किस दिमाग का था? इसमें क्या शौर्य था?

ऐसा कुकृत्य तो कायरतम व्यक्ति भी नही करता। वस्तुतः कितनी गोलियां गोड्से ने दागी इसका यथावत चित्रण रायटर संवाद समिति के रिपोर्टर ने किया था।

उस दिन (३० जनवरी १९४८) अपने रिपोर्टर पी.आर. राय को उसके रायटर ब्यूरो प्रमुख डून कैम्पबेल ने बिड़ला हाउस भेजा था क्योंकि महात्मा गांधी अपनी प्रार्थना सभा में घोषणा कर सकते थे कि हिन्दु-मुस्लिम सौहार्द हेतु वे फिर अनशन करेंगे। “फोन करना यदि कुछ गरम खबर हो तो,” उन्होंने निर्देश दिये। राय ने फोन किया मगर केवल पांच शब्द ही बोल पाया: “चार गोलियां बापू पर चलीं।” आवाज थरथरा रही थी, अस्पष्ट थी। समय थाः शाम के 5:13 और तभी कैम्पबेल ने फ्लैश भेजा: “डबल अर्जन्ट, गांधी शाट फोर टाइम्स पाइन्ट ब्लैंक रेंज वर्स्ट फियर्ड।” कैम्पबैल दौड़ा अलबुकर रोड (अब तीस जनवरी मार्ग) की ओर। विस्तार में रपट बाद में आई जिसमें गौरतलब बात थी कि गोली लगते ही गांधी जी अपनी पौत्री आभा के कंधों पर गिरे। आभा ने कहा तब बापू “राम, राम” कहते कहते अचेत हो गये। दूसरा कंधा पौत्रवधु मनु का था जिसने बापू को संभाला। दोनों की सफेद खादी की साडि+यां रक्तरंजित हो गई। अफवाह थी कि हत्यारा मुसलमान था। सरदार वल्लभभाई  पटेल ने घोषणा की कि मारनेवाला हिन्दु था। दंगे नहीं हुये। दुनिया तबतक जान गई कि एक मतिभ्रम हिन्दू उग्रवादी ने बापू को मार डाला।

आखिर कैसा, कौन और क्या था नाथूराम विनायक गोड्से? क्या वह चिन्तक था, ख्यातिप्राप्त राजनेता था, हिन्दू महासभा का निर्वाचित पदाधिकारी था, स्वतंत्रता सेनानी था? इतनी ऊंचाईयों के दूर-दूर तक भी नाथूराम गोड्से कभी पहुंच ही नहीं पाया था। पुणे शहर के उसके पुराने मोहल्ले के बाहर उसे कोई नहीं जानता था, जबकि वह चालीस की आयु के समीप था।

नाथूराम स्कूल से भागा हुआ छात्र था। नूतन मराठी विद्यालय में मिडिल की परीक्षा में फेल हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड़ दी थी। उसका मराठी भाषा का ज्ञान बडे़ निचले स्तर का था। अंग्रेजी का ज्ञान तो था ही नहीं। जीविका हेतु उसने सांगली शहर में दर्जी का दुकान खोल ली थी। उसके पिता विनायक गोड्से डाकखाने में बाबू थे, मासिक आय पांच रुपये थी। नाथूराम अपने पिता का लाड़ला था क्योंकि उसके पहले जन्मी सारी संताने मर गयी थी। नाथूराम के बाद तीन और पैदा हुए थे जिनमें था गोपाल, जो नाथूराम के साथ सह-अभियुक्त था।

नाथूराम की युवावस्था किसी खास घटना अथवा विचार के लिए नहीं जानी जाती है। उस समय उसके हम उम्र के लोग भारत में क्रान्ति का अलख जगा रहे थे। शहीद हो रहे थे। इस स्वाधीनता संग्राम की हलचल से नाथूराम को तनिक भी सरोकार नहीं था। अपने नगर पुणे में वह रोजी-रोटी के ही जुगाड़ में लगा रहता था। पुणे में 1910 में जन्मे, नाथूराम के जीवन की पहली खास घटना थी अगस्त, 1944, में जब हिन्दू महासभा नेता एल.जी. थट्टे ने सेवाग्राम में धरना दिया था। तब महात्मा गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से वार्ता करने मुम्बई जा रहे थे। चैंतीस वर्षीय अधेड़ नाथूराम उन प्रदर्शनकारियों में शरीक था। उसके जीवन की दूसरी घटना थी एक वर्ष बाद, जब ब्रिटिश वायसराय ने भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा के लिए राजनेताओं को शिमला आमंत्रित किया था तब नाथूराम पुणे के किसी अनजान पत्रिका के संवाददाता के रूप में वहां उपस्थित था।

गोड्से का मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि हत्या के बाद पकड़े जाने पर नाथूराम ने अपने को मुसलमान दर्शाने की कोशिश की थीं। अर्थात् एक तीर से दो निशाने सध जांये। गांधी की हत्या हो जाती, दोष मुसलमानों पर जाता और उनका सफाया शुरु हो जाता। ठीक उसी भांति जो 1984 के अक्टूबर 31 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुआ था। न जाने किन कारणों से अपने राष्ट्र के नाम सम्बोधन में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहेरू (Jawahar Lal Nehru) ने नहीं बताया कि हत्यारे का नाम क्या था। उसके तुरन्त बाद आकाशवाणी भवन जाकर गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देशवासियों को बताया कि महात्मा का हत्यारा एक हिन्दू था। सरदार पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) ने मुसलमानों को बचा लिया।

जो लोग अभी भी नाथूराम गोड्से के प्रति थोड़ी नरमी बरतते हैं उन्हें इस निष्ठुर क्रूर हत्यारे के बारे में तीन प्रमाणित तथ्यों पर गौर करना चाहिए। प्रथम, गांधी जी को मारने के दो सप्ताह पूर्व अविवाहित नाथूराम ने अपने जीवन को काफी बड़ी राशि के लिये बीमा कंपनी से सुरक्षित कर लिया था। उसकी मौत के बाद उसके परिवारजन इस बीमा राशि से लाभान्वित होते। अर्थात “ऐतिहासिक” मिशन को लेकर चलने वाला यह व्यक्ति बीमा कंपनी से मुनाफा कमाना चाहता था।

उसके भाई गोपाल गोड्से ने जेल में प्रत्येक गांधी जयंती में बढ़चढ़कर शिरकत की, क्योंकि जेल नियम में ऐसा करने पर सजा की अवधि में छूट मिलती है। गोपाल पूरी सजा के पहले ही रिहाई पा गया था।

कुछ लोग नाथूराम गोड्से को उच्चकोटि का चिन्तक, ऐतिहासिक मिशनवाला पुरुष तथा अदम्य नैतिक ऊर्जा वाला व्यक्ति बनाकर पेश करते है। उनके तर्क का आधार नाथूराम का वह दस-पृष्टीय वक्तव्य है जिसे उसने बड़े तर्कसंगत, भावना भरे शब्दों में लिखकर अदालत में पढ़ा था कि उसने गांधी जी क्यों मारा। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने गोड्से के इस प्रतिबंधित भाषण के प्रसार की अनुमति दे दी है। उस समय दिल्ली मे ऐसे कई हिन्दुवादी थे जिनका भाषा पर आधिपत्य, प्रवाहमयी शैली का अभ्यास तथा वैचारिक तार्किकता का  ज्ञान पूरा था। उनमें से कोई भी नाथूराम का ओजस्वी वक्तव्य लिखकर जेल के भीतर भिजवा सकता था। जो व्यक्ति मराठी भी भलीभांति न जानता हो, अंग्रेजी से तो निरा अनभिज्ञ हो, उस जैसा कमजोर छात्र परीक्षा में अचानक सौ बटा सौ नम्बर ले आये? दो तथ्य और। गोड्से के साथ फांसी पर चढ़ा नारायण आप्टे रंगीले मिजाज का था। पिछली (२९ जनवरी १९४८) रात उसने दिल्ली के जीबी रोड पर गुजारा। यहां वेश्या घर हैं। आत्माओं से संपर्क करने वाले मेरे साथ “टाइम ऑफ इण्ड़िया” (The Times of India), मुबंई में कार्यरत, कुछ लोगो ने बताया कि गोड्से का दुबारा जन्म हुआ था पुणे की गली में एक खुजली से ग्रस्त आवारा श्वान की योनि में। क्या संभव है? हम भारतीय अपनी दोमुखी छलभरी सोच को तजकर, सीधी, सरल बात करना कब शुरु करेंगे, कि हत्या एक जघन्य अपराध और सिर्फ नृशंस हरकत है। वह भी एक वृद्ध, लुकाटी थामे, अंधनंगे, परम श्रद्धालु हिन्दू की जो राम का अनन्य, आजीवन भक्त रहा।

K Vikram Rao
Mob: 9415000909
Email: k.vikramrao@gmail.com
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© विजय शंकर सिंह

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