Friday, 5 January 2018

देहि शिवा वर मोहि इहै, शुभ करमन ते कबहूँ न टरूं - गुरु गोविंद सिंह का पुण्य स्मरण / विजय शंकर सिंह

सिखों के दशम गुरु, गुरु गोविंद सिंह की आज जयंती है। गुरु एक अप्रतिम योद्धा, अद्भुत संगठन कर्ता और सेनापति थे। वे एक उच्च कोटि के कवि और साहित्यिक शख्शियत भी थे। उन्होंने अपने बाद गुरु परम्परा को रोक दिया और गुरु ग्रन्थ साहब को जिसमे देश के अनेक महापुरुषों की वाणी संग्रहित है को सिख धर्म का आराध्य और मार्गदर्शक ग्रन्थ घोषित किया। उनकी यह प्रसिद्ध कविता
चण्डी चरित्र , जो देवी चण्डिका की एक स्तुति है को पढ़ें । वे देवी के शक्ति रूप के उपासक थे।

यह स्तुति दशम ग्रंथ के "उक्ति बिलास" नामक विभाग का एक हिस्सा है। 'चण्डी' के अतिरिक्त 'शिवा' शब्द की व्याख्या ईश्वर के रूप में भी की जाती है। "महाकोश" नामक किताब में ‘शिवा’ की व्याख्या , परब्रह्म की शक्ति, के रूप में की गई है । देवी के रूप का व्याख्यान गुरु गोबिंद सिंह जी यूं करते हैं ~

पवित्री पुनीता पुराणी परेयं ॥
प्रभी पूरणी पारब्रहमी अजेयं ॥॥
अरूपं अनूपं अनामं अठामं ॥॥
अभीतं अजीतं महां धरम धामं ।।

प्रसिद्ध रचना इस प्रकार है, --
देह शिवा बर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं ।

अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों।

भाल निपट विशाल शशिमृग मीन खंजन लोचनी,
भाल बदन विशाल कोमल सकल विध्न विमोचनी।

सिंह वाहिनी धनुष धारिणी कनक सेवत सोहिनी,
रूण्ड माल अरोल राजत् मुनिन के मन मोहिनी।

एक रूप अनेक तेरो मैया गुणन की गिनती नहीं,
कछु ज्ञान अतः ही सुजान भक्तन भाव से विनती करी।

वर वेष अनूड़ा खड़ग खप्पर अभय अंकुश धारिणी,
कर काज लाज जहाज जननी जनन के हित कारिणी।

मंद हास प्रकाश चहूं दिस विंध्य वासिनी गाईये,
क्रोध तज अभिमान परिहर दुष्ट बुद्धि नसाईये।

उठत बैठत चलत सोवत बार बार मनाईये,
चण्ड मुण्ड विनाशिनी जी के चरण हित चित्त लाईये।

चंद्र फल और वृंद होते अधिक आनंद रूप हैं,
सर्व सुख दाता विधाता दर्श पर्श अनूप हैं।

तू योग भोग विलासिनी शिव पार्श्व हिम गिरी नंदिनी,
दुरत तुरत निवारिणी जग तारिणी अद्य खंजिनी।

आदि माया ललित काया प्रथम मधु कैटभ छ्ले,
त्रिभुवन भार उतारवे को महा महिषासुर मले।

इंद्र चंद्र कुबेर वरूणो सुरन के आनंद भये,
भुवन चौदह मैया दश दिशन में सुनत ही सब दुख गये।

धूम्रलोचन भस्म कीनो मैया क्रोध के ‘हुँ’कार सों,
हनी है सेना मैया सकल ताकी सिंह के भभकार सों।

चण्ड मुण्ड प्रचण्ड दोऊ मैया प्रवल से अति भ्रष्ट हैं,
मुण्ड जिनके किए खण्डन असुर मण्डल दुष्ट हैं।

रक्तबीज असुर अधर्मी आयो हैं दल जोड़ के,
शोर कर मरवे को धायो कियो रण घनघोर से।

जय जय भवानी युक्ति ठानी सर्व शक्ति बुलाईके,
महा शुम्भ निशुम्भ योद्धा हन्यो खड़ग् बजाईके।

परस्पर जब युद्ध माच्यो दिवस सों रजनी भई,
दास कारण असुर मारे मैया पुष्प घन वर्षा भई।

चित्त लाई चंडी चरित्र पढ़त और सुनत जो निसदिन सदा,
पुत्र मित्र कलात्र सुख सों दुख न आवे डिग कदा।

भुक्ति मुक्ति सुबुद्धि बहुधन धान्य सुख संपत्त लिए,
शत्रु नाश प्रकाश दुनिया आनंद मंगल जन्म लहें।

भाल निपट विशाल शशिमृग मीन खंजन लोचनी,
भाल बदन विशाल कोमल सकल विध्न विमोचनी।

सिंह वाहिनी धनुष धारिणी कनक सेवत सोहिनी,
रूण्ड माल अरोल राजत् मुनिन के मन मोहिनी।

एक रूप अनेक तेरो मैया गुणन की गिनती नहीं,
कछु ज्ञान अतः ही सुजान भक्तन भाव से विनती करी।

वर वेष अनूड़ा खड़ग खप्पर अभय अंकुश धारिणी,
कर काज लाज जहाज जननी जनन के हित कारिणी।

मंद हास प्रकाश चहूं दिस विंध्य वासिनी गाईये,
क्रोध तज अभिमान परिहर दुष्ट बुद्धि नसाईये।

उठत बैठत चलत सोवत बार बार मनाईये,
चण्ड मुण्ड विनाशिनी जी के चरण हित चित्त लाईये।

चंद्र फल और वृंद होते अधिक आनंद रूप हैं,
सर्व सुख दाता विधाता दर्श पर्श अनूप हैं।

तू योग भोग विलासिनी शिव पार्श्व हिम गिरी नंदिनी,
दुरत तुरत निवारिणी जग तारिणी अद्य खंजिनी।

आदि माया ललित काया प्रथम मधु कैटभ छ्ले,
त्रिभुवन भार उतारवे को महा महिषासुर मले।

इंद्र चंद्र कुबेर वरूणो सुरन के आनंद भये,
भुवन चौदह मैया दश दिशन में सुनत ही सब दुख गये।

धूम्रलोचन भस्म कीनो मैया क्रोध के ‘हुँ’कार सों,
हनी है सेना मैया सकल ताकी सिंह के भभकार सों।

चण्ड मुण्ड प्रचण्ड दोऊ मैया प्रवल से अति भ्रष्ट हैं,
मुण्ड जिनके किए खण्डन असुर मण्डल दुष्ट हैं।

रक्तबीज असुर अधर्मी आयो हैं दल जोड़ के,
शोर कर मरवे को धायो कियो रण घनघोर से।

जय जय भवानी युक्ति ठानी सर्व शक्ति बुलाईके,
महा शुम्भ निशुम्भ योद्धा हन्यो खड़ग् बजाईके।

परस्पर जब युद्ध माच्यो दिवस सों रजनी भई,
दास कारण असुर मारे मैया पुष्प घन वर्षा भई।

चित्त लाई चंडी चरित्र पढ़त और सुनत जो निसदिन सदा,
पुत्र मित्र कलात्र सुख सों दुख न आवे डिग कदा।

भुक्ति मुक्ति सुबुद्धि बहुधन धान्य सुख संपत्त लिए,
शत्रु नाश प्रकाश दुनिया आनंद मंगल जन्म लहें।

गुरू गोविंद सिंह जिस काल मे हुये थे वह धर्म समाज और देश के लिये युध्द औऱ संकट का काल था। उन्हें तत्कालीन मुगल सम्राटों से निरन्तर युद्ध करना पड़ा और बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने धर्म और अस्तित्व को बचाना पड़ा। उन्होंने सूफियाना दर्शन से जन्मे महान गुरु नानक देव के धर्म को एक लड़ाकू और साहसी कौम में बदल कर रख दिया। यह समय की आवश्यकता थी । उनका जीवन बलिदानों की एक गौरवपूर्ण शृंखला है। गुरु गोविंद सिंह की जयंती पर उनको शत शत नमन।

शस्त्र और शास्त्र के अद्भुत संगम इस महान गुरु ने न केवल गुरु ग्रन्थ साहिब को संकलित और सम्पादित कर अंतिम रूप दिया बल्कि साहित्य का भांडार भी भरा। कलम और तलवार के धनी ऐसे मनुष्य विरले ही होते हैं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं ,

जाप साहिब : एक निरंकार के गुणवाचक नामों का संकलन
अकाल उस्तत: अकाल पुरख की अस्तुति एवं कर्म काण्ड पर भारी चोट
बचित्र नाटक : गोबिन्द सिंह की सवाई जीवनी और आत्मिक वंशावली से वर्णित रचना
चण्डी चरित्र - ४ रचनाएँ - अरूप-आदि शक्ति चंडी की स्तुति। इसमें चंडी को शरीर औरत एवंम मूर्ती में मानी जाने वाली मान्यताओं को तोड़ा है। चंडी को परमेशर की शक्ति = हुक्म के रूप में दर्शाया है। एक रचना मार्कण्डेय पुराण पर आधारित है।
शास्त्र नाम माला : अस्त्र-शस्त्रों के रूप में गुरमत का वर्णन।
अथ पख्याँ चरित्र लिख्यते : बुद्धिओं के चाल चलन के ऊपर विभिन्न कहानियों का संग्रह।
ज़फ़रनामा : मुगल शासक औरंगजेब के नाम पत्र।
खालसा महिमा : खालसा की परिभाषा और खालसा के कृतित्व।

© विजय शंकर सिंह

8 comments:

  1. शिवा 'माँ भगवती'के असंख्य नामों में से एक नाम है।सनातन संस्कृति के एक शास्त्र में निम्नलिखित श्लोक आता है जिसमें माँ भगवती को कुछ नामों से सम्बोधित कर के नमस्कार किया गया है ःः
    ऊँ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी,
    दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते।

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  2. अद्भुत जानकारी के लिए आभार

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  3. अभिभूत, नतमस्तक।

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  4. गुरु महाराज के बलिदान व शौर्य गाथाओं पर बलि बलि जाऊँ ।
    जो बोले सो निहाल
    सत् श्री अकाल
    वाहे गुरुजी दा खालसा
    वाहे गुरुजी दी फतह ।।

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  5. देश धर्म पर बलिदान होने के लिए सिख इतिहास सदा प्रेरित करता रहेगा ।

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  6. निश्चय कर अपनी जीत करूँ!बोले सो निहाल सत श्री अकाल

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