Sunday, 14 January 2018

कुंभमेला में ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के भूमि आवंटन पर विवाद / विजय शंकर सिंह

सनातन धर्म की परंपरा में शंकराचार्य का स्थान सर्वोच्च है। आदि शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की थी। यह चार पीठ है, बद्री केदार ज्योतिषपीठ, द्वारिका पीठ, पुरी पीठ और श्रृंगेरी पीठ। शंकराचार्य सनातन धर्म के सन्यासी परम्परा के प्रमुख होते हैं। महंत, श्री महंत, मंडलेश्वर, महा मंडलेश्वर, आचार्य महा मंडलेश्वर और शंकराचार्य। भारत वर्ष की भौगोलिक सीमा जिसमें आज का पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल है , को इनके आधीन क्षेत्रों में बांटा गया है । मूलतः यह शैव परम्परा है पर सनातन धर्म मे यही स्थापित और मान्य सन्यासी परम्परा भी है। इन चार पीठों के अतिरिक्त एक अन्य पीठ बाद में गठित हुयी जो काशी में है जिसे सुमेरु पीठ कहते हैं। लेकिन असल मान्यता मूल रूप से स्थापित चार पीठों की ही है। इनका अपना कोड ऑफ कंडक्ट , आचरण नियमावली है। यह एक छोटी सी पुस्तक मठामनाय महानुशासन में उल्लिखित है। लेकिन अधिकांश परम्पराएं हैं जो समय समय पर स्थापित और परिवर्तित होती रही है। शंकराचार्य को ब्रिटिश काल से ही वीआईपी दर्जा दिया गया है। इनका प्रोटोकॉल भी है।

ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य हैं स्वामी स्वरूपानंद । ज्योतिष एवं द्वारका, दो पीठों के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में दिघोरी गांव में हुआ था। 8 आठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने  स्वामी हरिहरानंद सरस्वती जी ( स्वामी करपात्री जी महाराज ) से वेद-वेदांग, न्याय, उपनिषदों,शास्त्रो की शिक्षा प्राप्त की। वे क्रांतिकारी साधु  के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में 9 और मध्यप्रदेश की जेल में 6 महीने की सजा भी काटी। वे राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे। 1950 में ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी बह्मानन्द सरस्वती जी महाराज द्वारा  दंडी संन्यासी की दीक्षा दी  गई और  स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे। 7 दिसम्बर 1973 को  ज्योतिष पीठ एवं 24 अप्रेल 1984 में द्वारका शारदा पीठाधीश्वर शंकराचार्य की उपाधि मिली।  उन्होंने झोतेश्वर में राज राजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी का भव्य मंदिर बनवाया। यह मंदिर देश भर में अनूठा है। वर्तमान में वे भारत के सबसे वरिष्ठ संन्यासी हैं उनकी उम्र 94 वर्ष  है। इस उम्र में भी वे धर्म प्रचार यात्रा करते रहते हैं। उनके शिष्यों की संख्या लाखों में है। सबसे वरिष्ठ शंकराचार्य है और पट्टाभिषेक होने के बाद ,अदालती विवाद भी हुआ था। उनके नियुक्ति को चुनौती दी गई। मामला अदालत में रहा और अब फिर यह हल हो गया और पुनः उनका पट्टाभिषेक हुआ ।

आज के अखबार हिंदुस्तान में यह छपा है कि इनके प्रवास के लिये कुम्भ मेला में स्थान आवंटित नहीं किया जा रहा है। इनका कहना है कि विश्व हिंदू परिषद ने स्थान न मिले इस हेतु सरकार पर दबाव डाला है। ये वीएचपी के हिंदुत्व की अवधारणा के विपरीत राय रखते हैं। इनका कहना है कि जो सच्चे सनातन धर्म की बात करता है उसे वीएचपी हतोत्साहित करता है। राम मंदिर मामले पर भी शंकराचार्य की राय वीएचपी से अलग है। इसी लिये अयोध्या के परम्परावादी सन्त समाज और वीएचपी में यदा कदा टकराव होता रहता है। यह टकराव कुछ कुछ राजनैतिक भी है।  स्वामी स्वरूपानंद के अनुसार उन्होंने ज़मीन के लिये प्रार्थना पत्र दिया तो उस पर मेलाधिकारी द्वारा पहले विधिक राय मांगी गई फिर जब विधिक राय पक्ष में आ गई तो सरकार के दबाव में ज़मीन नहीं दी गयी।

कुंभ मेले का उद्देश्य यही है कि 12 साल बार सनातन धर्म के विभिन्न शाखा प्रशाखा के लोग और सन्त विचारक एकत्र हों और धर्म का शोधन हो। काल सदैव बदलता रहता है। स्थान, सोच और परिस्थितियां भी। यह धर्म ही नेति नेति का है। नेति का अर्थ अभी अंत नहीं हुआ है। क्योंकि कि जो है वह अनादि है और अनन्त भी। लेकिन चारों शंकराचार्य को एक साथ एक स्थान पर एकत्र होने पर भी रोक है। कारण सम्भवतः सुरक्षा रही होगी। ताकि किसी आसन्न स्थिति में कम से कम एक बचे रहें जिस से धर्म का नेतृत्व किया जा सका। नागा साधु और शंकराचार्य की परम्परा में ही अखाड़े भी आते हैं। अखाड़ों के बिना कुम्भ की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

स्वामी स्वरूपानंद और विश्व हिंदू परिषद में पहले भी मत वैभिन्यता रही है। यह पहले भी विवादों में आ चुके हैं। साई पूजन और साईं बाबा की मूर्ति को भी हिन्दू धर्म के मंदिरों में स्थापित करने को शास्त्रों के विपरीत बताया था। यह मतभेद आज भी बना हुआ है। सनातन परंपरा में मत वैभिन्यता एक सामान्य बात है। इस से शास्त्रार्थ और बहस और फिर नयी मान्यताओं के स्थापित होने का अवसर मिलता है। शंकराचार्य के तमाम विरोध के बावजूद भी सनातन धर्म की सन्यासी परम्परा में उस पद और उस पद पर पट्टाभिषिक्त सन्यासी का जो महत्व है वह सर्वोपरि है। शेष तो राजनीति है।

© विजय शंकर सिंह

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