Thursday, 4 January 2018

कोरेगांव का युद्ध - कुछ तथ्य जिनपर हम शायद ही बातें करते हों / विजय शंकर सिंह

1818 का यह युद्ध ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा नहीं बल्कि ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा लड़ा गया था, क्यों कि तब तक भारत को क्राउन ने अपने अधिकार क्षेत्र में नहीं लिया था । यह युद्ध ब्रिटेन ने नहीं ईस्ट इंडिया कम्पनी ने जीता था । इस युद्ध का नेतृत्व ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरफ से कैप्टन फ्रांसिस एफ स्टाउटन ने किया था । उस समय उसकी सेना में 300 राजपूत सवार, 500 पदाति सैनिक जिसमे महार, मराठे , मुस्लिम और राजपूत सैनिक शामिल थे। यहां तक कि कुछ यहूदी भी सम्मिलित थे । महारों की केवल 2 कम्पनी थी। कम्पनी की नफरी यानी संख्याबल के अनुसार यह संख्या 240 तक होती हैं । इस सेना में 24 यूरोपियन सैनिक और 4 सैनिक नेटिव मद्रास आर्टिलरी के थे । इसमें 2 यूरोपीय अफसर भी थे ।

दूसरी तरफ़ पेशवा की सेना में कुल 2000 सवार और पदाति सैनिक थे जिनमें मुख्यतः पठान, गोसाईं/ पिंडारी आदि अस्थायी सैनिक थे । यह पेशवा सेना का अग्रिम दल था । पेशवा की मुख्य सेना जो 25000 की थी, वह कोरेगांव 15 मील दक्षिण में थी। असल युद्ध पेशवा के सेनापति अप्पा देसाई और त्रिम्बक ही डेंगले के नेतृत्व में लड़ा गया था । यह कहना कि 25000 की पेशवा की फौज से 500 महार सैनिक लड़े ऐतिहासिक तथ्यों से उसकी पुष्टि नहीं होती है। युद्ध 500 बनाम 2000 की सेना के साथ हुआ था । यह 2000 अग्रिम दस्ता था जब कि 25000 की सेना 15 मील दूर फूलशहर में थी।

पेशवा की सेना जो महारों या कम्पनी की सेना के 500 सैनिकों के साथ जूझ रही थी, का मोर्चा छोड़ने का कारण यह था कि इंडिया कम्पनी के जनरल जोसफ स्मिथ जो इस अभियान का नेतृत्व कर रहा था, ने फूलशहर पर जहां पेशवा की 25000 संख्याबल वाली सेना थी, पर हमला कर दिया । कुछ इतिहासकार यह बताते हैं कि हमले की खबर मिलते ही जो 2000 के संख्याबल की सेना अग्रिम दस्ते के रूप में कोरेगांव में कम्पनी टुकड़ी से जूझ रही थी, को अपनी सहायता के लिये वापस बुला लिया। उस समय कम्पनी की सेना में भारी तोपखाना भी था जिसका नेतृत्व ब्रिगेडियर प्रिटज़लर कर रहा था । पेशवा के पास तोपखाने के मुक़ाबला करने के लिये सक्षम साधन नहीं थे ।

इस युद्ध के बाद अंग्रेजों  ( ईस्ट इंडिया कम्पनी ) ने अपनी सेना में महारों की भर्ती प्रतिबंधित कर दी । यह प्रतिबंध 1820 से 1857 तक जब तक कम्पनी का राज रहा तब तक लागू रहा । 1857 के विप्लव के बाद कम्पनी की सेना ब्रिटिश राज की सेना बन गयी लेकिन तब भी महारों की भर्ती पर प्रतिबंध 1892 तक लगा रहा । इस प्रतिबंध का कारम अविश्वसनीय और अनियंत्रित मनोवृत्ति का होना बताया गया है।

इस युद्ध के अतिरिक्त महार पहले भी युद्ध लड़ चुके थे। महार सैनिक, शिवाजी, राजाराम और पेशवा की अनेक सैन्य अभियानों में रहे हैं। यह युद्ध भी कोई जातीय युद्ध नहीं बल्कि एक राज्य का दूसरे राज्य के विस्तार का प्रतिरोध युद्ध था। उदाहरण के लिये राजाराम के समय हुए रायगढ़ अभियान में रैनक महार ने युद्ध का नेतृत्व किया था। 1795 में हुए खारडा के युद्ध मे जिसका नेतृत्व पेशवा सेनापति परशुराम पटवर्धन ने किया था, में महार योद्धा श्रीधनक महार ने परशुराम पटवर्धन की जान बचायी थी।

पुणे के युद्ध मे जिसमे बाजीराव पेशवा द्वीतीय की सेना कम्पनी की सेना से पराजित हुयी थी में खुद 800 महार सैनिक थे जिनमें दो महार सरदार भी थे।

कोरेगांव में जहां यह युद्ध हुआ था वहां एक स्मारक भी अंग्रेजों ने बनवाया है। उसी जगह पर महार समाज के लोग अपने शहीद सैनिकों को याद करने के लिये भी हर साल एकत्र होते हैं। डॉ बीआर अम्बेडकर भी एक बार वहां श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुंचे थे। वही परम्परा आज तक चल रही है। यह दो सेनाओं के विरुद्ध हुयी जंग थी। एक मराठा राज और दूसरे ईस्ट इंडिया कम्पनी। ईस्ट इंडिया कम्पनी में लड़ने वाले सभी अंग्रेज़ नहीं थे और न ही सभी यूरोपियन ही थे। उनके सैनिक अधिकतर भारतीय थे जिन्हें वे नेटिव यानी देशी कहते थे। 1857 तक कम्पनी की सेना की नफरी यानी संख्याबल में यह अनुपात 20 बनाम 80 का था। 1857 के सैन्य विद्रोह हो जाने के और भारत को सीधे ब्रटिश ताज क्राउन के अंतर्गत ले लेने के बाद 1858 में जब महारानी की उद्घोषणा हुयी तो भारतीय सेना का विधिवत गठन प्रारम्भ हुआ । लेकिन कम्पनी काल के समय मे भी जो रेजिमेंट गठित हुयी थी वे भी जारी रहीं। लॉर्ड क्लाइव के समय से ही जब उसने 1757 में प्लासी के युद्ध मे सिराजुद्दौला को पराजित कर के बंगाल की दीवानी हथिया ली थी तो, भारत के भूभाग पर कब्ज़ा करने का जो चस्का लगा वह 1856 तक अवध के अधिग्रहण तक कायम रहा । अंग्रेज़ो ने कहीं रिश्वत दे कर तो कहीं युद्ध कर तो कहीं डॉक्ट्रिन ऑफ लेप्स, ( असल वारिस न होने पर गोद लिये सन्तान की विरासत को न मानना ) के कुटिल चाल से भारत के अधिसंख्य भूभाग पर कब्ज़ा कर लिया । 1858 के बाद यह प्रथा रोक दी गयी और जो देशी रियासतें बच गयी थीं वे 1947 तक बची रहीं।

यह कहना कि यह अंग्रेज़ो की विजय का जश्न है उचित नहीं है। यह कोई जातीय युद्ध भी नहीं है । लेकिन जब एक दबी कुचली और सामाजिक रूप से निम्न समझी जाने वाली महार जाति के सैनिकों को जब उन पर अत्याचार करने वाले मराठा और वह भी पेशवा के सैनिकों पर विजय प्राप्त करने का अवसर मिला तो इस से उन्होंने अपने जातीय स्वाभिमान से जोड़ कर देखा । यह भारतीय परंपरा में नयी बात नही है । आज भी परशुराम ब्राह्मण स्वाभिमान, महाराणा प्रताप क्षत्रिय स्वाभिमान, शिवाजी मराठा स्वाभिमान, गुरु गोविंद सिंह सहित अन्य सिख गुरु भी अपने अपने समाज और धर्म के लिये प्रेरणा के प्रतीक बने हैं। जैसे आज डॉ बीआर अम्वेडकर दलित चेतना और दलित अस्मिता के प्रतीक बन चुके हैं।  हम एक व्यक्तिपूजक समाज है । हम एक ठीहा खोजते हैं और एक प्रभा मंडल गढ़ते हैं जिनसे हम प्रेरित होते हैं। गज़ब का अतीत मोह है हम में। यह अतीत मोह कभी कभी हमारे समाज को अन्य से अलग भी कर देता है। लेकिन शीतताप नियंत्रित आरामदेह कमरे के समान हम उसी माज़ीखाने में ही आनन्द की पिनक में रहते हैं। महार को भी उनके स्वाभिमान और प्रतीकों के साथ जीने और उन पर गर्व करने का उतना ही अधिकार है जितना कि किसी अन्य धर्म, जाति और समाज को। कोरेगांव के पीछे यही भाव रहा होगा ।

आज भी महार रेजिमेंट है । 1941 में जब द्वीतीय विश्व युद्ध हो रहा था तो अम्बेडकर उस समय गवर्नर की कॉउंसिल में थे। उनके प्रयासों से महार रेजिमेंट का गठन हुआ था । लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि इस रेजिमेंट में केवल महार जाति के ही लोग भर्ती होते हों। इस रेजिमेंट में सभी जाति और धर्म के लोग भर्ती होते हैं । यह एक इन्फैंट्री रेजीमेंट है जिसमे 19 बटालियन है। इनका बोधशब्द motto यश सिद्धि और युद्धघोष बोलो हिंदुस्तान की जय है। यह मोटो और युद्धघोष 1941 के समय ही तय किया गया था और आज भी वही है। इस रेजिमेंट ने 1947/48 और 1965 , 1971 के पाकिस्तान के विरुद्ध और 1962 के चीन के विरुद्ध युद्धों में भाग लिया था । रेजिमेंट को 1 परम वीर चक्र, 4 महा वीर चक्र, 29 वीर चक्र, 1कीर्ति चक्र, 12 शौर्य चक्र, 22 विशिष्ट सेवा मेडल और 63 सेना मेडल मिल चुके हैं।

शहीद अब्दुल हमीद जिनको 1965 के भारत पाक युद्ध मे पश्चिमी सीमा पर स्थित असल उत्तर के मोर्चे पर अदम्य वीरता प्रदर्शित करने के लिये मरणोपरांत परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था वे महार रेजीमेंट के ही थे। भारतीय सेना को दो सेनाध्यक्ष, जनरल के सुंदर जी और जनरल केवी कृष्णराव भी इसी महार रेजिमेंट ने दिये हैं ।

अपना अपना समाज और अपने अपने समाज की शौर्य गाथा हर युग मे रही है और रहेगी। जब जब भी परिभाषायें एक ही मानसिकता से गढ़ी और माने जाने की ज़िद की जाएगी तो समाज मे द्वंद्व होगा ही। यह द्वंद्व भी सनातन है और समाज भी। अतीतमोह अक्सर त्रासद भी होता है।

© विजय शंकर सिंह

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