Sunday 28 January 2018

कासगंज में साम्प्रदायिक दंगा - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

अभी तक तो होली, ईद दशहरा और मुहर्रम जैसे पर्व जब एक साथ पड़ जाते थे तो साम्प्रदायिक उन्माद और दंगों की संभावना हो जाती थी। पर यह भी पहली ही बार है कि 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर तिरंगा यात्रा के जुलूस में दंगा हुआ हो। कासगंज में 26 जनवरी  को एक  जुलूस निकला और वह जब एक मुस्लिम आबादी से गुजरा तो आपसी झड़प हुई और किसी ने गोली चला दी जिस से एक युवक चंदन गुप्त की मौके पर ही मृत्यु हो गयी और एक अन्य राहुल उपाध्याय की अस्पताल में । उत्सव शोक में बदल गया ।

अब शुरू हुआ सिलसिला महाभोज का। भड़कने और भड़काने का। प्रशासन का कहना है कि यह जुलूस बिना पुलिस को सूचना दिए ही निकाला गया और इसका रूट भी तय नहीं था।

जुलूस वालों का कहना है कि वे तो गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक रूटीन जुलूस निकाल रहे थे कि मुस्लिम आबादी में जब पहुंचे तो किसी ने पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाया और जब पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा जुलूस से लगा तो तनाव और बढ़ गया और इसका परिणाम दो व्यक्तियों की मृत्यु हुयी।

एक खबर और वीडियो के अनुसार इस तिरंगा यात्रा में तिरंगा कम भगवा झंडे अधिक थे और जो नारे लग रहे थे वे भी भड़काऊ नारे थे। जानबूझकर तनाव उत्पन्न करने की कोशिश की गई और यह दंगे कराने की साज़िश है।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार ~
" कासगंज के बुद्धा नगर के अब्दुल हमीद तिराहे पर क्षेत्र के मुसलमानों ने जुमे की नमाज़ के बाद झंडारोहण का प्रोग्राम रखा था इसके लिए सड़क घेर के कुर्सियां आदि बिछाई गयी थीं इस प्रोग्राम के लिए दो सौ रूपये का चंदा देने वाले अधिवक्ता मोहद रफ़ी के अनुसार झंडा रोहण होने ही वाला था की पचास साठ मोटर साइकलों पर सवार ABVP के कार्यकर्ता वहाँ आये उनके गाड़ियों पर तिरंगा और भगवा दोनों झंडे थे उन्होंने कुर्सियां हटाने को कहा इस पर समारोह के संयोजकों ने कहा की थोड़ी ही देर में समारोह खत्म हो जायगा तब कुर्सियां हटा लेंगे तब तक आप लोग भी इस समारोह में शरीक हों लेकिन वह लोग कुर्सियां हटवाने पर न केवल बज़िद हुए बल्कि खुद ही कुर्सियां उठा उठा के फेंकने लगे जिसपर बवाल हो गया ।

सच क्या है,  यह तो प्रत्यक्ष दर्शी ही बता पाएंगे या वे जो इस पूरी घटना की छानबीन करेंगे। दंगों की जांच तो अनिवार्य रूप से होती ही है। इसकी भी होगी। मजिस्ट्रेटी जांच का आदेश तो हो ही गया होगा और थाने में भी मुक़दमा कायम हुये होंगे। जब तक परिणाम न आएं तब तक कुछ कहना उचित नहीं होगा विशेषकर हम जैसे उन लोगों के लिये जो ऐसी घटनाओं से पूरी नौकरी भर रूबरू होते रहे हैं।

दंगों के बारे में मेरा अनुभव यह है कि ऐसे दंगो में कोई भी बड़ा नेता या आयोजक अमूमन नहीं मरता है। मरते हैं वे नौजवान जो भीड़ में शामिल होते हैं और वे लोग जो या तो तमाशबीन होते हैं या उधर से गुज़र रहे होते हैं। गिरफ्तार भी दूसरे ही पंक्ति के लोग होते हैं पहले वाले तो घरों में बैठ, रिमोट से यह सब कारगुजारियां संचालित करते रहते हैं।

धर्म के नाम पर अब भी भड़काया जा रहा है। दोनों ही धर्म के लोग अपने अपने धर्म को खतरे में बता रहे हैं। कुछ सरकार को कोस रहे हैं कि सरकार कुछ करती क्यों नहीं। कुछ यह भी सरकार से उम्मीद कर रहे हैं कि सरकार या पुलिस चंदन गुप्ता की मृत्यु का बदला लेगी। जिसकी जैसी सोच वैसी उम्मीद पाले बैठा है। कुछ तो सरकार से ऐसे खफा हैं जैसे उन्होंने सरकार ही दंगा कराने के लिये चुनी हो जैसे !

सरकार को इस साम्प्रदायिक दंगे के सभी विन्दुओं जैसे,
* क्या तिरंगा यात्रा अचानक निकाली गयी या यह पहले भी निकाली जाती थी ?
* पहले भी निकाली जाती रही है तो उसके लिये जो पुलिस व्यवस्था होनी चाहिये थी क्यों नहीं की गई ?
* जब मुस्लिम आबादी से जुलूस गुज़र रहा था तो भड़काऊ नारे लगाए गए या नहीं ? और यह नारे लगाए गए तो किसने लगाये ?
* जिन असामाजिक तत्वों ने गोली चलाई उनके खिलाफ क्या कार्यवाही की गई।
आदि आदि और भी विंदु स्वतः उठ सकते हैं जिनकी जांच की जानी चाहिये।

सबसे ज़रूरी है कि मृतक चंदन गुप्ता और राहुल उपाध्याय के हत्यारों को जल्दी से जल्दी गिरफ्तार किया जाना चाहिये और इस मामले में बिना किसी भी दबाव में आये दंगाइयों के खिलाफ रासुका और अन्य आपराधिक धाराओं में मुक़दमा कायम कर के कार्यवाही करनी चाहिये। हालांकि दंगो के समय राजनीतिक दबाव बहुत होता है। पर जब किसी भी मामले में बहुत राजनीतिक दबाव पड़ रहा हो तो वैसी दशा में जो और जितना कानून की किताब और सुबूत कहें उतना ही अधिकारियों को करना चाहिये और अक्सर अधिकारी ऐसा करते भी हैं।

दंगो के अपराधी अभियुक्तों के ऊपर दंगों के दौरान कायम किये गए आपराधिक मुकदमों के खिलाफ विशेष अदालतों का गठन कर के उनकी त्वरित सुनवायी की जानी चाहिये पर जब से राजनीतिक लगाव के आधार पर ऐसे मुक़दमे वापस लेने की परंपरा सरकारों ने शुरू की है तो दंगाईयों का और दंगा फैलाने वालों का मनोबल बढ़ने लगा है। सुना है यूपी सरकार मुजफ्फरनगर के दंगों से जुड़े मुकदमों को वापस लेने जा रही है और कर्नाटक सरकार ने हाल ही में ऐसे ही कुछ मुकदमे वापस ले लिये हैं। ऐसे माहौल और प्रशासनिक सोच की सरकारों के रहते क्या हम एक कानून का आदर करने वाला समाज बन सकते है ?

चुनाव की तारीखें जैसे जैसे नज़दीक आती जाएंगी, ऐसी शरारतें बढ़ेंगी औऱ इनका एक ही उद्देश्य है कि समाज को हिन्दू मुस्लिम के कठघरे में बांटा जाय। इस समय दोनों ही समुदाय के विवेकशील लोगों को एकजुट हो खड़ा होना पड़ेगा जिस से इस उन्माद और पागलपन का शमन हो सके।

© विजय शंकर सिंह

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