Tuesday, 23 January 2018

फ़िल्म पद्मावत पर विवाद - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

याद कीजिये सीबीएफसी ने नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन पर बनी डॉक्युमेंट्री को । उस डॉक्युमेंट्री में कहे गए, एक शब्द के कारण उसे प्रमाणपत्र देने से रोक दिया था। बाद में जब बोर्ड बदला तभी वह फ़िल्म पास हुयी। तब सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष थे फिल्मकार पहलाज निहलानी। जिन्होंने खुद को सार्वजनिक रूप से पीएम मोदी जी का चमचा कहा था और इस पर उन्हें गर्व भी था। पर वही चमचा बाद में सेंसर बोर्ड से हटा दिया गया। सरकार बिना रीढ़ की हड्डी के नौकरशाह तो पसंद करती है पर वह यह भी चाहती है कि दिखावे के लिये ही सही रीढ़ की हड्डी की जगह कुछ न कुछ रीढ़ जैसी चीज दिखे। उसके बाद आये प्रसून जोशी। एक प्रतिभावान कवि और फिल्मों से जुड़ी शख्सियत हैं ये। इन्होंने फ़िल्म पदमावती देखी, कुछ कट सुझाये और फिर उसे पद्मावत के नए नाम से संस्कारित कर के प्रदर्शन हेतु प्रमाणपत्र दे दिया। 

क्या सरकार सेंसर बोर्ड के इस प्रमाण पत्र के बाद फ़िल्म के प्रदर्शन पर कोई रोक नहीं लगा सकती है ? यह कहा जा रहा है कि नहीं। 

मेरा कहना है कि अगर सरकार को यह समाधान हो जाय कि किसी भी दृश्य श्रव्य से व्यापक हिंसा होने की संभावना है तो वह कानून व्यवस्था के विंदु पर रोक लगा सकती है। कानून में इसका स्पष्ट प्राविधान है। लेकिन सरकार का इरादा और उसे ऐसा समाधान हो जाय तब ।

आज फ़िल्म का विरोध करने वाले सोशल मीडिया पर खुल कर हिंसा करने आत्महत्या करने और अराजकता फैलाने के लिये उकसा रहे हैं। सारा आक्रोश और गुस्सा, आगजनी आदि इस ठंड में रजाई में बैठे बैठे ही हो रही है। यह मैं अच्छी तरह अनुमान लगा सकता हूँ कि इन उकसाने वालों में से बहुत कम ही लोगों के बच्चे आग लगाने के लिये सड़क पर निकलेंगे। यह अलग बात है कि किसी के बरगलाने पर आसामाजिक तत्वों के साथ कुछ मासूम क्षत्रिय युवा निकल आये। और फिर हिंसा में शामिल होने का खामियाजा साल दर साल भुगतते रहें।

अगर फ़िल्म में इतिहास से छेड़छाड़ हुयी है, और स्वाभिमान तथा बलिदानी प्रतीकों को भले ही उनकी ऐतिहासिकता पर कोई संदेह हो तो भी सरकार को यह सोचना चाहिये कि यदि यह समाज के एक वर्ग को आहत कर सकती है तो उसे सेंसर बोर्ड द्वारा पास किये जाने पर भी कानून व्यवस्था के व्यापक हित मे रिलीज करने पर पुनर्विचार कर सकती है। सिनेमाघरों के मालिकों, फ़िल्म के कलाकारों का विरोध और उनको मार डालने तथा आग लगा देने की धमकी आदि आदि बचकानी बातें है। 

सेंट्रल बोर्ड ऑफ फ़िल्म सिर्टीफिकेशन, कोई संवैधानिक संस्था नहीं है बल्कि यह भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का ही एक हिस्सा है। सरकार व्यापक जनहित में इसे निर्देश दे सकती है, और देती भी है। सेंसर बोर्ड यह आकलन नहीं करता है कि फ़िल्म का जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उसके पास कोई भी ऐसा तंत्र नहीँ है और न ही उसके पास कोई खुफिया एजेंसी है जिस से वह जनता की नब्ज भांप सके। वह केवल यह देखता है कि फ़िल्म सार्वजनिक प्रदर्शन हेतु उपयुक्त है या नहीँ। वह कोई इतिहास मर्मज्ञों का पैनल नही है। सरकार को अगर यह सूचनाएं मिल रही है कि देश मे व्यापक हिंसा हो सकती है तो वह अब इस प्रकरण में दखल दे सकती है। 

अब एक नज़र करणी सेना और उन संगठनों पर जो स्वाभिमान और आन बान शान पर इसे हमला मान कर आक्रोशित हैं । इन संगठनों ने कितने गरीब क्षत्रिय युवाओं के शिक्षा, रोज़गार, और गरीब क्षत्रिय कन्याओं के विवाह आदि के सवाल पर इतना हंगामा मचाया है करणी सेना तथा उसके समर्थकों ने जितना आज वे एक फ़िल्म के रिलीज होने पर मचा रहे हैं ? हिंसा के लिये खुलेआम उकसाना एक संज्ञेय अपराध है। और जब हिंसा होगी तो यह सारे आन बान शान वाले तथाकथित नेता पीछे हो जाएंगे और इन सब के चक्कर मे फंस जाएंगे वे क्षत्रिय लड़के जो भीड़ में या तो भावना के ज्वार में बह कर आ रहे हैं या बरगला कर लाये गये हैं। फिर वे और उनके घरवाले थाना पुलिस और अदालत का चक्कर काटते रह जाएंगे। इनमे से एक भी करणी सेना या अन्य संगठन के लोग उनके साथ खड़े नहीं दिखेंगे। रिश्तेदार या गांव घर के लोग भले रहें। फिर शुरू होगा सालों साल मुकदमेबाजी का दारुण सिलसिला। रहा सवाल हिंसा कर के झुकाने का तो मेरा यह कहना है कि हिंसा से कोई सरकार नही डरती है। उसके पास हिंसा से निपटने के लिये अधिक हिंसक सामान है। वह अपने आधार के दरकने से डरती है। जिस दिन उसे लगेगा कि उसके साथ के लोग उससे हट रहे, उनकी पार्टी छोड़ कर दूर जा रहे हैं वह तुरन्त इस मामले पर गम्भीर हो जाएगी और आक्रोशित पक्ष से बात करने लगेगी । सरकार ऐसी धमकियों को बंदर घुड़की ही समझती है।  यह मेरा अनुभव है। 

अगर सच मे करणी सेना इस फ़िल्म को क्षत्रिय अस्मिता और स्वाभिमान पर एक प्रहार मानती है और उसका विरोध करना चाहती है तो वह उन सभी क्षत्रिय जन प्रतिनिधिगण को, जो संसद और विधान सभाओं में हैं, यह निर्देश दे कि वे सरकार को यह अल्टीमेटम दें कि, या तो इस फ़िल्म के रिलीज की तारीख के फैसले पर पुनर्विचार किया जाय नहीं तो वे सरकार से खुद को अलग कर लेंगे। कानून व्यवस्था के विंदु पर सरकार चाहे तो इस पर पुनर्विचार कर सकती है। प्रोड्यूसर को रिलीज की तारीख स्थगित करने के लिये कहा जा सकता है। अभिसूचना और पुलिस से कानून व्यवस्था पर रपट भी मांगी जा सकती है। पर यदि इरादा सच मे फ़िल्म से उत्पन्न राजपूत समाज मे व्याप्त आक्रोश के प्रति सरकार की सहानुभूति हो तब । अगर केवल आग लगाऊ नीति और अनावश्यक मुद्दों में भटकाने की चाल हो तो और बात है। 

© विजय शंकर सिंह

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