अपराजेयता का एक अलग माया लोक होता है । यह रचा जाता है और स्मोक स्क्रीन के समान इसे फैलाया जाता है । यह आज की ईज़ाद हुई कला नहीं है । यह पहले से ही लोगों को ज्ञात है । 1977 में आपातकाल के बाद जब चुनाव घोषित हुये थे तो, किसी ने यह उम्मीद भी नहीं की थी कि तब की अपराजेय समझी जाने वालीं इंदिरा गांधी अपनी सीट रायबरेली भी हार जाएंगी। इंदिरा विरोधी खेमे में जगजीवन राम, एचएन बहुगुणा और नन्दिनी सतपथी के कांग्रेस से टूट कर आ जाने के बाद कांग्रेस ज़रूर हतमनोबल होने लगी थी। पर किसी को भी 1977 के अप्रत्याशित हार की उम्मीद नहीं थी। खुद अखबारों और आईबी को भी नहीं। पर जब जनरोष फैला तो सब कुछ बहाते हुये ले गया और इंदिरा गांधी स्वयं और अपने पुत्र संजय गांधी सहित चुनाव हार गयीं । यही नहीं 1977 में पूरे बिहार और यूपी में एक भी कांग्रेस का प्रत्याशी चुनाव जीत नहीं सका । तब सोशल मीडिया नहीं था । अखबार थे और आकाशवाणी था ।
ऐसा ही अपराजेय भाव पश्चिम बंगाल के पिछले चुनाव में वाम मोर्चे को हो गया था । 1977 में जब वाम मोर्चा दो तिहाई से बहुमत में आया तो यह गति 32 साल तक रही। वाम मोर्चा एक ऐसी मानसिकता से संक्रमित हो गया था कि उनके नेता यह सोच ही नहीं पा रहे थे कि वे कभी सरकार से बाहर भी होंगे । पर जब वे पटके गए तो आज तक धूल झाड़ रहे हैं ।
अगर आप लोकप्रिय है तो आप खेल का हर नियम तोड़ सकते हैं। आप खेल का नियम रच सकते हैं। आप के पीछे चलती हुयी भीड़ जिसने अपना विवेक आप के लोकप्रियता के धुंध में कहीं गिरवी रख दिया है वह इसे सराहेगी और नारे लगाएगी। यह लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत नहीं है। लोकप्रिय नेता का यह परम दायित्व और कर्तव्य है कि वह अपनी लोकप्रियता को कानून का उल्लंघन कर के उसे सस्ती न बनाये । लोकप्रियता किसी भी दशा में देश के कानून के अवहेलना करने की अनुमति नहीं देती है। यह वैसे ही है जैसे कानून लागू करने वाली एजेंसी के पास कानून लागू करने की तमाप शक्तियों के बावजूद उसे कानून का पालन अनिवार्यतः करना है, यही बताया जाता है। आप कितने भी ताकतवर और ऊंचे हों पर देश का कानून आप से अधिक ताकतवर और ऊपर है।
आज भी भाजपा और प्रधानमंत्री उसी अपराजेयता के ग्रंथि से संक्रमित हैं । निश्चित रूप से मोदी जी का यह प्रांत है। 22 साल से वे यहां सत्ता में हैं । 12 साल वे खुद मुख्यमंत्री रहे हैं । गुजरात का निवासी पीएम है । यूपी बिहार एमपी राजस्थान के अतिरिक्त अन्य प्रांतों में क्षेत्रवाद की भावना भी थोड़ा अतिरिक्त होती है । पर इस चुनाव में मोदी जी की जो देहभाषा, और वक्तृता रही है उस से साफ स्पष्ट है कि वे खुद भी अपनी विजय को ले कर निर्द्वंद्व नहीं थे । अब एग्जिट पोल आ गया । वे जीत रहे हैं। अंतिम परिणाम क्या होगा यह तो 18 दिसंबर को ही जाना जा सकता है ।पर सोशल मीडिया और टीवी पर जो कुछ भी दिख रहा है उस से मुझे यह लगता है कि चुनाव परिणाम का आकलन करते समय एक प्रकार की वही ग्रन्थि अपराजेय भाव कहीं न कहीं है ।
© विजय शंकर सिंह
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