Thursday 14 December 2017

14 दिसम्बर, जन्मदिन पर उर्दू के महान शायर जॉन एलिया का स्मरण / विजय शंकर सिंह

जॉन एलिया उर्दू के एक महान शायर थे। इनका जन्म 14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में हुआ था।  हाल के शायरों में यह सबसे ज्यादा पढ़े और उद्धृत किये जाने वाले शायरों में माने जाते हैं। 'शायद ' 'यानी 'गुमान इनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं । इनकी मृत्यु 8 नवंबर 2004 को हुयी थी। जॉन सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं हिंदुस्तान व पूरे उर्दू जगत में बेहद रुचि के साथ पढ़े और जाने जाते हैं।

पाकिस्तान के होते हुए भी अपने पैतृक (जन्म स्थान) भारत के अमरोहा को कभी भूल नहीं पाए वो लहजा हमेशा बरकरार रहा। उनकी यह नज़्म पढ़ें,

अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था
सब आँखें दम तोड़ चुकी थीं और मैं तन्हा ज़िंदा था ।

सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में
हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था ।

वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े
एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था ।

वो दोपहर अपनी रुख़्सत की ऐसा-वैसा धोका थी
अपने अंदर अपनी लाश उठाए मैं झूटा ज़िंदा था ।

थीं वो घर रातें भी कहानी वा'दे और फिर दिन
गिनना आना था जाने वाले को जाने वाला ज़िंदा था।

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की जमीन पर पैदा हुए बहुत से लेखकों, कवियों, फनकारों और कलाकारों ने दोनों ही देशों में लोकप्रियता पाई है । उनके लिये यह भौगोलिक सीमा का बंधन बहुत मायने नहीं रखता है। जॉन एलिया भी ऐसे ही एक शायर हैं, जो पैदा तो उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुए, लेकिन बाद में पाकिस्तान चले गए और वहीं के होकर रह गए । पाकिस्तान के इस शायर की रचनाओं का संकलन ‘मैं जो हूं, जॉन एलिया हूं’ कुमार विश्वास ने किया है । यह लेख उसी संकलन पर आधारित है ।.कुमार विश्वास उनके लिए लिखते हैं,

‘जॉन को मैं शायरी का चे ग्वेरा मानता हूं जो एक स्टेटमेंट देते हुए नज़र आते हैं कि मैं जो हूं, जैसा हूं, वैसा हूं. मुझे ऐसा ही स्वीकार कीजिए. उनको पता है कि मैं जॉन एलिया हूं और जॉन एलिया होने के माने क्या हैं. इस एटीट्यूड से जितना वो आनन्दित होते हैं, उतना ही उनके चाहने वाले भी होते हैं.’

इस संकलन में इश्क़ की बातें तो बहुत हैं पर प्रेम की सघनता और तीव्रता जो अक्सर उर्दू अदब में बहुत शिद्दत से नज़र आती है, उनकी शायरी में बहुत ज्यादा महसूस नहीं होती.। जॉन की विशेषता ही है बेहद छोटे छोटे वाक्यों में अपनी बात कहना। बहुत सामान्य सी बात जो हम सब के जेहन में एक मासूमियत के साथ उभरती है जॉन के लिये वही नज़्म बन जाती है। कोई सजावट नहीं और न ही कोई दिखावा। यह पंक्तियां पढ़ें,

नया इक रिश्ता पैदा करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूं करें हम,
ख़ामोशी से अदा हो रस्मे-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूं करें हम,
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफ़ादारी का दावा क्यूं करें हम
हमारी ही तमन्ना क्यूं करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूं करें हम. !!

प्रेम की यह सपाट बयानी है। साफगोई सा इजहार है । न कोई आह ओ फुगां, न ज़िद, न इसरार न जीने मरने कसमें । कोई कृत्रिमता नहीं।

जब वे इंसानियत के हक में कुछ लिखते है तो अपने पर भी बिना तंज किये नहीं रहते । खुद को भी बख्शते नहीं हैं ।

‘हैं बाशिंदे इसी बस्ती के हम भी
सो खु़द पर भी भरोसा क्यूं करें हम,
चबा लें क्यूं न ख़ुद ही अपना ढांचा
तुम्हें रातिब (प्रतिदिन का भोजन) क्यूं करें हम.
यही पूछा किया मैं आज दिन भर
हर इक इन्सान को रोटी मिली क्या.’

जॉन एलिया स्वाभिमानी थे । यह स्वाभिमान उनकी रचनाओं में अक्सर मुखरित होता रहा है । इसे वे इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं, और काफी सजग भी दिखते हैं.

‘सहूलियत से गुज़र जाओ मिरी जां
कहीं जीने की ख़ातिर न मर न रहियो
बहुत दुश्वार हो जाएगा जीना
यहां तो ज़ात के अन्दर न रहियो.’

यह खुद्दारी और खुद को अलग महसूस करने की ठसक ही थी जो जॉन एलिया को अलग स्तर पर खड़ा करती है. उनका यह अंदाज ही उन्हें खुदरंग बनाता है-

‘हम किस को दें भला दरो-दीवार का हिसाब
ये हम जो हैं,
ज़मीं के न थे आस्मां के थे या फिर -
‘मैं जो हूं जॉन एलिया हूं जनाब
मेरा बेहद लिहाज़ कीजिएगा’...
माल बाज़ारे-ज़मीं (सार्वजनिक ज़मीन) का था मैं ‘जॉन’
आस्मानों में मिरा सौदा हुआ.’

धार्मिक कट्टरता पर जॉन काफी तटस्थता से अपनी बात कहते हैं. यह अंदाज उन्हें कबीर के करीब ले जाता है -

'धरम की बांसुरी से राग निकले
वो सुराखों के काले नाग निकले,
रखो दैरो-हरम (मन्दिर और मस्जिद) को अब मुक़फ़्फ़ल (तालाबन्द)
कई पागल यहां से भाग निकले,
वो गंगा जल हो या आबे-ज़मज़म (मक्के के पवित्र कुएं का पानी)
ये वो पानी हैं जिन से आग निकले...
है आखि़र आदमियत भी कोई शै
तिरे दरबान तो बुलडॉग निकले,....
पिलाया था हमें अमृत किसी ने
मगर मुंह से लहू के झाग निकले,...
दीने-दिल (दिल के धर्म में) में जिहाद है मम्नूअ (वर्जित)
तू यूं ही अपना सर कटाइयो मत.’

विभाजन के बाद 14 साल की उम्र में जॉन पाकिस्तान में जाकर बस तो गए, लेकिन उनकी यादों में हिंदुस्तान हमेशा बसा रहा. वे किस कदर अपने जन्म स्थान, अपनी गलियों और अपने शहर के करीब से बहती नदी को याद करते हैं, यह उनकी शायरी में सहज ही देखा जा सकता है-

‘वो शै (वस्तु) जो सिर्फ हिन्दुस्तान की थी
वो पाकिस्तान लाई जा रही है,....
अपने छोड़े हुए मुहल्लों पर
रहा दौराने-जांकनी (मरणासन्न अवस्था का दौर) कब तक, नहीं मालूम मेरे आने पर /
उस के कूचे में लू चली कब तक.’

इस किताब में कुछ एक शेर ऐसे हैं जो पढ़े जाने के बाद चंद लम्हों के लिए आपको वहीं ठहर जाने पर मजबूर कर देते हैं. मसलन,

‘मैं हूं मेमार (इमारत बनाने वाला) पर ये बतला दूं 
शहर के शहर ढा चुका हूं मैं’ या फिर-
‘हमें सैराब (सींचना) नयी नस्ल को करना है सो हम 
ख़ून में अपने नहाने के लिए निकले हैं.’ या
'कहां जा के दुनिया को डालूं भला
इधर तो कोई मज़्बला (कूड़ा डालने का स्थान) ही नहीं.’

अगर आप जॉन एलिया का परिचय पाना चाहते हैं तो इस किताब को पढ़ सकते हैं. शायरी के शौकीन भी इस किताब को पढ़ सकते हैं, लेकिन शेरों में बहुत ज्यादा गहराई, मार्मिकता, सघनता की चाह रखने वालों को यह किताब निराश कर सकती है ।

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment