Saturday, 30 September 2017

एक कविता - प्रत्यंचा / विजय शंकर सिंह

धनुष की प्रत्यंचा ढीली है,
तीर, निशाने पर लगे कैसे,
गांडीव हो या हो पिनाक,
प्रत्यंचा कसी न गयी तो,
शस्त्र का अर्थ ही क्या रहा ।
न वह शस्त्र रहा , न अस्त्र,
एक तमाशा बन के रह गया ।

महत्वपूर्ण न शस्त्र होता है,
और न ही अस्त्र,
महत्वपूर्ण है युद्ध में,
शस्त्र के पीछे खड़ा सैनिक,
उसकी जिजीविषा,
उसकी विजय प्राप्ति की लालसा,
उसकी दुर्दम्य इच्छा शक्ति ,
उसका मनोबल और,
प्रत्युत्पन्नमति उसकी ।

© विजय शंकर सिंह

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