Sunday, 30 July 2017

एक कविता - रोज़ रोज़ का किस्सा / विजय शंकर सिंह

उन्होंने कहा,
भ्रष्टाचार भारत छोड़ो ।
भीड़ में शामिल,
आदि आदि ने कोरस गान किया ,
छोड़ो छोड़ो छोड़ो ।

सड़क से गुजरते हुये कुछ रुके,
कुछ हंसे,
कुछ अपनी फार्च्यूनर से
उछल कर भीड़ की ओर लपके,
एक समवेत स्वर गूंज उठा,
भ्रष्टाचार भारत छोड़ो ,
छोड़ो छोड़ो छोड़ो !

अचकचा कर भीड़ में
अभी अभी शामिल हुआ,
एक बन्दा इधर उधर देख
पूछने लगा लोगों से,
भ्रष्टाचार है कहाँ ?

एक ने फुसफुसा कर कहा,
इस भीड़ के बाहर हैं जो,
उनके पास हो तो हो,
इस भीड़ में तुम सुरक्षित हो,
यहां है या नहीं ,
चिंता छोड़ो इसकी,
हो भी तो दिखेगा किसी को नहीं ।

भीड़ में शामिल उस बंदे के चेहरे पर
एक अदद मुस्कान चिपक गयी
गूंज उठा एक स्वर उसके कंठ से
भ्रष्टाचार भारत छोड़ो ।
छोड़ो छोड़ो छोड़ो !

भीड़ से अलग ,
सड़क का यातायात यूँ ही 
चलता रहा,
निर्लिप्त, निष्काम, निराश,
जैसे रोज़ रोज़ का यह किस्सा हो
और वह नारे लगाते रहे,
भ्रष्टाचार भारत छोड़ो
भीड़ दुहराती रही
छोड़ो छोड़ो छोड़ो !!

( विजय शंकर सिंह )

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