Wednesday, 19 July 2017

संसद में नरेश अग्रवाल के कुबोल - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

19 जुलाई को लोकसभा में भीड़हिंसा के समय चर्चा के दौरान सपा सांसद नरेश अग्रवाल ने एक दोहा सुनाया । उसका सन्दर्भ क्या था यह तो वही जानें पर जिस प्रकार विष्णु, राम जानकी और हनुमान की तुलना उनके नाम से मिलते हुए शराब के विभिन्न प्रकारों से की गयी है, वह उनके मस्तिष्क की रुग्णता को ही प्रदर्शित करती है। वे समाजवादी विचारधारा में कितना यक़ीन करते हैं और भारतीय समाजवाद के महान दार्शनिकों, डॉ लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, जेपी आदि आदि और प्राचीन भारतीय दर्शन परम्परा की कितनी समझ उन्हें है यह तो वह स्वयं ही जानते होंगे । थोड़ा बहुत मैं भी उन्हें जानता हूँ और जहां तक उन्हें जितना जानता हूँ उन्हें इन सब दर्शन मूल्यों की कोई समझ नहीं है । यह अलग बात है कि वह उस पार्टी से सांसद हैं जो खुद को डॉ लोहिया की विरासत मानती है । मुझे नहीं पता वे नास्तिक हैं या आस्तिक । जिन देवताओं की वे खिल्ली उड़ा रहे थे , उनके मंदिरों में वह कभी गए हैं या नहीं या जाते भी है या नहीं , यह भी मुझे नहीं मालूम , पर उनका यह आचरण शर्मनाक ही नहीं घोर आपत्तिजनक भी है । मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, उन्होंने भारतीय दर्शन की लोकायत परम्परा और उपरोक्त महानुभाओं का लिखा साहित्य नहीं पढ़ा होगा ।

धर्म निरपेक्षता का यह अर्थ कत्तई नहीं है कि, आप धर्मों की निंदा करें । आप धर्म ग्रन्थों का मज़ाक उड़ायें । इसका सीधा अर्थ है आप की सोच और मानसिकता धर्मों के भेद और विभेद से परे हो । आप का कृत्य और सोच किसी भी धर्म के प्रभाव से मुक्त हो । सभी धर्मों के धर्म ग्रन्थों में हमें बहुत सी अवैज्ञानिक और अविश्वसनीय बातें , सन्दर्भ, कथायें , क्षेपक आदि मिल जाएंगे । उन पर अविश्वास भी होगा और वे पाखण्ड भी लगेंगी । पर उन पर बहस हो सकती है । तर्क वितर्क हो सकते हैं । सहमति असहमति भी हो सकती है, लेकिन उसका मज़ाक नहीं बनाया जाना चाहिये । परिहास और स्वांग बिल्कुल अलग है और इसकी भी एक लम्बी परम्परा है। नौटँकियों और नाट्य मंचों पर परिहास स्वांग देवताओं पर खूब होते हैं । लोग पसंद भी करते हैं। काशी में शिव से मज़ाक़ करने की एक परंपरा भी है । होली पर आप इसका आनंद ले सकते हैं । लेकिन नरेश अग्रवाल संसद में थे । वह किसी रंगमंच या जात्रा में नहीं थे । संसद में एक दिन की कार्यवाही पर करदाताओं के लाखों करोड़ों रूपये खर्च होते हैं । जहां हमारे ये ' क़ाबिल ' प्रतिनिधि हमारी उन समस्याओं के समाधान के लिये एकत्र होते हैं जिनसे हम रोज़ रूबरू होते हैं । वहां अगर जनहित के मुद्दे, जो कम नहीं है को छोड़ कर कोई ऐसा मुद्दा उठाया जाता है जिस से समाज में वैमनस्य फैले तो यह भी एक प्रकार की शरारत है । यह कट्टरपंथियों का हित ही साधेगी ।

हो सकता है ईश्वर पर या विष्णु, राम, जानकी, हनुमान पर उनकी कोई आस्था न हो । यह भी हो सकता है कि वह नास्तिक हों । अगर ऐसा है भी तो यह उनकी व्यक्तिगत सोच है । लेकिन  उनके नास्तिक या आस्तिक होने से भी जिस सनातन धर्म के वे हैं पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा । यह धर्म जितनी आस्तिकता को महत्त्व देता है उतना ही निरीश्वरवाद को भी अपने दर्शन और तर्कों से समृद्ध भी करता है। अस्ति और नास्ति का विवाद सनातन है । और यह तब तक चलेगा जब तक विवेक जाग्रत रहेगा और तर्क प्रतिभा शेष रहेगी ।  अगर वे नास्तिक हैं और  इन देवताओं पर उन्हें कोई आस्था और विश्वास नहीं है तो भी उन्हें किसी की भी आस्था को आघात पहुंचाने का अधिकार नहीं है । वे जिनका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, उनमे से करोड़ों की आस्था हो सकता हो इन देवगणों से जुड़ी हो । एक सांसद के अनेक विशेषाधिकारों में एक विशेषाधिकार यह भी है कि संसद में उनके किसी वक्तव्य के आधार पर उनके खिलाफ कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं की जा सकती है। संविधान निर्माताओं ने यह विशेषाधिकार इस लिये दिया है कि जन समस्याओं और सरकार की कमियों को बिना डरे और बिना लाग लपेट के सांसद, अपनी बात कह सकें न कि वे इस तरह के अतार्किक और अभद्र दोहे सुनाएँ ।

( विजय शंकर सिंह )

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