Tuesday, 4 July 2017

आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का शिक्षा व्यवस्था पर एक अभिभाषण / विजय शंकर सिंह

आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य परम्परा में आखिरी आचार्य थे । उनके बाद यह सम्बोधन या उपाधि किसी भी हिंदी साहित्य के विद्वान को नहीं दी गयी । ऐसा भी नहीं कि विद्वता का श्रोत सूख गया , लेकिन यह सम्बोधन ज़रूर अतीत बन गया । आचार्य द्विवेदी मूल रूप से बलिया के रहने वाले थे । उनकी औपचारिक शिक्षा इंटरमीडिएट तक की थी । इसके बाद उनका अध्ययन स्वाध्याय का ही रहा । उन्होंने शांति निकेतन में अध्यापन से अपनी अध्यापन युग का प्रारम्भ किया । वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में रेक्टर के पद पर भी रहे । साहित्य की हर विधा में उन्होंने अपनी लेखनी चलायी है ।
उनका यह अभिभाषण अंश पढ़ें -
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आपका ध्यान कालिदास के शकुंतला नाटक की ओर ले जाना चाहता हूँ। दुष्यंत अच्छा प्रेमी था यह तो आप जानते ही हैं, गलती हो गई थी, उससे अंगूठी खो गई और उसने गलती कर दी, शकुंतला का त्याग कर दिया। लेकिन वह कम्बख्त अंगूठी फिर मिल गई, और ऐसे अवसरों पर जैसा होता है प्रेमी का हृदय व्याकुल हो उठा और अंगूठी को लेकर विलाप करने लगा। पुराने ज़माने में भले आदमियों का एक अच्छा काम था, एक तो वे राजकाज सब छोड़ देते थे। प्रेम का ज्वर चढ़ा नहीं कि राजकाज छुटा । दुष्यंत ने भी ऐसा ही किया होगा लेकिन एक काम उनका अच्छा होता था कि ऐसे अवसरों पर वे चित्रकर्म द्वारा मनोविनोद किया करते थे। सब भले आदमियों के घर में चित्रकर्म की सामग्री रहती थी। अच्छी-अच्छी तुलिका, बछड़े के काम के रोएं से बनी हुई तुलिकाएं, और बढ़िया रंगदानी, अनेक रंगों का बना हुआ और बढ़िया कागज वगैरह होता होगा। कागज न भी हो तो कोई ओर वस्तु तो होती ही होगी जिस पर वे चित्रकर्म करते थे। तो दुष्यंत ने भी सोचा कि अब इस समय तो एक मात्र साधन यह है कि शकुंतला का चित्र बनाया जाए और बनाया। अच्छा चित्रकार था, बढ़िया चित्र उसने बनाया शकुंतला की सखियां अप्सराएं थीं। वे छिप कर देख रही थीं। उनको दुष्यंत नहीं  देख रहे थे लेकिन वे देख रही थीं। वे आपस में बातें करके कहती हैं कि वह क्या सूंदर चित्र बनाया है जैसे लगता है कि सखी मेरे आगे ही बोल रही है। उनका एक साथी था विदूषक-वही एकांत का साथी था उनका विदूषक ने कहा मित्र इसे देखकर तो ऐसा लगता है कि अब बोली, अब बोली इस तरह का चित्र बना दिया तुमने, बहुत सुन्दर चित्र बनाया। लेकिन दुष्यंत परेशान था कि तस्वीर, बनी नहीं ठीक। कुछ गड़बड़ लग रहा है, कहीं जैसे हमारी शिक्षा व्यवस्था में हम लोग कहते हैं वैसे ही कहीं कुछ गड़बड़ है। कुछ ठीक नहीं हो रहा है उन्होंने कहा कि बहुत बढ़िया चित्र बनाहै, इससे बढ़िया क्या हो सकता है। कहने लगे - नहीं कुछ गड़बड़ है। फिर थोड़ी देर में उसको याद आया और बोले - नहीं मित्र, ये तो शुकंतला बहुत ही अधूरी रह गई।

कृतं नं कर्मार्पितबन्धन सखे शिरीषमागण्डविलमिबिकेसरम्।
न वा शरच्चन्द्रमरीचिकोमलं मृणालसूत्र रचितं स्तनान्तरे।।

वो झूमका तो बनाया ही नहीं, शिरीष के फूल का झुमका जो वह पहने हुए थी जो गंडस्थल तक लटक रहे थे। कपोलप्रांत तक लटके हुए झुमके तो बनाना ही भूल गया। फिर “न वा शरच्चंद्रमरीचिकोमलं” शरद काल के चंद्रमा की किरणों के समान कोमल अब आप लोग सोच लीजिए कैसा कोमल होता होगा। लेकिन सुनने में अच्छा लगता है। “शरच्चंद्रमरीचि” इस कविता का अर्थ समझने में चाहे छोड़ा-बहुत भटकें आज, लेकिन सौंदर्य शब्द ही बता देगा आपको।  शरच्चंद्रमरीचिकोमलं, मृणालसूत्र, जो मृणाल की माला को उसने धारण किया था वह तो बना ही नहीं। नहीं-नहीं मित्र इसमें शकुंतला ठीक नहीं बनी और उसने तूलिका ली, अच्छी तूलिका थी, उसने बढ़िया से शिरीष पुष्पों का झुमका भी बना दिया और मृणालसूत्रों की माला भी बना दी। कहने लगा अब ठीक हुआ। विदूषक ने कहा दोस्त अब मत छूना । अब बिलकुल ठीक हो गया, अब इससे बढ़कर कुछ नहीं होगा। लेकिन राजा कहता है नहीं दोस्त फिर कुछ गड़बड़ हो गया है तो बहुत सिर-विर खुजलाके उसने कहा - मित्र ये तो आधी शकुंतला भी नहीं बन पाई है। जो शकुंतला अपने वातावरण से विच्छिन्न है वह शकुंतला पूरी शकुंतला कैसे होगी।

‘कार्य सैकतलीनहंसमिथुना स्त्रोतावहा मालिनी’
‘पादास्तामभितो निषण्णहरिणा गौरीगुरोः पावना’

वह हिमालय की जो भूमि है, नीचे वाली तलहटी की भूमि जिसमें विश्रव्ध भाव से हरिण बिना डर बैठे-बैठे जुगाली किया करते थे, उन हरिणों का चित्र तो बना ही नहीं, और वे जो बड़े-बड़े पेड़ थे वहाँ  पर:-

‘शाखालम्बितवल्कंलस्य च तरोर्निर्मातुमिच्छाम्यधः’

उसके नीचे बड़े पेड़ के नीचे, मैं उस हरिण को बनाना चाहता हूं। आप देखिए अभी तक वह विद्ध चित्र था, जिसको पोरट्रेट पेंटिग कहते हैं, जिसका आजकल दुनिया में बड़ा मान है। हमारे देश में उसको मह्त्व नहीं देते, विद्वचित्र या पोरट्रेट पेंट को, यथावत् चित्रण को महत्व नहीं देते । उसमें रस होना चाहिए। तो अभी तक शकुंतला का चित्र तो विद्ध चित्र था। ज्यों-का-त्यों था आर्टिस्ट उसमें नहीं आता है। उसने अपना हृदय गार के उसमें नहीं डाल दिया था। तो कहता है मित्र, मैं पेड़ भी बनाना चाहता हूँ। आपने देखा होगा, हरिण को और मारीशस के भाइयों से सुना है कि हरिण नहीं होता यहाँ, हमारे देश में यानी आपके देश में भी बहुत बड़ा सींगों की एक जहाज, जहाज ही समझिए इत्ता बड़ा-बड़ा वह नुकीली निकली हुए बड़ी सींग, बड़ी-बड़ी होती है, तो वैसा ही मैं हरिण बनाना चाहता हूँ और उसकी सींग, पर अपनी बाई आंख खुजलाती हुई मृगी को बनाना चहाता हूँ । आप सोचें कि बारहसिंगा महाराज जरा सा ऐसे झटक दें तो वो आँख फूट जाए उस मृगी की । मृगी की आँख संसार में दुर्लभ है। संसार में अगर सबसे सुन्दर वस्तु है तो मृगी की आँख है और मृगी अब इतने विश्वास के सभी उसके सींग के कोने पर अपने आँख का कोना खुजला रही है कितना विश्वास है और वे अपने समाधिस्थ अवस्था में जरूर बैठे होंगे और उसके प्रेमी  उसका आस्वादन कर रहे होंगे। राजा के मन में यही तो डर है, यही तो वेदना है, यही व्याकुलता है कि उस मृगी की तरह शकुंतला भी तो मेरे पास विश्वास के साथ आई थी। ये मृग जितना उस आश्रय का समझते हैं उतना भी तो मैं नहीं समझ सकता। ‘तो मित्र मैं श्रंगे कृष्णामृगस्य वामनयन कण्डुयमानं मृगीम्’ बनाना चाहता हूँ वातारण जब नहीं होगा जिस हद तक तब तक तो शकुंतला आधी है उसमें शकुंतला फूल की तरह खिलेगी, जो विशिष्ट वातावरण उसके भीतर है वह खिलेगा।

मित्रो, मैं और ज्यादा कुछ भी नहीं कहना चाहता । शिक्षारूपी शकुंतला अभी अधूरी पड़ी हुई है, उसे भी वातावरण चाहिए। उसे पढ़ाई-लिखाई का वातावरण चाहिए जो पुस्तकालयों से बनता है, जो प्रयोगशलाओं से बनता है, लेकिन जो सबसे अधिक आदमियों से बनता है, सच्चे गुरुओं से बनता है, महान विद्वानों से बनता - जिन्होंने समर्पित जीवन जिया है। वे जब आते हैं तो वातावरण बनता है और उसके भीतर शिक्षा फूल की तरह खिलती है।
( आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी )

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