ग़ालिब -22.
असल ए शुहूद ओ शाहिद ओ मशहूद एक है,
हैराँ हूँ, फिर मुशाहिदा है किस हिसाब से !
शुहूद - दृश्य
शाहिद - द्रष्टा, देखने वाला,
मशहूद - दृष्टि,
मुशाहिदा - जो दिख्ता है.
Asal e shuhood o shaahid o mashahood ek hai,
Hairaan hoon, fir mushaahidaa hai, kis hisaab se !!
-Ghalib.
दृश्य , दृष्टा, और दृष्टि में आने वाले समस्त सृष्टि का मूल रूप जब एक ही है, तो, जो हमें दिखता है, वह क्या है. मैं इसमें क्या अंतर है, इसे सोच कर अचरज में हूँ.
ग़ालिब का यह शेर उनके अद्वैत्वाती दर्शन को ही प्रमाणित करता है. जो दिखता है, जो देख रहा है, और जो दिख रहा है सब एक ही है. जीव और ब्रह्म को एक ही मानने वाला दर्शन इसका प्रेरणा श्रोत है. ग़ालिब के हर शेर को जब भी पढेंगे तो जैसा दिखता है वैसा आप नहीं आयेंगे. सब में कुछ न कुछ दर्शन के तत्व सिमटे मिलेंगे. इस्लाम एकेश्वरवाद को मानता है. लेकिन भारतीय दर्शन भी इस्लाम के जन्म से बहुत पहले से एकेश्वरवाद के दर्शन को मान्यता देती रहा है.
इस सिलसिले में कबीर का एक पद उद्धृत है.
उपजे प्यंड, प्रान कहाँ थे आवें,
मूवा जीव, जाई कहाँ समावे,
कहो धौ सबद कहाँ से आवै,
अरु फिरि कहाँ समावे.
कबीर की यह जिज्ञासा है. वह जानना चाहते है, पिंड की उत्पत्ति कहाँ से हुयी है, किस वस्तु से पिंड उद्भूत हुआ है. प्राण, आता कहाँ से है, और फिर जाता कहाँ है. शब्द उपजता कहाँ से है और समा कहाँ जाता है. उत्तर इसका एक ही है. वही पिंड को उत्पन्न करता है, वही इसका लोप करता है. प्राण भी वहीं से निकलता है और वहीं समाप्त होता है. शब्द भी वहीं खो जाते हैं जहां से उद्भूत होते हैं. वह , अनादि अनंत, अचिन्त्य, है. परब्रह्म है. नाम चाहे उसे जो दें.
ग़ालिब इसमें अंतर ढूँढने वालों की बुद्धि और विवेक पर हैरान है. सब एक ही परब्रह्म से उद्भूत हैं और सबका गम्य भी एक ही परब्रह्म की ओर है. जो इनमे भेद खोजते है, वे भ्रम में है. ग़ालिब को अचरज इसी पर है.
असल ए शुहूद ओ शाहिद ओ मशहूद एक है,
हैराँ हूँ, फिर मुशाहिदा है किस हिसाब से !
शुहूद - दृश्य
शाहिद - द्रष्टा, देखने वाला,
मशहूद - दृष्टि,
मुशाहिदा - जो दिख्ता है.
Asal e shuhood o shaahid o mashahood ek hai,
Hairaan hoon, fir mushaahidaa hai, kis hisaab se !!
-Ghalib.
दृश्य , दृष्टा, और दृष्टि में आने वाले समस्त सृष्टि का मूल रूप जब एक ही है, तो, जो हमें दिखता है, वह क्या है. मैं इसमें क्या अंतर है, इसे सोच कर अचरज में हूँ.
ग़ालिब का यह शेर उनके अद्वैत्वाती दर्शन को ही प्रमाणित करता है. जो दिखता है, जो देख रहा है, और जो दिख रहा है सब एक ही है. जीव और ब्रह्म को एक ही मानने वाला दर्शन इसका प्रेरणा श्रोत है. ग़ालिब के हर शेर को जब भी पढेंगे तो जैसा दिखता है वैसा आप नहीं आयेंगे. सब में कुछ न कुछ दर्शन के तत्व सिमटे मिलेंगे. इस्लाम एकेश्वरवाद को मानता है. लेकिन भारतीय दर्शन भी इस्लाम के जन्म से बहुत पहले से एकेश्वरवाद के दर्शन को मान्यता देती रहा है.
इस सिलसिले में कबीर का एक पद उद्धृत है.
उपजे प्यंड, प्रान कहाँ थे आवें,
मूवा जीव, जाई कहाँ समावे,
कहो धौ सबद कहाँ से आवै,
अरु फिरि कहाँ समावे.
कबीर की यह जिज्ञासा है. वह जानना चाहते है, पिंड की उत्पत्ति कहाँ से हुयी है, किस वस्तु से पिंड उद्भूत हुआ है. प्राण, आता कहाँ से है, और फिर जाता कहाँ है. शब्द उपजता कहाँ से है और समा कहाँ जाता है. उत्तर इसका एक ही है. वही पिंड को उत्पन्न करता है, वही इसका लोप करता है. प्राण भी वहीं से निकलता है और वहीं समाप्त होता है. शब्द भी वहीं खो जाते हैं जहां से उद्भूत होते हैं. वह , अनादि अनंत, अचिन्त्य, है. परब्रह्म है. नाम चाहे उसे जो दें.
ग़ालिब इसमें अंतर ढूँढने वालों की बुद्धि और विवेक पर हैरान है. सब एक ही परब्रह्म से उद्भूत हैं और सबका गम्य भी एक ही परब्रह्म की ओर है. जो इनमे भेद खोजते है, वे भ्रम में है. ग़ालिब को अचरज इसी पर है.
( विजय शंकर सिंह )
Beautifully explained and it is very convincing.
ReplyDelete