Friday 24 March 2017

कानून एवम् व्यवस्था - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

एक फ़ोटो सोशल मिडिया पर देखी । बुखार की तरह फ़ैल रही है । वायरल का अनुवाद कर दिया मैंने । वह फ़ोटो पुलिस थाने की है । आगंतुक फरियादी को जूस ऑफर किया जा रहा है । कैप्शन लिखा था , कि अब जूस और पानी से स्वागत किया जा रहा है । हम पुलिस वाले वक़्त और मौसम की नज़ाक़त बहुत संजीदगी से समझते हैं । सरकार की मंशा हम बखूबी समझ जाते हैं । घोडा सवार पहचानता है । मैं खुश हुआ । अच्छा लगा थानों के स्टाफ की आदत बदल रही है । कुछ तहज़ीब भी उमग रहीं है । पता नहीं आप ने कभी एक सामान्य फरियादी बन के थाना देखा है या नहीं । मेरी शुभेच्छा है आप को जीवन में कभी थाना  , अदालत और अस्पताल किसी फरियादी और पीड़ित के रूप में न जाना पड़ा । पर कभी थाने ज़रूर जाइयेगा । वहाँ मौजूद पुलिस जन के इर्द गिर्द बह रही आब ओ हवा का जायज़ा लेने । आप के इलाके की रहबरी करते हैं वे लोग । कभी देखिएगा उनके बैठने का कमरा । टूटी कुर्सियां दिखे तो ज़रा गौर से देखिएगा । ये कुर्सियां संख्या में कम ही होती है । सुना था ब्रिटिश जमाने में तो और भी कम होती थी । अब अगर प्रभारी थानाध्यक्ष थोडा शौक़ीन और पढ़े लिखे ज़रा आधुनिक शैली बोली के हुए तो वे अच्छी कुर्सियां जुगाड़ से या इलाके के किसी मित्र की सदाशयता से मंगा कर अपने सौंदर्य बोध का परिचय दे देते हैं । अंदर घुसियेगा तो एक बड़ा और चूना पुता कमरा , ऊंचा मंच और उसी पर कुछ तरतीब तो कुछ बेतरतीब से रखे खूबसूरत जिल्दों में सजे पीले और मटमैले पन्नों वाले मोटे और भारी भरकम रजिस्टर जिन पर उनके नंबर लिखे रहते हैं , पड़े मिलेंगे ।  ज़िल्द तो हर मुआयने के पहले अमूमन बदल ही जाती है । और अगर यह मुआयना डीआईजी साहब का हुआ तो समझिये थाने के लोग उतनी ही मेहनत कर के इन जिल्दों और इन कमरों को सजाता है जैसे उनके घर कोई वैवाहिक आयोजन हो रहा हो। उस कमरे में बैठे तीन चार व्यक्ति भी मिलेंगे जो कार्यालय का काम देखते हैं । ज़रा कमरे का मौसम भी देखिएगा । फिर उनको भी ।  पर मौसम कोई भी हो काम तो करना ही है । लोग जब कहीं न कहीं और कभी न कभी लुटेंगे और पिटेंगे तो थाने ही आएंगे ।

थोडा विषयांतर हो गया । थाना थोडा नॉस्टैजिक असर देता है । जूस से स्वागत की बात चल रही थी । अगर यह परिवर्तन सच में है तो इसका स्वागत है । पर जूस से पहले थाने की मूलभूत समस्याओं का समाधान करना होगा । जवानों के आवास , उनके लिए बिजली, पानी , सफाई और आवास की मूल समस्याओं का निराकरण करना होगा । पुलिस आधुनिकीकरण की एक योजना है जिसमे वाहन और आवास का बजट आता है । इसका अच्छा परिणाम भी सामने आ रहा है । पर अभी भी कमियाँ है । सबसे बड़ी समस्या जन शक्ति की है । थानों का नियतन कम है । और जो नियुक्ति है वह तो अधूरी है । थाने अब केवल अपराधों के ही नियंत्रण के उद्देश्य से नहीं याद किये जाते पर इलाके के हर घटनाक्रम में थानों को व्यस्त रहना पड़ता है । परीक्षा में नकल से ले कर इलाके की हर शान्ति व्यवस्था का दबाव थानों पर रहता है । और इस दबाव का मनोवैज्ञानिक असर पुलिस जन के शारीरिक और मानसिक सेहत पर पड़ता है । एक अध्ययन के अनुसार 50 वर्ष से अधिक  की उम्र का 77 % बल मधुमेह और हायपरटेंशन से पीड़ित है । यह काम का दबाव है या कार्यशैली की अकुशलता या मानसिक तनाव या इन सबका मिला जुला प्रभाव ।

जब भी सरकार बनती है तब भी कानून व्यवस्था का ही मुद्दा उठता है और जब सरकार बिगड़ती है तब भी यही मुद्दा उठता है । निश्चित रुप से यह सर्वाधिक प्राथमिकता भरा मुद्दा है । कानून बना रहे यह तो आवश्यक है ही कानून है दिखे यह उस से भी महत्वपूर्ण है । सरकार को थानों को ही ईकाई मान कर उनकी मूलभूत सुविधाओं को बनाये रखने की क़वायद करनी पड़ेगी । मैं महानगरों के थानों की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं गाँव के उन थानों की बात कर रहा हूँ जहां अभी भी आने जाने के साधनों का अभाव है । हम अक्सर उन आंकड़ों पर भरोसा करते हैं कि पिछली सालों से कम अपराध हुआ है । अपराध कम नहीं होता उसका स्वरूप बदल जाता है । आबादी बढ़ रही है, लोगों की आदतें बढ़ रही हैं , संचार के साधन बढ़ रहे हैं , अपराध के नये नये तरीके सामने आ रहे हैं और जब हमारे दीवान जी तेरह कॉलम वाला नक़्शा टेबल पर फैलाये धीरे और अदब से यह कहते थे कि सरकार तीन साला अपराध तो बराबर है पर पांच साला तो कम है तो हम भी थोडा इतमीनान से टेबल के नीचे टाँगे फैला कर रिलैक्स हो जाते थे और बगल में रखी चाय और कुछ प्लेटों में रखी काजू और अन्य नमकीन टूंगते हुए जाहिराना तौर पर थोडा रिलैक्स तो ज़रूर फील करते थे पर अचानक ग़ालिब का यह शेर भी याद आ जाता था, हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन ।

पुलिस की मूलभूत समस्या उसको प्रदत्त सुविधाओं , जनशक्ति की आपूर्ति से जुडी तो है ही इसके अतिरिक्त अपराध रोकने की सारी जिम्मेदारी ओढ़े यह महकमा , आपराधिक न्याय तंत्र का सिर्फ एक हिस्सा है । पुलिस सुधार हेतु कई आयोग बने , उनकी संस्तुतियां भी मिली, मन रखने और कसम खाने के लिये कुछ संस्तुतियां सरकार ने लागू भी कीं पर बहुत सी संस्तुतियां अभी भी लागू नहीं हुयीं है । नवीनतम आयोग धर्मवीर का था । जिसकी संस्तुतियों को लागू करने के लिए पूर्व डीजी उत्तर प्रदेश और बीएसएफ प्रकाश सिंह सर सवोच्च न्यायालय तक गए । सवोच्च न्यायालय ने उन संस्तुतियों को लागू करने के लिए सरकार को निर्देश भी दिए पर किसी भी प्रदेश की सरकार ने उन पर गम्भीरता से अमल नहीं किया । आज पुलिस राजनैतिक निष्ठाओं के आधार पर इतनी बंट गयी है कि एक निष्पक्ष राजनीतिक नेतृत्व ही इस क्रैक को फिर समतल कर सकता है । एक संस्थान के साख नापने का कोई पैमाना होता तो शायद पुलिस बहुत ही नीचे ठहरती । पुलिस के जवान हों या अधिकारी , किसी भी आपात परिस्थिति में सबसे अधिक निष्ठा और परिश्रम से काम करते हैं । दंगों में बिना किसी धर्म या जाति के पूर्वाग्रहों के पूरा पुलिस बल शान्ति स्थापना के काम में लगा रहता है । लेकिन यह भी कुछ हद तक सही है कि राजनीतिक निष्ठा के आधार पर यह संस्था जातिगत खांचों में बंट रही है ।

© विजय शंकर सिंह

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