Tuesday 7 March 2017

अमेरिका में तीन भारतीयों की हत्या और हाल में हुए उन पर हमले क्या नस्लवाद के उभार का संकेत है ? / विजय शंकर सिंह

डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका फर्स्ट की नीति ने एक और भारतीय की बलि ले ली । अमेरिका फर्स्ट , अमेरिकी राष्ट्रवाद का एक नया चेहरा है । ट्रम्प इसके प्रणेता है । अमेरिका एक ऐसा देश है, जिसकी अपनी कोई संस्कृति नहीं है । अपनी कोई सभ्यता नहीं है । जब अमेरिका की खोज हुयी यूरोप के देश जिसमे इंग्लैंड  मुख्य था , अमेरिका की और बढ़ गए । फिर तो यह नया महाद्वीप यूरोपीय सभ्यता का उपनिवेश बन गया । भारत के धोखे में अमेरिका पहुंचे लोगों ने वहाँ के मूल बाशिंदों को इंडियन कहा पर वे इंडियन हम भारतीयों से हर दृष्टि से अलग थे । उनकी अलग कबीलाई संस्कृति थीं। फिर आज जो मुल्क दुनिया भर के मानवाधिकार मामलों का खुद मुख्तार बना हुआ है ने दुनिया का सबसे बड़ा नस्लवादी नरसंहार किया और फिर इस नए महाद्वीप की बंदर बाँट शुरू हुयी । इस तरह वहाँ नए राज्य विकसित हुए । अछूते प्राकृतिक संसाधनों और दुनिया के अन्य भागों से भैगोलिक रूप से अलग थलग होने के कारण विकास की गति तेज़ हुयी और फिर अमेरिका ने जॉर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में 4 जुलाई 1776 को यूरोपीय उपनिवेशवाद से आज़ाद हुआ ।

जब अमेरिका बस रहा था तो श्रम के लिए यूरोपियन समाज जो अमेरिका में बड़ी बड़ी खेतियाँ और खदानें बटोर रहा था में उत्पादन के लिए श्रमिकों की ज़रूरत हुयी । यह श्रमिक आयें कहाँ से ?  तब अमेरिका का ध्यान अफ्रीका और अन्य गरीब मुल्कों पर पड़ा । वहाँ से अफ़्रीकी दास बना कर अमेरिका लाये गए और उनके श्रम ने अमेरिका को अमेरिका बनाया । श्रम का रंग काला या अश्वेत कहिये , हो गया और पूँजी का रंग तो श्वेत ही रहा । यह दास प्रथा अमेरिका में अमेरिकी गृह युद्ध तक जारी रही । गृह युद्ध का समय 1861 से 1865 तक था और यह अमेरिका का भाग्य था कि उस कठिन समय में उनके पास अब्राहम लिंकन जैसा राष्ट्रपति था । अमेरिका दो भागों में बंटा था । उत्तरी राज्यों के समूह और दक्षिणी राज्यों के समूह में । उत्तरी राज्य दास प्रथा के समाप्ति के पक्षधर थे जब कि दक्षिणी राज्य दास प्रथा को बनाये रखना चाहते थे । यह गृह युद्ध रंगभेद का ही परिणाम था । यहां मानव त्वचा का रंग ही भेदभाव का कारण बना । मार्गरेट मिशेल का काल जयी उपन्यास गॉन विथ द विंड गृह युद्ध की विभीषिका, उसका समाज पर पड़ता हुआ प्रभाव , तमाम विसंगतियों के बीच पलता हुआ प्रेम, और काले दासों के शोषण को बहुत ही कुशलता से रेखांकित करता है । पर दास प्रथा के समर्थक पराजित हुए और यह प्रथा समाप्त हो गयी ।

अंग्रेजों यानी पूरी यूरोपीय जमात , यूरोप और अमेरिका में हो रहे औद्योगिक क्रान्ति से समृद्ध हो रही थी । साम्राज्यवाद का स्वरूप बदल रहा था । पूँजी का रुप विकसित हो रहा था और नए नए आविष्कारों ने अमेरिका को समृद्ध कर दिया । अमेरिका की रक्षा के लिए एक तरफ प्रशांत महासागर तो दुसरी तरफ अंध महासागर थे ही । उसे यूरोपीय घटनाक्रम की बहुत चिंता नहीं थी । बाज़ार के रूप में उसके पास यूरोप और उसके उपनिवेश थे ही । पूरी दुनिया से प्रतिभाओं का पलायन अमेरिका की तरफ हुआ । सही मायने में वह एक बहुभाषी, बहुराष्ट्रीय मुल्क बनता जा रहा था । 1910 से 1950 तक , इन चालीस वर्षों में यूरोप में जो अफरा तफरी और युद्धों का वातावरण बना रहा उस से अमेरिका की स्थिति एक चौधरी या पंच की तरह रही । यूरोप के इस अस्थिर माहौल ने अमेरिकी पूंजीवाद को और मज़बूत ही किया ।

अब इतिहास से निकल कर वर्तमान की बात थोड़ी कर ली जाय । आज अमेरिका में फिर नस्लवाद का जहर जन्म ले रहा है । हाल ही में इधर अमेरिका में तीन ऐसी हत्या की  घटनाएं हुयी हैं जिस से अमेरिका के बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक चरित्र पर कई सवाल खड़े कर रही है। आज अमेरिका में एक भारतीय सिख की हत्या कर दी गयी । इस हत्या में भी हत्यारों ने , ' मेरा देश छोडो ' के नारे लगाए थे । इसके पहले हैदराबाद के श्रीनिवास और गुजरात के हर्निश पटेल की हत्या भी हो चुकी है । यह हत्या ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद हुयी तीसरी हत्या है और ट्रम्प को देश का राष्ट्रपति बने अभी दो महीने भी नहीं हुए हैं । अमेरिका का यह चरित्र परिवर्तन , वहाँ की नीति परिवर्तन का परिणाम है या पूंजीवाद का कोई नया पैंतरा यह समय ही बताएगा । ऐसा बिलकुल नहीं है कि अमेरिका में इस नयी और आक्रामक सोच का विरोध वहाँ के लोग नहीं कर रहे । वहाँ का बुद्धिजीवी समुदाय इस प्रवित्ति के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ है ।

( विजय शंकर सिंह )

No comments:

Post a Comment