रात तो रखती है, मुन्तजिर हमको,
इसकी तासीर ही है कुछ ऐसी !
पर कल जब सूरज उफ़ुक़ से झांकेगा,
दरीचे से ढेर सारी किरने,
जब मेरे कमरे में आयेंगी,
भुला देंगी सारे अफ़साने रात के ।
दिन फिर शुरू होगा,
एक नए सिलसिले से
रात गुज़र जायेगी एक वक्फे के तरह ।
ये नीम रोशन भरी माहताब,
गढ़ती है हज़ार ख्वाब.
कुछ याद रहते हैं
कुछ भुला दिये जाते हैं ।
चलो अब सो जाएँ
ख़्वाबों का क्या,
वह तो आते जाते रहते हैं !!
( विजय शंकर सिंह )
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