अक्सर सन्नाटे भरी रातों में,
जब सब नींद में , मुब्तिला,
ख्वाब दर ख्वाब, पार करते रहते हैं ,
तो मैं, आसमान की दूर तक पसरी,
दूधिया आकाश गंगा की और,
तेरे क़दमों की आहट की उम्मीद में,
चुपचाप , देखता रहता हूँ. !
खुशनुमा मौसम,
बादलों के बनते बिगड़ते अक़्स,
चाँद का आवारगी भरा सफ़र,
तेरी यादों के उमड़ते घुमड़ते हुज़ूम,
शहर के क्षितिज पर, जगमगाती कंदीलें,
सब कुछ है मेरे आस पास.
पर तुम नहीं हो !
मन के अंदर से अक्सर एक आवाज़ ,
उभर आती है,
तेरे बिन, कुछ कमी सी है !!!
© विजय शंकर सिंह
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