Sunday, 8 May 2016

मदर्स डे पर यह कविता पढ़े "औरतें अज़ीब होती हैं " / विजय शंकर सिंह


मदर्स डे, एक विदेशी अवधारणा है। जहां संयुक्त परिवार की व्ययस्था टूट चुकी है और एकल परिवार हैं। भारत में यह संक्रमण काल है । संयुक्त परिवार , आर्थिक कारणों से जब एकल परिवारों में बँट गए तो रिश्ते बिखरने लगे । इन बिखरते रिश्तों और व्यस्तताओं के बीच मदर्स डे, फादर्स डे आदि अस्तित्व में आये । भारतीय परम्परा में तीन ऋणों का उल्लेख है । मातृ , पितृ और गुरु ऋण । इन सब में मातृ ऋण सर्वोपरि है । आज के दिन स्मरण एक औपचारिकता ही सही , हो तो रहा है ।

यह कविता औरत पर है । मुझे एक मित्र ने भेजी है । कवि कौन है, मुझे ज्ञात नहीं है और न ही मित्र ने ही मुझे बताया है । माँ, एक औरत ही होती है । इस अवसर पर यह कविता साझा कर रहा हूँ । कृपया पढ़े ...

औरतें अजीब होतीं हैं

लोग सच कहते हैं 
औरतें अजीब होतीं है
रात भर सोती नहीं पूरा
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं
दरवाजों की कुंडिया
बच्चों की चादर
पति का मन
और जब जगाती सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं
हवा की तरह घूमतीं
घर बाहर
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती
आशायें
पुराने पुराने अजीब से गाने
गुनगुनातीं
औरचल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर ही
सब के करीब होतीं हैं
औरतें सच में अजीब होतीं हैं
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर
देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं बीच में ही छोड़ कर
ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे पेन्सिल किताब
बचपन में खोई गुडि़या
जवानी में खोए पलाश
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी
छिपन छिपाइ के ठिकाने
वोछोटी बहन
छिप के कहीं रोती
सहेलियों से लिए दिये चुकाए हिसाब
बच्चों के मोजे,पेन्सिल किताब
खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो ?सो गयीं क्या
खाती रहती झिङकियाँ
न शौक से जीती ,न ठीक से मरती
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती
कितनी बार देखी है
मेकअप लगाये,चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी
वो ब्यूटीशियन
वो भाभी ,वो दीदी
चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिखही जाती है
काॅरीडोर में
जल्दी जल्दी चलती
नाखूनों से सूखा आटा झाडते
सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल आई
वो लेडी डाॅक्टर
दिन अक्सर गुजरता है
शहादत में
रात फिर से सलीब होतीहै
सच है
औरतें बेहद अजीब होतीं हैं
सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फ़जा़एं सचमुच खिलखिलातीं हैं
तो ये सूखे कपड़ों ,अचार ,पापड़
बच्चों और सब दुनिया को
भीगने से बचाने को
दौड़ जातीं हैं
खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं
अनगिनत खाइयों पर
अनगिनत पुल पाट देतीं
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों जंगलों में
नदी कीतरह बहती
कोंपल की तरह फूटती
जि़न्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या ?
ऐसा कोई करता है क्या
एक एक बूँद जोड़ कर
पूरी नदी बन जाती
समन्दर से मिलती तो
पर समन्दर न हो पाती
आँगन में बिखरा पडा़
किरची किरची चाँद
उठाकर जोड़ कर
जूड़े में खोंस लेती
शाम को क्षितिज के
माथे से टपकते
सुर्ख सूरज को उँगली से
पोंछ लेती
कौन कर सकता था
भला ऐसा /औरत के सिवा
फर्क है,अच्छे में बुरे में ,ये बताने के लिये
अदन के बाग का फल
खाती है खिलाती है
हव्वा आदम का अच्छा नसीब होती है
लेकिन फिर भी कितनी अजीब होती है
औरतें बेहद अजीब होती हैं
औरतें अजीब होतीं हैं !!
( अज्ञात )

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