Wednesday, 18 May 2016

अकबर की विडंबना / विजय शंकर सिंह

पूरे मध्य काल में अकबर ही एक ऐसा शासक रहा है जिसने भारत की बहुलतावादी संस्कृति को समझा था। उसके पहले और उसके बाद भी कोई भी मुस्लिम शासक इस मर्म को नहीं समझ पाया था । अकबर की यह खूबी भी थी और विडम्बना भी । अकबर का पालन पोषण एक राजपूत के घर में हुआ था । एक बराए नाम भाग्यवान शासक पर सच में अभागे हुमायूँ ने उसे अमरकोट के किले में राजपूत राजा के संरक्षण में छोड़ दिया था और खुद अफगानों से लोहा लेने निकल पड़ा था । उसकी मृत्यु के बाद 1556 में जब दिल्ली के लिए सत्ता संघर्ष चला तो, बैरम खाँ के कुशल सरंक्षकत्व में 13 साल की उम्र में अकबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ । तीन सौ साल से अधिक मुस्लिम शासन की नीतियाँ बदली और अकबर ने एक सम्राट के रूप में भारत की बहुलतावादी संस्कृति को प्रश्रय दिया और उसे अपनी शासन नीति का आधार बनाया ।

अकबर का प्रबल विरोध मुल्लों और कट्टर मुस्लिमों ने किया। क्यों कि अकबर ने न केवल सभी धर्मों की मूल बातो को समझा बल्कि उसे लागू भी किया । वह पढ़ा लिखा नहीं था, पर उसकी धार्मिक नीतियों ने जिसमें सर्वधर्मभाव का उस युग में जब देश तीन सौ साल से भी अधिक समय से भुगत रहा था, प्रचार किया यह एक अनोखी पहल थी । राजपूतों के प्रति उसकी नीति दोस्ताना रही। उसका सबसे विश्वस्त सेनापति राजा मान सिंह थे । मान सिंह ने अकबर के लिए 22 लड़ाइयाँ लड़ी और उत्तर भारत में अफगानिस्तान से बंगाल तक और दक्षिण में नर्मदा के किनारे तक अपने राज्य का विस्तार किया । या इसे आप उलट कर भी कह सकते हैं ।  कट्टरपंथी मुल्लों ने क़दम क़दम पर अकबर के खिलाफ विष वमन किया । यही वह ज़हर था जब शाहजहाँ ने अपने सबसे बड़े पुत्र दाराशिकोह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो, कट्टरपंथी मुल्लों ने दारा का विरोध कर औरंगज़ेब का साथ दिया और दारा अंततः दिल्ली की सड़कों पर मारा गया ।

यह भी नियति की विडंबना है कि, अकबर को अपने काल में मुस्लिम कट्टरपंथियों से जूझना पड़ा था, और आज वह उनके निशाने पर है जो धर्म की  कट्टरता का पाठ , कट्टरपंथियों से ही सीख रहे हैं । मैं अक्सर कहता हूँ, एक धर्म की कट्टरता दुसरे धर्म की कट्टरता को ही पालती और पोषती रहती है । दोनों ही एक दुसरे के लिए खाद पानी का काम करते हैं । जिस दिन मुस्लिम कट्टरता ख़त्म या कम हो जायेगी, उसी दिन से हिन्दू कट्टरता का कोई नाम लेवा नहीं रह जाएगा । तोगड़िया और ओवैसी दोनों ही एक दूसरे के लिए विष वमन हेतु ज़हर उपलब्ध कराते हैं । पर न तो धर्म का हित तोगड़िया करेंगे और न ही इस्लाम का ओवैसी । हाँ यह अलग बात है कि यही ज़हर उन्हें प्रासांगिक बनाये हुए है । सरकारें भी इस खेल को समझती हैं और इसे पसंद करती हैं । इसी बहाने वह उन मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश करती हैं जिनका जनता सच में बेहतर जीवन के लिए  कोई न कोई हल चाहती है ।

दिल्ली में अकबर के नाम पर एक छोटी सी सड़क है । केवल अकबर के ही नाम पर ही नहीं, बल्कि वे सभी शासक जिन्होंने भारत पर शासन किया है उनके नाम पर कोई न कोई सड़क दिल्ली में है । अशोक से ले कर बहादुर शाह ज़फर तक के नाम पर सड़कें हैं । यह नाम इस लिये रखे गए थे कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी बन रही थी । दिल्ली का राज ही भारत का राजा इतिहास ने माना है जब कि दिल्ली से बड़े राज्य दक्षिण के चोल , चालुक्य और विजयनगर साम्राज्य रहे हैं ।  लेकिन ये सारे राजा, महाराजा और सम्राट इन सड़कों के वजह से इतिहास में ज़िंदा नहीं है । वे अगर ज़िंदा हैं तो अपने कर्मों से अपने कृत्य और उपलब्धियों से । अकबर का नाम इसलिए नहीं इतिहास में अमर है कि, उसने 22 लड़ाइयाँ लड़ी और मुग़ल वंश की नींव पुख्ता की। बल्कि इस लिए अमर है कि उसने इस देश की मिटटी और बहुलतावादी संस्कृति को न केवल समझा बल्कि खुद को धर्म के पचड़े से अलग रखा । एक  मुस्लिम शासक के लिए यह उस काल में बहुत बड़ी बात थी । 1205 के बाद जब मुस्लिम शासन शुरू हुआ तो किसी भी मुस्लिम शासक और मुल्ला ने यह सोचा भी नहीं होगा कि, उनके ही किसी काल में दार उल हर्ब और दार उल इस्लाम का पचड़ा ख़त्म हो जाएगा । अकबर ने जब यह किया तो उसका सबसे अधिक विरोध उसके धर्म के ही कट्टर पंथियों ने किया । पर वह झुका नहीं । अंत में उसने एक नया मजहब, ( दीन ए इलाही ) चला दिया जो उसी के साथ शुरू हुआ और उसी के साथ समाप्त हुआ ।

मेवाड़ के राणा प्रताप के साथ उसका युद्ध साम्राज्य विस्तार के लिए था । न कि धर्म विस्तार के लिए । प्रताप ने अपने राज्य के लिए युद्ध किया और उन्होंने हार नहीं मानी । हल्दी घाटी के बाद अकबर समझ गया कि प्रताप किस मिटटी के बने हैं और फिर उसके बाद उसने मेवाड़ की और क़दम भी नहीं रखा । अकबर का ऐसा ही प्रतिरोध रानी दुर्गावती ने भी किया था । पूरे इतिहास में साम्राज्य विस्तार की अदम्य इच्छा सम्राटों में होती थी और अकबर भी इसका अपवाद नहीं था । पर कुछ कट्टरपंथी तत्व चाहे मुस्लिम हों या हिन्दू इस युद्ध को दो धर्मों के युद्ध के रूप में देखते हैं । जब कि ऐसा बिलकुल नहीं है । अकबर की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि, मुस्लिम कठमुल्ले उसकी उदारता से दुखी और खीजे हुए थे तो आज के कट्टरपंथी हिन्दू अकबर की उदारता में भी उसकी कुटिलता खोज लेते हैं । एक सड़क का नाम बदल कर इतिहास की कौन सी भूल सुधारने का उद्देश्य है यह तो वही लोग जानें जो भूल  सुधार अभियान पर निकले हैं ,  पर क्या वे फतेहपुर सीकरी जो विश्व दाय है, आगरा और दिल्ली के लाल किले, टोडरमल की राजस्व व्यवस्था, आदि को भी ध्वस्त करने का साहस करेंगे ?

भूल सुधारने के लिए भूल करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है । यह उस संकीर्ण सोच को ही प्रदर्शित करती है जिसका विरोध अकबर ने 1556 से 1605 तक किया था । और जिसके वजह से इतिहास में उसका अलग स्थान है ।

( विजय शंकर सिंह )

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