तेरी घृणा की काँटों भरी राह से भी मैं,
चुन लूंगा, प्रेम के किसलय ।
उन छोटे छोटे पर चमकते धवल और निष्पाप पुष्पों को,
सहेज कर अपनी अंजुरी में,
धीरे धीरे ही सही,
बढ़ता ही रहूँगा, अपने मंज़िल की ओर ।
तेरी घृणा , तुझे ही जलायेगी,
दावानल की दहकती अग्नि की तरह ।
मैं , प्रेम के उन्ही नन्हे पुष्पों की ,
सुगंध समेटे, तेरी घृणा का हर पथ पार करूँगा।
तुम अपनी घृणा के अंगारों में ,
रौरव की तरह सुलगते रहोगे ।
तुम अपनी दहकायी आग में घिरे,
खुद ही राख में बदल जाओगे ।
तुमसे अन्यमनस्क बना मैं,
अपने पथ पर निर्विकार, अग्रसर रहूँगा !!
( विजय शंकर सिंह )
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