पुलिस हमेशा से निशाने पर रही है. उनके भी जिनकी इसने सुनी और उनकी तो रही ही जिनकी इसने नहीं सुनी. बचपन में रोते हुए बच्चों को पुलिस से डरा कर चुप रहने की कहानियां आप को भी याद होंगी. पुलिस के नाम से जो क्षवि जेहन में उभरती है, वह एक आक्रान्ता, भ्रष्ट, और समाज विरोधी तत्व की ही उभरती है. जैसे जेठ की दुपहरी में अचानक काले बादल आ कर मौसम को थोड़ा आरामदायक बना जाते है, वैसे ही कभी कभी कुछ प्रशंसा के शब्द भी सुनने को मिल जाते है. पर हम उस प्रशंसा से बहुत उत्साहित नहीं होते क्यों कि हमें जन्नत की हकीकत मालूम है. रेत में बारिश का पानी बहुत नहीं टिकता है । यह तो रही अपनी बात.
अब इस चित्र को देखें. एक ट्रैफिक का हवालदार धूप में भी अपना काम कर रहा था, पर उसी घोर ताप में कुछ ठंडक पाने का प्रयास भी कर रहा है. तुरंत कुछ मित्रों के मन में आया होगा कि ट्रैफिक तो धूप और खुले में ही चलेगा. यह सच है. सारी सड़कें तो ढंकी नहीं जा सकती है. यह चित्र वैसे तो चेन्नई पुलिस का है, लेकिन पूरे देश में आप को ऐसे ही उदाहरण मिल जायेंगे. इस घोर ग्रीष्म में जब तापमान 45 डिग्री के आसपास है, पूरा देश तप रहा है, और वातानुकुलित गाड़ियों में भी लोग असहज महसूस कर रहे हों तो मेरी सहानूभूति अपने इस कर्मचारी के साथ होना स्वाभाविक है. हालांकि इसे आप प्रोफेशनल हेजार्ड भी कह सकते हैं । पुलिस और सेना या अन्य सुरक्षा बलों को, ऐसे ही विपरीत मौसम में काम करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. और वे चुनौतियों के अवसर पर खरे उतरते भी है.
इस चित्र को देख कर और इस खबर को पढ़ कर मुझे एक बात अक्सर याद आती है कि, इतनी मेहनत, अहर्निशं सेवामहे, के रूप में बराबर काम करने पर भी जनता से जो प्यार और सम्मान मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता है. क्यों ? इस पर विभाग ने, और बड़े अफसरों ने भी विचार किया है. आखिर कारण क्या है ? भ्रष्टाचार ? कामचोरी ? या आगंतुक से दुर्व्यवहार ? भ्रष्टाचार से तो सारे विभाग ही ग्रस्त है. शायद ही कोई विभाग ऐसा होगा जो इस से ग्रस्त न हो. वैसे भी यह व्यक्तिनुसार है. हर विभाग में इमानदार भी है, और बेईमान भी. किसी भी विभाग को हम पूरा का पूरा बेईमान नहीं कह सकते है. उसी प्रकार, कामचोरी भी लगभग हर जगह हैं. अब बात आती है दुर्व्यवहार की, तो सबसे अधिक शिकायतें दुर्व्यवहार की ही आती है. रिश्वत मांगने का दुर्व्यवहार हो या मारपीट करने का. विभाग इस रोग से ग्रस्त है और जनता त्रस्त.
ऐसा नहीं कि विभाग व्यवहार सुधारने के लिए उपक्रम नहीं करता. बहुत से प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये गए है, दुर्व्यवहार पर सज़ाएँ भी मिलती हैं. लेकिन यह रोग है तो है. व्यक्तिगत व्यवहार व्यक्तिगत गुण और संस्कार से भी नियंत्रित होता है और उन परिस्थितियों से भी जिनके अंतर्गत मनुष्य काम करता है. पर चाहे जो भी कारण हों, दुर्व्यवहार को उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
एक सत्य और है कि पुलिस विभाग में अनियमितताओं और गलतियों पर कर्मचारी और अधिकारी जितने दण्डित किये जाते हैं, उतना किसी भी विभाग में नहीं है. अन्य विभागों में अपनी बात, अपनी व्यथा कहने के लिए सगठन होते है, और उन्हें हड़ताल आदि पर जाने की भी छूट होती है, इस लिए उनके पास एक सेफ्टी वाल्व होता है. जो असंतोष को मुखरित कर देता है. पुलिस में ट्रेड यूनियन टाइप संघों की कोई अनुमति नहीं दी जाती है, और न होनी चाहिए. हालांकि बिहार और गुजरात में ऐसे संघ हैं। उत्तर प्रदेश में भी ऐसे संघ की मांग उठती रहती है। राजपत्रित अधिकारियों / आई पी एस अफसरों के एसोशिएसन हैं पर वह औपचारिक सेवा संबंधी मामले उठाते हैं और बहुत सक्रिय नहीं हैं । ऐसे संघ विभाग में गुटबाजी और अनुशासनहीनता ही उत्पन्न करेंगे और बढ़ाएंगे. हालांकि यदा कदा ऐसे प्रयास होते भी रहते हैं तो उन्हें हतोत्साहित ही किया जाता है और किया भी जाना चाहिए. शस्त्र धारण और क़ानून व्यवस्था से जुडी इस अति आवश्यक सेवा में ट्रेड यूनियन मार्का संघों का कोई औचित्य नहीं है. लेकिन संघों का अभाव भी न खले इसका पर्याप्त ध्यान सरकार और विभाग के बड़े अफसरों को रखना होगा. संघ के न रहने पर बड़े अफसरों का दायित्व और बढ़ जाता है कि वह पुलिस जन की निजी और सेवा संबंधी समस्याओं का समाधान ढूंढें । पुलिस जन की वास्तविक समस्याओं के तरफ से आँख नहीं मूंदा जाना चाहिए. .
पर इसका कोई समाधान किसी भी दल ने या राज्य ने नहीं सोचा. कमीशन दर कमीशन बैठे । उनकी रपटें आयीं, बहसें हुयी, और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया । सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों को लागू करने का आदेश दिया । स्थानांतरण और नियुक्ति पर अनुचित राजनैतिक हस्तक्षेप रोकने का परामर्श दिया पर अब तक राज्यों और केंद्र का रुख उदासीन ही रहा । अधिकार सुख तो बड़ा मादक होता है. उस मादकता को राजनेता छोड़ना नहीं चाहते है. हर चुनाव का मुद्दा क़ानून और व्यवस्था बनता है । हर चुनाव में भय मुक्त समाज की बात की जाती है । पर आज तक किसी भी चुनाव में , किसी भी दल के अजेंडे में पुलिस सुधार पर एक शब्द भी नहीं रहता है. अच्छी गाड़ियां, उन्नत संचार के साधन, और जवानों को मूलभूत सुविधाओं की वृद्धि पर हुआ तो बहुत कुछ है, अभी भी बहुत कमी है. खुद पुलिस की भी संख्या जन संख्या के अनुपात में कम है. अगर आप पुलिस को उसकी कमियों के लिए कोसते हैं तो कोसिये, उसे निरंकुश नहीं रहना चाहिए, लेकिन जो मूलभूत समस्याएं है ज़रा उनके बारे में भी सोचिये. और एकतरफा, मूल्यांकन मत कीजिये. जब सारे विभाग हड़ताल पर चले जाते हैं, सरकार की सारी अपीलें ठुकरा कर सरकार के खिलाफ खड़े होते हैं तो कभी कभी अपने अत्यंत प्रिय की मृत्यु पर भी अवकाश से वंचित यह जवान सरकार के अस्तित्व का एहसास कराते है. यह तथ्य सरकार भी जानती है और आप भी इस से अपरिचित नहीं हैं.
( विजय शंकर सिंह )
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