Friday, 6 May 2016

एक कविता , कितने बदल गए हैं वे ! / विजय शंकर सिंह


कितने बदल गए हैं वे ,
मुंह में लगे खून को
कितनी आसानी से चाट कर
मुस्कुराहटों के नकली मुखौटे ओढ़ ,
शातिराना मासूमियत लिए ,
कितने बदल गए हैं वे !

सुनो  ज़रा तुम उनको ,
दहकी आग पर
जिन्होंने पानी के छींटे तक नहीं डाले ,
उन्हें भड़का कर सेंकते रहे रोटियाँ ,
और खेलते रहे उन्ही रोटियों से,
शीरीं बयानी तो देखो उनकी ,
जुबां नहीं सिर्फ बयान शीरीं हैं !!

क्या अजब बयार चली है जंगल में ,
गुर्राने वाली आवाज़ लिए दरिंदे ,
पूंछ समेटे आज ,
लपलपाती ज़ुबान ,और
कितनी अदाकारी से ,
सुन रहे हैं शिकवे जंगल के !

कितने दिन रहेगा यह मौसम ,
जंगल को तो जंगल ही रहना है !

उनकी मुस्कराहट , और
मासूमियत उनकी ,
फिर बदल जाएगी ,
उन्ही खौफनाक गुर्राहटों में ,
जो बन चुका है उनका स्थायी भाव !!!

( विजय शंकर सिंह )

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