Sunday, 8 May 2016

9 मई , प्रताप जयंती , पर महाराणा प्रताप का विनम्र स्मरण / विजय शंकर सिंह



                                                                            प्रताप स्मारक उदयपुर 

आज 9 मई है । आज ही के दिन 1540 ई में प्रताप का जन्म हुआ था । यह भी अन्य तिथियों की तरह एक सामान्य तिथि जो चौबीस घंटे के बाद बदल जायेगी और अतीत के आरकाइव्स में कहीं महफूज़ हो जायेगी । यह तारीख इस लिए भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है कि उसी दिन भारतीय इतिहास के अत्यंत वीर पुरुष महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था । उदयपुर , राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत शहर । उस रेत के विस्तार के बीच प्रकृति ने झीलों का अनुपम उपहार इस नगर को दिया है । उदयपुर, चित्तौड़, एक लिंग, और हल्दीघाटी आदि कोई स्थान ही नहीं है, भारतीय इतिहास की धरोहर हैं । एक एक स्थान वीरता और आत्मसमर्पण की कहानियां समेटे हमें युगों से अनुप्राणित करता रहा है और करता रहेगा । मुझे तीन बार उस क्षेत्र में जाने का अवसर मिला है । दो बार घूमने के उद्देश्य से और एक बार राजस्थान विधान सभा के चुनाव के सम्बन्ध में । प्रताप की वीरगाथा और महान सिसौदिया राजवंश के दुर्दम्य आत्म सम्मान की कथाएं आज भी रोमांचित करती रहती हैं ।

प्रताप के पितामह राणा संग्राम सिंह, जिन्हें हम राणा सांगा के नाम से जानते हैं ने आगरा के पास खानवा के युद्ध में जो 1527 में हुआ था , बाबर का जम कर मुक़ाबला किया था । बाबर कोई बड़ा योद्धा या बड़ा राजा नहीं था । वह मध्य एशिया के इलाक़ों में कभी कोई सल्तनत जीतते तो कभी गंवाते, कभी ईरान की और बढ़ने का इरादा कर के, फिर बलूचों के विरोध से डर कर वह , भारत की और मुड़ गया । अपनी आत्मकथा में वह स्वीकार करता है, कि इब्राहिम लोधी से वह डरा हुआ था । लेकिन उसके पास तोपें थीं। जो भारतीय सेना के लिए अनजान थीं। वक़्त उसके साथ था । पानीपत का युद्ध वह जीता और आगरा की और बढ़ आया । सांगा के बहादुरी के किस्सों से वह अनजान नहीं था । अंत में फतेहपुर सीकरी के पास खानवा के मैदान में उसका सामना सांगा से हुआ । दोपहर तक , जून की तपती हुयी गर्मी में युद्ध का परिणाम तय हो गया था । सांगा लड़े और अत्यंत वीरता से लड़े। पर सफलता भी श्रेष्ठता का एक मापदंड होता है । लोकगीतों में जो वीरगाथा महकती हुयी फैली है, उसमे राणा सांगा को अस्सी घाव लगने की बात की जाती है । बाबर ने पूरे युद्ध का सार एक ही वाक्य में कह दिया, राजपूत , मारना जानते हैं, लड़ना नहीं !

प्रताप इसी परम्परा के थे । नियति ने इन्हें अकबर से भिड़ा दिया । लेकिन अकबर, बाबर की तरह राज्य की तलाश में भटकता हुआ एक सामंत नहीं था । उस तक आते आते मुग़ल साम्राज्य की नीव पुख्ता हो गयी थी । भारत के राजपूत राजवंशों और धर्म के मर्म को वह समझ गया था । उसकी धार्मिक उदारता का प्रतिफल भी उसको मिला। राजस्थान के लगभग सभी बड़े राजवंश उसके वर्चस्व को स्वीकार कर चुके थे । बस शेष था तो, यही मेवाड़ । मेवाड़ के राजा तो स्वयं एक लिंग है । एक लिंग सिसौदियों के कुल देवता हैं और वहां के महाराणा एकलिंग की ओर से ही शासन करते हैं । ऐसी मान्यता है वहां । जयपुर के राजा मान सिंह, जो, मुग़ल सम्राट के सबसे करीबी और सेनापति थे को इस मुहिम में। लगाया गया । प्रताप को मनाने और वर्चस्व स्वीकार करने का दायित्व ले कर वह प्रताप से मिलने गए । लेकिन प्रताप अलग ही मिटटी के बने थे । उन्होंने दासता स्वीकार करने से मना कर दिया । साम्राज्यवाद भी एक नशा है । जब चढ़ता है तो धरती भी छोटी पड़ जाती है।  अब युद्ध अवश्यम्भावी हो गया था ।

                                                                      
                                                                             हल्दी घटी का मैदान 

18 जून 1576 को , अकबर के राज्यारोहण के बीस साल बाद यह युद्ध हुआ । बीस साल तो अकबर को विरासत में प्राप्त छिन्न भिन्न राज्य को संभालने में लगा था । खमनेर नामक स्थान के पास, दो पहाड़ों के बीच हल्दी जैसे रंग वाली मिटटी के मैदान में युद्ध हुआ । प्रताप की तरफ से, हकीम खान सूरी, और मुग़ल सम्राट की ओर से, राजा मान सिंह थे । युद्ध भीषण था, पर अंत तक अनिर्याणक ही रहा । इस युद्ध की भीषणता के बाद, मेवाड़ और दिल्ली के बीच कोई युद्ध नहीं हुआ । प्रताप बनवासी हो गए । भटक भटक कर सेना तैयार की । भामाशाह ने जो मेवाड़ के बड़े सेठ थे, ने धन दिया । मेवाड़ को मुक्त कराने की अदम्य इच्छा शक्ति लिए प्रताप ने हार नहीं मानी। वे लड़ते रहे और अपनी मृत्यु तक उन्होंने अपनी रियासत का अधिकाँश भाग मुक्त करा लिया था । हल्दीघाटी के उस युद्ध के बाद अकबर का प्रताप से कोई सीधा युद्ध नहीं हुआ था । इस युद्ध का आँखों देखा विवरण अब्दुल क़ादिर बदायूँनी जो एक इतिहास लेखक था, ने तारीख ए बदायुनी में किया है । इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की।

दिल्ली और मेवाड़ का युद्ध , साम्राज्य विस्तार, और अपने राज्य को बचाने का युद्ध था । यह युद्ध भारत को बचाने या भारत से मुग़ल वंश को उखाड़ने का कोई प्रयास नहीं था । साम्राज्य विस्तार दुनिया भर के राज्य और राजाओं की मूल प्रवित्ति रही है। अश्वमेध और राजसूय यज्ञ इस प्रवित्ति को शास्त्रीय रूप प्रदान करते हैं । अकबर, बड़ा राजा था । प्रताप उसकी तुलना में छोटे राज्य के राजा थे । राजस्थान के लगभग सभी राजपूत रियासतें दिल्ली के समक्ष नत मस्तक थे । विरोध का स्वर मेवाड़ से उठा था। यह दो राजाओं के बीच होने वाला , राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई थी । यह ऋग्वेद के सप्तम मंडल में उल्लिखित दाशराज युद्ध और देवासुर संग्रामों की श्रृंखला से ले कर आज तक चल रही है । और आगे भी चलती रहती है । यह युद्ध धर्म के लिए नहीं था । अकबर मुस्लिम था, पर उसका सेनापति मान सिंह थे । प्रताप हिन्दू थे पर मेवाड़ की सेना का सेना पति हकीम खान सूरी था । कुछ मित्र इसमें हिन्दू मुस्लिम एंगल ढूंढने की कोशिश करते हैं उन्हें इस युद्ध से जुड़े इतिहास का अध्ययन कर लेना चाहिए ।
अक्सर कुछ मित्र यह सवाल उठाते हैं कि, अकबर को तो महान कहा जाता है, प्रताप को क्यों नहीं ? प्रताप को भी आप महान कहें और किसी को भी इस पर आपत्ति नहीं होगी । देश के शायद सभी बड़े शहरों में राणा प्रताप की मूर्तियाँ है, उनकी जयन्ती मनाई जाती है । उनकी भव्य मूंछों वाली तस्वीर मैं अपने गाँव के घर में बचपन से देखता आया हूँ । प्रताप मेवाड़ी लोकगीतों में है, और श्याम नारायण पाण्डेय के अमर वीर काव्य में भी अमर हैं। अकबर को महान कह देने से प्रताप की महानता में कमी नहीं आ जाती । मैं मेवाड़ के आज़ादी के युद्ध या संघर्ष को, भारत की आज़ादी का संघर्ष नहीं मानता हूँ । वह संघर्ष मेवाड़ के लिए था । भारत की राष्ट्रीय चेतना जो हमारे स्वाधीनता संग्राम में और वह भी 1857 के विप्लव के बाद आयी वह अकबर और प्रताप के समय थी ही नहीं। अकबर मेवाड़ को हड़पना और अपने राजनीतिक आधीनता में लाना चाहता था । लेकिन प्रताप नहीं झुके और न ही टूटे । न च दैन्यम् न पलायनम् ! तीस साल की अवधि, हल्दीघाटी के युद्ध के बाद, उन्होंने मेवाड़ के जंगलों में बितायी। घास की रोटियाँ खायीं । पर हार नहीं मानी । अकबर की महानता के बखान से प्रताप की अनुपम वीरता के किस्से धुंधला नहीं जाते ।


                                                                                      चेतक की समाधि 

प्रताप क्षत्रिय थे । वे सिसौदिया राज वंश के थे । पर वह सिर्फ क्षत्रियों के ही पूज्य नहीं है। वह सम्पूर्ण देश की धरोहर हैं। उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने साम्राज्य विस्तार के नशे के विरुद्ध तलवार उठायी और अपनी प्रजा को  आज़ादी के लिए अनुप्राणित किया । मेवाड़ के राज परिवार की और फिर किसी भी दिल्लीश्वो वा जगदीश्वरो ने आँख उठा कर नहीं देखा। 1911 के दिल्ली दरबार में जन ब्रिटेन के सम्राट , जॉर्ज पंचम आये थे और देश  के सारे राजा महाराजा , अपनी आ बान और शान से उस दरबार में उपस्थित थे तब भी उदयपुर के महाराणा उस दरबार में नहीं गए थे और उनकी कुर्सी वहाँ खाली थी। वह कुर्सी आज भी उदयपुर के सिटी म्यूजियम में सुरक्षित है। आप उसे देख सकते हैं। मैंने उसे देखा है। आज प्रताप जयन्ती पर , महाराणा प्रताप का विनम्र स्मरण !!

( विजय शंकर सिंह )

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