Tuesday, 31 May 2016

The Future of Pakistan Sunday Magazine Feature By Malik Siraj Akbar

Dr.Stephen P Cohen , a Senior Fellow at the Washington DC-based think tank the Brookings Institution, is considered as the ‘dean of the Pakistan experts’. He is known as one of the world’s most trusted authorities on the Pakistani military and its relationship with the civilian governments.


One was that General Pervez Musharraf fooled himself and he fooled everyone else. He lacked toughness, he tried to please everyone. He was not capable of leading Pakistan’s liberal transformation, although he personally held a liberal vision of the future. Some Pakistanis and many Americans thought that Musharraf was the last hope for Pakistan. I disagree, there are a lot of good Pakistanis around, both in the military and outside of it. However,the army can’t govern the country effectively but it won’t let others govern it either. This is the governance dilemma. Pakistan is stuck between being an outright military dictatorship and a stable democracy. Neither are likely, and an even less likely future would be a radical transformation and the rise of Islamists or a breakaway movement led by the Baloch or other separatist groups. We did not see this coming soon, yet with the obvious breakdown of law and order, the decline of the economy, as well as a dysfunctional civilian-military relationship — change seems to be in the wind — but few of us can be precise about what that change will be. Pakistan is muddling through, but change and transformation are coming, I just don’t know when or how.


As for America’s mixed role in Pakistan, there were two areas where we should have been more accommodating. First, we should have recognised Pakistan as a nuclear power after it tested its weapons in 1998 — as we did with the Indians. This would have legitimised the Pakistani nuclear programme and reduced the paranoia that the Americans were trying to deprive them of their nuclear capability; it might also have contributed to more responsible Pakistani nuclear policy, right now it is the fastest growing nuclear weapons state in the world — and one with a bad record of transferring nuclear technology in the past. Second, the US should have provided trade opportunities, instead of only military aid, to Pakistan after 9/11. There was a serious Pakistani interest in increasing trade, not just receiving military aid; the US did not respond to this.



I had a conversation with Musharraf right after his coup and told him that while the obviously corrupt and extremist political leaders had to be held accountable, that he should also hold elections and let the democratic process move forward. He responded to the effect that he was going to fix the system once and for all. I knew then he was in deep trouble. In a normal state you have to allow people to fail. They must run for office, get elected and then fail on their own terms. It should be left to the people of Pakistan to decide who they elect to rule them. In the long run, they will make the right decision, but the courts, the press, and, rarely, even the military, will be around to prevent disaster. Failure should be seen as helping to perfect the system, not a sign of a bad system. The cure for bad democracy is more and better democracy, not an incompetent military regime, which only breeds resentment as it covers up its failures. In Pakistan the mentality seems to be that having won an election, the victor can persecute his or political rivals. I’d prefer a moderate competent military regime to this kind of pseudo democracy.






एक कविता .... अग्रसर / विजय शंकर सिंह




तेरी घृणा की काँटों भरी राह से भी मैं,
चुन लूंगा, प्रेम के किसलय ।
उन छोटे छोटे पर चमकते धवल और निष्पाप पुष्पों को,
सहेज कर अपनी अंजुरी में,
धीरे धीरे ही सही,
बढ़ता ही रहूँगा, अपने मंज़िल की ओर ।

तेरी घृणा , तुझे ही जलायेगी,
दावानल की दहकती अग्नि की तरह ।
मैं , प्रेम के उन्ही नन्हे पुष्पों की ,
सुगंध समेटे, तेरी घृणा का हर पथ पार करूँगा। 

तुम अपनी घृणा के अंगारों में ,
रौरव की तरह सुलगते रहोगे ।
तुम अपनी दहकायी आग में घिरे,
खुद ही राख में बदल जाओगे ।
तुमसे अन्यमनस्क बना मैं,
अपने पथ पर निर्विकार, अग्रसर रहूँगा !!

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 30 May 2016

Ghalib - Apnii hastee hee se / अपनी हस्ती ही से हो,- ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 8.



अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो
आगही गर नहीं, गफलत ही सही !! 

आगही - ज्ञान, जानकारी, सूचना, परिचय.
गफलत - भूल , असावधानी, आलस्य. 

Apnee hastee hee se ho, jo kuchh ho
Aagahee gar naheen, gaflat hee sahee !! 
-Ghalib. 

जो कुछ होना सम्भव है, वह अपने अस्तित्व ही से सम्भव है. यदि मनुष्य को चेतना उपलब्ध नहीं है, तब भी कोई बात नहीं इस से विशेष अंतर नहीं पड़ता है. 

ग़ालिब अपनी विपन्नता और बदनामी के बावजूद भी बेहद स्वाभिमानी और खुद पर भरोसा रखने वाले शक्श थे. उन्हें लगता था, कि संसार में जो कुछ भी सम्भव है, अपनी हस्ती, अस्तित्व या बूते से ही सम्भव है. उसके पास जो भी बुद्धि और विवेक या सामर्थ्य है, उसी से जो कर सकता है तो करे. 

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 18 May 2016

अकबर की विडंबना / विजय शंकर सिंह

पूरे मध्य काल में अकबर ही एक ऐसा शासक रहा है जिसने भारत की बहुलतावादी संस्कृति को समझा था। उसके पहले और उसके बाद भी कोई भी मुस्लिम शासक इस मर्म को नहीं समझ पाया था । अकबर की यह खूबी भी थी और विडम्बना भी । अकबर का पालन पोषण एक राजपूत के घर में हुआ था । एक बराए नाम भाग्यवान शासक पर सच में अभागे हुमायूँ ने उसे अमरकोट के किले में राजपूत राजा के संरक्षण में छोड़ दिया था और खुद अफगानों से लोहा लेने निकल पड़ा था । उसकी मृत्यु के बाद 1556 में जब दिल्ली के लिए सत्ता संघर्ष चला तो, बैरम खाँ के कुशल सरंक्षकत्व में 13 साल की उम्र में अकबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ । तीन सौ साल से अधिक मुस्लिम शासन की नीतियाँ बदली और अकबर ने एक सम्राट के रूप में भारत की बहुलतावादी संस्कृति को प्रश्रय दिया और उसे अपनी शासन नीति का आधार बनाया ।

अकबर का प्रबल विरोध मुल्लों और कट्टर मुस्लिमों ने किया। क्यों कि अकबर ने न केवल सभी धर्मों की मूल बातो को समझा बल्कि उसे लागू भी किया । वह पढ़ा लिखा नहीं था, पर उसकी धार्मिक नीतियों ने जिसमें सर्वधर्मभाव का उस युग में जब देश तीन सौ साल से भी अधिक समय से भुगत रहा था, प्रचार किया यह एक अनोखी पहल थी । राजपूतों के प्रति उसकी नीति दोस्ताना रही। उसका सबसे विश्वस्त सेनापति राजा मान सिंह थे । मान सिंह ने अकबर के लिए 22 लड़ाइयाँ लड़ी और उत्तर भारत में अफगानिस्तान से बंगाल तक और दक्षिण में नर्मदा के किनारे तक अपने राज्य का विस्तार किया । या इसे आप उलट कर भी कह सकते हैं ।  कट्टरपंथी मुल्लों ने क़दम क़दम पर अकबर के खिलाफ विष वमन किया । यही वह ज़हर था जब शाहजहाँ ने अपने सबसे बड़े पुत्र दाराशिकोह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो, कट्टरपंथी मुल्लों ने दारा का विरोध कर औरंगज़ेब का साथ दिया और दारा अंततः दिल्ली की सड़कों पर मारा गया ।

यह भी नियति की विडंबना है कि, अकबर को अपने काल में मुस्लिम कट्टरपंथियों से जूझना पड़ा था, और आज वह उनके निशाने पर है जो धर्म की  कट्टरता का पाठ , कट्टरपंथियों से ही सीख रहे हैं । मैं अक्सर कहता हूँ, एक धर्म की कट्टरता दुसरे धर्म की कट्टरता को ही पालती और पोषती रहती है । दोनों ही एक दुसरे के लिए खाद पानी का काम करते हैं । जिस दिन मुस्लिम कट्टरता ख़त्म या कम हो जायेगी, उसी दिन से हिन्दू कट्टरता का कोई नाम लेवा नहीं रह जाएगा । तोगड़िया और ओवैसी दोनों ही एक दूसरे के लिए विष वमन हेतु ज़हर उपलब्ध कराते हैं । पर न तो धर्म का हित तोगड़िया करेंगे और न ही इस्लाम का ओवैसी । हाँ यह अलग बात है कि यही ज़हर उन्हें प्रासांगिक बनाये हुए है । सरकारें भी इस खेल को समझती हैं और इसे पसंद करती हैं । इसी बहाने वह उन मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश करती हैं जिनका जनता सच में बेहतर जीवन के लिए  कोई न कोई हल चाहती है ।

दिल्ली में अकबर के नाम पर एक छोटी सी सड़क है । केवल अकबर के ही नाम पर ही नहीं, बल्कि वे सभी शासक जिन्होंने भारत पर शासन किया है उनके नाम पर कोई न कोई सड़क दिल्ली में है । अशोक से ले कर बहादुर शाह ज़फर तक के नाम पर सड़कें हैं । यह नाम इस लिये रखे गए थे कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी बन रही थी । दिल्ली का राज ही भारत का राजा इतिहास ने माना है जब कि दिल्ली से बड़े राज्य दक्षिण के चोल , चालुक्य और विजयनगर साम्राज्य रहे हैं ।  लेकिन ये सारे राजा, महाराजा और सम्राट इन सड़कों के वजह से इतिहास में ज़िंदा नहीं है । वे अगर ज़िंदा हैं तो अपने कर्मों से अपने कृत्य और उपलब्धियों से । अकबर का नाम इसलिए नहीं इतिहास में अमर है कि, उसने 22 लड़ाइयाँ लड़ी और मुग़ल वंश की नींव पुख्ता की। बल्कि इस लिए अमर है कि उसने इस देश की मिटटी और बहुलतावादी संस्कृति को न केवल समझा बल्कि खुद को धर्म के पचड़े से अलग रखा । एक  मुस्लिम शासक के लिए यह उस काल में बहुत बड़ी बात थी । 1205 के बाद जब मुस्लिम शासन शुरू हुआ तो किसी भी मुस्लिम शासक और मुल्ला ने यह सोचा भी नहीं होगा कि, उनके ही किसी काल में दार उल हर्ब और दार उल इस्लाम का पचड़ा ख़त्म हो जाएगा । अकबर ने जब यह किया तो उसका सबसे अधिक विरोध उसके धर्म के ही कट्टर पंथियों ने किया । पर वह झुका नहीं । अंत में उसने एक नया मजहब, ( दीन ए इलाही ) चला दिया जो उसी के साथ शुरू हुआ और उसी के साथ समाप्त हुआ ।

मेवाड़ के राणा प्रताप के साथ उसका युद्ध साम्राज्य विस्तार के लिए था । न कि धर्म विस्तार के लिए । प्रताप ने अपने राज्य के लिए युद्ध किया और उन्होंने हार नहीं मानी । हल्दी घाटी के बाद अकबर समझ गया कि प्रताप किस मिटटी के बने हैं और फिर उसके बाद उसने मेवाड़ की और क़दम भी नहीं रखा । अकबर का ऐसा ही प्रतिरोध रानी दुर्गावती ने भी किया था । पूरे इतिहास में साम्राज्य विस्तार की अदम्य इच्छा सम्राटों में होती थी और अकबर भी इसका अपवाद नहीं था । पर कुछ कट्टरपंथी तत्व चाहे मुस्लिम हों या हिन्दू इस युद्ध को दो धर्मों के युद्ध के रूप में देखते हैं । जब कि ऐसा बिलकुल नहीं है । अकबर की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि, मुस्लिम कठमुल्ले उसकी उदारता से दुखी और खीजे हुए थे तो आज के कट्टरपंथी हिन्दू अकबर की उदारता में भी उसकी कुटिलता खोज लेते हैं । एक सड़क का नाम बदल कर इतिहास की कौन सी भूल सुधारने का उद्देश्य है यह तो वही लोग जानें जो भूल  सुधार अभियान पर निकले हैं ,  पर क्या वे फतेहपुर सीकरी जो विश्व दाय है, आगरा और दिल्ली के लाल किले, टोडरमल की राजस्व व्यवस्था, आदि को भी ध्वस्त करने का साहस करेंगे ?

भूल सुधारने के लिए भूल करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है । यह उस संकीर्ण सोच को ही प्रदर्शित करती है जिसका विरोध अकबर ने 1556 से 1605 तक किया था । और जिसके वजह से इतिहास में उसका अलग स्थान है ।

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 16 May 2016

तफ्तीशों में राजनीति या राजनीति से तफ्तीशें - 1 / विजय शंकर सिंह

मालेगाँव ब्लास्ट की तफ्तीश में एन आई ए के दृष्टिकोण पर बिना किसी टीका  टिप्पणी के यह कहा जा सकता है कि पुलिस की तफ्तीश की साख पर सवाल खड़ा हुआ है । हालांकि यह पहली बार नहीं और न हीं नया सवाल है पर देश की शीर्षस्थ और अग्रणी जांच एजेंसी के साख पर सवाल उठना दुर्भाग्यपूर्ण है ।तफ्तीश का उद्देश्य सच को निकालना और असल अभियुक्त को सामने लाना, उसकी गिरफ्तारी, उस से पूछताछ और सुबूतों के आधार पर जो भी सामने आये, उसे सक्षम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर देना है । लेकिन जब सीबीआई जैसी विशेषज्ञ जांच एजेंसी को सुप्रीम कोर्ट तोता कहे और उसके जांच पर अविश्वास प्रगट करे तो समझ लेना चाहिए की पुलिस का सबसे महत्वपूर्ण काम ही संदेह के घेरे में आ गया है । ऐसा बिलकुल नहीं है कि एक ही अपराध की विवेचना अगर दो एजेंसियों से करायी जाय तो दोनों के ही परिणाम एक ही आने चाहिए । सुबूतों की खोज, पूछताछ, बयानों के अध्ययन और समीक्षा के आधार पर निष्कर्ष बदलते रहते हैं और विवेचना के परिणाम इस से प्रभावित हो सकते हैं। इसका निर्णय न्यायालय को ही करना है और वह करता भी है । अक्सर जिलों में होने वाली विवेचना को सीबीसीआईडी बदल देती है और सीबीसीआईडी जो राज्य सरकार के अधीन होती है कि विवेचना के निष्कर्षों को सीबीआई भी बदलती रहती है । यह कोई नया काम नहीं है जो एन आई ए ने किया है ।

मालेगाँव धमाका की जांच मुम्बई एटीएस ने किया था । हेमंत करकरे  उस समय जॉइंट कमिश्नर ए टी एस थे । उन्ही के निर्देशन में जांच हुयी और उस जांच के दौरान मिले सुबूतों के बाद गिरफ्तारियां हुयी और सुबूत अदालत में पेश भी हुए । 2011 में यह जांच एन आई ए को दी गयी । एन आई ए का गठन जटिल आतंकी अपराधों की विवेचना के लिए किया गया है । चूँकि यह एजेंसी आतंकी घटनाओं की विवेचना में विशेषज्ञता हेतु विकसित की जा रही थी, अतः यह विवेचना भी उसे दे दी गयी । जब भी कोई नयी एजेंसी किसी अपराध की विवेचना करती है तो वह पहले इकठ्ठा किये गए सुबूतों का परीक्षण करती है और फिर नए सिरे से तफ्तीश में जुटती है । ऐसा बिलकुल नहीं है कि, जो पहले विवेचक ने कर दिया वही वह भी मान ले। सुबूत एक जैसे हों या बयान भी एक जैसे हों तो भी उसके परीक्षण के बाद निष्कर्ष बदल सकता है और बदल भी जाता है । इस मुक़दमें में भी यही हुआ है । जिन सुबूतों, बरामदगी और इकबालिया बयानों पर एटीएस ने मकोका लगाया उन्ही के परीक्षण के बाद एन आई ए ने प्राविधान को हटाते हुए अदालत में पूरक आरोप पत्र प्रस्तुत कर दिया है । अब यह न्यायालय के क्षेत्राधिकार में है कि वह एन आई ए के इन निष्कर्षों से सहमत होती है या नहीं ।

मालेगाँव धमाके की जांच जब से एन आई ए को मिली है तब से इस पर विवाद नहीं है विवाद उठा है 2014 में सरकार बदलने के बाद। और वह भी एनआईए के एक एसपी के सुझाव , निर्देश, सलाह या सन्देश, जो भी मानें पर । जब यह जांच चल रही थी तभी, लोक अभियोजक जो सरकार की ओर से अदालतों में मुक़दमें लड़ते हैं ने यह कह कर सनसनी फैला दी कि एन आई ए ने उनसे इन मुक़दमों की पैरवी में सख्ती न करने का सुझाव  दिया । लोक अभियोजक  रोहिणी सालियान ने जब यह बात बतायी , तभी एन आई ए के तफ्तीश और इरादों पर संदेह खड़ा हो गया । यह संदेह स्वाभाविक भी था । रोहिणी का लोक अभियोजक के रूप में काम और क्षवि दोनों ही अच्छी रही है । होता तो यह कि, रोहिणी के इस आरोप पर भी एनआईए को विभागीय जांच करा कर , ऐसा निर्देश या सुझाव देने वाले अधिकारी के विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही की जानी चाहिए थी । पर शायद यह नहीं हुआ । यह एक प्रकार से न्याय को भटकाना ही था, और सरकारी काम में बाधा पहुंचाना भी । रोहिणी के इस रहस्योद्घाटन पर प्रसिद्ध आई पी एस अधिकारी जे ऍफ़ रिबेरो ने एक लंबा लेख भी लिखा था । उन्होंने ने उस लेख में विवेचना में घुस गयी इस प्रवित्ति से पुलिस के अधीनस्थों को आगाह भी किया था । संदेह के इन्ही बादलों के बीच विवेचना चलती रही और अब जा कर पूरक आरोप पत्र न्यायालय में दाखिल हुआ है । 2015 में ही रोहिणी ने न्याय को गुमराह करने के आरोप पर न्यायालय में उक्त एनआईए के एसपी के विरुद्ध एक याचिका भी दायर की है, जिसमें उन्होंने उक्त अधिकारी का नाम भी बताया है । उक्त अधिकारी का नाम सुहास कारके है । सुहास से पूछा जाना चाहिए कि किसके निर्देश पर उन्होंने सख्ती न बरतने के लिये रोहिणी से कहा था। अमूमन ऐसे सुझाव बिना राजनीतिक कारणों के नहीं दिए जाते हैं । कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि रोहिणी को यह विभागीय बातचीत सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए थी । पर रोहिणी ने ऐसा कर के कानून  का ही हित किया है । विवेचना और अभियोजन दोनों का ही मूल उद्देश्य क़ानून का युक्तियुक्त पालन होना है ।

सरकारें बदलती रहती हैं और उसी के अनुसार महत्वपूर्ण अभियोगों की विवेचनाओं के निष्कर्ष भी । विशेष कर राजनीतिक व्यक्तियों के विरुद्ध कायम मुक़दमों के निष्कर्ष बदलते रहते हैं । आय से अधिक संपत्ति की जाँचें जो मुलायम सिंह यादव, मायावती और जयललिता के विरुद्ध चल रही हैं में जो कभी नीम नीम तो कभी शहद शहद टाइप रवैया सीबीआई अपनाती रहती है उसके अध्ययन ने आप राजनैतिक उठा पटक का आसानी से अनुमान लगा सकते हैं ।13 मई 2016 को जो पूरक आरोप पत्र एनआईए द्वारा अदालत में दाखिल किया गया है वह महाराष्ट्र एटीएस द्वारा दाखिल किये गए आरोप पत्र से बिलकुल विपरीत है । एटीएस ने 20 जनवरी 2009 और 21 अप्रैल 2011 को कुल 14 अभियुक्तों के विरुद्ध आरोप पत्र दिया था । 5000 पन्नों में लिखी गयी केस डायरी एटीएस ने सुबूतों के साथ न्यायालय में। दिया था । एनआइए के गठन के बाद 2011 में इस मुक़दमे की विवेचना उसे सौंपी गयी । एनआईए ने दस अभियुको के खिलाफ पूरक आरोप पत्र दिया और प्रज्ञा सिंह तथा अन्य पर से मकोका हटाने की संस्तुति की। एनआईए के तीन पन्ने के घोषणा से जो उसके वेबसाइट पर उपलब्ध है, यह भ्रम फैला कि एनआईए ही मकोका हटाने के लिए सक्षम है । लेकिन जनता में सोशल मिडिया पर दो पक्ष बन गए हैं । एक पक्ष प्रज्ञा सिंह के पक्ष में खड़ा है और वह एनआईए के निष्कर्षों को सही ठहरा रहा है तो दूसरा पक्ष एनआईए को नमो इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी कहते हुए एटीएस की जांच को सही कह रहा है । कुछ लोग एटीएस के बहाने उसके तब के जॉइंट कमिश्नर शहीद हेमंत करकरे पर अपनी खुन्नस निकाल रहे हैं । जहां तक मकोका का प्रश्न है, सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही इस मुक़दमें में मकोका लागू नहीं होता है, ऐसा निर्णय 16 अप्रैल 2015 को दे दिया है । अब जो भी होगा वह अदालत में  ही होगा । पर इस मुक़दमे में एनआईए की साख पर ज़रूर असर पड़ा है ।

महत्वपूर्ण मुक़दमों की विवेचना के दौरान पुलिस पर दबाव भी कम नहीं होते हैं । ज़िला पुलिस जो सीधे जनता से जुडी रहती है, यह दबाव अक्सर झेलती रहती है । इसी दबाव और निष्पक्षता से सच सामने लाया जा सके, ऐसी विवेचनाएं जिनपर दबाव संभावित होते हैं, सीबीसीआईडी को या सीबीआई को सौंपे जाते हैं । इन एजेंसीज़ पर दबाव सामान्य राजनेताओं का नहीं पद पाता पर उच्च स्तरीय दबाव खूब पड़ता है । अब चूँकि अति महत्वपूर्ण मामलों में लोग जनहित याचिकाएं भी दायर करने लगे हैं, और न्यायालय भी सक्रिय रूप में विवेचनाओं का संज्ञान लेने लगीं है तो उन राजनैतिक दबाओं के मानने या न मानने के धर्म संकट का भारी दबाव इन जांच एजेंसियों पर पड़ता है । अखबारों और अहर्निश न्यूज़ चैनेल्स के साथ साथ  सोशल मिडिया जो, परम स्वतंत्र न सिर पर कोऊ , के स्थायी भाव से भरा हुआ है भी हर मामले में मीन मेख निकाल कर इन एजेंसियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालता रहता है । पुलिस ट्रेनिंग के दौरान जब भी राजनितिक दखलंदाज़ी की बात आती थी तो एक सबक जो एक वरिष्ठ अधिकारी ने कभी दिया था , अक्सर याद आता है । वह सबक यह था कि जिस भी जांच में अधिक या बार बार या विपरीत दलों से कोई दबाव आये तो, जो साक्ष्य मिलें उसी के आधार पर बढ़ना चाहिए अन्यथा मुक़दमे में मुल्ज़िम फंसता है या नहीं, यह तो बाद की बात है, पर जांच कर्ता ज़रूर विवादित हो जाएगा या फंस जाएगा ।
- क्रमशः

( विजय शंकर सिंह )