Monday 15 June 2015

FIR के बारे में CrPC को संशोधित करने का महाराष्ट्र सरकार का फैसला - एक टिप्पणी / विजय शंकर सिंह




महाराष्ट्र सरकार का एक बेहद चौंकाने और बेवकूफी भरा फैसला सामने आया है। दंड प्रक्रिया संहिता के प्राविधान 156 के अंतर्गत पुलिस किसी भी अपराध की प्रथम सूचना दर्ज़ करती है। जिसे हम FIR कहते हैं। हिंदी में इसे कहीं प्राथिमिकी या इत्तला कहते हैं। यह दस्तावेज़ किसी भी मुकदमें की नींव होता है। FIR कोई भी किसी अपराध के बारे में सूचना दे कर दर्ज़ करा सकता है। पुलिस जांच में यह झूठा हुआ तो खारिज हो जाता है और झूठी FIR दर्ज़ कराने वाले के विरुद्ध भी पुलिस कानूनी कार्यवाही कर सकती है। महाराष्ट्र सरकार ने इसी CrPC की धारा 156 (3 ) और 190 में संशोधन किया है कि , किसी भी विधायक या नौकरशाह के विरुद्ध कोई भी FIR बिना विधान सभा और विधान परिषद के अध्यक्षों और नौकरशाह के मामलों में बिना मुख्य सचिव की अनुमति के पुलिस दर्ज़ नहीं कर सकती है। यह फैसला गैर कानूनी है। यह निश्चय ही हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से यह क़ानून निरस्त हो जाएगा। इस फैसले की परिधि में पंचायतें और नगर पंचायतों के जान प्रतिनिधि भी आएंगे। इस प्रकार यह एक नए तरह का ब्राह्मणवाद है जो सक्षम वर्ग को क़ानून की परिधि से बाहर रखता है। महाराष्ट्र कैबिनेट के इस फैसले की तीखी प्रतिक्रिया हो रही है।

जैसे हर फैसले के पीछे हम तर्क शील लोग कोई कोई तर्क ज़रूर ढूंढ लेते हैं। उसी तरह इस फैसले के पीछे भी सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को आधार बनाया गया है। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अनिल कुमार बनाम अयप्पा के एक मामले में फैसला दिया था। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस्तगासा जो सीधे अदालतों में कंप्लेंट केस के रूप में दायर किया जाता है में बिना सक्षम अधिकारी के अनुमति के दायर किये जाने पर रोक लगाया था। लेकिन FIR की मनाही वहां भी नहीं थी। अभी भी सरकारी अफसरों और पदासीन मंत्रियों या जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध बिना सरकार या सक्षम अधिकारी की अनुमति के आरोप पत्र न्यायालय में नहीं दाखिल किया जा सकता है। लेकिन किसी भी आरोप पत्र के लिए साक्ष्य चाहिए , और साक्ष्य के लिए विवेचना , और विवेचना के लिए FIR अनिवार्य है। लेकिन सरकार ने जब FIR पर ही रोक लगा दी तो आगे की बात ही खत्म हो गयी।

अब यह तर्क सरकार द्वारा दिया जा रहा है , अक्सर जन प्रतिनिधियों और अफसरों के खिलाफ लोग झूठे मुक़दमें दर्ज़ करा देते हैं जिस से उनके मनोबल पर असर पड़ता है। पहले स्पीकर या मुख्य सचिव की अनुमति के बाद ही मुक़दमें कायम होने से यह समस्या नहीं आएगी। लेकिन सरकार यह नहीं स्पष्ट कर पा रही है कि , आखिर स्पीकर और मुख्य सचिव कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि यह FIR दर्ज़ की जाने योग्य है और यह नहीं। उनके पास कौन सा कानूनी अधिकार है , या मशीनरी है जिस से वह सच झूठ की जांच करेंगे। FIR केवल एक सूचना होती है , जो किसी अपराध के बारे में पहली बार पुलिस थाने में दी जाती है। इसके विवेचना , साक्ष्यों के एकत्रीकरण , परीक्षण , और अदालत से विभिन्न मामलों में मार्गदर्शन और आदेश लेने की एक स्थापित प्रक्रिया है। इसी के अनुसार गिरफ्तारी , पूछताछ , और जमानत का भी प्रावधान होता है। अगर मामला झूठा है तो फाइनल रिपोर्ट या सच है तो आरोप पत्र दिया जाता है। 

एक दिलचस्प यह है कि , देश में सतर्कता , सी आई डी , सी बी आई आदि जो बड़ी विवेचना एजेंसिया हैं के अनेक मामले वर्षों से सरकार की अनुमति हेतु लंबित हैं , क्यों कि अपराधी और अभियुक्त पैरवी कर के इन्हे आगे बढ़ने नहीं देते हैं। इस संशोधन के बाद भी यही स्थिति होगी कि असरदार लोग अपने विरुद्ध मुक़दमें ही नहीं कायम होने देंगे , परिणाम स्वरुप , कुछ विशेषाधिकार संपन्न लोग एक प्रकार की अराजकता उत्पन्न कर देंगे।  जिसका परिणाम , हिंसा और अवैधानिक रास्तों का इस्तेमाल होगा और क़ानून का शासन मज़ाक बन कर रह जाएगा। 

महाराष्ट्र सरकार द्वारा CrPC के सेक्शन 156 जो FIR से सम्बंधित है में संशोधन का जो निर्णय लिया गया है, उसका दूरगामी परिणाम होगा. हालांकि यह एक्ट एक सेन्ट्रल एक्ट है और समवर्ती सूची में है. समवर्ती सूची concurrent list में होने के कारण राज्य सरकारें भी इसे संशोधित कर सकती हैं. पर कैबिनेट से पास होने के बाद इसे विधान सभा से भी पास कराना होगा और विधान सभा के बाद यह राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिए जाएगा. राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद यह क़ानून बन जाता है. पर यह फैसला अभी लागू नहीं हुआ है , यह केवल महाराष्ट्र सरकार ने खुद पास किया है. ऐसा नहीं है कि किसी भी केंद्रीय एक्ट में यह पहला संशोधन हो. उत्तर प्रदेश में , अग्रिम जमानत का प्राविधान , CrPC में होने के बावज़ूद भी , लागू नहीं है.

कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि राज्य की विधान सभा ने तो संशोधन पारित कर दिया और उसे राष्ट्रपति के पास अनुमोदन हेतु भेज भी दिया. पर राष्ट्रपति ने अनुमोदन किया ही नहीं. वह लंबित है. और राज्य सरकार ने लागू भी कर दिया. ऐसा एक दिलचस्प मामला हरियाणा का है. हरियाणा सरकार ने कुछ समय पहले IPC की धारा 379 जो चोरी की है में संशोधन कर के दो धाराएं 379 A और 379 B जोड़ा था. यह प्रस्ताव पारित कर इसे अनुमोदन हेतु राष्ट्रपति के पास भेजा. राष्ट्रपति का अनुमोदन नहीं हुआ और बिना अनुमोदन के ही राज्य सरकार ने गज़ट नोटिफिकेशन कर दिया. पुलिस ने इस क़ानून के आधार पर कार्यवाही भी शुरू कर दी और इस पर कुछ की सज़ाएँ भी अदालतों ने कर दी. बाद में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने जब छानबीन की तो पता लगा कि बिना अनुमोदन के ही यह क़ानून चल गया. 


एक कहानी सुनिए। एक गांव में दोपहर में कुछ बच्चे खेल रहे थे। दोपहर थी। गर्मी की दोपहर में वैसे भी सन्नाटा छा जाता है। खेल खेल मेंज उन बच्चों ने पत्थर जिसे हमारे यहां भोजपुरी में चिक्का कहा जाता है फेंका। वेक बिल्ली का बच्चा उस चोट से मर गया। पांच छह बच्चे जो खेल रहे थे थोड़ा परेशान हुए और सोचे की बात दबायी जाय। पर बात दबी नहीं। देहात में यह धारणा आम है कि बिल्ली को मार देने पर बहुत पाप लगता है और उसका प्रायश्चित स्वर्ण दान से होता है। लोग जुटे और पंडित जी बुलाये गए। पंडित जी ने सारे नियम , उपनियम ,प्रावधान देखा और पूरा खर्च बता दिया। जिनके बच्चे थे उनके परिवारों पर खर्च बांटने का निर्णय हुआ। तभी एक सज्जन ने कहा कि पंडित जी आप के हिस्से में भी यह आया है। आप का भी एक बेटा उसी ग्रुप में था। पंडित जी ने कहा कौन , क्या नाम है ? उत्तर मिला संतोष।

पंडित जी ने चश्मा लगाया और फिर पत्रा पलटा। फिर चश्मे के नीचे से झांकते हुए कहा , 
जउने घटना में हों संतोष ,
बिलार के मरले पडी दोष !

यह कथा महाराष्ट्र सरकार के उस फैसले पर याद आयी , जिसमें उसने जान प्रतिनिधियों और नौकरशाहों पर बिना अनुमति FIR दर्ज़ करने हेतु CrPC में संशोधन किया है।
-vss

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