Tuesday, 9 June 2015

इलाहाबाद के मण्डलायुक्त का तबादला - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह


बीके सिंह एक आई एस अधिकारी हैं और मेरे मित्र है. वह इलाहाबाद के मंडलायुक्त थे जिन्हें अभी सरकार ने निलंबित कर दिया है. उन पर क्या आरोप लगाया है सरकार ने यह तो सरकार जाने पर जो अखबारों में छपा है, उस से लगता है कि उन्हें यमुना में खनन माफियाओं द्वारा बनाये गए एक अवैध और अस्थायी पुल के निर्माण में लापरवाही बरतने का दोषी पाया गया है. सरकार किसी को भी नियमों के अंतर्गत नियमों के अनुसार ही निलंबित कर सकती है. मैं इस विन्दु पर नहीं जाना चाहता हूँ.

उनके मंडल के एक जनपद में यमुना पर मोरंग या रेट निकालने के लिए ट्रकों की आवाजाही हेतु एक अस्थायी पुल का अवैध निर्माण किया गया. किसी भी नदी , नहर या प्राकृतिक जल श्रोत को अवैध रूप से बाधित नहीं किया जा सकता यह आई पी सी में भी एक दंडनीय अपराध है. पुल बना. यह एक दिन में तो बना नहीं होगा और ही वह इलाक़ा बीहड़ का है जिस से किसी को पता चला हो. जब बन गया और उस पर मोरंग लदे ट्रकों का आवागमन शुरू हुआ तो यह मामला अखबारों में छपा तो लोग जागे. अंत में जब बात निकली तो लखनऊ तक गयी और वहाँ से कार्यवाही शुरू हुयी. सरकारें अपनी खीज और अकर्मण्यता और सुस्ती को छुपाने के लिए जब सक्रिय होती हैं तो उनकी गाज़ हमेशा बड़े अधिकारियों पर ही गिरती है. कमिश्नर बी के सिंह इसी खीज के शिकार हुए.

जो प्रशासनिक ढांचा है उस में मंडलायुक्त का स्थान बहुत ऊपर होता है. उनके नीचे ज़िलाधिकारी, डी एम्, एस डी एम्, और खनन विभाग के अधिकारी और तहसीलदार तथा अन्य अमला रहता है. मंडलायुक्त का तो पद ही ऐसा है और ही दायित्व ऐसा है कि वह गांव गांव घूम कर पुल और खनन देखें. खनन माफियाओं का जाल प्रदेश में सरकार के उच्चतम स्तर तक सक्रिय रहता है. इसे वे सभी जानते हैं जो प्रशासन और पुलिस में है. राजनीतिक दलों को फाइनेंसिंग का भी मुख्य जिम्मा इन्ही माफियों पर रहता है. बुंदेलखंड ही नहीं उत्तर प्रदेश में जहां जहां भी रेत की खुदाई होती है वहाँ वहाँ के माफियाओं के सीधे संपर्क सरकार में बैठे महत्वपूर्ण लोगों से होते हैं. यह सिलसिला इसी सरकार में नहीं बल्कि सभी सरकारों में रहा है. खनन अधिकारियों की मनचाही पोस्टिंग के लिए ये माफिया जोड़तोड़ और धन भी खर्च करते रहते हैं. उनके इन्ही संपर्कों के कारण स्थानीय अधिकारी कुछ करना भी नहीं चाहते. या तो वह स्वयं उनसे मिल जाते हैं या कन्नी काट लेते हैं. यह धन, बाहु, और राज बल का निर्लज्ज गठजोड़ है.

श्री नृप सिंह नपलच्याल एक वरिष्ठ आई एस अधिकारी रहे हैं। वह उत्तराखंड के मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त भी रहे हैं उन्होंने इस ब्लॉग पर अपना एक अनुभव शेयर किया है , जो मैं अविकल यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ ,
" क्या जनपद स्तरीय अधिकारियों पर भी कोई कार्यवाही हुई ? मंडलायुक्त का पद तो सुपरवाइजरी होता है ,सीधी जिम्मेदारी तो जिलास्तरीय अधिकारियों की होती है .इसे पढ़कर एक वाकया याद आगया .तब एक तेज़ -तर्रार मुख्यमंत्री मंडलों में जाकर कानून -व्यवस्था और विकास कार्यों की समीक्षा करते थे .मेरे मंडल मुख्यालय में उन्होंने पहले कानून व्यवस्था की समीक्षा की .गाज़ीपुर जनपद में अपराधों में इज़ाफा पाया गया .आनन-फानन में मुख्य मंत्री जी ने वाराणसी रेंज के डीआईजी के तबादले की घोषणा बैठक में ही कर दी .एसपी गाज़ीपुर का कुछ नहीं बिगड़ा .बैठक के बाद मैंने प्रमुख सचिव मुख्य मंत्री और मुख्य सचिव से मिलकर विरोध प्रकट किया कि डीआईजी के साथ नाइंसाफी हुई है पर वे असहाय थे .अंततः मैंने मुख्य मंत्री जी से भी मिलकर डीआईजी की पैरवी की परंतु उनका घोषित निर्णय अटल रहा .विकास की समीक्षा बैठक में ऊपर से मुझे यह सुनना पड़ा कि यहाँ बड़े अफसर एक दूसरे को बचाते हैं.अभी अभी कमिश्नर यहाँ के डीआई जी की पैरवी कर रहे थे।  "

इस संबंध में एक स्थानीय मित्र ने जो बताया है उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। उनके अनुसार ,
" मुख्यमंत्री फतेहपुर में एक तिलक समारोह में भाग लेने गए थे ।उनकीअगवानी उन्हीं लोगों ने की जिनके विरुद्ध अवैध खनन का आरोप था। वे सपा का झंडा लगा कर आए थे। मुख्यमंत्री जी इलाहाबाद में किसी और को आयुक्त बनाना चाहते थे इसलिए मीडिया वालों ने जब अवैध खनन का सवाल खड़ा किया तो अच्छा मौका मिल गया और बी.के.सिंह को निलंबित कर एक तीर से दो निशाने किए। बी.के.सिंह एक ईमानदार एवं कर्मठ अधिकारी थे जो मुख्यमंत्री के सोची समझी चाल के शिकार हो गए। "

बीके सिंह कितने दोषी हैं और कितने नहीं हैं यह तो जो जांच कर रहा है वही बताएगा पर खनन के इस मायाजाल के लिए ठीकरा मंडलायुक्त पर ही फोड़ देना उचित नहीं है.

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