Monday, 1 June 2015

जिन्हे चुनिए उन्हें ढोइए मत - विजय शंकर सिंह


आप हाँथ की सफाई तो देख ही रहे हैं अब ज़रा यह जादू भी देख लीजिये।  यह जादू है प्रचार का और उपलब्धियों का. जादू का शो अपनी समाप्ति के बाद जब  कल्पना लोक से  ज़मीन पर पटकता है तो धरातल की सतह का आभास होता है . धरातल ऊबड़ खाबड़ है या सपाट या फिर कीचड़ भरी , तभी पता लगता है।  कल एक खबर मिली है कि 40 जादूगरों का दल पूरे देश में निकलेगा सरकार की  एक साल की उपलब्धियों का बखान करने . यह खबर जादूगर पी सी सरकार के हवाले से कल एक न्यूज़ चैनल पर दिखी।  यह प्रचार तंत्र का युग है। आप प्रचार और आभासी प्रभा मंडल के दौर में है . सरकारें जो करती हैं वह उनका प्रचार भी करती हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। पर अतिशय प्रचार किये गए या किये जा रहे कार्यों पर पर संदेह  उत्पन्न  कर देता है। सरकार और सत्ता कभी कभी खुद की अकर्मण्यता छुपाने के लिए अक्सर भ्र्म की चादर ताने रहती है , यह तो कभी पढ़ा था पर अब उसे हम देखेंगे भी .

सूटकेस और सूटबूट की सरकार में कोई बहुत अंतर नहीं है . दोनों ही धनतंत्र के प्रभुत्व के  प्रतीक है .धनतंत्र  पहले भी था और आगे भी इसकी भूमिका रहेगी। , धन पतियों की पहले भी सुनी जाती थीं , नीतियां पहले भी उन्हें केंद्र में रख कर बनायीं जाती थी , बजट सेलेक्टिविाली पहले भी उनके लिए लीक किये जाते थे आज भी यह सब हो रहा है . फ़र्क़ सिर्फ यह है क़ि पहले जो कुछ भी होता था उस पर एक आवरण था पर्दा था  पर आज यह सब अनावृत्त है . हो सकता है यह ढिठाई हो या वर्तमान आधुनिकता का खुलापन . आज मुकेश अम्बानी सत्ता के क़रीब हैं तो कल के धीरूभाई बिना कांग्रेस के आशीर्वाद के इस स्तर तक विकसित ही नहीं हो पाते . कभी गांधी के बेहद क़रीब रहा बिरला परिवार को राज्याश्रय प्राप्त था तो कभी सहारा जैसे ग्रुप भी राजनीतिक छाँव तलाशते रहे . सारे उद्योगपति अपने वर्चस्वा , प्रसार और व्यावसायिक हितों के लिए किसी किसी राजनेता या दल का दामन थामे रहते हैं। राजनीतिक दल इसे बखूबी जानते हैं। पर वह यह भी जानते हैं कि चुनाव में जनता का क्या महत्व है। अतः जनता का नाम लेना सत्ता में बने रहने के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। यह इन की मज़बूरी है .

1991 में जब मुक्त अर्थ व्यवस्था के रूप में , जिसे आर्थिक सुधारों का नाम दिया गया है , का दौर आया तो देश का वातावरण बदला। नौकरियां आईं व्यापार और बाज़ार में प्रतियोगिताएँ बढ़ीं। उपभोक्ता को विकल्प मिले और इसे प्रगति के कई आयाम भी खुले। पर इस से कई विसंगतियां भी पैदा हुईं। अमीर और अमीर हुए और गरीब , सम्पन्नता की सीढ़ियों पर तो चढ़े पर उनके और अमीरों की आर्थिक स्थित में जो अंतर था वह और बढ़ा। दोनों के बीच जो संतुलन बनाया जाना चाहिए था वह नहीं बनाया जा सका। निश्चित रूप से देश के विकास के लिए निजी क्षेत्र का योगदान ज़रूरी है . पर निजी क्षेत्र के साथ गिरोह बना कर विकास की मृग मरीचिका दिखाना एक धोखा है . अब यह तर्क दिया जा रहा है कि इस सरकार में  घोटाले नहीं हैं और सब पारदर्शी है . पर इस पारदर्शिता में भी जो फूहड़पन दिख रहा है वह जुगुप्सा ही उत्पन्न करता  है . कोईं भी योजना जिसमें देश की अधिसंख्य आबादी का जीवन स्तर सुधारने का उद्देश्य हो वह केवल एक छलावा है और विपन्नता के सागर में समृद्धि के द्वीप ही उभरेगी .

घोटाले तत्काल नज़र नहीं आते . यू पी प्रथम के कार्यकाल में भी यह पहले नज़र नहीं आये . दूसरे कार्यकाल में भी अंतिम सालों में ही नज़र आये घोटाले होते रहते हैं और जब उनकी सुगबुगाहट होती है तो जो पक्ष लाभ से वंचित रह जाता है तो वह उन्हें उजागर करने लगता है। यह भी एक प्रकार का गिरोहबंद पूंजीवाद है।  अभी तो कुछ सौदों की घोषणाएं हुयी हैं , उनका क्रियान्वयन हो और फिर जब उनकी पड़ताल हो तो सब सामने आने लगेगा . अभी इन्फोर्स डायरेक्टोरेट के अस्सी प्रतिशत पद रिक्त हैं , सी वी सी का पद रिक्त है , सूचना के अधिकार की अपीलें लंबित हैं तो घोटालों का कहाँ से पता चलेगा . सरकार बदली है , नैतिकता के माप दंड नहीं बदलें हैं ! सरकार बदलने से नैतिकता के मानदंड बदलते भी नहीं हैं।

पूंजीवादी तंत्र लाभ पर आधारित व्यवस्था है . इसकी कल्याणकारी योजनाओं में भी लाभ कहीं कहीं अवचेतन में छुपा रहता है . लाभ इनका स्थायी भाव है शुभ भी तभी सार्थक होता है जब लाभ दिखे।  यह वर्ग हर सरकार और व्यवस्था में अपनी पैठ रखता है . ऐसा नहीं है क़ि आज अडानी सत्ता के क़रीब हैं तो उनके सम्बन्ध अन्य दलों में नहीं होंगे. उनकी लॉबी संसद के गलियारों से लेकर नौकरशाहों के कमरों तक सक्रिय रहती है . ऐसी चुनाव व्यवस्था में जहां अरबों रूपये कॉर्पोरेट सेक्टर देता हो वहाँ वह कुछ लाभ की आशा रखे और उसका दान लेने वाले भारत भारत भाग्य विधाता , उन्हें उपकृत भी करें यह असंभव है.जैसे एक साल किसी सरकार के आकलन के लिए अपर्याप्त होता है वैसे ही एक साल घोटालों के उजागर के लिए भी कुछ नहीं होता है. यह बात सिर्फ अडानी या अम्बानी के लिए ही नहीं है , बल्कि सारे कॉरपोरेट के लिए है। अमेरिका में तो कॉरपोरेट सरकार बनाते और बिगाड़ने की हैसियत भी रखते हैं।

अंध समर्थन अक्सर घातक होता है। आशा राम के इतने कुकर्मों के बाद भी उनके भक्तों का मोह भंग नहीं हुआ है . अंध भक्ति एक प्रकार का मनोरोग है . मेस्मेरिज़्म है . सम्मोहन है।  एक अंधे कुएं के प्रवास की तरह है जहां आराध्य की हर अदा लीला नज़र आती है . भक्ति में तो जो समर्पण होता है वह ऐसी ग्रंथि का सृजन करता है और व्यक्तिगत जीवन को ही प्रभावित करता है , पर जब यही भाव राजनीति में हावी होने लगता है तो वह व्यक्ति को तो लाभ पहुंचाता है पर कालांतर में समाज और देश का अहित ही करता है . हम जिन्हे चुनते हैं उन्हें ढोने भी लगते हैं . जैसे कि ढोना हमारी मज़बूरी और दायित्व है . राजनीति में चुना हुआ प्रतिनिधि कोई प्रेमी या प्रेमिका नहीं है जिसे निभाया जाय . कुछ वादे होते हैं , कुछ ख्वाब होते हैं जिनसे प्रभावित और आकर्षित हो कर हम उन्हें चुन लेते हैं . पर जब वह उन वादों से नज़रें चुराने लगते हैं , ख़्वाबों से दूर जाने लगते हैं तो चुन लेने की खीज के कारण और कुछ वैचारिक समता के कारण उन्हें हम ढोने लगते हैं . यह ढ़ोना उन्हें किये गए वादों से सिर्फ दूर करने लगता है बल्कि उन्हें और जनता से काट देता है . अंततः इस प्रकार का अंध समर्थन घातक ही सिद्ध होता है . जिन्हे चुनिए उन पर नज़र रखिये , ढोइए मत .
-vss.

No comments:

Post a Comment