( यह तीन छोटे छोटे लेखों की एक श्रृंखला है। प्रथम विचार मेरा है और दूसरा तथा तीसरा प्रख्यात पत्रकार और लेखक रवीश कुमार एन.डी.टी.वी और अरुण माहेश्वरी जी का है। दोनों ही ब्लॉग बहुत ही तार्किक और सारगर्भित और इस घटना और घटनोपरांत जो प्रचार की आंधी चली है उस के संभावित परिणाम को इंगित करते हुए लिखे गए हैं। )
भारतीय सेना दुनिया की सबसे अधिक प्रोफेशनल सेनाओं में से एक है. सही मायने में यह अपोलिटिकल और बहादुर फ़ौज़ है. भारत की आज़ादी के तुरंत बाद हुए कबायली हमले जो पाकिस्तान की शह पर हुए थे, से लेकर अभी हाल में हुए म्यांमार ऑपेरेशन तक सेना ने अपनी भूमिका का निर्वाह अत्यंत निपुणता से किया है. युद्ध का काल हो शान्ति के राहत कार्य हो यह अहर्निश तत्पर रही है. 1948 में कश्मीर चला ही गया था. पर सेना ने अपनी साधन हीनता के बावज़ूद भी वीरता पूर्वक युद्ध लड़ा. यह अलग बात है कि कश्मीर समस्या आज भी जस की तस है. यह सैनिक विफलता नहीं बल्कि राजनीतिक विफलता है. 1962 में चीन से हम हारे थे. शर्मनाक हार थी वह. पर वहाँ भी वीरता की जब बात छिड़ती है तो सेना की प्रशंसा ही होती है. नेहरू के पंचशील पर अत्यधिक विश्वास और चीन पर अँधा भरोसा ही उस पराजय का कारण था. 1965 में सेना लाहौर के पास पहुँच गयी थी. एक नायक अब्दुल हमीद की वीरता एक किंवदति की तरह उस युद्ध में हो गयी थी. पर कूटनीतिक दबाव के कारण जो जीता था वह लौटाना पड़ा. यह एक आघात था. शास्त्री जी जैसे सरल और विनम्र व्यसक्तित्व के लिए यह आघात महंगा पड़ा. वह एक बेहद अपूरणीय क्षति थी देश की. 1971 में जो हुआ था, वह दुनिया के लिए अजूबा था. नया देश बना, और एक लाख सैनिकों सहित जनरल नियाज़ी ने जब जनरल अरोड़ा के समक्ष आंसुओं में डूबी हुयी आँखों के साथ अपनी टोपी और बेल्ट सौंपी थी तो यह सैन्य अभियान का अत्यंत गौरवपूर्ण पृष्ठ था. इस घटना ने इंदिरा गांधी को विश्व में इने गिने नेताओं की कोटि में ला दिया. लंबे समय की शांति के बाद 1999 मैं कारगिल हुआ. बिना लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल पार किये, बेहद संयम और विवेक के साथ सेना ने भारतीय क्षेत्र को मुक्त कराया. अब यह म्यांमार का ऑपरेशन सामने आया. कश्मीर , नार्थ ईस्ट,में आतंकी घटनाओं और देवी आपदा, जैसे केदार नाथ त्रासदी, नेपाल भूकंप त्रासदी में जो सेना ने किया है उसकी एक लंबी सूची है.
म्यांमार में जो हुआ है उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की जा रही है. जो सराहनीय है, वह सराहा जाना चाहिए. लेकिन सेना और पुलिस के भी ऐसे बहुत से अभियान होते हैं जिनकी जानकारी न तो दी जाती है और न ही इनका प्रचार किया जाता है. हम कहते हैं, हमने म्यांमार के भीतर घुस कर मारा, म्यांमार सरकार कहती है उसकी सीमा के भीतर कोई ऑपरेशन नहीं हुआ. दोनों सरकारों के बयानों में। यह अंतर न केवल भरम उपन्न करेगा बल्कि इसका असर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पड़ेगा. हम न इज़राईल हैं न अमेरिका. और मनोबल लाख हो हमारा, केवल मनोबल के सहारे युद्ध नहीं जीते जाते। युद्ध जीते जाते है, बल, बुद्धि, पौरुष, और छल से. ऐसे हॉट परस्यूट दुनिया भर में मित्र देशों की सहमति से उनकी सीमा में घुस कर किये जाते रहे हैं. पर कूटनीतिक स्तर पर इसे दुंदुभी बजा कर गाया नहीं जाता. अमेरिका ने क्यों 1990 में इराक़ युद्ध किया, क्यों उसने वियतनाम पर हमला किया , क्यों वह ईरान के पीछे पड़ा है और क्यों वह यह जानते हुए भी कि पाकिस्तान सारे इस्लामी आतंकवाद की नर्सरी है फिर भी उसे पालता पोसता रहता है. क्यों कि उसके कूटनीतिक हित इस से सधते हैं. सभी जानते हैं, कि अमेरिकी अभियानों का कारण क्या था और कारण क्या बताया क्या गया था. राजनीति की भाषा शक्ति लक्षणा, व्यंजना और अभिधा से परे कोई और ही शक्ति होती है. एक शेर से इसे समझे,
सियासत की अपनी जुबां होती है,
जो लिखा इक़रार, तो इनकार पढ़ना !!
जो लिखा इक़रार, तो इनकार पढ़ना !!
इस अभियान का जितना पोस्टमोर्टम हमारे देश की मिडिया कर रही है उस से अधिक पोस्टमोर्टम पेंटागन, चीनी विदेश मंत्रालय और आई एस आई हेड क्वार्टर में हो रहा होगा. वाचालता का प्रभाव पड़ता है पर वह क्षणिक होता है. जब शब्दों का शोर थमता है तो मौन सब कुछ कह देता है. फिलहाल जो कुछ कहा सुना, लिखा पढ़ा जा रहा है, इस अभियान के बारे में वह स्वस्थ कूटनीति नहीं है. इस से भ्रम ही फ़ैल रहा है . ऐसे भ्रम एक अच्छे अभियान की सफलता के आनंद को प्रदूषित ही करते हैं. युद्ध को सैनिक जनरलों के ऊपर ही छोड़ दिया जाना श्रेयस्कर है. यह उक्ति क्लीमेंट एटली का है. इस प्रचार या इसे प्रचार कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी , का सबसे अधिक असर सेना की मनोदशा पर पडेगा। उसका स्वरुप अराजनीतिक ही रहने दिया जाय तो वह देश और समाज के हित में ही होगा।
-vss.
भारत और म्यांमार के बीच संधि है कि दोनों एक दूसरे की सीमा में सोलह किमी तक घुस सकते हैं । क्या इस संधि के तहत बिना बताए ही घुस सकते हैं ? क्या म्यामांर अपनी सीमा में आतंकवादियों को सोलह किमी तक कैम्प लगाने की इजाज़त देता है ताकि भारत घुसकर मार दे । अगर किसी आतंकवादी का कैंप सोलह किमी से ठीक सौ मीटर आगे हो तो क्या उसे म्यांमार माना जाएगा और सेना कार्रवाई नहीं कर सकेगी । आतंकवादी सोलह किमी अंदर ही क्यों कैंप लगाते हैं । म्यांमार कर रहा है कि हमारी सीमा में कोई कार्रवाई नहीं हुई । क्या म्यांमार को सोलह किमी वाली संधि की ख़बर नहीं है ? क्या भारत ने म्यांमार के खंडन का खंडन नहीं किया है । उसे तो करना ही चाहिए । उसकी संप्रभुता और अपनी पब्लिक का सवाल है । यह सब चलता रहता है इससे कार्रवाई संदिग्ध हो जाए ज़रूरी नहीं लेकिन सही भी हो जाए यह भी ज़रूरी नहीं ।
इस तरह के आपरेशन होते हैं और हो जाने चाहिए । कल जिस तरह से कई लोगों ने महानता महानता करने के लिए बाध्य किया और गालियाँ दी कि देखो हमने करके दिखा दिया उससे मन्न खिन्न हो गया । यह मान लेना ही हास्यास्पद है कि सेना या भारत की किसी उपलब्धि से खुशी नहीं होगी । मिनट दर मिनट आपरेशन की ख़बर बताई जाने लगी । इतनी ही सेना की चिंता थी तो कल दोपहर घोषणा कर देते कि वन रैंक वन पेंशन लागू हो गया है । सरकार लागू कर देगी और करना ही पड़ेगा ये पता है लेकिन हर बात पर स्टेटस लिखकर गवाही देनी पड़ेगी क्या । ये गरियावन सब कौन होता है जो ऐसे मौके पर आकर अनाप शनाप बकने लगता है । जानते तो है ही लेकिन जनाने के लिए लिख रहा हूँ । गाली देकर क्यों जूनियर मंत्री से प्रचारित एक ' उपलब्धि ' का मज़ा ख़राब करते हो ।
अलग अलग लेख लिखे जाने लगे । एक ने तो चौबीस घंटे हुए नहीं कि कार्रवाई को पीएम मोदी की ब्रांडिंग से जोड़ दिया । कोई सुरक्षा सलाहकार की प्रोफ़ाइल करने लगा । बड़ी कामयाबी है तो करना ही चाहिए । उनकी क़ाबिलियत पर किसी को क्या शक । कोई सवाल करने लगा कि मीडिया को बिना फोटो बिना वीडियो मिनट दर मिनट जानकारी दी जाती है क्या । कोई लिखने लगा कि पहले भी ऐसी कार्रवाई हो चुकी है । अब किस पर यक़ीन करे । रक्षा मंत्री क्यों नहीं बोल रहे । ये कहाँ लिखा है कि जूनियर मंत्री के बयान को दुनिया सरकार का नहीं समझेगी । जिसे हम सरकार समझते हैं उसे बाकी सरकारें भी तो सरकार समझेगी । अब बहस हो गई न कि जो हुआ सही था या नहीं हुआ ।
इसलिए हे इंटरनेटी आततायियों संयम बरतो । सेना के काम को पार्टी में मत बाँटो । हमको किसी पार्टी में बाँट कर आलोचना का आलस मत पालो । योग विरुद्ध बातें मत करो । योग तो संयम और संस्कार की बात करता है । सुष्मा जी ने उचित ही कहा है कि योग का संबंध धर्म से नहीं होता । अच्छे कर्मों को संचय करो । हास्य व्यंग्य का सहारा लो । मच्छर की तरह भभोर ले ताडन सन । इतनी गंदी भाषा । शर्मनाक है ।
म्यांमार को लेकर भारत सरकार का बचकानापन अपने चरम पर
म्यांमार की सीमा पर भारतीय सेना के ऑपरेशन और उसमें उग्रवादियों के एक कैंप को उजाड़ देने तथा पांच-दस उग्रपंथियों को मार देने की कार्रवाई पर मोदी सरकार के प्रवक्ताओं और कुछ रिटायर्ड फौजी मूछों और बूटों के वीरता के हाव-भाव बेहद हास्यास्पद और तिरस्कार-योग्य है। सेना की यह पूरी कार्रवाई इतनी तुच्छ और महत्वहीन कार्रवाई है कि उसपर दुनिया के किसी भी देश की सरकार ने मामूली प्रतिक्रिया भी देने की जरूरत नहीं समझी है। अकेले पाकिस्तान ने प्रतिक्रिया दी क्योंकि भारत सरकार के प्रवक्ताओं ने उसे मजबूर किया। अपने घरेलू राजनीतिक हित के कारण इन प्रवक्ताओं ने कुछ ऐसे इंगित दिये जैसे यह कार्रवाई म्यांमार की सीमा पर नहीं, पाकिस्तान की सीमा पर की गयी हो। म्यांमार सरकार सारी घटना से पूरी तरह वाकिफ होने के बावजूद, इन भारतीय प्रवक्ताओं की नौटंकी के कारण ही बोलने के लिये मजबूर हुई क्योंकि कोई भी सार्वभौम राज्य इतने सस्ते में अपनी सार्वभौमिकता की आबरू गवांने के लिये तैयार नहीं हो सकता।
बहरहाल, जो लोग भी आज की दुनिया में म्यांमार की स्थिति के बारे में कुछ खोज-खबर रखते हैं, वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि म्यांमार अब वह नहीं रहा हैं जो वह 20वीं सदी के काल तक हुआ करता था। खास तौर पर मार्च 2011 में म्यांमार में राष्ट्रपति थियेन सीन की सुधारवादी सरकार के बनने, और विपक्ष की नेता आंग सान सू की के साथ राष्ट्रीय सुलह की दिशा में बढ़ने के बाद से म्यांमार अब हर दिन बदल रहा है। आज अब वह न भारत का मुखापेक्षी है और न ही चीन का। नवंबर 2011 में ओबामा की म्यांमार यात्रा के बाद से म्यांमार की अर्थ-व्यवस्था पर अमेरिकी पूंजी ने बड़े पैमाने पर धावा बोल दिया है। वहां के प्राचीन समाज और जर्जर होचुकी अर्थ-व्यवस्था का तेजी के साथ कायाकल्प हो रहा है। एशियान के अन्य देशों की संगति में म्यांमार में जैसे अब सब कुछ बदल सा जा रहा है। इसके साथ ही सामरिक रणनीति के लिहाज से भी उत्तर-पूर्वी हिंद महासागर में म्यांमार की स्थिति आज सबको काफी महत्वपूर्ण नजर आने लगी है।
‘70-‘80-‘90 के जमाने के वे दिन कब के लद गये है,ं जब भारत और म्यांमार, दोनों देशों की सरकारें जातीय उग्रपंथियों के गुटों के जरिये आपस के संबंधों को परिभाषित किया करती थीं। भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ उत्तरपूर्व के उग्रपंथियों से निपटने के लिये म्यांमार के सैनिक शासन के बजाय वहां के जातीय उग्रपंथियों के सहयोग पर ज्यादा भरोसा करती थी। उत्तरी म्यांमार की काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी (KIA) के साथ और पूर्वी सीमा पर अर्कन विद्रोही समूहों के साथ रॉ के संबंधों की बात जगजाहिर हैं। उधर, म्यांमार सरकार मणिपुर और नागालैंड के विद्रोहियों की मदद करती थी। 1988 में म्यांमार में सैनिक सरकार के आने के बाद, चीन और म्यांमार के बीच के पारंपरिक कटुतापूर्ण संबंधों में कमी आई और चीन ने सड़कों, बंदरगाहों आदि के निर्माण में सहयोग करके म्यांमार में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी। म्यांमार-भारत की सीमा पर अस्थिरता बदस्तूर जारी रही। सीमा पर हालत यहां तक पहुंच गयी थी कि म्यांमार जाने वाले भारतीय हथियार ही लौट कर भारत के उग्रपंथियों के हाथ में पहुंचने लगे। इस विषय पर भारतीय सेना और रॉ के बीच हुई तनातनी की बात भी सब जानते हैं, जब जनरल एचआरएस कलकट ने खुलेआम बयान दिया था कि ‘भारत की म्यांमार नीति को फौज के हाथ में छोड़ दिया जाना चाहिए’। इसके बाद से क्रमश: भारत और म्यांमार सरकार के बीच भी तमाम स्तर पर सैनिक सहयोग बढ़ने लगा।
लेकिन 2011 के बाद से म्यांमार का आज का परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका है। भारत सरकार की अगर कोई ‘पूरब की ओर देखो’ नीति है तो उस नीति का प्रस्थान बिंदु और कोई जगह नहीं, अभी म्यांमार ही बन सकता है। आज के म्यांमार के साथ भारत के व्यापक आर्थिक सहयोग की अकूत संभावनाएं है। यह दक्षिण-पूर्व एशिया के पूरे क्षेत्र में, सिंगापुर, मलयेशिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, थाईलैंड के साथ भारत के संबंधों के विस्तार की संभावनाओं का द्वार है। भारत उत्तर-पूर्वी हिंद महासागर की अब तक सबसे बड़ी नौ शक्ति है।
ऐसी स्थिति में, भाजपा और भारत सरकार के प्रवक्ताओं और इनके संगी सेवानिवृत फौजी दिमागों ने इस ओछी और बचकानी हरकत के जरिये इन संभावनाओं को ठेस पहुंचाई है। सारी दुनिया दफ्ती की तलवार भांजते भारत के इन शूरवीरों को देख रही है, हंस रही है। ये सारे संघी तत्व भारत का हित नहीं, अहित साधन कर रहे हैं।
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