Tuesday, 16 June 2015

युद्ध और सेना के मनोबल पर रक्षा मंत्री का बयान - एक विवेचना / विजय शंकर सिंह





रक्षा मंत्री का एक बयान आया है कि सेना लंबे समय तक युद्ध न होने के कारण सुस्त हो गयी है. युद्ध के लिए सेना और सेना के लिए युद्ध आवश्यक भी है. पहले के राजा महाराजा दशहरे में शस्त्र पूजन के बाद युद्ध या आखेट के लिए निकलते थे. दशहरे के पहले बारिश का मौसम आता था, और उस मौसम में आवागमन कठिन हो जाता था. अतः सेनाएं आराम करती थीं. दशहरे के बाद मौसम बदल जाता था और सैन्य अभियान शुरू हो जाता था. सैन्य अभियान का एक कारण साम्राज्य विस्तार तो था ही साथ ही प्रभुत्व की स्थापना भी थी. प्राचीन ग्रंथों में राजा, सम्राट, चक्रवर्ती सम्राट और एकराट का विवरण मिलता है. चक्रवर्ती सम्राट वह सम्राट होता था जिसे अधीनस्थ राजा और सम्राट कर देते थे, और अधीनता स्वीकार करते थे. जो कर नहीं देते थे या आधीनता स्वीकार नहीं करते थे उन्हें विद्रोही समझा जाता था और उन पर फिर सैन्य अभियान किया जाता था. अगर सैन्य अभियान नहीं होते थे तो सेना का उपयोग आखेट में होता था. मतलब वही अकबर बीरबल की एक कथा की तरह कि पान सड़ा क्यों, घोड़ा अड़ा क्यों, उत्तर मिला फेरा नहीं. सेना फेरी जाती थी. यह प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद था. इसी से जुड़े, राजसूय और अश्वमेध यज्ञ होते थे. चक्रवर्ती सम्राटों के लिए यह यज्ञ अनुष्ठान आवश्यक थे। इस से उनके प्रभुत्व और अधिकार क्षेत्र की सीमा का भी अभिज्ञान होता था। 

वक़्त पलटा पर विस्तार और प्रभुत्व बढ़ाने की लालसा नहीं गयी. युद्ध के स्वरुप बदल गए. फिर औद्योगीकरण के प्रसार और नए नए वैज्ञानिक आविष्कारों ने सैनिक युद्धों के बजाय आर्थिक विस्तारवाद का नया कांसेप्ट दिया. यह एक नए तरह का साम्राज्यवाद था, जिसने आगे चल कर उपनिवेशवाद को जन्म दिया. सैनिक विस्तारवाद में जनता को बहुत अंतर नहीं पड़ता था. राजा ग्रामीण व्यवस्था में बहुत दखल नहीं देता था. ज़िंदगी अपनी रफ़्तार से चलती रहती थी. लेकिन औद्योगीकरण ने जो मुनाफे के अर्थशास्त्र पर ही टिका है, ने अपना असर गाँव गाँव तक दिखाया और मज़दूरों और पूंजी का स्पष्ट विभाजन हुआ. फिर जो सैन्य अभियान हुए वह उसी पूंजीवाद को बनाये रखने या बचाने के लिए हुए. यह एक नए प्रकार का साम्राज्यवाद था. इसमें प्रत्यक्ष कर तो नहीं वसूला जाता था, पर अप्रत्यक्ष रूप से जो कर बाज़ार बटोर लेता था , वह बहुत अधिक और निरंतर होता था. इस से पूंजीवाद का वर्चस्व बढ़ा और बाज़ारवाद की नींव पडी। 

बीच में सेमेटिक धर्मों की प्रतिद्वंद्विता ने एक नए तरह के साम्राज्यवाद को जन्म दिया. विशेष कर इस्लाम के प्रसार में सेना का ज़बरदस्त उपयोग किया गया. इस्लाम में पैगम्बर मुहम्मद साहब के निधन के बाद जो खलीफा की संस्था बनी ,तो खलीफा राज्य और धर्म दोनों का ही प्रमुख हो गया. ईसाई धर्म में धर्म प्रमुख तो पोप था, पर राज्य प्रमुख तो सम्राट होता था. चर्च और राज्य अलग अलग थे। पर ईसाई धर्म घोषित रूप से राज धर्म था। राज धर्मों की परंपरा मूलतः सेमेटिक धर्मों में ही है।  इस्लाम का प्रसार एक प्रकार से साम्राज्य विस्तार ही था. इसमें धर्म की चाशनी मिली हुयी थी. इस लिए ऐसे सारे युद्ध धर्म युद्ध कहे गए और योद्धाओं को गाज़ी की पदवी दी गयी. धर्म की अफीम अक्सर उन्माद पैदा करती है. यह उन्माद युद्ध को और बर्बर और हिंसक बना देता है.इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप क्रूसेड हुए. ईसाईयों ने जो युद्ध इस्लाम के विरुद्ध  लड़ा, वह क्रुसेड्स कहलाये, क्यों कि वह युद्ध क्रॉस की रक्षा में हुए थे. इसके विपरीत सनातन धर्म में यह बात नहीं थी. यहाँ धर्म का अहिंसक प्रचार हुआ, हालांकि धार्मिक झगड़ों का जिक्र मिलता है पर साम्राज्य विस्तार के लिए धर्म का दुरूपयोग कभी नहीं हुआ. जैसा कि सेमेटिक धर्मों में हुआ है. सनातन धर्म ने खुद को राज धर्म नहीं माना। न तो एक किताब और एक पैगम्बर का धर्म है और न ही राजा और प्रजा का धर्म ही एक था। अशोक ने सर्व प्रथम खुद को बौद्ध घोषित किया पर जनता ब्राह्मण धर्म को भी मानती थी , और बौद्ध धर्म को। विरोध था पर हिंसक विवादों का उल्लेख नहीं मिलता है। इसके विपरीत , सनातन धर्म में शैव और वैष्णवों में हिंसक विवादों के बहुत उल्लेख हमिलते हैं। 

अब आज की परिस्थिति में। सारे देशों की सेना मूलतः आत्मरक्षा के लिए ही रखी जाती है. इसी लिए सीमा पर सेना नहीं पुलिस की तैनाती की जाती है.बीएसएफ एक पुलिस बल है वह सेना नहीं है रक्षा मंत्री का कहना कि युद्ध न होने से सेना में जड़ता आ जाती है. प्रत्यक्षतः तो यह कथन ठीक है, पर इस जड़ता को दूर करने के लिए कहाँ तलवार भांजा जाय, यह भी तो सोचिये. भारत में आज़ादी के बाद से चार युद्ध हो चुके हैं.तीन,घोषित, और दो अघोषित..1948 का युद्ध और 1999 का कारगिल युद्ध अघोषित था और 1962, का चीन के विरुद्ध 1965 और 1971 का पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध घोषित युद्ध था. इसके अतिरिक्त कश्मीर में। 1990 से जो आतंकवाद बढ़ा है वह भी एक प्रकार का युद्ध ही है. अंतर सिर्फ यह है कि यह युद्ध हम अपनी सीमा में लड़ रहे हैं.1983 से 1992 तक पंजाब का आतंकवाद और पूर्वोत्तर राज्यों का अलगाववाद भी युद्ध से कम नहीं है. श्री लंका में सैन्य अभियान और यू एन पीस कीपिंग मिशन युद्ध ही तो हैं. अतः ऐसा कहना कि युद्ध न होने से सेना सुस्त हो गयी है सेना पर भरोसा नहीं करना है.

म्यांमार की सीमा पर भारतीय सेना के सफल आक्रामक अभियान से पाकिस्तान को एक कडा सन्देश अवश्य गया है. पाकिस्तान की सेना पिछले 70 सालों से भारतीय सेना से दुश्मनी मान रही है. हर हमले में धूल चाटने के बाद पाक फ़ौज़ ईर्ष्या से जलते हुए भारत विरोधी अभियान चलाती रहती है. भारत पाक सम्बन्ध अगर सुधरते हैं तो इसका सबसे बड़ा असर पाक फ़ौज़ पर ही पड़ेगा. प्रधान मंत्री लियाक़त अली खान की हत्या के बाद पहली फौजी तानाशाही जनरल अयूब खान के नेतृत्व में बनी. फिर फौजी तानाशाहों की एक परम्परा, जनरल ज़िया उल हक़, से होते हुए जनरल परवेज़ मुशर्रफ तक चली आती है. बीच बीच में  राजनैतिक नेतृत्व भी, कभो ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, तो कभी बेनज़ीर भुट्टो और फिर नवाज़ शरीफ प्रधान मंत्री हुए. यह एक खुला तथ्य है कि भारत में पश्चिमी सीमा से जो आतंकवादी गतिविधियों होती हैं वह पाक फ़ौज़ प्रशिक्षित और पाक सरकार समर्थित है.यहां तक कि उल्फा, और लिट्टे जैसे आतंकियों से भी आई एस आई से सम्बन्ध रहे हैं. वहाँ की फ़ौज़ कभी नहीं चाहती कि दोनों देशों के बीच सम्बन्ध् सामान्य हों .इसी लिए जब म्यांमार का अभियान चला तो सबसे तीखी प्रतिक्रिया पाकिस्तान की ही हुयी. चीन का कोई बयान नहीं  आया. चीन अपना वर्चस्व जताने के लिए अक्सर कूटनीतिक और प्रतीकात्मक घुसपैठ और नक़्शे मैं  ही लाल पीला रंगता रहता है. खुले युद्ध से वह बचना चाहता है.

एक  बार अलबर्ट आइंस्टीन से पूछा गया कि तीसरा विश्व युद्ध अगर हुआ तो किन हथियारों से लड़ा जाएगा ? उत्तर मिला, तीसरा किन हथियारों से लड़ा जाएगा, यह तो मैं नहीं बता पाउँगा, पर चौथा ईंट और पत्थरों से लड़ा जाएगा. मतलब तीसरे विश्वयुद्ध में ही इतने घातक हथियारों का प्रयोग होगा कि, सर्वानाश हो जाएगा, और चौथे के लिए सिवा ईंट और पत्थरों के कुछ नहीं बचेगा. इसी लिए परंपरागत युद्ध से सभी देश दूर रहना चाहते है. भारत के दो प्रतिद्वंद्वी चीन और पाकिस्तान दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश है. भारत भी है. इस से विनाश की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है. मैं जनरल मुशर्रफ के बड़बोले बयान को कि उन्होंने परमाणु बम शबे बरात में फोड़ने के लिए नहीं रखे हैं, कोई अहमियत नहीं दे रहा हूँ. यह बयान अपनी प्रासांगकिता को बनाये रखने और नवाज़ शरीफ से अपने को अधिक देशभक्त साबित करने के लिए दिया गया है.

रक्षा मंत्री का यह कथन अपनी जगह उचित है कि सेना को आधुनिक और समयानुकूल बनाये रखना चाहिए. उसे आधुनिकतम हथियार युद्ध पद्धति का प्रषिक्षण और मॉक वार ड्रिल करते रहना चाहिए. सेना यह सब करती रहती है यह अलग बात है यह गोपनीय होता है और गोपनीय रहना भी चाहिए. सेना को सन्नद्ध और युद्ध के लिए सदैव तैयार करने के लिए अनेक मॉक वार ड्रिल चलाई जाती है. यह गोपनीय होती है और इसे गोपनीय रखा भी जाना चाहिए. ऐसा ही एक मॉक अभियान ऑपरेशन ब्रास टास्क था. मनोबल किसी भी अभियान की जान होता है। एक जनरल ने कहा था कभी, युद्ध में शस्त्र महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि शस्त्र के पीछे बैठा हुआ सैनिक महत्वपूर्ण होता है. पर अब स्थिति थोड़ी बदली है, दोनों ही महत्वपूर्ण है. शस्त्र भी और सैनिक भी. भारतीय सेना - 30 डिग्री तापक्रम से लेकर 48 डिग्री तापक्रम तक लड़ती है और सफलता पूर्वक लड़ती है. युद्ध हो न हो सेना को तैयार रहना है. वैसे ही जैसे हम रोग की कामना न करते हुए निरोग रहने के सारे उपक्रम करते हैं. युद्ध को अंतिम विकल्प के ही रूप में देखा जाना चाहिए.
( विजय शंकर सिंह )




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