Thursday 13 July 2023

कुकी मैतेई विवाद का इतिहास और मणिपुर हिंसा / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर हिंसा मामले में दायर एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि, कानून व्यवस्था का मामला, राज्य का दायित्व है और सुप्रीम कोर्ट इस पर सिवाय निर्देश जारी करने के कुछ नहीं कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट अपने इस वक्तव्य में निश्चित रूप से अपनी सीमाओं को निर्धारित करते हुए, यह बात कह रही है। कानून और व्यवस्था, निश्चित रूप से राज्य की जिम्मेदारी है और इस जिम्मेदारी के वहन हेतु, पुलिस, अर्ध सैनिक बल, और सेना, उसके पास है और साथ ही कानूनी शक्तियां भी, राज्य को कानूनन मिली हैं। शीर्ष न्यायालय ने आगाह भी किया कि, अदालती कार्यवाही को हिंसा बढ़ाने के लिए एक मंच के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए और वकीलों से विभिन्न जातीय समूहों के खिलाफ आरोप लगाने में संयम बरतने को कहा।  मणिपुर राज्य द्वारा दायर नवीनतम स्थिति रिपोर्ट को रिकॉर्ड पर लेते हुए, भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ ने याचिकाकर्ताओं से स्थिति को कम करने के लिए "ठोस सुझाव" लाने के लिए कहा और मामले को आगे के विचार के लिए कह दिया।  

लेकिन, यह भी एक विडंबना है कि, मणिपुर हिंसा का वर्तमान मामला,  मणिपुर हाईकोर्ट के एक फैसले का परिणाम है। हुआ यह कि, मणिपुर उच्च न्यायालय की सिंगल जज पीठ में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एम.वी. मुरलीधरन ने, एक याचिका की सुनवाई के बाद राज्य सरकार को एक विवादित आदेश के माध्यम से, निर्देश दिया था कि "राज्य अनुसूचित जनजातियों की सूची में मेइती समुदाय को शामिल करने की सिफारिश करने पर विचार करे।" मणिपुर हिंसा का वर्तमान मामला, मणिपुर हाईकोर्ट के उसी फैसले का परिणाम है। उक्त आदेश के ही कारण, मणिपुर मौजूदा अशांति से जूझ रहा है।  जबकि, इस मसले का समाधान राजनीतिक और विधायिका द्वारा किया जाना चाहिए था, न कि न्यायालय द्वारा।

इसकी अपील पर, सुनते हुए, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने, 8 मई 2023 को, यह टिप्पणी की कि "मणिपुर के उच्च न्यायालय के पास राज्य सरकार को अनुसूचित जनजाति सूची के लिए एक जनजाति की सिफारिश करने का निर्देश देने का अधिकार नहीं है।"  

सुप्रीम कोर्ट की उक्त पीठ, मणिपुर से संबंधित, दो याचिकाओं पर विचार कर रही थी, एक, मणिपुर ट्राइबल फोरम दिल्ली द्वारा दायर याचिका, जिसमें हिंसा की एसआईटी जांच और पीड़ितों के लिए राहत की मांग की गई है, और दूसरी, मणिपुर की पहाड़ी क्षेत्र समिति (HAC) के अध्यक्ष, डिंगांगलुंग गंगमेई द्वारा दायर एक अन्य याचिका, जिसमें, मणिपुर उच्च न्यायालय के निर्देश को चुनौती देते हुए कि, केंद्र सरकार को अनुसूचित जनजाति सूची में मेइती समुदाय को शामिल करने की सिफारिश को आगे बढ़ा दिया जाए। उल्लेखनीय है कि मेइती को एसटी दर्जे से जुड़े मुद्दे पर ही, मणिपुर में, दंगे भड़क रहे हैं।

हिल एरिया कमेटी के अध्यक्ष, गंगमेई ने अपनी याचिका ने यह तर्क दिया है कि, "किसी राज्य सरकार को अनुसूचित जनजाति ST सूची में किसी समुदाय को एक जनजाति के रूप में शामिल करने का निर्देश देने या सिफारिश करने का अधिकार, उच्च न्यायालय को नहीं है।" इस प्रकार, मणिपुर हाईकोर्ट ने, ऐसा निर्देश देकर, अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है। ऐसे अनाधिकृत निर्देश का ही परिणाम है कि, आज मणिपुर जल रहा है और वहां की कानून व्यवस्था, संविधान के अनुच्छेद 355 के अंतर्गत फिलहाल केंद्राधीन है। 

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष, वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने सुनवाई के दौरान कहा कि, "सुप्रीम कोर्ट के ऐसे कई फैसले हैं, जिनमें कहा गया है कि हाई कोर्ट किसी समुदाय को एसटी का दर्जा देने का कोई निर्देश नहीं दे सकता है।" 
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने, इस पर कहा कि, "याचिकाकर्ता को, जब हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई चल रही थी, तो, सुप्रीम कोर्ट के ऐसे, निर्णयों को, उच्च न्यायालय के संज्ञान में लाना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट के यह निर्णय, हाईकोर्ट के लिए बाध्यकारी हैं। और हो सकता है, यदि ऐसा किया गया होता तो, हाईकोर्ट का ऐसा फैसला नहीं आता।" 

मुख्य न्यायाधीश ने एडवोकेट हेगड़े से, यह भी कहा, "आपने हाईकोर्ट को कभी नहीं बताया कि उसके पास यह शक्ति नहीं है। यह राष्ट्रपति की शक्ति है।"  सीजेआई चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि "राज्य सरकारें या अदालतें या न्यायाधिकरण या कोई अन्य प्राधिकरण अनुच्छेद 342 के खंड (1) के तहत जारी अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची को संशोधित, या बदल नहीं सकते हैं।"

हिल एरिया कमेटी के याचिकाकर्ता, गंगमेई द्वारा दायर याचिका में तर्क दिया गया है कि इस आदेश के परिणामस्वरूप मणिपुर में अशांति फैल गई है, जिसके कारण 60 लोगों की मौत हुई है और व्यापक स्तर पर लोगों का नुकसान हुआ है।" याचिका के अनुसार, "दिए गए आदेश के कारण दोनों समुदायों के बीच तनाव हुआ और राज्य भर में हिंसक झड़पें होने लगीं जो अब भी हो रही हैं। इसके परिणामस्वरूप अब तक साठ से अधिक, आदिवासी मारे गए हैं। राज्यों में विभिन्न स्थानों को अवरुद्ध कर दिया गया है  इंटरनेट पूरी तरह से बंद है और  मरने वालों की अधिक लोगों को अपनी जान गंवाने का खतरा है।" उल्लेखनीय है कि, मरने वालों की संख्या अब लगभग सवा सौ के पार हो चुकी है। 

इससे स्पष्ट है कि, मेइती समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का निर्णय एक राजनीतिक निर्णय या कोई राजनीतिक चुनावी वादा है या नही, बिना इस विषय पर विचार किए यह कहा जा सकता है कि, फिलहाल तो यह अशांति हाईकोर्ट के ऐसे आदेश का परिणाम है, जो उसके क्षेत्राधिकार के बाहर दिया गया है। अनुसूचित जाति जनजाति में शामिल करने या उसकी समीक्षा करने का अधिकार आयोग की सिफारिश पर सरकार और सरकार के अनुरोध पर राष्ट्रपति को है, न कि, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को। जिस तरह से हाईकोर्ट  में यह मामला उठाया गया और हाईकोर्ट को, सुप्रीम कोर्ट की उन रुलिंग्स से अवगत नहीं कराया गया, से यह संकेत मिलता है कि, इस याचिका का उद्देश्य राजनीतिक था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अदालत के कंधे पर बंदूक रखी गई है। अभी सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं की सुनवाई चल रही है।

अब इस प्रकरण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझते है। मणिपुर में मैतेई, नागा और कुकी समूहों के बीच तीन-तरफा जातीय संघर्ष का एक इतिहास रहा है, जो ब्रिटिश काल और प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1917-19 के एंग्लो-कुकी युद्ध के बाद से ही शुरू हो चुका था। मणिपुर एक जनजातीय क्षेत्र है और ब्रिटिश काल में ईसाई मिशनरियां वहां काफी सक्रिय रहीं और ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार भी हुआ। वर्तमान, मणिपुर हिंसा को 'ईसाइयों पर हमले' के रूप में वर्णित करने वाली खबरें भी खूब सुर्खियों में,  नियमित रूप से छपती रहीं, हिंसा के आंकड़ों के अनुसार, 100 से अधिक चर्चों और कुछ मंदिरों पर हमला किया गया है।  यह धार्मिक विवाद,  मणिपुर के जटिल जातीय संबंधों और भूमि प्रबंधन प्रणालियों से उत्पन्न दशकों पुराने जातीय संघर्ष को सांप्रदायिक रंग देता है।  

उत्तर पूर्वी सामाजिक अनुसंधान केन्द्र के निदेशक, वॉल्टर फर्नांडिस ने, एक शोध परक लेख, मणिपुर के जातीय समीकरण पर लिखा है। उनके द्वारा लेख में दिए गए तथ्यों के अनुसार, "राज्य में तीन मुख्य जातीय परिवार हैं। मुख्य रूप से ईसाई नागा और कुकी आदिवासी और ज्यादातर हिंदू, गैर-आदिवासी मैतेई, जो घाटी में मणिपुर की 10% भूमि पर रहने वाली 2.86 मिलियन आबादी (2011 की जनगणना) का 53% हैं।  पहाड़ियों की 90% भूमि पर रहने वाली 40% आबादी जनजातियों की है।" हालाँकि, आदिवासी भूमि में अधिकांश वन क्षेत्र शामिल हैं जो, राज्य के भूभाग का 67% हैं।  मैतेई लोगों की शिकायत है कि वे पहाड़ी इलाकों में जमीन के मालिक नहीं हो सकते, जबकि आदिवासी घाटी में जमीन के मालिक हो सकते हैं;  वे इस प्रकार इस व्यवस्था को अन्यायपूर्ण बताते हैं।  

जनजातियाँ इस आरोप का, इस तर्क के साथ खंडन करती हैं कि "मैतेई लोगों का राज्य में नौकरियों के साथ-साथ आर्थिक और राजनीतिक शक्ति पर एकाधिकार है और वे, जो कुछ भी, उनके पास है उससे अधिक भूमि पर दावा नहीं कर सकते हैं।" वास्तविकता यह भी है कि, कुछ गरीब मैतेई परिवार पहाड़ियों में रहते हैं और कुछ संपन्न आदिवासी परिवार घाटी में रहते हैं। घाटी स्थित नेता आवश्यक रूप से गरीबों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं लेकिन जमीन का मुद्दा, इस संघर्ष के केंद्र में बना हुआ है।

भू असमानता के इन विवादों के समाधान हेतु, लपहाड़ों में भूमि-स्वामित्व की प्रकृति को बदलने के लिए कानूनी उपाय करने का प्रयास भी किया गया। लेकिन, जनजातियों ने इन प्रयासों का विरोध किया। जनजाति, अपने लिए, संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत संरक्षण की मांग कर रहे हैं और उन्हें, संविधान के अनुच्छेद 371सी के तहत कुछ रियायतें दी भी गई हैं। अपने हक के लिए, जनजातियों का, संघर्ष पहले से ही चल रहा था, लेकिन धीरे धीरे, यह राजमार्ग अवरोधों, हड़तालों और सामूहिक रूप से बंद के रूप में उग्र होता गया। इसके अलावा, यह एक प्रकार का, त्रिकोणीय संघर्ष है। नागा और कुकी जनजातियां, राज्य के उन कदमों का विरोध करने के लिए, एक साथ हो जाती हैं, जो कदम, उन्हे लगता है कि, मैतेई के हित में उठाए गए हैं। 

कूकियो का विवाद, ब्रिटिश हुकूमत से भी रहा है। अंग्रेजो ने, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, कूकियों को ब्रिटिश सेना के कुली के रूप में, भर्ती कर यूरोप ले जाने की योजना बनाई थी, जिसे, कूकी जनजाति के नेताओं ने विफल कर दिया था। इसके कारण, जब ब्रिटिश सेना ने उन पर हमला किया तो युद्ध की स्थिति बन गई। इतिहास में, इसे 1917-19 के एंग्लो-कुकी युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में, कूकी जनजातियों की पराजय हुई, और इस हार के बाद, ब्रिटिश शासन ने उन्हें, उनकी भूमि से बेदखल कर दिया। साथ ही, ब्रिटिश ने, पूरे पूर्वोत्तर में यह बात फैला दी कि, कूकी  खानाबदोश कबीले हैं, जो अन्य जातियों/ जनजातियों की भूमि पर कब्ज़ा करते रहते हैं।  अधिकांश लोग आज भी इस ब्रिटिश कालीन धारणा पर विश्वास करते हैं और यह भी मानते हैं कि, कूकी, शरणार्थी हैं और इनका भूमि पर कोई अधिकार नहीं है। इसी कारण, जब कूकी,  भूमि पर अपने अधिकारों को मान्यता देने की बात करते हैं तो, अन्य समुदाय इनका विरोध करते हैं। यह विरोध, मणिपुर के अंतर्जातीय संबंधों को और अधिक जटिल बना देता है।

इसी लिए, कुछ मैतेई नेताओं ने सोचा कि आदिवासी भूमि तक पहुंच पाने का एकमात्र  तरीका, मैतेई समुदाय को, आदिवासी अनुसूची में शामिल करा लेना है। इसी मुद्दे पर, मैतेई समाज ने, मणिपुर उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। जिसके फैसले के बाद, यह हिंसा भड़क उठी है। इसी बीच, 26 अप्रैल को, राज्य सरकार ने चूड़ाचांदपुर जिले में कुछ कुकी परिवारों को उनकी भूमि से बेदखल करने के लिए 1966 की सीमा अधिसूचना का इस्तेमाल, यह तर्क देते हुए किया कि, यह वन भूमि थी। कुकियों पर यह भी आरोप लगाया गया कि कुकी लोग, अफीम  की खेती कर रहे थे। लेकिन राज्य सरकार ने पोस्ते की खेती करने वाले,  मास्टरमाइंड नेताओं को नहीं छुआ, बल्कि आम कुकियो पर कार्यवाही कर दी। इन घटनाओं ने, विवाद और हिंसा की शुरुआत कर दी। कुकियों ने, इसे अपने दमन के रूप में लिया और फिर तो, मणिपुर जलने ही लगा। 

वॉल्टर फर्नांडिस के लेख के अनुसार, 'तीन विशेषताएं, मणिपुर के वर्तमान जातीय संघर्ष को, वहीं के, पिछले संघर्षों से, अलग करती हैं। 

० पहला, हालांकि नागा और कुकि जनजाति समाज ने मैतेई को, जनजातीय दर्जा दिए जाने के कदम का विरोध करने के लिए, आपस में, हाथ मिलाया, लेकिन, मैतेई समुदाय के हमले, कुकियों पर ही हुए। वॉल्टर कहते हैं, "ऐसा प्रतीत होता है कि नागाओं को भड़काने और इसे नागा-कुकी संघर्ष में बदलने का प्रयास किया गया लेकिन वे असफल रहे।"  

० दूसरा, पहली बार, झगड़े को सांप्रदायिक रंग देने के लिए धार्मिक स्थलों पर हमला किया गया। यह एक नया ट्रेंड देखा गया, जो अमूमन, नॉर्थ ईस्ट में, असम को छोड़ कर कहीं नहीं दिखा था। 

० तीसरा, प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि चर्चों पर हमला करने के लिए युवकों के गिरोह इम्फाल से लगभग 50 किलोमीटर दूर मोटरसाइकिलों पर आए थे। इसके अतिरिक्त, प्रतिशोध में कुकी महिलाओं के साथ बलात्कार को उचित ठहराने के लिए निराधार अफवाहें फैलाई गईं कि चूड़ाचांदपुर में कुछ मैतेई महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था।

हाईकोर्ट का फैसला, और मीडिया रिपोर्ट्स जो इन घटनाओं के बारे में नियमित आ रही हैं से, यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि, वर्तमान संघर्ष सुनियोजित, वित्तपोषित और सत्ता में बैठे लोगों द्वारा क्रियान्वित किया गया था और किया जा रहा है। हिंसा के ज्यादातर मामलों में सुरक्षा बल मूकदर्शक बने रहे। वॉल्टर फर्नांडिस उद्धृत करते हुए, "गौरतलब है कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ ने कहा है कि कुकी उग्रवादी संघर्ष में शामिल नहीं थे।  लेकिन अगर स्थिति जारी रहती है, तो यह उग्रवादियों को हस्तक्षेप करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।" 

हालांकि, कई वर्षों से, तीनों समुदायों के नागरिक संगठनों ने जातीय समूहों के बीच, आपसी बातचीत को सुविधाजनक बनाने का प्रयास किया है।  लेकिन पिछले कुछ सालों में, ऐसे स्वयंस्फूर्त प्रयासों को हतोत्साहित कर,  उन्हें दरकिनार कर दिया गया है। उनकी जगह, हिंसक समूहों को तरजीह मिली और उनके पनपने से, जातीय विभाजन की प्रक्रिया तीव्र हुई। लेकिन, प्रत्यक्ष रूप से, अदालती मामले, बेदखली, संघर्ष और बातचीत के टूटने के बीच एक संबंध तो है ही।

हर विवाद में कुछ रोशनी की किरण भी होती है। एक वास्तविकता यह भी है कि, सभी मेइती, इस संघर्ष में शामिल नहीं हैं। उनके कई नेता और विचारक इस हिंसा और विवाद के विरोध में भी सामने आये हैं। उनमें से कुछ के घरों पर जवाबी कार्रवाई में, मैतेई उपद्रवियों ने हमला किया गया है और वे, फिलहाल छिपे हुए हैं। दूसरी तरफ, चूड़ाचांदपुर में, जब कुछ कुकी उपद्रवी, मैतेइयों पर हमला करने की योजना बना रहे थे, तो कुकी महिलाओं ने इन हमलों को रोकने के लिए एक मानव श्रृंखला बनाई और यह हमला रोक दिया। मोइरांग नामक स्थान पर, मैतेई माता-पिता और छात्र एक सशस्त्र समूह द्वारा, कुकी समुदाय पर हमले को रोकने के लिए जेसुइट स्कूल के गेट के पास खड़े थे।  ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनसे यह संकेत मिलता है कि, यदि ईमानदारी से उभय पक्ष के बीच सुलह की दिशा में पहल किया जाय तो, इस समस्या का समाधान हो सकता है।  

यहां तक ​​कि जब संघर्ष के आयोजकों ने नागाओं को कुकी के खिलाफ करने की कोशिश की, तो कुछ नागा संगठनों और नागालैंड में स्थित कुछ राजनीतिक नेताओं ने उनके साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करने के लिए राहत सामग्री के साथ कुकी गांवों का दौरा भी किया। नागालैंड के मुख्यमंत्री ने कुकी-बहुल कांगपोकपी जिले में राहत की एक बड़ी खेप भेजी। अपने लेख में, ऐसे उम्मीद जगाने वाले, उदाहरण देते हुए, वॉल्टर फर्नांडिस लिखते हैं कि, "मणिपुर स्थित नागा संगठनों ने अभी तक कुकियों के साथ समान एकजुटता नहीं दिखाई है, लेकिन उन्होंने उनका विरोध भी नहीं किया है।  ये कार्रवाइयां आशा की किरण जगाती हैं कि नागाओं और कुकियों को एक साथ लाया जा सकता है और फिर, मैतेई लोगों के साथ बातचीत शुरू करके पुल बनाए जा सकते हैं।"

मणिपुर हिंसा मामले में सबसे आश्चर्यजनक तथ्य है प्रधानमंत्री की चुप्पी। हालांकि गृहमंत्री ने वहां का दौरा किया है, सभी दलों की बैठक भी बुलाई है, पर छोटे छोटे मामलों में भी ट्वीट करने वाले पीएम की चुप्पी हैरान करती है। हालांकि, कांग्रेस नेता, राहुल गांधी ने  मणिपुर का दौरा किया, वहां के राहत शिविर देखे, पीड़ित लोगों से संवाद भी किया। बीजेपी ने राहुल गांधी के इस दौरे को राजनीति कहा। लेकिन, झूठ फरेब, मिथ्या आश्वासनों और हिंसा  तथा विभाजनकारी मानसिकता से प्रदूषित हो रही राजनीति के बीच, राजनीति की ऐसी शैली, बहुत सुकून देती हैं और बेहतर भविष्य की उम्मीद भी जगाती हैं। लंबे समय बाद राजनीति के इस स्वरूप का स्वागत है। हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है बल्कि अपने आप में ही एक समस्या है। हिंसा कभी भी केवल, सुरक्षा बलों और सेना के दम पर रोकी नहीं जा सकती है। इसका समाधान केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही संभव है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


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