Friday 19 April 2019

पुलिस का मूल्यांकन, राजनैतिक खेमेबंदी के आधार पर करना अनुचित है / विजय शंकर सिंह

यह एक नया ट्रेंड चल गया है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियों के कानून लागू करने के काम पर राजनैतिक प्रतिबद्धता से मीन मेख निकाला जाय और जैसी राजनीतिक प्रतिबद्धता हो, वैसी ही उसकी मीमांसा की जाय। सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोग अपने दलहित के दृष्टिकोण से और विपक्ष के लोग अपने दलहित के दृष्टिकोण से पुलिस तथा अन्य कानून लागू करने वाली एजेंसियों का मूल्यांकन करने लगे  हैं। जनता के इस आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह पूर्ण विचारों से कानून को लागू करना जो इन एजेंसियों का मूल कार्य होता है, धीरे धीरे गौण हो जाता है और राजनीतिक हित सामने आ जाते हैं। परिणामस्वरूप वही थाना, वही पुलिस, वहीं अफसर, और वही एजेंसी जो एक समय कुछ को नायक और साथी लगती है, वही जब अंक परिवर्तन होता है तो उसी समूह  खलनायक और दुश्मन नज़र आने लगती है।

देश मे सबसे महत्वपूर्ण, कानून लागू करने वाली संस्था में पुलिस सबसे ऊपर आती है। पुलिस की सबसे अधिक आलोचना उसके द्वारा किये गये भ्रष्टाचार और पक्षपातपूर्ण कार्यवाही के लिये की जाती है। पक्षपातपूर्ण कार्यवाही पर जब आरोप की बात चलती है तो राजनीतिक दखलंदाजी की बात सबसे अधिक होती है। यह एक आम आरोप है कि पुलिस राजनीतिक आधार पर सिफारिशें सुनती हैं। यह आरोप ऐसा आरोप है जिसका बचाव नहीं किया जा सकता है। क्यों कि यह आरोप काफी हद तक सही भी है। पुलिस में आप सीबीआई, एनआईए आदि को भी शामिल कर सकते हैं क्योंकि ये एजेंसियां भी सीआरपीसी के अंतर्गत जांच करने की वही शक्तियां रखती हैं जो आप के स्थानीय थाने की पुलिस रखती है। बस अंतर यह होता है कि इनके पास महत्वपूर्ण मामले होते हैं और ये सीधे पब्लिक डीलिंग से दूर रहती हैं। जबकि सिविल पुलिस जिसे हम आम भाषा मे थाना पुलिस कहते हैं, सीधे जनता के निशाने पर रहती है।

अब आइए इस नए ट्रेंड पर। जैसा पुलिस पर यह आरोप लगता है कि वह राजनीतिक आधार पर पक्षपातपूर्ण कार्यवाही करती है वैसी ही पुलिस की निंदा और प्रशंसा भी राजनैतिक आधार पर जनता के कुछ लोग करते हैं। लोग पक्षपातपूर्ण कार्यवाही के विरोध में तो रहते हैं पर वे सभी पक्षपातपूर्ण कार्यवाही का विरोध नहीं करते हैं बल्कि वे उन्ही पक्षपातपूर्ण कार्यवाही का विरोध करते हैं जो उनके मन या दल या हित माफिक नहीं होती है। यह पुलिस के पक्षपातपूर्ण कार्यवाही को दो भागों में बांट कर देखने की प्रवित्ति है। अच्छी पक्षपातपूर्ण कार्यवाही और बुरी  पक्षपातपूर्ण कार्यवाही। इस प्रकार पुलिस या कानून लागू करने वाली एजेंसियां कुछ तो मर्ज़ी से, कुछ हालात से, और कुछ बलात राजनैतिक खेमेबंदी में बंट जाते हैं।

ऐसी परिस्थितियों में सबसे अधिक मानसिक संताप उन अफसरों और कर्मचारियों का होता है जो बिना किसी भेदभाव के कानून के अनुसार कानून को लागू करना चाहते हैं। पुलिस विभाग में यह संताप सबसे अधिक हमारा थानाध्यक्ष वर्ग झेलता है क्योंकि चाहे पक्ष की सिफारिश हो या विपक्ष की पुलिस की कार्यशैली ही ऐसी है कि लगभग सभी कार्य इसी संवर्ग को करना पड़ता है या इसी के हस्ताक्षर से शुरू होता है । हर राजनीतिक व्यक्ति से पूछिए वह वह एक लफ्ज़ ज़रूर बोलेगा कि कार्यवाही बिलकुल निष्पक्ष होनी चाहिये। पर वह उसे ही निष्पक्ष मानता है जो उसके राजनीतिक या व्यक्तिगत हित को तुष्ट करता है। अन्यथा वह तुरंत झंडा उठा लेता है, और आरोप लगाने लगता है । यह बात पुलिस के साथ साथ उन सभी महकमो के लिये भी कह रहा हूँ जो पब्लिक डीलिंग से जुड़े हुये रहते हैं।

अब एक प्रसंग पढ़ लीजिये । यह प्रसंग लंदन का है। द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। लंदन पर भारी बमबारी हो गयी थी। ब्रिटिश महारानी को सुरक्षित वहां से कहीं और पहुंचा दिया गया था। रेगुलर कैबिनेट, युद्ध कैबिनेट में बदल गयी थी। विंस्टन चर्चिल वहां के प्रधानमंत्री थे। चर्चिल बेहद गुस्सैल और नकचढ़े स्वभाव का था। जिद्दी भी था। बंगाल का 1941- 42 के भीषण अकाल में हुयी जनहानि उसकी जिद और नकचढ़ेपन से ही हुयी थी। एक दिन,  रात का समय था। वह अपने दफ्तर जो सुरक्षा कारणों से बिटिश नौसैनिक क्षेत्र में कहीं शिफ्ट कर दिया गया था, बैठा था। रात देर हो गयी थी। युद्ध के कारण लंदन में ब्लैक आउट था। वह तनाव में था। सिगार पर सिगार वह पीता जा रहा था। ऐसे ही सिगार का कश लेते हुये वह दफ्तर से बाहर निकला और बेख्याली में उस ओर बढ़ चला जहां किसी भी गैर फौजी का बिना वैध अनुमतिपत्र के  जाना माना था। वहां आर्म्ड डिपो था। वह धूम्रपान निषेध क्षेत्र भी था।

अचानक वहां नियुक्त संतरी ने उसके सामने हांथ उठाया, सैल्यूट किया और रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। संतरी अकेला था। संतरी ने कहा, " मान्यवर, आप पहले सिगरेट बुझा दीजिये। आगे सुरक्षा ज़ोन है और मुझे यह आदेश है कि इस लाइन के आगे मैं किसी को भी बिना अपने कमांडर की अनुमति के न जाने दूँ। फिर आप सिगरेट भी पी रहे हैं। "
" तुम्हे यह आदेश किसने दिया है । " चर्चिल से पूछा।
जवाब मिला, " गार्ड कमांडर ने । "
" तुम मुझे पहचानते हो ? जानते हो मैं कौन हूँ ? " चर्चिल ने नाराजगी से पूछा।
संतरी ने सम्मान से कहा, " जी, प्रधानमंत्री महोदय। आप सर विंस्टन चर्चिल हैं। हमारे सम्मानित प्रधानमंत्री हैं। पहले आप अपना सिगार बुझाइये। आगे ज्वलनशील क्षेत्र है। दुर्घटना हो सकती है। "
चर्चिल ने सिगार बुझा दिया और कहा कि, " फिर मुझे क्यों नहीं जाने दोगे । मैं तो प्राइम मिनिस्टर हूँ। "
संतरी ने कहा कि " मेरे आदेश में यह कहीं नहीं है कि प्रधानमंत्री को जाने दिया जाय। आदेश स्पष्ट है कि किसी को भी जाने नहीं दिया जाय जिसके पास जाने की अनुमति न हो । आपने सिगार बुझा दिया इसलिए आप को धन्यवाद। "
चर्चिल मुस्कुराया और वापस वापस हो गया।

दूसरे दिन उसने एडमिरल को बुलाया और कहा कि उस संतरी को पेश किया जाय जो रात में ड्यूटी पर था। संतरी पेश हुआ। डरा और सहमा संतरी चुपचाप सैल्यूट कर के कोने में खड़ा हो गया। चर्चिल गंभीर मुद्रा में सिगार पीते हुए उठा और धीरे धीरे संतरी के पास पहुंचा। संतरी निःशब्द। दफ्तर में सभी उपस्थित लोग भी चुप थे। फिर चर्चिल ने अपने हांथ से संतरी के कंधे को थपथपाया और शाबाशी दी। संतरी की जान में जान आयी। चर्चिल ने संतरी की ओर अंगुली से इशारा करते हुये अपने स्टाफ से कहा कि जब तक ऐसे निष्ठावान और कर्तव्यपारायण सैनिक रहेंगे तब तक इंग्लैंड दुनिया की कोई लड़ाई नहीं हार सकता है। फिर उसने रात का किस्सा अपने स्टाफ को बताया। यह एक प्रोफेशनल सैनिक का कर्तव्य था। साथ ही एक बददिमाग सनकी और जिद्दी राजनैतिक व्यक्ति का चरित्र भी।

एक उदाहरण अपने देश से भी पढ़ लीजिये। इंदिरा गांधी की गाड़ी कनॉट प्लेस में गलत पार्किंग में खड़ी थी जिसे तब की डीसीपी ट्रैफिक किरण बेदी ने क्रेन से उठवा लिया था। उनके इस कार्य की न केवल पूरे देश मे प्रशंसा हुयी बल्कि दिल्ली के तत्कालीन पुलिस प्रमुख ने किरण बेदी के निष्ठापूर्वक कार्य की सराहना भी की । खुद इंदिरा गांधी ने किरण बेदी को  बुला कर शाबाशी दी।

पर एक उदाहरण यह भी है कि इसी लोकसभा चुनाव 2019 की  ओडिशा में चुनाव ड्यूटी में लगे जनरल ऑब्जर्वर मोहम्मद मोहसिन ने जब अपने कर्तव्य का पालन करते हुये पीएम के हेलीकॉप्टर को एसपीजी से अनुमति लेकर चेक किया तो चुनाव आयोग ने उन्हें निलंबित कर दिया। जबकि आब्जर्वर की नियुक्ति ही इसलिए की जाती है कि वह यह देखे की निष्पक्ष और नियमो के अनुसार चुनाव हो। इसीलिये ऑब्ज़र्वर दूसरे प्रदेश के अधिकारी होते है। वे रोज़ आयोग को सीधे रिपोर्ट देते हैं। उनकी रिपोर्ट सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। जहां  ऑब्जर्वर की निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न कराने के लिये प्रशंसा की जानी चाहिये वहीं उनकी पार्टी लाइन पर आलोचना हो रही है। इससे नौकरशाही जाने अनजाने दलगत आधार पर अपने आप बंटने लगती है जिससे प्रशासन की ही छीछालेदर होती है।

एक अन्य उदाहरण है। अभी कल से भाजपा ने मध्यप्रदेश के भाजपा से संभावित प्रत्याशी प्रज्ञा ठाकुर का एक विवादास्पद बयान आया है कि हेमंत करकरे जो 26/11 के मुंबई हमले में आतंकियों का मुकाबला करते हुये शहीद हुये थे को उन्होंने शाप दे दिया था और उनकी मृत्यु इसी शाप का परिणाम थी। प्रज्ञा ठाकुर के इस बयान की आलोचना हो रही है। प्रज्ञा ठाकुर का आरोप है कि उन्हें पुलिस ने गलत फंसाया और यातनाएं दी। लेकिन प्रज्ञा यह नहीं बता पा रही हैं कि वह मालेगांव ब्लास्ट और सुनील जोशी हत्याकांड में कैसे मुल्ज़िम बनी। हर अभियुक्त पुलिस के थर्ड डिग्री का निंदक होता है। यह एक सामान्य आरोप है। थर्ड डिग्री यानी पूछताछ के दौरान मारपीट के आरोपों की जांच अदालत में भी की जा सकती है और मानवाधिकार आयोग को भी बताया जा सकता है। गम्भीर मामलों में अदालतें स्वतः संज्ञान भी ले लेती हैं। पर अब इस बयान पर राजनीतिक खेमेबंदी साफ साफ दिख रही है। जो भाजपा के समर्थक हैं वे प्रज्ञा के साथ हैं और पुलिस के आलोचक है, और उनकी आलोचना के जद में हेमंत करकरे भी आ गए हैं। लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जो अभियुक्त के खिलाफ है। हो सकता है इनमें भी कुछ राजनीतिक आधार पर ही प्रज्ञा के खिलाफ हों। जो स्वाभाविक रूप से पुलिस के पक्ष में खड़े दिख रहे हो। ऐसे मामलों में जब राजनीतिक स्तर पर साफ साफ पाला  खिंच जाय तो पुलिस जिस राजनीतिक कशमकश में फंस जाती है उससे अंततः कानून का ही नुकसान होता है।

जनता को चाहिये कि पुलिस के पक्ष या विपक्ष में खड़े न होकर पुलिस के कार्य का मूल्यांकन इस आधार पर करे  कि पुलिस कानून को कानूनी तरीक़े से लागू कर रही है या नहीं। अगर विधि विरुद्ध तरीके से कानून को लागू किया जाएगा और पुलिस का मूल्यांकन दलगत, जातिगत और राजनीतिक आधार पर किया जाएगा तो पुलिस भी अलग अलग खेमे में बंट जायेगी जिसका नुकसान अंततः जनता को झेलना होगा। जो भी लॉ इंफोर्समेंट एजेंसी जनता के बीच रह कर कानून को लागू करने का काम करती है, उसकी आलोचना होगी ही। यह काम ही ऐसा है। ऐसे में पुलिस की निंदा होगी और विरोध भी होगा। इन सबका कारण यही है कि कानून को जब भी लागू किया जाएगा तो कुछ न कुछ सदैव असंतुष्ट रहेंगे। और जो असंतुष्ट होंगे वे आलोचना करेंगे ही। कानून को लागू करना जितना ज़रूरी है, उससे अधिक ज़रूरी है कानून को कानूनी तरह से ही लागू किया जाय। जैसे ही राज्यहित या कानून के हित मे कानून को नजरअंदाज किया जाता है वैसे ही आक्षेप और आलोचना शुरू हो जाती हैं। यह काम आसान नहीं है और हो सकता है कुछ को अव्यवहारिक भी लगे पर कानून लागू करने वाली एजेंसियों का बिना किसी राजनीतिक खेमेबाजी में पड़े हुए प्रोफेशनल होना देश, सामाज, जनता और नौकरशाही सबके लिये श्रेयस्कर ही होगा।

© विजय शंकर सिंह

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