Tuesday, 5 May 2020

तीसरी तलाबन्दी और देश के समक्ष आर्थिक चुनौतियां / विजय शंकर सिंह

3 मई को उम्मीद थी कि दूसरी तालाबंदी समाप्त हो जाएगी। लोगों को कुछ राहत मिलेगी और कुछ न कुछ आर्थिक गतिविधियां शुरू हो जाएंगी। पर सरकार ने यह लॉक डाउन अवधि अब बढ़ा कर 17 मई तक कर दिया है। यह तीसरा लॉकडाउन है। पहला एक दिन का ताली थाली वाला प्रकीतात्मक लॉक डाउन था। वह एक दिनी छुट्टी की तरह गुजरा। शाम को ताली, थाली , घन्ट घड़ियाल की ध्वनि का जश्न हुआ। इसने कुछ वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर जनता ने भी प्रतिभाग किया। ध्वनि से वायरस का नाश हो सकता है, ऐसे भी चिकित्सकीय अवधारणा सोशल मीडिया पर आयी। भारत ज्ञान की भूमि है। हर तरफ कुछ न कुछ हर काल मे ही अवधारित होता ही रहा है। यह कालखंड भी कोई बंजर थोड़े ही है। 

एक दिनी तालाबंदी के बाद 21 दिनों का ताला बंदी करने का एलान हुआ। 24 मार्च रात 8 बजे पीएम ने इस लॉक डाउन की घोषणा की। उसी में एक दिन बत्ती बुझाओ, मोमबत्ती जलाओ का जश्न चिरागा किया गया। 21 दिनी तालाबंदी लम्बी थी थोड़ी अखर गयी। 3 मई को फिर यह घोषणा हो गयी कि अब सबको 17 मई तक घरों में ही रहना होगा। यह तीसरी तालाबंदी है। इस तलाबन्दी का मुख्य आकर्षण है, सेना द्वारा पुष्प वर्षा, बैंड वादन और नेवी द्वारा प्रकाश उत्सव। यह सब सरकार उनके लिये कर रही है जो कोरोना आपदा में एक तुच्छ लेकिन बेहद बलशाली और नादीदा वायरस से निपटने के लिये दिन रात एक किये हैं। वे हैं डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ। यह सब शोर शराबा और दीया बाती डॉक्टर साहबान के उत्साहवर्धन के लिये है। यह सब मनोबल बढ़ाने के प्रतीकात्मक कदम हैं। 

पर प्रतीकों और मनोबल बढ़ाने वाले उपायों से युद्ध नहीं जीते जाते हैं। युद्ध जीते जाते हैं, संसाधनों से और उचित रणनीति से। कोरोना के विरुद्ध इस युद्ध मे संसाधन हैं, दवाइया, टेस्टिंग किट, डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ के लिये पर्याप्त संख्या में पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्यूपमेंट यानी पीपीई। और इन संसाधनों की कमी देश को उसी दिन से झेलनी पड़ रही है जिस दिन से सरकार ने मेडिकल इमरजेंसी लागू की है। यह कमी किसी दूर दराज के अस्पताल में ही नहीं है बल्कि यह कमी देश के अग्रणी अस्पताल एम्स से लेकर देश के जिले अस्पताल तक व्याप्त है। सरकार इन उपकरणों की पूर्ति की कोशिश कर भी रही होगी पर आज तक डॉक्टरों की यह शिकायत बनी हुयी है कि उनके पास पीपीई किट नहीं हैं। 

कोविड 19 एक खतरनाक वायरस है जिसका अभी तक कोई इलाज नहीं मिल सका है। मूल रूप से फ्लू या श्वसन तंत्र से जुड़ा हुआ यह संक्रमण है पर यह एक नया वायरस है अतः इसे नॉवेल जिसका शाब्दिक अर्थ नूतन और भिन्न प्रकार का होता है, कहा गया। डॉक्टर इसकी जो भी दवा कर रहे हैं, उससे यह ठीक भी हो जा रहा है। पर न तो अभी तक किसी वैक्सीन का ईजाद हुआ है और न ही कोई दवा ही आ पायी है तो पूरी दुनिया मे सारा जोर बचाव पर ही है ताकि हर वह संभव उपाय किया जाय जिससे इस रोग के संक्रमण से बचा जा सके। तालाबंदी या लॉक डाउन उसी बचाव का एक महत्वपूर्ण उपाय है। 

पर अब तक देश 25 मार्च से लगातार तालाबंदी में है लेकिन, अभी तक, संक्रमण की रफ्तार न तो धीमी हुयी है और न ही, ग्राफ की रेखा सीधी हुयी है। 3 मई की सुबह स्वास्थ्य मंत्रालय की बुलेटिन के अनुसार संक्रमित मरीज़ों की संख्या 39,980 हो चुकी थी। 24 घंटे में 2644 मामले सामने आए हैं। ज़ाहिर है शाम तो यह संख्या 40,000 के पार भी कर जाएगी। अगर दस दिनों में डबल होने का औसत ही देखें तो 13 मई तक हम 80,000 के आस-पास होंगे। यह आंकड़े कह रहे हैं। 13 मई को वास्तविक स्थिति क्या रहती है यह तो 14 मई की स्वास्थ्य बुलेटिन से ही जाना जा सकेगा। 

भारत उन देशों में शामिल नहीं है जहां का स्वास्थ्य ढांचा सामान्य तौर पर किसी मौसमी बीमारी या आपदा को झेल पाने में सक्षम हो। फिर यह तो एक ऐसी आफत है जिसका कोई इलाज ही नहीं। यूएस, ब्रिटेन, इटली जैसे समृद्ध स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर वाले देश इस आपदा से जूझने में हलाकान हो जा रहे हैं। अतः भारत के पास निरोधक उपाय के रूप में यही एक मार्ग तालाबंदी का बचता है । पर तालाबंदी से एक नयी समस्या उत्पन्न हो रही है, जो अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में है और वह बीमारी की आपदा से कम महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि यह उससे बड़ी चुनौती है। आईएमएफ या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इस चुनौती का संज्ञान लिया और एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया है, जिसमें आरबीआई के पूर्व गवर्नर डॉ रघुराम राजन भी शामिल किए गए हैं। 

आईएमएफ़ की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने इस चुनौती के संदर्भ में कहा, 
"कोरोना संकट अगले दो साल में विश्व की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का नौ खरब डॉलर बर्बाद कर देगा। दुनिया भर के देशों की अर्थव्यवस्थाओं को इतना ज़्यादा नुक़सान हो रहा है कि इस साल वैश्विक अर्थव्यवस्था में तीन फ़ीसदी की गिरावट आएगी।" 
आईएमएफ़ ने जारी एक पेपर में इसे 'साल 1930 की महान अमेरिकन मंदी' के बाद के दशकों की सबसे ख़राब वैश्विक गिरावट क़रार दिया है। आगे संस्था ने यह भी कहा है कि, 
" कोविड-19 की महामारी लंबे समय तक बनी रही तो संकट को संभालने में सरकारों और केंद्रीय बैंकों की कुशलता की असली परीक्षा होगी।" 
हालांकि आईएमएफ़ ने दुनिया की अर्थव्यवस्था पर जारी किए गए अपने ताज़ा 'वर्ल्ड इकॉनॉमिक आउटलुक' में ब्रिटेन, जर्मनी, जापान और अमरीका जैसे देशों में उठाए गए 'त्वरित और ठोस उपायों' की सराहना की है। 
आईएमएफ द्वारा यह भी कहा गया है कि,
" कोई भी देश इस नुक़सान से बच नहीं पाएगा। अगर वर्ष 2020 की दूसरी छमाही में कोविड-19 की महामारी पर काबू पा लिया गया तो अगले साल वैश्विक विकास 5.8 फ़ीसदी की दर संभल सकता है।" 
यह अगर ही सबसे बड़ी आशंका है। कोविड 19 का संक्रमण अभी थमा नहीं है। जहां जहां यह थम भी रहा था तो वहां नए नए मामले और वह भी लक्षणहीन संक्रमण के मिलने लगे। कुल मिलाकर इस आपदा को लेकर, भ्रम की स्थिति इतनी विकट है कि, हर देश का चिकित्सा तंत्र अंधकार में ही हांथ पांव मार रहा है। 
गीता गोपीनाथ ने सच ही कहा है कि,
" ऐतिहासिक लॉकडाउन' ने कोरोना संकट की वजह से 'गंभीर अनिश्चितता' का सामना कर रही सरकारों के सामने एक 'मनहूस सच्चाई' लाकर रख दी है। साल 2021 में आंशिक भरपाई की संभावना जताई गई है. लेकिन जीडीपी की दर कोरोना से पहले वाले दौर से कम ही रहेगी। साथ ही हालात किस हद तक सुधर पाएंगे, इसे लेकर भी अनिश्चितता बरकरार रहेगी. मुमकिन है कि विकास के पैमाने पर बेहद ख़राब नतीजे आएं। "

हम एक वैश्विक विश्व मे हैं। हर देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का असर सर्वत्र पड़ता है। वैश्वीकरण के अपने लाभ और हानि दोनो हैं। दुनिया को एक गांव में बदलने के बाद यह एक ऐसी महामारी है जिससे सब पीड़ित हैं और सभी समाधान खोज रहे हैं। ऐसी दशा में, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चेतावनी दी है कि 
" विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं कोरोना से पहले के दौर के उच्च स्तर को साल 2022 से पहले हासिल नहीं करने वाली हैं।"

अमरीकी अर्थव्यवस्था को इस साल 5.9 फ़ीसदी का नुक़सान उठाना पड़ सकता है और वर्ष 1946 के बाद उसके लिए यह सबसे बड़ा आघात होगा। अमरीका में इस साल बेरोज़गारी दर 10.4 फ़ीसदी रहने की संभावना है। साल 2021 तक अमरीकी अर्थव्यवस्था में 4.7 फ़ीसदी की दर से विकास के साथ कुछ सुधार होने की उम्मीद जताई गई है.
चीन के मामले में आईएमएफ़ का कहना है कि इस साल उसकी अर्थव्यवस्था 1.2 फ़ीसदी के साथ बढ़ सकती है. साल 1976 के बाद चीन के लिए ये सबसे धीमी विकास दर होगी.

आईएमएफ का मानना है कि, 
" साल 2021 में कोरोना संकट वापस लौटा तो हालात बहुत ख़राब हो सकते हैं और वैश्विक जीडीपी को और आठ फ़ीसदी का नुक़सान उठाना पड़ सकता है।"
आखिर इस मंदी का कारण क्या है ? इस सवाल का उत्तर भी आईएमएफ अपने डॉक्यूमेंट में स्वतः देता है। उसके अनुसार, लंबे समय तक लॉकडाउन रहने से आर्थिक गतिविधियां ठप पड़ गई हैं लेकिन महामारी से बचने का क्वारंटीन और सोशल डिस्टेंसिंग के अलावा और कोई महत्वपूर्ण उपाय भी तो नहीं हैं। 

आईएमएफ ने, वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये, चार प्राथमिकताएं भी रखी हैं। 
● हेल्थ केयर सिस्टम में ज़्यादा पैसा लगाया जाए।
● कर्मचारियों और कारोबारियों को वित्तीय मदद दी जाए।
● केंद्रीय बैंक अपनी मदद जारी रखें और 
● बुरी हालत से संभलने के लिए ठोस योजना हो.

आखिर कोरोना आपदा से निपटने के लिये सरकार की योजनाएं क्या हैं ? पहले हम नागरिक अधिकारों की बात करें कि आखिर इस युद्ध मे हम यानी जनता की क्या भूमिका होनी चाहिये। यह कोरोना के विरुद्ध एक युद्ध है, इस सदी का सबसे महत्वपूर्ण वाक्य बन सकता है, तो इस युद्ध मे सरकार की हमसे अपेक्षाएं क्या हैं ?.
● हम घरों में ही रहे। 
● सोशल डिस्टेंसिंग या फिजिकल डिस्टेंसिंग का पालन करें। 
● व्यक्तिगत साफ सफाई का ध्यान रखें
● कोविड 19 के लक्षण मिलते ही मेडिकल स्टाफ को सूचित करें और उनकी सलाह माने। 
● कोरोना संदिग्ध व्यक्तियों के बारे में सरकार द्वारा दिये गए हेल्पलाइन नम्बर पर संबंधित अधिकारियों को सूचना दें।
● पुलिस, मेडिकल स्टाफ तथा अन्य आवश्यक सेवाओ में लगे सरकारी कर्मचारियों का सहयोग करें और उनके साथ अभद्रता न करें। 
जनता यह सब कर भी रही है। पर सब स्वभावतः विधिपालक होते भी नहीं है तो कुछ कानून का उल्लंघन करने वाले भी हैं तो ऐसे लोगो से निपटने के लिए सरकार के पास पर्याप्त अधिकार और शक्तियां भी है।

अब कुछ और समस्याओं की चर्चा करते हैं, 
● सरकार ने कहा है कि उद्योगपति लॉक डाउन के अवधि का वेतन न काटें और न ही नौकरी से किसी को निकालें ? 
● यह भी कहा है कि निजी स्कूल तीन महीने की एकमुश्त फीस के लिये अभिवावकों पर कोई दबाव न डालें। 
लेकिन विभिन्न कंपनियों से वेतन काटने और नौकरियों से निकालने की भी खबरें आ रही हैं और स्कूलों से भी फीस के तकादे अभिभावकों को मिल रहे है। सरकार के पास ऐसी समस्याओं से निपटने के लिये क्या कोई योजना या पर्याप्त इच्छाशक्ति भी है या यह सब एक पब्लिसिटी स्टंट है केवल ? जनता की इन समस्याओं में सरकार कहाँ खड़ी है ?

इन सब समस्याओं के परिणामस्वरूप समस्त नौकरीपेशा लोगों में असंतोष तो हो ही रहा है साथ ही इसका विपरीत असर बाजार के मांग और पूर्ति के संतुलन पर भी पड़ रहा है, जो नोटबन्दी के निर्णय के बाद से ही असंतुलित बना हुआ है और जो आर्थिक मंदी का एक बड़ा कारण भी है। सरकार अपने अनुपयोगी खर्चो में कटौती कर के, अनुपयोगी प्रोजेक्ट्स को कुछ समय के लिये स्थगित कर के इस कमी को पूरा करने की योजना पर विचार कर सकती है। सरकार, वित्तीय कुप्रबंधन की शुरू से ही शिकार रही है। सरकार के एजेंडे में जन नहीं बल्कि उद्योगपति और वे भी कुछ चुने हुए औद्योगिक घराने ही रहते हैं। 

अर्थ विशेषज्ञों का यह भी आकलन है कि अपने आकार और मानव संसाधन के बल पर भारत चीन को चुनौती दे सकता है और वह चीन के विपरीत औद्योगिक हब का एक नया विकल्प बन सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। हालांकि अभी संभावनाएं समाप्त नहीं हुयी हैं, लेकिन जो प्रारंभिक रुझान, चीन से उद्योगों के पलायन के मिले हैं वे आशाजनक नहीं हैं। भाजपा के ही समर्थक शेषाद्रि चारी के एक ट्वीट से यह ज्ञात होता है कि चीन से पलायित होने वाली कम्पनियों ने भारत के प्रति उदासीनता दिखाई है। शेषाद्रि अंग्रेज़ी टीवी चैनलों पर बीजेपी के पक्षकार  और वे संघ का एक बौद्धिक चेहरा भी हैं । अपने ट्वीट में वे कहते हैं, 
“नोमुरा ग्रुप के एक अध्ययन से पता चला कि पिछले कुछ महीनों में चीन से क़रीब 56 विदेशी फ़ैक्टरियों ने ठिकाना बदला ।26 वियतनाम चली गईं , 11 ताईवान गईं और 8 ने थाईलैण्ड का रुख़ किया । भारत के हिस्से में सिर्फ तीन आईं । इनका “मेक इन इंडिया”और प्रधानमंत्री कार्यालय से सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ ?नौकरशाही,राजनीति,काहिलियत या उत्साहविहीनता ?”

दरअसल लॉक डाउन कोरोना का कोई इलाज नहीं है यह इलाज के अभाव में अपनाया गया एक वैकल्पिक निरोधात्मक उपाय है। लेकिन लम्बे समय तक इसे लागू करने से कोरोना का संक्रमण थमेगा या नहीं और थमेगा तो कितना थमेगा यह तो वायरोलॉजिस्ट ही स्पष्ट तौर पर बता पाएंगे पर अर्थशास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि इससे अर्थव्यवस्था की कमर टूट जाएगी और बेहद विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं, जैसा कि आईएमएफ हमे समय समय पर सचेत कर भी रहा है। इस बंदी की अवधि का इस्तेमाल हम  चिकित्सा और स्वास्थ्य ढांचे को खड़ा करने, जागरूकता फैलाने और जब सबसे ज्यादा लोग संक्रमित होंगे और उन्हें अस्पताल में दाखिल कराने की आवश्यकता होगी, तब इन कामों के लिये हमें थोड़ा समय मिल सकता है। 

लॉक डाउन का असर प्रवासी कामगारों की बेरोजगारी, अर्थाभाव और अन्य समस्याओं  सहित छोटी और मध्यम इकाइयों पर भी पड़ रहा है। गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, तमिलनाडु आदि औद्योगिक रूप से समृद्ध राज्यों के एसएमआई की रीढ़ ही यूपी, बिहार, एमपी से गये प्रवासी मज़दूर हैं। पर आज लंबी तलाबन्दी के बाद उनकी घर वापसी से जुड़ी, जैसी भयानक और हृदयविदारक घटनाएं पढ़ने और देखने मिल रही हैं उन्हें देखते हुए यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि उनका फिलहाल अपने घरों से काम पर दुबारा वापस जाना आसान नहीं होगा। गुजरात के फैक्टरी मालिक यह बात समझ रहे हैं, अतः वे जानबूझकर ऐसी कार्यवाही कर रहे हैं जिससे कि मज़दूर, येनकेन प्रकारेण घर वापस न जा सके। ऐसे फंसे हुये प्रवासी कामगारों को,  सरकारों से कोई मदद भी नहीं मिली, न नगदी हस्तांतरण, न राशन। वे घर जाना चाहते हैं। बस किसी भी कीमत पर। उत्तर प्रदेश और कुछ दूसरे राज्यों ने अपने राज्यों के मजदूरों को वापस लाने के लिए बसें भेजीं, लेकिन बिहार ने फिलहाल कोरोना प्रोटोकॉल और संसाधनों के अभाव का हवाला देकर वापस बुलाने से इंकार कर दिया गया है। 1 मई को रेलवे ने कुछ ट्रेन भी चलाई पर उसका किराया कौन अदा भरेगा, इस विंदु पर भ्रम बना रहा। केंद का कहना है कि किराया वे राज्य सरकारें देंगी जिनके यहां के प्रवासी कामगार हैं, और राज्य सरकारें किराए के मामले में अभी भी कंफ्यूज हैं। हालांकि झारखंड राज्य ने किराया अदा करने की स्पष्ट घोषणा की है। मुंबई में तो टिकट के पैसे न होने के कारण काफी कामगार ट्रेन में सवार ही नहीं हो सके। यहां भी केंद्र राज्य समन्वय और स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव साफ दिखता है जो सरकार की एक और प्रशासनिक अक्षमता को उजागर करता है। 

इंडियन एक्सप्रेस में छपे पी चिदंबरम के एक लेख के अनुसार, लघु और मध्यम उद्योग, सीएमआइई ने 27 अप्रैल को जारी एक रिपोर्ट में बेरोजगारी की दर 21.1 फीसद पर पहुंचने की बात कही है। यह भी तब है जब श्रम बल भागीदारी में 35.4 फीसद की गिरावट आ गई थी। एक और समस्या की ओर एसएमआई ने ध्यानाकर्षित किया है कि, जब कोई एमएसएमई एक बार बंद होती है, तो उसे दोबारा चालू कर पाना आसान नहीं होता। उस ईकाई को पैसे का प्रबंध, कुशल कामगारों की नियुक्ति और अन्य लॉजिस्टिक समस्याओं का समाधान करना होगा जो एक लंबे समय की बंदी के बाद आसान नहीं होता है। ऐसे में उक्त ईकाई की कार्यशील पूंजी खत्म हो जाएगी और बिना क्रेडिट गारंटी के उसे कोई बैंक या एनबीएफसी कर्ज भी नहीं देगी। मांग और आपूर्ति का चक्र टूट चुका होगा। अगर निर्माता दुबारा उत्पादन चालू नहीं कर सके तो फिर दुबारा ईकाई को खोलने का मतलब क्या रह जाएगा ? यह बेरोजगारी भी बढ़ाएगी और मंदी भी। 

केंद्र ने 25 मार्च को वादा किया था कि वह एमएसएमई की मदद के लिए जल्दी ही वित्तीय कार्य योजना-2 लेकर आएगी, उसे पूरा करेगी। लेकिन अभी इस पर मंथन चल रहा है। जब योजनाएं आएं और उनका क्रियान्वयन हो तो कुछ कहा जा सके। वास्तविकता यह है कि नोटबंदी की भारी गलती के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाई, आधे-अधूरे ढंग से लागू किए गए जीएसटी के बाद अर्थव्यवस्था सुधर नहीं पाई है। सुधार के लिए कड़ी मेहनत, योजनाओं, बहुत ही सावधानी के साथ अमल, पैसे, खुले बाजार, जोरदार गठजोड़ और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत होगी।

सरकार भी आसन्न आर्थिक संकटों से अनजान नहीं है और वित्तमंत्री की अध्यक्षता में आर्थिकी सुधारने के लिये एक विशेषज्ञ दल का गठन भी सरकार द्वारा किया गया है। देश के अन्य अर्थशास्त्री भी इस संकट के बारे में सोच रहे हैं और अपनी अपनी तरफ से अपने अध्ययन और सोच से इस संकट से उबरने का हल ढूंढ रहे हैं। इन अर्थशास्त्रियों में एक नाम है डॉ रघुराम राजन का रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रह चुके हैं और यूपीए 2 के समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार भी रहे हैं। उन्होंने प्रोफेशनल सोशल मीडिया लिंक्डइन पर कुछ सुझाव एक लेख के रूप में दिए हैं जिसे देखना भी चाहिए। 
वे कहते हैं कि
● लंबे लॉक डाउन से जो व्यावसायिक ठहराव आया है उससे  जीडीपी में 2 % तक की गिरावट आएगी। आर्थिक रूप से भारत संभवतः आज़ादी के बाद के सबसे बड़े संकट काल मे पहुंच गया है। हमें इस संकट काल से उबरने के लिये ठोस और परिणामोन्मुख योजनाएं बनानी होंगी।
● लंबे समय तक देश को लॉक डाउन करना एक कठिन और खतरनाक निर्णय  होगा। कम से कम कम संक्रमण वाले इलाकों में हमे कुछ व्यावसायिक और औद्योगिक गतिविधियों को शुरू करने पर विचार करना होगा। सरकार को उद्योगों को उनकी थमी हुयी आपूर्ति श्रृंखला को भी जागृत करने के लिये कई प्रशासनिक कदम उठाने होंगे। 
● गरीबों और गैर वेतनभोगी लोगो के लिये सरकार और कुछ निजी कंपनियों को चाहिए कि वे उन्हें कुछ धन उपलब्ध कराये। सरकार ने इस दिशा में भी कदम उठाए हैं, लेकिन दी जाने वाली राशि संकट और आवश्यकता को देखते हुए पर्याप्त नहीं है। 
● केंद्र राज्य और कुछ बड़े एनजीओ को साथ साथ आना होगा और मिलजुल कर एक योजनाबद्ध तारीके से स्वास्थ्य, भोजन और आवास की समस्याओं को हल करना पड़ेगा। कर्ज़ उगाही पर कुछ समय तक के लिये रोक भी लगानी पड़ेगी ताकि मुद्रा का प्रवाह बाजार में हो सके। 
● डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर यानी सीधे खातों में धन भेजना एक उचित निर्णय है लेकिन यह वास्तविक ज़रूरतमंद तक पहुंच भी रहा है या नहीं यह भी देखना होगा। 
● भारत सरकार ने 1.7 लाख करोड़ रुपये की सहायता जनता को देने के लिये निर्धारित की है जो कुल जीडीपी का केवल 0.8 % है, जब कि अन्य देशों ने अपनी जीडीपी का अधिक अंश इस आपदा से निपटने के लिये निर्धारित किया है। 
● हमारे संसाधन निश्चित रूप से कम हैं पर ऐसे अवसरों पर हमें फिजूलखर्ची रोक कर एक मानवीय दृष्टिकोण की अर्थव्यवस्था के बारे में सोचना होगा। 
● हमारी अपनी बजटीय सीमाएं हैं। यूएस और यूरोप की तरह हम जीडीपी का 10 % नहीं खर्च कर सकते हैं। क्योंकि हम वैसे भी राजकोषीय घाटे की समस्या से जूझ रहे हैं। अधिक और अतार्किक व्यय हमारी विकास दर और गिरायेगा और बजटीय घाटा भी बढ़ा देगा।
● अतः हमें व्यय की प्राथमिकता तय करनी होगी। अनावश्यक और अनुत्पादक व्यय से बचना होगा। साथ ही निवेशकों का भी भरोसा बनाये रखना  होगा। 
● बहुत से लघु और मध्यम उद्योग जो पिछले कुछ सालों की मंदी से रुग्ण हैं उन सबमे भी जो महत्वपूर्ण हों उन्हें कर्ज़ देकर पुनः खड़ा करना होगा। 
● बड़े एसएमआई को खुद ही अपने पैरों पर खड़ा होने के लिये नए उपाय सोचने होंगे उन्हें सिडबी द्वारा कुछ क्रेडिट की गारंटी दी जानी चाहिए ताकि वे भी चल पड़े। 
● सरकार को यह कटु सत्य स्वीकार करना होगा कि पहले इन एसएमआई को खड़ा करने में उन्हें धन की हानि हो सकती है। क्योंकि फिलहाल कुछ लघु और मध्यम उद्योगों के पास न तो पूंजी बची है और न ही श्रम। 
● धन जुटाने के लिये बड़े कॉरपोरेट और सरकारी कम्पनियां आकर्षक वापसी पर बांड भी जारी कर सकती हैं ताकि जिनके पास धन हैं वे सुरक्षित निवेश का एक माध्यम पा सकें। 
● बैंक, म्युचुअल फंड्स और बीमा कम्पनियों को भी ऐसे बांड्स जारी करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आआरबीआई इस संदर्भ में सहायता कर सकती है। 
● कोरोना से लड़ने के यदि देश के गरीबों,मजदूरों लिए जीवनी की व्यवस्था की जाये तो करीब 65 हज़ार करोड़ का कुल खर्च आएगा। 
● बेहतर शिक्षा, सुरक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर पर काम करने के अलावा हमें ध्यान रखना है की अभी भी लाइसेंस राज है। इसे ख़त्म करना पड़ेगा और पूरा फोकस नयी जॉब क्रिएट करने पर लगाना पड़ेगा।
● हमारे आंकड़े विश्वसनीय हैं। हाल ही के कुछ साल में जीडीपी तक के आंकड़े अविश्वसनीय लगे और बेरोजगारी के तो आंकड़े ही नहीं हैं। 
● भारत की बड़ी समस्या यहां की जाति, समाज, पोलिटिकल भिन्नता आधारित भेदभाव है जिससे पहले निपटना होगा।  

इस प्रकार यह फर्श से अर्श की ओर उठकर चलने और समस्त राजनीतिक गुणाभाग को दरकिनार कर के एक प्रोफेशनल दृष्टिकोण से इस गंभीर चुनौती का सामना करने का समय है। सरकार को प्रोफ़ेशनल थिंक टैंक जो अर्थ विशेषज्ञों के साथ साथ प्रशासनिक रूप से भी दक्ष लोगो का हो, की सहायता इस पुनर्निर्माण के कार्य मे लेनी चाहिए। प्रतीकों के बल पर कोई विश्वास नहीं उपजता है बल्कि भरोसा जमता है ठोस कार्यवाही से। सरकार उपरोक्त सुझावों में से कुछ सुझावों पर काम कर भी रही है। पर सरकार के समक्ष सबसे बड़ी समस्या दृष्टि की स्पष्टता का अभाव,  समन्वय की कमी, प्रशासनिक दक्षता का समस्या, बेहद केंद्रीकृत तंत्र और लोककल्याणकारी राज्य के प्रति उदासीनता है। अब केवल समय ही यह बता सकता है कि सरकार कैसे इस संकटकाल से देश को निकाल कर प्रगतिपथ पर ले जाती है। 

( विजय शंकर सिंह )
 

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