वे सारे चित्र उस आत्मनिर्भर, एक भारत श्रेष्ठ भारत के हम भारत के लोगों का हैं, जो स्वेच्छा से अपने घरों की ओर खूबसूरत एक्सप्रेस वे पकड़ कर पैदल पैदल चले जा रहे हैं। मा भारती की यह संताने क्यों जा रही हैं ? इसकी भी सबकी अलग अलग व्याख्याए होंगी। क्या पता, उनका मूड आ गया पैदल चलने के विश्व रिकॉर्ड बनाने का, तो ये मतवाले निकल पड़े। घर भी पहुंच जाएंगे और इतिहास में दर्ज भी हो जाएंगे। सकारात्मक सोचिए तो किसी का दुःख कष्ट दिखेगा भी नहीं। वैसे भी हम यह सुनते आए हैं, मूदहूँ आंख कतहुं कुछ नाहीं।
न, न, हर सड़क पर जाते हुए ऐसे श्रमवीर, बिलकुल बेबस नहीं हैं, बल्कि उन्हें सरकार रोजाना तीन वक़्त का खाना, ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर, बकायदे उपलब्ध करा रही है। सुना नहीं आपने वित्तमंत्री के निर्मल सुवाक को ? अर्थव्यवस्था की रीढ़, यह श्रम संपदा अक्षुण रहे, देश का द्रुतगति से विकास हो, सरकार ने इसके लिए, 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज भी दिया है।
लंबे समय से हम यह सब सोशल मीडिया पर देख रहे हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक जैसे औद्योगिक रूप से समृद्धि राज्यों से उत्तर भारत के श्रम समृद्ध राज्यो की ओर जाता यह जनबल, बस अगर सरकार को नहीं दिख रहा है तो कोई बात नहीं, अंधों को सत्ता पर बैठने और सबकुछ जानते हुए भी अनदेखा करने की भी हमारे यहां की एक शास्त्रीय परंपरा रही है।
अमुक बात तो हमारे, शास्त्रों और पवित्र किताबो में लिखी हुयी है। यह अंतिम तर्क, किसी भी जिज्ञासा को भटकाने, भरमाने, टालने, और दबाने का एक मासूम पर शातिर तर्क है। इसके बाद बहस या तो बंद हो जाती है या बल का मार्ग ग्रहण कर लेती है।
कानून में हमारी न्यायपालिका को एक अधिकार यह प्राप्त है कि, वह किसी भी मामले में स्वतः संज्ञान ले कर उस मामले में सुनवाई कर के उस पर कार्यवाही कर सकती है। पर यह तस्वीरें और इस 'एक्सोड्स' से जुड़ी खबरे सभी अखबारों में छप रही है, पर न्यायपालिका ने इन सब पर कोई भी स्वतः संज्ञान लेना तो दूर की बात है, इसी मसले पर अदालत में दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार का यह तर्क सिर झुका कर, स्वीकार कर लिया कि, अब सड़क पर कोई भी मज़दूर नहीं है। सब अमन चैन है।
सरकार का अदालत में दिया गया यह तर्क, झूठ और फ़र्ज़ी हलफनामा तो है ही यह जानबूझकर अदालत को गुमराह करना भी हुआ। पर गुमराह व्यक्ति और संस्था को गुमराहियत का अंदाज़ा भी तो आसानी से नहीं होता है ! गनीमत है अदालत ने सरकार से यह नहीं कहा कि यह सब बंद लिफाफे में कहें जिसे या तो हम देखें पढ़े या आप सरकार।
2020 का यह साल 20 लाख करोड़ के स्वप्निल ढपोरशंखी पैकेज के लिये ही नहीं, बल्कि एक ऐसे संवेदनहीन सत्ता और सरकार के लिये भी याद रखा जाएगा जिसे अपने वातानुकूलित सौध से कुछ भी नही सूझता है और न दिखता है, अब तो वह सत्ता, खुली सड़क के बजाय, एक सुरंग के रास्ते आवागमन हेतु संकल्पित हो रही है। जहां दस कदम चलने के बाद हम रिक्शा, टेम्पू या कोई अन्य साधन खोजने लगते है, वही हज़ार किलोमीटर से भी अधिक धूप से चिलचिलाती सड़क पर घर जाने के संकल्प से निकल पड़ना, दृढ़ संकल्पशक्ति भी है। जब सरकारे संकल्प क्लीव होने लगती है तो जनता की संकल्पशक्ति अपरिमित होने लगती है।
सड़क कर घिसटते आत्मनिर्भर भारत के संदर्भ में आज देश की सबसे बडी अदालत का दरवाजा खटखटाया गया। एक जनहित याचिका दायर की गयी। यह अनुरोध मुंसिफ ए आला से किया गया कि
● सभी जिला मैजिस्ट्रेट और सरकार को यह आदेश दिया जाय कि, उनके जनपदों से गुजर रहे प्रवासी मज़दूरों को पानी और खाना मिले और उन्हें इंसान की तरह वाहनों का बंदोबस्त करके उनके घर छुड़वाया जाय ।
● अटार्नी जनरल तुषार मेहता ने 31 मार्च को कोर्ट में झूठा तथ्य दिया था कि कोई मज़दूर सड़क पर पैदल नहीं चल रहा है ।
● जबकि सोलह मज़दूर रेल की पटरी पर कट कर मारे गये हैं जो पैदल चलते हुए थक कर विश्राम करने की गलती कर गये थे और एक मालगाड़ी के शिकार हो गये जो लॉकडाउन के वक्त में अचानक काल बनकर आ पहुँची ।
● अटॉर्नी जनरल ने कहा कि, सरकार ने मज़दूरों को उनके घर पहुँचाने के सारे प्रबंध किये हैं पर बहुत से मज़दूर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने की बजाय पैदल ही चल पड़े हैं जिससे यह दुर्घटना हुई ।
सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता की याचिका को अख़बारों की खबर पर आधारित बताते हुए हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया! सुप्रीम कोर्ट को कहां तो चालीस दिन से भी अधिक समय तक प्रवासी मज़दूरों के विस्थापन पर उनकी व्यथा और दुर्दशा को लेकर स्वतः संज्ञान लेना चाहिए था, पर सुप्रीम कोर्ट ने अखबारों की खबरों पर ही संज्ञान लेने से मना कर दिया है। कहाँ तो अखबारों की खबरों पर ही सुप्रीम कोर्ट संज्ञान लेकर त्वरित स्वतः सक्रिय हो जाता है पर यहां तो सुप्रीम कोर्ट कुछ सुनना ही चाहता है।
सुप्रीम कोर्ट को एक कमीशन का गठन कर अखबारों, और सोशल मीडिया पर आ रही खबरों की पुष्टि के लिये एक जांच दल बनाना चाहिए था ताकि वह वास्तविकता से परिचित हो सके पर उसने तो इस विषयो पर कुछ कहा ही नही।
किस्से कहानियों के प्रतीकों से हमारे यहां बहुत कुछ कहा गया है। पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, जातक कथाएं रोचक प्रसंगों और प्रेरक उपदेशों से भरी पड़ी है। पर यह किस्सा न तो पंचतंत्र का है, न ही कथा सरित्सागर का और न ही जातक कथाओं का। यह किस्सा एक मित्र ने मुझे भेजा है, सोचा आप सब से साझा कर लूं।
किस्सा यूं है,
" एक बार एक गांव में बड़ी महामारी फैली. पूरे गांव को लंबे समय तक के लिए बंद कर दिया गया. केवट की नाव घाट पर बंध गई. कुम्हार का चाक चलते चलते रुक गया. क्या पंडित का पत्रा, क्या बनिया की दुकान, क्या बढ़ई का वसूला और क्या लुहार की धोंकनी, सब बंद हो गए. सब लोग बड़े घबराए. गांव के दबंग जमींदार ने सबको ढांढस बंधाया. सबको समझाया कि महामारी चार दिन की विपदा है. विपदा क्या है, यह तो संयम और सादगी का यज्ञ है. काम धंधे की भागम-भाग से शांति के कुछ दिन हासिल करने का सुनहरा काल है. जमींदार के भक्तों ने जल्द ही गांव में इसकी मुनादी पिटवा दी. गांव वालों ने भी कहा जमींदार साहब सही कह रहे हैं.
लेकिन जल्द ही लोगों के घर चूल्हे बुझने लगे. फिर लोग दाने-दाने को मोहताज होने लगे. कई लोग भीख मांगने को मजबूर हो गए. जमींदार साहब ने कहा कि यही समय पड़ोसी और गरीब की मदद करने का है. यह दरिद्र नारायण की सेवा का पर्व है. लोग कुछ मन से और कुछ लोक मर्यादा से मदद करने लगे. उन्होंने सोचा कि चार दिन की बात है, मदद कर देते हैं. लेकिन मामला लंबा खिंच गया. मदद करने वालों की खुद की अंटी में दाम कम पड़ने लगे. जब घर में ही खाने को न हो, तो दान कौन करे. हालात विकट हो गए.
सब जमींदार की तरफ आशा भरी निगाहों से देखने लगे. जमींदार साहब यह बात जानते थे. लेकिन उनकी खुद की हालत खराब थी. सब काम धंधे बंद होने से न तो उन्हें चौथ मिल रहा था और न लगान. ऊपर से जो कर्ज उनकी जमींदारी ने बाहर से ले रखे थे, उनका ब्याज तो उन्हें चुकाना ही था. लेकिन जमींदार साहब यह बात गांव वालों को बताते तो फिर उनकी चौधराहट का क्या होता. इसलिए उन्होंने कहा कि अगले सोमवार को वह पूरे गांव के लिए आर्थिक सहायता की घोषणा करेंगे. इतनी बड़ी घोषणा करेंगे, जितनी उनकी पूरी जमींदारी की आमदनी भी नहीं है. लोगों को लगा कि उनकी सूखती धान पर अब पानी पड़ने ही वाला है.
सोमवार आया. जमींदार साहब घोषणा शुरू करते उसके पहले उनके कारकुन ने आकर जमींदार साहब की तारीफ में कसीदे पढ़े. उन्हें सतयुग के राजा दलीप, द्वापर के दानवीर कर्ण और कलयुग के भामाशाह के साथ तौला. अब जमींदार साहब ने घोषणा की: वह जो गांव के बाहर पड़ती जमीन पड़ी है, उस पर अगले साल गांव वाले खेती करें और खूब अनाज उपजाएं, चाहें तो नकदी फसलें भी लगाएं. उन्हें विदेशों को बेचें और लाखों रुपये कमाएं. मेरी ओर से लाखों रुपये की यह भेंट स्वीकार करें. फिर उन्होंने कहा कि गांव के चार साहूकारों के पास खूब पैसा है, जाओ जाकर जितना उधार लेना है, ले लो. यह मेरी ओर से आप लोगों को दूसरी सौगात है.
इन दो घोषणाओं के बाद लोग एक दूसरे की तरफ देखने लगे कि यह क्या बात हुई. जमींदार साहब तो मुफत का चंदन, घिस मेरे नंदन, जैसी बातें कर रहे हैं. हमारे लिए कुछ कहेंगे या नहीं. खुसर-फुसर शुरू हो पाती, इससे पहले ही जमींदार साहब ने कहा: बहुत से लोग घर में राशन न होने और भूखे रखने की शिकायत कर रहे हैं. उन्हें चिंता की जरूरत नहीं है, उनके लिए तो मैंने महामारी के शुरू में ही राशन दे दिया था. उनके पास तो खाने की कमी हो ही नहीं सकती. लोगों ने अपने भूखे पेट की तरफ देखा और सोचा कि जो हम खा चुके हैं, क्या उसे दुबारा खा सकते हैं.
जमींदार साहब ने आगे घोषणा की कि जिन कुम्हारों का चाक नहीं चल रहा है, जिन पंडित जी का पत्रा नहीं खुल पा रहा है, जिस लुहार की धोंकनी नहीं चल रही और जिस केवट की नाव घाट पर लंबे समय से बंधी है, वे बिलकुल परेशान न हों. पत्रा बनाने वाली, धोंकनी बनाने वाली और नाव बनाने वाली कंपनियां भी बड़े साहूकारों से कर्ज ले सकती हैं और इन चीजों का निर्माण शुरू कर सकती हैं. हम आपदा को अवसर में बदलने के लिए तैयार हैं. यही ग्राम निर्माण का समय है. केवट और पंडित जी एक दूसरे को देखकर सोचने लगे कि कंपनियों को कर्ज मिलने से हमारा काम कैसे शुरू हो जाएगा.
जमींदार साहब ने आगे कहा: हम चौथ और लगान वसूली में कोई कमी तो नहीं कर रहे, लेकिन लोग चाहें तो दो महीने की मोहलत ले सकते हैं. यह हमारी ओर से एक और आर्थिक उपहार है.
इससे पहले कि गांव वाले कुछ सवाल करते, सभा में जोर का जयकारा होने लगा. जमींदार साहब के कारिंदों ने जमींदार साहब की जय और ग्राम माता की जय के नारे गुंजार कर दिए. चारों तरफ खबर फैल गई कि गांव में ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी आर्थिक सहायता पहुंच चुकी है. यह हल्ला तब तक चलता रहा, जब तक कि हर आदमी को यह नहीं लगने लगा कि उसके अलावा सभी को मदद मिल गई है. उसे लगा कि वही अभागा है जो मदद से वंचित है. जमींदार साहब की नीयत तो अच्छी है. जब सबको दिया तो उसे क्यों नहीं देंगे. अब उसकी किस्मत ही फूटी है तो जमींदार साहब क्या करें. उसने भी जमींदार साहब का जयकारा लगाया.
बस गांव के दो बुजुर्ग थे जो कब्र में पांव लटकाए यह तमाशा देख रहे थे. वे कुछ कहना तो चाह रहे थे, लेकिन इस डर से कि कहीं जमींदार के कारिंदे उन्हें ग्राम द्रोह के आरोप में जेल में न डलवा दें, इसलिए चुप ही बने रहे. इसके अलावा उन्हें उन्मादी भीड़ की लिंचिंग का भी डर था. इसलिए उन्होंने एक लोटा पानी पिया और जोर की डकार ली। "
( विजय शंकर सिंह )
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