अजंता की गुफाओं के अंधेरे में चित्रकारों को प्रकाश कहां से मिलता रहा होगा कि वे अपने चित्र उकेर सकें? इसका उत्तर विस्मय और ऊहा पर छोड़ दिया जाता है। प्रश्न उससे भी दो ढाई हजार साल पीछे जाकर किया जा सकता है, खनिकर्मियों को सुरंग के भीतर प्रकाश कैसे मिलता रहा होगा कि वे अपनी काट छाँट कर सकें? प्रकाश की उनकी आकुलता ही “तमसो मा ज्योतिर्गमय” ( छान्दोग्य, मांडूक्य, मुंडक, बृहादरण्यक) का आध्यात्मिक सूत्र बनती है ? ऋग्वेद में यह कामना भौतिक कारणों से अधिक उत्कट रूप में -उद् वयं तमसस्परि ज्योतिः पश्यन्त उत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यं अगन्म ज्योतिः उत्तमम् । 1.50.10; त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ; सो अन्धे चित् तमसि ज्योतिर्विदन्, जैसे पदों में - व्यक्त हुई है।
हमने चट्टानों को तोड़ने के जिन हथियारों का उल्लेख किया है वे सुरंगों के भीतर किस तरह चलाए जाते थे इसका अनुमान नहीं कर पाता। चट्टानों को ढीला करने के लिए आग जलाने से पैदा धुँए से बचने के लिए वे
क्या तरीका अपनाते थे, इसका सही अनुमान नही कर पाता। उनकी मुख्य समस्या प्रकाश का कोई ऐसा तरीका निकालने की थी जिससे प्रकाश तो मिले परंतु दम घोटू धुँआ न पैदा हो। संभवतः घृतपृष्ठ अग्नि इसी को कहते रहे हों। यज्ञ में भी घी का तर्पण किया जाता है पर वह ईंधन का हिस्सा होता था। घृतवन्तमुप मासि मधुमन्तं तनूनपात्।
छेद करने के लिए उनके पास भृमि और भ्रम (बर्मी और बर्मा) थे़, चिराई और कटाई के लिए चक्र था (अवर्तयत् सूर्यो न चक्रं भिनद् बलमिन्द्रो अंगिरस्वान् ।। 2.11.20) हो सकता है यह सूर्याकार गोल न हो कर अर्धचंद्राकार आरा रहा हो, छेनी, हथौड़ा जैसे दूसरे यन्त्र थे। किनका किस युक्ति से प्रयोग करते थे इसका सही अनुमान संभव नहीं है।
एक विशेष बात जो लक्ष्य की गई है वह यह कि सुरंगों की कटाई खुदाई से निकले पत्थर उन स्थलों पर नहीं मिले हैं जिसका अर्थ है वे किसी भी चीज को बर्वाद नहीं होने देते थे।
बाद के सत्र
खनन का काम एक सत्र में पूरा नहीं हो सकता था। कई बार खुदाई करने वाले उस गर्भ में पहुंच ही नहीं पाते थे जहाँ विपुल भंडार छिपा रहता था। अधूरा काम अगले सत्रों मैं पूरा किया जाता था। हम मैकडनल द्वारा उद्धृत पंचविंश ब्राह्मण के उस कथन पर ध्यान दें, जिसमें वल की कन्दरा को पत्थर से बंद करने का हवाला है- The PB (19.7) speaks of the cave, Vala, of the Asuras being closed by a stone. वास्तव में यह सत्र की समाप्ति पर उस बिल या सुरंग को बंद करने से संबंध रखता है, जिसमें वे काम करते रहे थे। रामायण में बालि की कथा में भी इसका हवाला है, यह हम देख पाए हैं। अगले सत्र में काम आरंभ करने के लिए इस पत्थर को हटाया जाता था। सुरंग को संभवतः वे अपनी गुह्य भाषा में देवी और प्रवेश द्वार को देवी द्वार कहते थे।
इस अवसर पर उसी तरह का अनुष्ठान होता था और इसके लिए जो मंत्र पढ़े जाते थे वे आप्री सूक्तों में उपलब्ध हैं, जैसे मृत्यु और विवाह के (यामायन और सूर्याविवाह के मंत्र जो आज तक पढ़े जाते हैं। हमें इस बात का संदेह है कि आरंभ में आप्री सूक्त एक ही था, परंतु वैदिक काल में उसके कुछ पाठांतर हो गए थे।इनकी चर्चा करने से पहले हम एक दूसरे पक्ष पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं ।
वेदव्यास की चूक(?)
सामान्य विश्वास है कि वेद में कोई दोष नहीं निकाला जा सकता। इसके दो कारण हैं। पहला वेद को आप्त प्रमाण मानना। उसमें जो कुछ लिखा है वह गलत हो ही नहीं सकता, इसलिए उस पर पुनर्विचार किया ही नहीं जा सकता।
यह एक विशाल संग्रह है जिसे जाने किन किन स्रोतों से मूल सामग्री को जुटाकर ग्रंथ का आकार दिया गया और यह प्रयत्न करने वाले व्यक्ति को हम वेदव्यास के रूप में जानते हैं।आप्तता की यह बीमारी भी अनेक दूसरी बातों के साथ सामी पृष्ठभूमि में पहुंची थी। है बहुत खतरनाक।
दूसरा कारण यह है कि इसके संपादन और संरक्षण में इतनी सावधानी बरती गई है कि एक भी अक्षर इधर से उधर न हो सके, कोई बदलाव न किया जा सके, कुछ जोड़ा न जा सके। इसी चिंता से इसके एक एक अक्षर की गिनती की गई। केवल लिखित पाठ पर भरोसा न करके, इसको कंठस्थ करने की विचित्र पद्धतियां निकाली गई, जिनकी चर्चा यहां जरूरी नहीं है। पूरा ऋग्वेद शायद ही कभी किसी को कंठस्थ रहा हो, परंतु विभिन्न अवसरों पर मंत्र के रूप में पढ़े जाने वाले शब्दों को वैदिक कालीन ढंग से सस्वर पाठ या गान करने वाले विद्वानों की कमी नहीं थी। उनको इन सूक्तों का पाठ पूरे विश्वास से करते हुए देखकर यह भ्रम होता है कि कंठाग्र करने की परंपरा से ही वेदों का पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होता रहा होगा। इस तरह की दलील विशेष रूप से और हठ पूर्वक वे लोग देते हैं जो प्राचीन भारतीय समाज को अक्षर ज्ञान से वंचित सिद्ध करने के लिए कृतसंकल्प रहे हैं।
जो भी हो कुछ गलतियाँ पूरी सावधानी के बाद भी हो ही जाती हैं। वेद में भी गलती हो जाए तो कोई अचरज की बात नहीं।
आप्री सूक्त पूरे ऋग्वेद में दस बार आए हैं। ऋग्वेद में दस मंडल हैं यह हमें पता है। ऐसा लगता है कि प्रत्येक मंडल का एक आप्री सूक्त था। मंडल दो, पाँच, सात और नव में आप्री सूक्त एक-एक हैं। मंडल चार, छह और आठ मे आप्री सूक्त नहीं है। इस कमी को पहला और दसवाँ मंडल पूरा कर देते हैं। पहले मंडल में एक की जगह तीन आ्प्री सूक्त हैं, और दसवें मंडल में दो। संपादन के क्रम में कहीं कोई गड़बड़ी हुई जरूर है।
पहले और दसवें मंडल में सूक्तों की संख्या एक बराबर है, अर्थात् प्रत्येक में 191सूक्त हैं। बीच के मंडलों में सूत्रों की संख्या अलग अलग (क्रमशः 43, 62, 58, 87, 75, 104, 103, 114) है। ऐसा लगता है शून्य और नव से अंत होने वाली संख्याओं के प्रति उसी समय से कुछ पूर्वाग्रह काम करते आए हैं । आज भी यदि किसी को 100 या 10 देना हो तो शुभ अवसर एक बढ़ा कर, अशुभ अवसर पर एक घटाकर, देने का चलन है। यह विश्वास व्यवसाय में भी है। भारतीय व्यापारी तय भार से कुछ बढ़ा कर तोलता है , और आप कुछ झँस लेने को भी तैयार हो जाएं, वह बिल्कुल तैयार नहीं होता। इसी के कारण एक तो पहले और अंतिम मंडल के सूक्तों की संख्या बराबर रख कर संतुलित बनाना था, और दूसरी ओर अंतिम संख्या को शून्य या नव से बचाना था, इसके लिए सबसे अधिक आसान काम तीन मंडलों के आप्री सूक्तों को इनमें जोड़ना प्रतीत हुआ होगा।
सभी आप्री सूक्तों के ऋषियों (पात्रों) में भिन्नता है, परंतु सभी के देवता (वर्ण्यविषय) लगभग एक जैसे। सभी में देवताओं का क्रम तक एक जैसा है। इसे हम मंडल एक के 13वें और 142, वें सूक्तों के ऋषि, देवता और 5वींओ 6ठीं ऋचाओं की तुलना करके देख सकते हैं।
12 मेधातिथिकाण्वः, (आप्रीसूक्तं) - अग्निरूपा देवताः (1 इध्मः समिद्धोऽग्निर्वा, 2 तनूनपात, 3 नराशंसः, 4 इळः, 5 बर्हिः, 6 देवीःद्वारः, 7 उषासानक्ता, 8 दैव्यौ होतारौ, 9 तिस्रो देव्यः-सरस्वतीळाभारत्यः, 10 त्वष्टा, 11 वनस्पतिः, 12 स्वाहाकृतयः। गायत्री।
स्तृणीत बर्हिरानुषग् घृतपृष्ठं मनीषिणः ।
यत्रामृतस्य चक्षणम् । 1.13.5
वि श्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः ।
अद्या नूनं च यष्टवे ।। 1.13.6
13 दीर्घतमा औचथ्यः । (आप्रीसूक्तं ) 1 इध्मः समिद्धोऽग्निर्वा, 2 तनूनपात, 3 नराशंसः, 4 इळः, 5 बर्हिः, 6 देवीः द्वारः, 7 उषासानक्ता, 8 दैव्यौ होतारौ प्रचेतसौ, 9 तिस्रो देव्यः-सरस्वतीळाभारत्यः, 10 त्वष्टा, 11 वनस्पतिः, 12 स्वाहाकृतयः, 13 इन्द्रः। अनुष्टुप् ।
स्तृणानासो यतस्रुचो बर्हिर्यज्ञे स्वध्वरे ।
वृंजे देवव्यचस्तममिन्द्राय शर्म सप्रथः ।। 1.142.5
वि श्रयन्तामृतावृधः प्रयै देवेभ्यो महीः ।
पावकासः पुरुस्पृहो द्वारः देवीरसश्चतः ।। 1.142.6
परंतु हमारे लिए इन शब्दों का महत्व यह है कि आप्री सूक्त उस अनुष्ठान से संबंधित हैं जिसका आयोजन बाद के सत्रों में पहले की खुदी सुरंगों के बंद किए गए द्वारों को खोलने से पहले किया जाता था।अपने विषय से हम कुछ अधिक भटक गए हैं। अपने विषय पर वापस लौटना होगा।
( भगवान सिंह )
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