कहा जा रहा है कि, कांग्रेस बस के मामले में राजनीति कर रही है। यह बात सही भी हो, कि कांग्रेस बस मामले में राजनीति कर रही है, तो एक राजनीतिक दल राजनीति तो करेगा ही। उसका उद्देश्य ही राजनीति करना है। तभी तो राजनीतिक दल कहलाता है। इसी उद्देश्य से, उसका गठन किया गया है।
कांग्रेस राजनीतिक दल है और वह देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। अभी 6 साल पहले तक, वह सरकार में थी और अब भी चार राज्यों में वह अपने दम पर और एक राज्य में साझेदारी से सरकार में हैं। वह दुबारा सत्ता में आना चाहती है। इसमें कोई बुरा भी नही है। हर दल और नेता की ख्वाहिश होती है कि वह सत्तारूढ़ बने और लंबे समय तक सत्ता में रहे। आज कांग्रेस एक विपक्षी दल है औऱ तो उसका यह संवैधानिक दायित्व है कि वह सरकार की नीतियों का तार्किक विरोध करे और सरकार को एक्सपोज़ करे।
जब कांग्रेस सत्ता में थी तो यही काम उसे अपदस्थ करने के लिये भाजपा ने किया था। भाजपा ने सत्ता में आने के लिये राम को ही विवाद और राजनीतिक बहस के केंद्र में ला दिया था। सभी दल ऐसा करते हैं। आप लोकतंत्र में यह उम्मीद करे कि कोई भी दल राजनीति न करे तो यह भी एक राजनीति ही है। राजनीतिक विरोध, लोकतंत्र की खूबसूरती है।
सरकार के विरोध का एक भी मौका कांग्रेस को छोड़ना भी नही चाहिये। सरकार या लोकतंत्र एक राजनीतिक प्रक्रिया से चलता है। कांग्रेस ही नहीं सभी राजनीतिक दलों को अपनी अपनी सोच और एजेंडे के अनुसार राजनीति करने का हक़ है। यहां तक कि हर व्यक्ति को राजनीति में आने, अपनी बात कहने और राजनीति करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
अक्सर इस आरोप पर कि अमुक व्यक्ति राजनीति कर रहा है तो वह रक्षात्मक हो जाता है और यह बचाव करने लगता है कि नहीं नहीं यह राजनीति नहीं है, जैसे कि राजनीति कोई पापकर्म हो। कोई निषिद्ध क्रिया हो । राजनीतिक दल और राजनेता का हर कदम राजनीति से प्रेरित होता है यहाँ तक कि जब वह अपने चुनाव क्षेत्र में लोगों के पारिवारिक आयोजनों में जाता है तब भी, कुछ मामलों को छोड़ कर शेष में जनसंपर्क और राजनीति का ही अंश रहता है।
बसो में मामले में यह राजनीति मान लिया जाय कि कांग्रेस ने 1000 बसों का ऑफर देकर यूपी सरकार को एक राजनीतिक दांव चला है तो भाजपा ने इस दांव का राजनीतिक उत्तर क्यों नही दिया। जैसे ही यह ऑफर आया वैसे ही सरकार और भाजपा की बस यही प्रतिक्रिया आनी चाहिए थी कि 'हमारे पास संसाधनों की कमी नहीं है। आप अपनी बसे अपने राज्यों में लगा लें। यहां हम व्यवस्था कर रहे हैं।'
यूपी में बसे लगी भी हुयी हैं। सरकार का इंतज़ाम भी है। हो सकता है आदर्श व्यवस्था न हो, तो ऐसे ऊहापोह में जब गलती सरकार ने लॉक डाउन के शुरुआत में ही कर दी हो तो, यह तमाशा तो मचना ही था। इस कन्फ्यूजन और त्रासदी की जिम्मेदारी केंद्र के लॉक डाउन निर्णय पर है, जिसे भाजपा स्वीकार नहीं कर पायेगी क्योंकि यह भी राजनीति का ही अंग है।
लेकिन सरकार ने न जाने किस अफ़सर के कहने पर सूची मांग लिया। सूची में कुछ गड़बड़ी मिली। कुछ अन्य वाहनो के जैसे ऑटो एम्बुलेंस के नम्बर भेज दिए गए। फिर सोशल मीडिया पर संग्राम शुरू हुआ। जब हल्ला मचा तो, सूची की पड़ताल होने लगी। रात तक सच सामने आ गया। एक हजार बसों मे 879 बसें थी बाकी एम्बुलेंस और ऑटो थे। यह रिपोर्ट यूपी सरकार के ही अधिकारियों ने तैयार की है। सरकार को अगर बसे लेनी थीं तो जो बसे थीं ( सरकार के सूची के अनुसार ) तो उसे ही ले लेती, मज़दूरों को राहत मिलने लगती और कांग्रेस को गलत सूची पर एक्सपोज़ करती रहती।
प्रियंका गांधी के सचिव संदीप ने जो पत्र यूपी सरकार के अपर मुख्य सचिव को भेजा था उसका यह अंश पढ़े,
“आप वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं। बहुत अनुभवी हैं और कोरोना महामारी के इस भयानक संकट से भिज्ञ भी हैं। तमाम जगह प्रवासी मजदूर फंसे हुए हैं। मीडिया के माध्यम से इनकी विकट स्थिति सबके सामने है। हजारों मजदूर सड़कों पर हैं। हजारों की भीड़ पंजीकरण केंद्रों पर उमड़ी हुई है। ऐसे में 1 हज़ार खाली बसों को लखनऊ भेजना न सिर्फ़ समय और संसाधन की बर्बादी है। बल्कि हद दर्ज़े की अमानवीयता है और एक घोर गरीब विरोधी मानसिकता की उपज है। आपकी ये मांग राजनीति से प्रेरित लगती है। ऐसा लगता नहीं कि आपकी सरकार विपदा के मारे हमारे उत्तर प्रदेश के भाई बहनों की मदद करना चाहती है। हम सभी उपलब्ध बसों को चलवाने की अपनी बात पर अडिग हैं। कृपया नोडल अधिकारियों की नियुक्ति करें जिसने संपर्क स्थापित करके हम श्रमिक भाई बहनों की मदद कर सकें ।"
अब यह लग रहा है कि मज़दूरों को राहत पहुंचाने का मुद्दा पीछे चला गया है और राजनीतिक रस्साकशी का मुद्दा आगे आ गया है। सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस समस्या को हल करे। विपक्ष से न तो किसी की अपेक्षा होती है और न वह जवाबदेह होता है। अधिक से अधिक विपक्ष से ऐसे समय मे सहयोग की अपेक्षा होती है। कांग्रेस यह कह सकती है और कह रही है कि सहयोग के ही कदम के रूप में उसने बसें भेजी थी। सरकार ने उसे अनावश्यक पत्राचार में उलझा दिया।
एक और मजेदार बात यह हुयी कि, प्रियंका गांधी के सचिव संदीप पर यूपी सरकार ने मुकदमा दर्ज कर लिया। आरोप गलत सूचना देने का। शायद यह पहला मौका होगा जबकि एक पत्र के आधार पर मुकदमा दर्ज हो जाय। अपराध क्या बनता है, इस पर तो टिप्पणी, एफआईआर देखने के बाद होगी। लेकिन जवाबी कार्यवाही में राजस्थान सरकार ने भी यूपी के अपर मुख्य सचिव और डीएम आगरा के खिलाफ धोखाधड़ी और आर्थिक नुकसान का मुकदमा दर्ज कर लिया। होना हवाना किसी मामले मे नहीं है। लेकिन कांग्रेस को यह आधार ज़रूर भाजपा ने दे दिया कि वह अब घूम घूम कर कहेगी कि उसने तो पूरी कोशिश की मज़दूरों की व्यथा कम करने के लिये पर सरकार ने सहायता भी नहीं ली और हमारे लोगो को जेल और भेज दिया।
अगर बस की पेशकश एक राजनीतिक दांव है तो इस राजनीति में भाजपा अनावश्यक रूप से उलझ गयी। जहां तक मज़दूरों का सवाल है, वे तो अब भी सड़को पर घिसट रहे हैं। सरकार की प्रशासनिक चूक और लॉक डाउन के कुप्रबंधन की सजा भोगने के लिये अभिशप्त हैं। एक बात और है। राजनीतिक विमर्श का उत्तर ट्रोल और साइबर लफंगे नहीं दे सकते हैं। वे बस इर्रिटेट कर सकते हैं। इर्रिटेट बिल्कुल मत हों। उनके पोस्ट से ही राजनीतिक जवाब निकालें। सरकार का समर्थन करना आसान नहीं होता है। सरकार किसी की भी हो, सत्ता में कोई भी हो, वह, गलती करता ही है। यह भी कर रहे हैं। मूर्खता और साइबर लफंगे या ट्रोल बस फ़र्ज़ी फोटोशॉप, और निम्नस्तरीय भाषा से सरकार को ही असहज करेंगे, बस आत्मनियंत्रित बने रहिये।
( विजय शंकर सिंह )
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