Saturday, 23 May 2020

ज़ीन्यूज़ क्या गैर जिम्मेदार पत्रकारिता का प्रतीक बन गया है ? / विजय शंकर सिंह

जी न्यूज का एक कार्यक्रम, जो नेपाल से जुड़ा है पर अचानक नज़र पड़ी और स्क्रीन पर  भारत और नेपाल के सेना तथा सैन्य शक्ति का तुलनात्मक अध्ययन दिखा। यह तुलना ही मूर्खतापूर्ण लगी और है भी। नेपाल आकार और जनसंख्या में एक छोटा मुल्क है और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार वह भारत का एक भूभाग ही लगता है। भारत और नेपाल की सीमा भी खुली हुयी है और दोनो देशों के बीच मुक्त आवागमन है। भाषा नेपाली ज़रूर है पर देवनागरी लिपि होने के नाते वह आसानी से पढ़ कर समझी जा सकती है। बोलने में भी वह हिंदी की बोलियों मैथिली आदि से बहुत मिलती जुलती है। नेपाल और भारत के बीच राजनैतिक रिश्ते चाहे जो रहे हों पर एक मजबूत सांस्कृतिक संबंध रहा है। दोनों का साझा इतिहास तो रहा ही है। 

बनारस में जब मैं बीएचयू में पढ़ता था तो बहुत से नेपाली मित्र मेरे साथ थे और उनसे मेरा बेहद आत्मीय संबंध भी था। उसी में एक प्रदीप गिरी हैं जो फिलहाल नेपाल में सांसद हैं। प्रदीप जी मुझसे सीनियर थे और वे नेपाल में नेपाली कांग्रेस जिसके नेता बीपी कोइराला थे के साथ थे और भारत मे ही उस समय सारनाथ में कोइराला परिवार रहता था। वे उस समय नेपाली कांग्रेस के भूमिगत आंदोलन में शामिल थे। प्रदीप जी राजा राममोहन राय हॉस्टल मे थे। वहीं मैं भी था। प्रदीप जी के ही साथ कोइराला जी के यहां जाने का बहुत अवसर मिला। प्रदीप  गिरी ही वह व्यक्ति हैं जिन्होंने मेरे अंदर पढ़ने की लगन लगाई। मेरे उनके संबंध बहुत घनिष्ठ थे, और उनसे राजनीतिशास्त्र, दर्शन, मार्क्सवाद, लोहिया साहित्य, आदि विषयों पर बहुत कुछ सीखने और पढ़ने को मिला। प्रदीप जी अपने प्रवास के समय बनारस में मेरे घर मे भी एक साल रह चुके हैं । 

जब मेरा पुलिस सेवा ( पीपीएस ) में सेलेक्शन हो गया, तब वे भी बनारस से दिल्ली चले गए और लम्बे समय तक उनका मुझसे संपर्क नहीं रहा। कारण नौकरी की व्यस्तता थी और आज जैसे सुगम संचार के साधनों का अभाव भी था। पर कुछ कॉमन मित्रो के माध्यम से, वे मेरी खैर खबर लेते रहते थे। लेकिन बात नहीं हो पाती थी। प्रदीप जी के नाम का मैंने इसलिए उल्लेख किया कि, उनके कारण नेपाल के कई छात्र जो वहां के मज़बूत राजनीतिक घरानो से थे से मेरी अच्छी खासी दोस्ती हो गयी थी। उस दौरान काठमांडू जाने का भी अवसर मिला था। वैसे तो नेपाल के मेरे एक मित्र हरेकृष्ण शाह,  यूपी कॉलेज के दिनों से ही, साथ पढ़ रहे थे जो कुछ साल पहले, भैरहवा डिग्री कॉलेज, नेपाल में प्रिंसीपल हो गए थे। अब उनसे भी संबंध नहीं रहा। 

बनारस, नेपाली समाज का प्रिय ठिकाना था। पढ़ाई का केंद्र तो था ही धार्मिक और बाबा विश्वनाथ का शहर होने के कारण पशुपतिनाथ के शहर के नेपाली समाज का लगाव भी था। वहां की राजनीति भी भारतीय राजनीतिक दल और विचारधारा से बहुत प्रभावित रही है। वहां के सभी बड़े नेता बनारस से जुड़े रहे हैं चाहे वे कोइराला परिवार के हों या तुलसी गिरी के परिवार के या कम्युनिस्ट प्रचंड या भट्टराई जी हों। डॉ लोहिया और जयप्रकाश नारायण, दोनो अग्रणी समाजवादी नेता नेपाल के राणाशाही के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय और अगुआ थे। नेपाल में राणाशाही खत्म हुई, फिर राजपरिवार आया जिन्हें श्री पांच को सरकार कहा जाता था। एक दुःखद घटनाक्रम में राजपरिवार की हत्या हो जाती है और कुछ सालों तक अस्थिर रहने के बाद नेपाल में लोकतंत्र बहाल होता है। वहां का संविधान बदलता है। संविधान में राजतंत्र खत्म हो जाता है और हिंदू राष्ट्र के बजाय एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का जन्म होता है। इस समय वहां कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है। 

चीन की नज़र नेपाल पर लंबे समय से रही है। चीन मूलतः एक विस्तारवादी मनोवृत्ति का देश है। चीन की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास भी हमारी सभ्यता संस्कृति और इतिहास से कम पुराना और समृद्ध नहीं है। लेकिन 1948 में लाल क्रांति के बाद चीन की नज़र तिब्बत पर पड़ी और तिब्बत को उसने अपने कब्जे में ले लिया। चीन और तिब्बत की सभ्यता संस्कृति भाषा इतिहास बिल्कुल अलग अलग है। यहां तक कि बौद्ध धर्म का स्वरूप भी अलग अलग है। लेकिन तिब्बत, एक सोया हुआ आध्यात्मिक देश बदलती हुयी दुनिया के साथ कदमताल न कर सका और चीन की आक्रामक और विस्तारवादी नीति का पहला शिकार हो गया। 

दलाई लामा वहां से रातोंरात निकल कर तवांग के रास्ते भारत 31 मार्च 1959 को मैकमोहन रेखा पार करके पहुंचे और उन्हें राजनीतिक शरण दी गयी। अपनी आत्मकथा में दलाई लामा ने इस विस्थापन का बेहद रोचक विवरण दिया है। आज भी स्वतंत्र तिब्बत की एक सरकार धर्मशाला हिमाचल प्रदेश में है जो आज़ाद तिब्बत का स्वप्न देख रही है। पर यह मिशन अब लगभग असंभव है। दलाई लामा को भारत मे शरण देने का कदम चीन के 1962 में हुए हमले की भूमिका बनी। जवाहरलाल नेहरू की तिब्बत नीति सदैव आलोचना के केंद्र में रही है। डॉ राममनोहर लोहिया, नेहरू की तिब्बत नीति के बड़े प्रखर आलोचक थे। कैलास मानसरोवर तक भारत की सीमा वह मानते थे और चीन से यह दोनों स्थल वापस लेने के वे प्रबल पक्षधर थे। वे तिब्बत पर चीन की नीति के भी प्रबल आलोचक थे। 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण किया गया। हमारी पराजय हुयी। सैन्य नीतियां जो, हमारी प्राथमिकता में तब नहीं थीं वे अचानक, इस पराजय के बाद, हमारी प्राथमिकता में आ गईं। यह सोते से जागना सरीखा था। इसीलिए 1965 मे जब पाकिस्तान ने हमला किया और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब ने यह कहा कि वे अमृतसर में लंच और दिल्ली मे डिनर करेंगे तो लाल बहादुर शास्त्री ने इसी पर 1965 की विजय के बाद यह कहा कि अयूब साहब के अमृतसर में लंच करने की बात सुनकर हमने सोचा कि क्यों न लाहौर में ही उनके साथ नाश्ता कर लिया जाय। पाकिस्तान, 1965 में पराजित हुआ। लाहौर की सीमा तक हमारी फौजें पहुंच गयी थी। पर 1966 की जनवरी में ताशकंद में भारत पाक शांति वार्ता के बाद, रात में ही प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की अचानक दुःखद मृत्यु हो गयी। यह बेहद आघात का काल था। 

चीन के साथ 1967 मे सिक्किम के पास नाथूला में एक छोटी जंग भी हुयी। यह जंग 1962 की तरह नहीं थी। चीन को यह अंदाजा लग गया था, कि भारत 1962 से कहीं बहुत आगे जा चुका है। चीन और पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अच्छे नहीं है। पाकिस्तान के साथ तो 1947 से ही संबंध बुरे हैं। चार चार जंगे हो चुकीं हैं और पाकिस्तान का कश्मीर में आतंकियों को खुला समर्थन भी है। 1971 में पाकिस्तान के साथ एक बड़ा युद्ध हुआ जिसमें पाकिस्तान दो हिस्सों में भौगोलिक, भाषाई और सांस्कृतिक रूप से अपने जन्म से ही मात्र धर्म के आधार पर जुड़े होने के बावजूद अलग अलग हो गया। हालांकि अलग होने की कसमसाहट तो पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश को पचास के दशक से ही भाषा के प्रश्न पर होने लगी थी। बांग्ला एक समृद्ध भाषा है। भाषा की अस्मिता, धर्म पर भारी पड़ने लगी और दोनो ही पाकिस्तान के बीच वैमनस्य पनपने लगा था।  अवामी लीग द्वारा पाकिस्तान की संसद में 1970 मे बहुमत पा जाने के बाद पश्चिमी और पूर्वी  पाकिस्तान में, यह मतभेद खुल कर सामने आ गया। 1971 का समय भारतीय कूटनीति और सैन्य शक्ति का अब तक का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अब भी सामान्य नहीं है। एक गंभीर अविश्वास दोनो तरफ व्याप्त है जिसके कारण सम्बन्धो के सामान्य होने की कोशिश भी अक्सर विफल हो जाती है। अब भी यही स्थिति है। 

नेपाल से इधर जो खटास आयी है वह लिपुलेख के पास एक सड़क को लेकर है। कैलास मानसरोवर, पड़ता तो भौगोलिक रूप से चीन में है पर शिव का स्थान होने के कारण वह भारत के लिये एक महत्वपूर्ण सनातन धर्म का तीर्थ भी है। चीन का कैलास से कोई भी इस तरह का  विरासत वाला नाता नहीं है। वहां जाने का एक रास्ता धारचूला होकर है और एक नेपाल होकर भी है। रास्ता कठिन और दुर्गम है। यात्रा पूरी तरह राज्य नियंत्रित होती है। इसी यात्रा मार्ग को और सुगम बनाने के लिये वहां भारत की सीमा तक भारत ने अपनी सड़क बनाई। इसी पर नेपाल ने आपत्ति की और अंग्रेजों के जमाने से सुगौली की संधि का उल्लेख करते हुए उक्त क्षेत्र को अपना बताया और एक नक़्शा भी अधिकृत रूप से जारी कर दिया।  निश्चित रूप से इस हस्तक्षेप और विवाद के पीछे चीन का हांथ है। इसका कोई  प्रत्यक्ष प्रमाण न भी हो, तो भी यह एक पुष्ट अनुमान है। राजनीतिक वैचारिक रूप से नेपाल भले ही चीन के निकट हो पर भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से वह भारत के कही अधिक निकट है, और बराबर रहेगा । यह मतभेद बहुत बड़ा नहीं है, दोनो देश इसे आमने सामने वार्ता से हल न कर सकें। हो सकता है कूटनीतिक प्रयास इसे हल करने के लिये शुरू भी हो गए हों। दोनो ही देश, भारत और नेपाल इसे आपसी बात कर के कूटनीतिक रूप से हल कर सकने में सक्षम हैं और यह हल हो भी जाएगा। 

लेकिन इधर मीडिया में विशेषकर, जी न्यूज और रिपब्लिक टीवी में कुछ कार्यक्रम ऐसे हो रहे हैं जिनसे बात का बतंगड़ बन सकता है और बन भी रहा है। मीडिया से कूटनीति तय नहीं होती है लेकिन मीडिया जनता का माइंडसेट ज़रूर तय करता है। जब जनता का माइंडसेट किसी विशेष आग्रह से तय हो जाता है तो सरकार भी कूटनीतिक मामलो में बहुत स्पेस नहीं ले पाती है और चीजें सुलझने के बजाय उलझती चली जाती है। पाकिस्तान के साथ हमारी मीडिया का आक्रामक रवैया भारत पाल तनाव शैथिल्यता में एक बड़ी बाधा है। ऐसे दुष्प्रचारों से, ट्रैक टू डिप्लोमेसी भी प्रभावित होने लगती है। आज पाकिस्तान से संबंध में सामान्य संबंधों की बात कहना भारत और पाकिस्तान दोनो ही देशों में एक गुनाह ए अज़ीम बनता जा रहा है। पाकिस्तान के साथ हमारे विवादित, कटु और युयुत्सु सम्बन्धो का एक लंबा इतिहास रहा है अतः मीडिया का यह रूप हमें बहुत अखरता भी नही है। फिर पाकिस्तान के प्रति मीडिया का यह रुख, सत्तारूढ़ दल के हिंदू मुस्लिम एजेंडे को भी संतुष्ट करता है जो उसे स्वदेश में एक खास समर्थक वर्ग देता है। 

लेकिन नेपाल के साथ मीडिया अगर यह स्टैंड लेता है तो इससे नेपाल का कोई नुकसान होगा या नहीं यह तो नेपाल ही बेहतर जान पायेगा, पर भारत की स्थिति अनावश्यक रूप से असहज होगी। चीन यह विवाद बढ़े, ऐसा चाहता है। चीन की विस्तारवादी नीति के एजेंडे में यह बिंदु है कि वह भारत को अलगथलग कर दे। वह इसी दीर्घकालिक योजना पर काम भी कर रहा है। पाकिस्तान तो उसके एक उपनिवेश जैसा ही होता जा रहा है। यह प्रक्रिया ओबीओआर परियोजना और बलोचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह के विकास  के साथ चीन के अरब सागर से सीधे जुड़ जाने के बाद से और भी बढ़ गयी है। श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह पर, उसका नेवल बेस बन गया है। मालदीव पर भी उसकी नज़र है। बांग्लादेश को भी दो पनडुब्बी देकर उसने, उधर भी चारा डाल दिया है। डोकलम का मामला भूटान में है ही। अरुणांचल पर भी यदाकदा आपत्ति उठाता रहता है। क्या इतने कूटनीतिक मोर्चे कम हैं कि एक और मोर्चा खोला जाय ? औऱ वह भी एक ऐसे देश के साथ जो हमारा न जाने कब से सहयोगी रहा है। 

नेपाल के मामले पर मीडिया को संयत रहना चाहिए। पाकिस्तान ब्रांड तमाशे इस स्थिति को और भी उलझायेंगे। जब यहां के टीवी चैनल में नेपाल को धमकी और धौंसपट्टी की बातें दिखाई जाएगी तो इसकी प्रतिक्रिया नेपाली मीडिया में होगी और इसे चीन और उकसाएगा। वहां की जनता में भी भारत द्वेषी भावनाएं पनपेगी। क्या पता भारत मे छोटी मोटी नौकरी कर रहे नेपाली लोग पढ़ने वाले नेपाली छात्र भी मीडिया के दुष्प्रचार के शिकार हो जांय। चीन का लाभ न नेपाल से है और न ही लिपुलेख की बन रही सड़क से उसे कोई हानि है।  लेकिन भारत नेपाल सम्बन्धो को तनावपूर्ण बना कर वह दक्षिण एशिया में ज़रूर एक अस्थिरता पैदा करना चाहेगा और दुनिया मे, हमे एक इलाकाई दादा के रूप में स्थापित करना चाहेगा जिससे वह यह कह सके कि, हमारे संबंध सभी पड़ोसियों से सामान्य नहीं है। सार्क एक दक्षिण एशिया का आपसी सहयोगात्मक  समूह अभी भी ज़िंदा है। पर भारत इस समूह में, अपने आकार, आबादी और आर्थिक शक्ति के कारण, सबसे बड़ा या एक बडे भाई के रूप में है। ऐसे क्षेत्रीय समूह जिसमे कोई घोषित महाशक्ति नेतृत्व में न हो, अमेरिका या अब चीन को भी रास नहीं आते हैं। क्योंकि इससे उनका शक्ति संतुलन प्रभावित होता है। काठमांडू में सार्क का मुख्यालय भी है। किसी भी ऐसे समूह का नेतृत्व करने के लिये एक स्टेट्समैन सरीखे नेतृत्व की ज़रूरत पड़ती है, जिसका फिलहाल सार्क देशों में अभाव है। 

2015 में जब नेपाल में भूकम्प आया था तो भारत ने दिल खोल कर मदद की थी। लेकिन मीडिया के गैरजिम्मेदाराना रवैये से वहां के लोगों का आत्मसम्मान बहुत आहत हुआ। काठमांडू में इंडियन मीडिया गो बैक का नारा लगा। वह पहली स्थिति आयी जब काठमांडू ने भारतीय मीडिया का खुल कर विरोध किया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में, नेपाल के साथ सम्बंध बहुत बिगड़ गए थे। आवाजाही बंद हो गयी थी। वह एक असामान्य दौर था। नेपाल ने इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी। तभी उसका झुकाव चीन की तरफ हुआ और अब तो नेपाल की राजनीतिक वैचारिकी भी कम्युनिस्ट है तो यह झुकाव स्वाभाविक ही है। बेहद विपरीत परिस्थितियों में ही किसी भी देश की कूटनीतिक क्षमता और योग्यता का पता चलता है। नेपाल के इस मसले पर हमारे  कूटनीतिक प्रयास हो रहे होंगे। पर मीडिया को इस संबंध में गैरजिम्मेदाराना रुख नहीं दिखाना चाहिए। वैसे भी अनेक बार बगदादी को मार कर, पाकिस्तान के बाजार भाव और दुर्दशा दिखा कर, अपनी गैरजिम्मेदारी भरी पत्रकारिता का वह परिचय दे चुका है और अब भी देता रहता है। 

( विजय शंकर सिंह )

No comments:

Post a Comment