Thursday, 28 May 2020

28 मई, आज सावरकर का जन्मदिन है / विजय शंकर सिंह

सावरकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के एक योद्धा और नायक रहे हैं और अपनी युवावस्था में उन्होंने आज़ादी के लिये संघर्ष हेतु युवाओं को प्रेरित भी किया है।  वे जेल गए। अंडमान में घातक यातनाएं सहीं। फिर टूट गए। सबकी सहन शक्ति अलग अलग होती है। वे वह यातनाएं सहन नहीं कर पाए और ब्रिटिश हुकूमत से माफी मांग कर जेल से बाहर आये और सरकार को दिए गए अपने वादे के अनुरूप किसी भी ब्रिटिश विरोधी संघर्ष में शामिल नहीं हुए और भारत के आज़ाद होने तक, अंग्रेजों के खैरख्वाह बने रहे। 

उनका एक पक्ष प्रखर और तेजस्वी देशभक्ति का है जो 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम, ताल ठोक कर कहता है, लन्दन में अंग्रेजी राज को पलटने की योजनाएं बनाता है, समुद्री रास्ते से ले जाते समय जहाज से कूद कर भाग जाता है, और बाद में ब्रिटिश हुक़ूमत की सबसे हौलनाक जेल में तन्हाई में डाल दिया जाता है। यह सब रूमानी एडवेंचर की तरह हमे लगता है। हम इस पर फिदा होते हैं। हमे सावरकर के इस रूप की सराहना करनी चाहिए। 

दूसरा रूप उनका, अंग्रेजी कृपा से अंडमान की कारागार से मुक्त होने के बाद वे धर्म की राजनीति की ओर बढ़े। धर्म की ओर नहीं, न न, धर्म की राजनीति की ओर। अंग्रेज़, 1857 के विप्लव से एक सबक सीख चुके थे, कि भारत मे साम्प्रदायिक विद्वेष का पोषण  ही उनके हुक़ूमत की राह आसान कर सकता है और उनकी हर संभव यही  कोशिश रही कि, देश मे हिंदू और मुसलमानों के बीच कभी एका न रहे। 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की 1885 में स्थापना के बाद, 30 दिसंबर 1906 को मुस्लिम लीग और 1915 को हिन्दू महासभा की स्थापना होती है। अंडमान जेल से राजकृपा के बाद मुक्त होने पर, लंबी चुप्पी के बाद,  सावरकर 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष चुने जाते हैं। तभी यह सिद्धांत वे प्रतिपादित करते हैं कि हिंदू एक राष्ट्र है औऱ इसी की प्रतिक्रिया में एमए जिन्ना साहब भी यही एक लाइन पकड़ लेते हैं कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही अलग अलग कौमें हैं अतः मुस्लिमों के लिये एक अलग राष्ट्र की मांग आगे चल कर मुस्लिम लीग की मुख्य मांग बन जाती है। 

1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाता है। देश की सभी राज्य सरकारें जो कांग्रेस की थीं, वे इस मुद्दे पर इस्तीफा दे देती हैं कि, उनसे ब्रिटेन ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत को शामिल करने के पहले सहमति तक नहीं ली थी। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के लोग मिल कर सरकार में एक साथ रहते हैं, क्योंकि मुस्लिम लीग ने इस बिंदु पर अंग्रेजों का साथ दिया था। जो सावरकर, अंग्रेजों के खिलाफ कभी लड़े थे, बाद में प्रखर हिंदू राष्ट्र की बात करने लगते हैं, वही बाद में अंग्रेजों के बगलगीर और जिन्ना के हमराह हो जाते हैं। 

1942 में 8 अगस्त को बम्बई में गांधी जी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा, गांधी जी के प्रसिद्ध भाषण करो या मरो, के उद्घोष के साथ होती है औऱ 9 अगस्त की सुबह तक कांग्रेस के सभी बडे नेता ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जेल में डाल दिये जाते हैं। एक व्यापक जन आंदोलन छिड़ जाता है। जो अहिंसक नहीं रह पाता है। खूब तोड़ फोड़ होती है। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े डॉ राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली और अन्य नेता इस आंदोलन को भूमिगत होकर नेतृत्व देते हैं। पर यह आंदोलन किसी भी नेता के बस में रहा ही नहीं।

आज़ादी के लिये जब गांव गांव लोग आंदोलित थे तो, हिंदू महासभा के नेता और सावरकर के सहयोगी, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल की सरकार में मुस्लिम लीग के साथ मंत्री थे। वे सन 42 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल लोगो के दमन की तरकीबें अंग्रेजों को सुझा रहे थे। उधर जिन्ना और सावरकर, धर्म ही राष्ट्र है के सिद्धांत का भाष्य लिखने में लगे थे। साल, 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होता है, ब्रिटिश साम्राज्य, कमज़ोर पड़ने लगता है और अंग्रेजों को लगता है अब अधिक दिन भारत पर शासन करना संभव नहीं है। जिन्ना धर्म के आधार पाकिस्तान पा जाते है। देश का बंटवारा होता है और हम आजाद होते हैं। 

जिन्ना अपना लक्ष्य कि वे एक मुस्लिम राष्ट्र चाहते हैं, पा लेते हैं। भारत उस बंटवारे में एक धर्मनिरपेक्ष स्वरूप चाहता है और एक नए स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य का जन्म होता है। हिंदू महा सभा का प्रभाव हिन्दू समाज पर तब भी बहुत कम था। अधिसंख्य जनता,  गांधी, नेहरू, पटेल, आदि के साथ थे। लक्ष्य प्राप्ति न होने से, सावरकर कुंठित हो जाते हैं। 

हिंदू महासभा और आरएसएस के निशाने पर गांधी आते हैं। गांधी के माथे भारत के बंटवारे और धर्म के नाम पर हिंदू राष्ट्र न बनने का दोष डाला जाता है, औऱ उनकी हत्या का षडयंत्र रचा जाता है। 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या नाथूराम गोडसे द्वारा कर दी जाती है। षडयंत्र में सावरकर भी मुल्जिम बनते हैं। जेल जाते हैं। पर अदालत से सुबूत के अभाव वे छूट जाते हैं। फिर वे,  नेपथ्य में चले जाते हैं। 1966 में उनकी मृत्य हो जाती है। 

जिन्ना और सावरकर, दोनो ही अपने अपने धर्मो के लिये धर्मांधता भरी भूमिका में शिखर पर तो थे, पर दोनो ही, अपने अपने धर्मो के प्रति बिल्कुल ही धार्मिक नहीं थे। जिन्ना तो न नमाज़ पढ़ना जानते थे और न ही रोजे रखते थे। वे पाश्चात्य परंपरा में पले बढ़े, पढ़े लिखे एक मेधावी वकील थे, और उन्होंने पाकिस्तान भी किसी संघर्ष से नहीं बल्कि 'एक अदद टाइप राइटर और एक स्टेनोग्राफर' के बल पर पाया था। यह बात एमए जिन्ना साहब खुद कह गए हैं। 

सावरकर भी जन्मना हिंदू तो थे ही पर धर्म के कर्मकांड में उनकी कोई विशेष रुचि नहीं थी। वे वैज्ञानिक सोच के थे औऱ धर्म के पाखंडी स्वरूप के खिलाफ भी रहते थे। यह भी एक विडम्बना ही है जिन्ना और सावरकर दोनो ही अपने अपने धर्मों के प्रति आस्थावान न होते हुए भी उनकी राजनीतिक सोच क्यों धर्म केंद्रित और धर्मांधता से भरी रही। यहां धर्म राज्य पाने के एक कारण के रूप में सामने आता है। जिन्ना साहब का 11 अगस्त 1947 का भाषण पढिये। जिन्ना कहते हैं, 
" आप स्वतंत्र हैं. आप स्वतंत्र हैं अपने मंदिरों में जाने के लिए. आप स्वतंत्र हैं अपनी मस्जिदों में जाने के लिए और पाकिस्तान राज्य में अपनी किसी भी इबादतगाह में जाने के लिए. आपके संबंध किसी भी धर्म, जाति या नस्ल से हों, राज्य को इससे कोई लेना देना नहीं है। " 
 
जिन्ना जो बात कह रहे हैं उसपर यह सवाल उठ सकता है कि, जिन्ना साहब जब यही कहना था तो अलग मुल्क आपने क्यों मांगा ? जिन्ना जो कह रहे हैं वही तो एक धर्मनिरपेक्ष राज्य भी कहता है । जिन्ना और सावरकर दोनो ही ने धर्मांधता का चोला बाद में अंगेज़ों के बगलगीर होने के बाद ओढ़ा। याद रखिए, धर्म का राजनीति ने सदैव दुरुपयोग किया है। धर्म तो राजनीति को शुचिपूर्ण नहीं रख पाया पर राजनीति ने सदैव ही धर्म को प्रदूषित और विवादास्पद बनाया है। यह कल भी हुआ था और अब भी हो रहा है। 

अब नेताजी सुभाष बाबू ने सावरकर और एमए जिन्ना की धर्म आधारित राज्य की नीति यानी द्विराष्ट्रवाद के बारे में जो कहा है उसे भी पढ़ लीजिये। यह अंश Vijay Shukla की टाइमलाइन से लिया है मैंने, 

"मैं श्री जिन्ना और श्री सावरकर को अंग्रेजों वाली जोड़तोड़ की रणनीति को छोड़ने की विनती करता हूं, क्योंकि आज अंग्रेज हैं, लेकिन कल नहीं होंगे। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले प्रत्येक व्यक्ति, संगठन, समूह को आजाद भारत में कल सम्मानित किया जाएगा। ब्रितानी जाति की भूमिका निभाने वालों को कल भारत में जगह नहीं मिलेगी।" 
( आज़ाद हिंद: लेखन और भाषण, 1941-1943)

सावरकर के जीवन को दो भागों में बांट कर देखना चाहिए। एक अंडमान पूर्व और दूसरा अंडमान बाद। उन्हें वीर क्यों और कब कहा गया यह भी एक रोचक किस्सा है जो फिर कभी। तमाम विरोधाभासो के बाद सावरकर ने देश की आज़ादी के लिये जो कुछ भी किया है उसे याद किया जाना चाहिए। इतिहास बड़ा ही निर्मम होता है और जब सटीक स्रोतों के आधार पर उसका अध्ययन किया जाता है तो बहुत से रोचक विरोधाभास मिलते हैं। दिक्कत तब होती है जब हम कल्पना और मिथ्या उदाहरणों पर किसी के कद को और बड़ा कर दिखाने लगते हैं, जिसे अंग्रेजी में लार्जर दैन लाइफ कहते हैं । जब ऐसा किसी भी उद्देश्य से किया जाएगा तो सच की तलाश होगी ही और बहस भी उठेगी। वाद, प्रतिवाद भी होंगे। अतः जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार किया जाना चाहिए। 

सावरकर की आज़ादी में जो कुछ भी योगदान रहा है, उसकी इंदिरा गांधी सरकार ने सराहना करते हुए उनक़ी स्मृति में डाक टिकट जारी किया, जबकि सावरकर जीवन भर कांग्रेस की विचारधारा के खिलाफ थे। आज 28 मई, वीडी सावरकर के जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण। 

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 27 May 2020

सुप्रीम कोर्ट में प्रवासी मज़दूरों की व्यथा / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रवासी कामगारो की समस्या पर अचानक संज्ञान लेने की पृष्ठभूमि का अब पता लग गया है। 16 मई को मज़दूरों की व्यथा के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के बाद, एक  आवेदन रद्द कर दिया था और सॉलिसिटर जनरल की यह बात मान ली थी, कि सरकार सभी प्रवासी मज़दूरों का खयाल रख रही है और ज़रूरी इंतज़ाम कर रही है। सड़क पर कोई मज़दूर नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि " वह किसी को सड़क पर चलने से कैसे रोक सकती है और कोई भी अखबारों में कुछ पढ़ कर एक आवेदन लेकर आ जाय तो वह क्या करेगी ? " 

लेकिन 26 मई को अचानक एक अच्छी खबर मिली कि सुप्रीम कोर्ट ने मज़दूरों की व्यथा पर स्वतः संज्ञान ले लिया। इस अचानक हृदय परिवर्तन का कारण क्या है, जबकि, मज़दूरों की व्यथा कथा मीडिया और अखबारों मे निरंतर छप रही है।  मज़दूरों की इस दारुण व्यथा और दिल दहला देने वाली घटनाये तो,  पिछले डेढ़ माह से जारी है और सुप्रीम कोर्ट के जज  साहबान भी मीडिया और अखबारों में छप रही और दिखायी जा रही उनकी उक्त व्यथा से अनभिज्ञ नहीं ही होंगे। लेकिन अचानक मंगलवार 26 मई को ही स्वतः संज्ञान लेने की क्या ज़रूरत कोर्ट को आ गयी। यह तंद्रा टूटी कैसे ? 

यह तंद्रा टूटी सुप्रीम कोर्ट के ही कुछ वरिष्ठ वकीलों के एक पत्र से, जिसे सोमवार को यानी 25 मई को सुप्रीम कोर्ट को लिखा गया था। पत्र के कुछ अंश इस प्रकार हैं। 

" सुप्रीम कोर्ट, मार्च के महीने में प्रवासी कामगारो के साथ किये जा रहे सरकार के कुछ फैसलों की सावधानी पूर्वक समीक्षा करने में विफल रहा है जिससे, इन प्रवासी मज़दूरों को, बिना रोजगार और मजदूरी के बेहद अस्वास्थ्यकर स्थानों पर, कोविड संक्रमण का बड़ा खतरा झेलते हुए रहना पड़ रहा है। प्रवासी मज़दूरों का मामला कोई नीतिगत मामला नहीं है। यह एक संवैधानिक बिंदु भी उठाता है। इस अदालत को संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत न्याय करने के लिये असीमित शक्तियां प्राप्त हैं। जिस प्रकार की बेबसी का प्रदर्शन सुप्रीम कोर्ट ने किया है, वह सुप्रीम कोर्ट के ध्येय वाक्य यतो धर्मस ततो जयः के सर्वथा विपरीत है।" 

पत्र लिखने वाले सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट हैं, पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल, प्रशांत भूषण, इंदिरा जयसिंह, विकास सिंह, इकबाल चावला, नवरोज़ सीरवाई, आनन्द ग्रोवर, मोहन कतर्की, सिद्धार्थ लूथरा, महालक्ष्मी पावनी, सीयू सिंह, असपी चिनॉय, मिहिर देसाई, जनक द्वारकादास, रजनी अय्यर, यूसुफ मूछला, राजीव पाटिल, गायत्री सिंह, संजय सिंघवी। 

अखबार के अनुसार, यह पत्र सोमवार को देर शाम सुप्रीम कोर्ट में प्राप्त हुआ, और तालाबंदी के दौरान, मज़दूरों की व्यथा और समस्याओं पर  स्वतः संज्ञान लेने का निर्णय सुप्रीम ने मंगलवार को ले लिया। इसी दिन मज़दूरों को खाना पानी और आश्रय, परिवहन आदि उपलब्ध कराने के निर्देश का भी निर्णय किया गया। अब यह मुकदमा, आज यानी 28 मई को सुना जाएगा। 

वकीलों ने उस पत्र में सुप्रीम कोर्ट के उस वाक्य को उद्धृत किया था, जिसमे कोर्ट ने, सॉलिसिटर जनरल के इस रिमार्क कि,  " कोई भी प्रवासी व्यक्ति, अपने घर या गांव पहुंचने के लिए सड़कों पर नहीं है। " पर संतोष जाहिर किया था। यहां तक कि जो सरकार ने नहीं कहा था वह भी सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि, " प्रवासियों का यह पलायन, फ़र्ज़ी खबरों द्वारा फैलायी गयी सनसनी के कारण है। " पर अदालत ने यह बिल्कुल नहीं कहा कि " वे खबरें फैलाने वाले कौन थे और ऐसी सनसनी या पैनिक फैलाने वालों के खिलाफ सरकार ने कोई कार्यवाही क्यों नहीं किया। " यह एक स्वाभाविक सवाल उठता है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने नहीं पूछा। 
 
आज सुप्रीम कोर्ट में प्रवासी मज़दूरों की व्यथा पर, अदालत द्वारा स्वतः संज्ञान लिए गए मुक़दमे की तारीख है। 26 मई को, इस मामले में स्वतः संज्ञान लेने के बाद, अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को इन प्रवासी मज़दूरों के लिये, उन्होंने क्या प्रबंध किये हैं, का विवरण देने को कहा है। देखना है आज सरकारें, अदालत में अपना क्या पक्ष रखती हैं।  

अदालतों को महात्मा गांधी की यह बात याद रखनी चाहिये कि, 
" न्यायिक अदालतों से भी ऊपर, एक और अदालत होती है, जो अंतरात्मा की अदालत है, और यह अदालत, सभी अदालतों के निर्णयों को पलट सकती है। "

स्टेशन पर एक लेटी हुयी महिला, जो वास्तव में मर चुकी है, और उसके बगल मे खेलती हुयी एक बच्ची, जिसे मृत्यु होती क्या है, यह तक पता नहीं है, वह अपने माँ की चादर खींच खींच कर खेल रही है, का एक वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत ही वायरल हुआ। यह वीडियो और इसकी तस्वीर,  किसी भी कठोर से कठोर दिल  व्यक्ति को हिलाकर रख देगी। गरीबो के पलायन जन्य मौतों से जुड़ी कई तस्वीरे जो सामने आ रही हैं, दिल दहला दे रही हैं। 

ट्रेनें, 2 दिन का सफर 9 दिन में पूरा कर रही हैं। एक लड़की अपने बीमार पिता को 7 दिन में साइकिल चला कर गुरुग्राम से बिहार पहुंच जाती है। सरकार के समर्थक इस बेहद मज़बूरी और घोर कष्ट में की गयी इस सफर में, ज्योति  में, स्पोर्ट्स की प्रतिभा ढूंढ रहे हैं। बेहद मजबूरी में किये गए इस आश्चर्यजनक प्रयास की वाहवाही कह रहे हैं। स्पोर्ट्स की प्रतिभा ज्योति में ढूंढी जानी चाहिए। उसके हौसले को सलाम और उसकी सराहना भी की जानी चाहिए।  

लेकिन क्या सत्ता से जुड़े इन महानुभावों द्वारा, इस घोर त्रासद पलायन के कारणों, पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिये, जिससे ज्योति को इस गर्म मौसम में, यह अपार कष्ट उठाने की मजबूरी झेलनी पड़ी हो ? इस उत्साहवर्धन के साथ साथ उन सारे लोगों को, ज्योति से इस त्रासद कुप्रबंधन के लिये क्या क्षमा याचना नहीं करनी चाहिए ? 

लेकिन, हस्तिनापुर की बेड़िया ही ऐसी होती हैं कि अंधे राजा और अंधी सत्ता के सामने परम विद्वान, शास्त्र मर्मज्ञ और महा प्रतापी भी क्लीवता का प्रदर्शन करने लगते हैं। जब यह सब असहज करने वाली तस्वीरें और विवरण,  हमे बेहद आंदोलित औऱ उद्वेलित करने लगते है तो हम इसे नियति या कर्मो का भोग, कह कर के  चुप हो जाते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट को इस बाबत भी सरकार से जानकारी लेनी चाहिए कि, क्या पलायन जैसी दुरवस्था और यह सब घटनाएं और बातें, तलाबन्दी में न हों, लॉक डाउन का निर्णय लेते समय, सरकार द्वारा सोची गयीं थी या यह सब भी नोटबंदी जैसा धुप्पल में लिए गए निर्णय की ही तरह  बिना सोचे समझे ले लिया गया था। इस बात की पड़ताल होनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि, वह सरकार को एक विस्तृत दिशा निर्देश जारी करे, और उनके अनुपालन तथा मोनिटरिंग के लिये एक अधिकार सम्पन्न कमेटी का भी गठन हो, जो आवश्यक फीडबैक अदालत को भी दे। 

सरकार, इस पलायन की त्रासदी में भूख, थकान, दुर्घटना, और मौसम की मार से मरने वालों की सूची भी दे और उनके आश्रितों के लिये उचित मुआवजा भी दे। हम उम्मीद करते हैं सुप्रीम कोर्ट कोई न कोई ऐसा कदम ज़रूर उठाएगी जिससे इस त्रासदी में थोड़ी बहुत राहत इन प्रवासी मज़दूरों को ज़रूर मिल जाये । 

( विजय शंकर सिंह )

कोरोना आपदा,हमारा स्वास्थ्य ढांचा और तालाबंदी / विजय शंकर सिंह

30 जनवरी को जब केरल में पहला कोविड 19 का केस मिला था, तब बहुतों को इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था कि एक ऐसी आपदा ने दस्तक दे दिया है जो न सिर्फ लाइलाज है, बल्कि वह दुनिया के तमाम समीकरणों को बदल कर रख देने वाली है। यह वायरस जिसे कोरोना नॉवेल या कोविड 19 के नाम से जानते हैं, लाक्षणिक रूप से एक फ्लू औऱ जुखाम ही है पर यह तेजी से श्वसन तत्र को संक्रमित कर देता है, जिससे मृत्यु हो जाती है। इसकी कोई तयशुदा दवा नहीं है, और न ही बचाव के लिये कोई टीका अभी तक विकसित हो पाया है। चिकित्सा वैज्ञानिक निरन्तर इस पर शोध कर रहे हैं और उम्मीद है कि जल्दी ही कोई न कोई वैक्सीन या कारगर औषधि वे ढूंढ लेंगे। 

सरकार ने सम्भावित संक्रमण रोकने के लिये घरों में ही लोगो को अनिवार्य रूप से रखने, जिसे लॉक डाउन नाम दिया गया, की नीति अपनाई और, इसके साथ स्वच्छता की सलाह तथा हेल्थकेयर सुविधाएं बढ़ाने की ओर भी ध्यान दिया गया । केरल ने भी न केवल बाहर से आने वालों की सघन चेकिंग शुरू की बल्कि अस्पतालों को भी सन्नद्ध किया जिससे इलाज हो सके। केरल स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर के दृष्टिकोण से भारत मे प्रथम स्थान पर और शिक्षा तथा अन्य सामाजिक सुविधाओं के मामले में देश के अन्य राज्यों की तुलना में अधिक व्यवस्थित है तो, उसे इसका लाभ भी मिला। देश मे पहला केस होते हुए भी केरल में मृत्यु दर सबसे कम बनी हुयी है। 

इसके 52 दिन बाद, 24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रात आठ बजे, अपने संबोधन के सिर्फ़ चार घंटे बाद, यानी रात 12 बजे से पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी। लोगो को 8 नवम्बर, 2016 की रात 8 बजे की, उनकी घोषणा याद आ गयी जब उन्होंने नोटबंदी की घोषणा की थी और उसी के बाद देश की आर्थिक स्थिति में जो गिरावट आयी, वह अब कोरोना आपदा के कारण, और भी अधिक बिगड़ गयी है। 24 मार्च 2020 तक पूरे भारत में, कोरोना वायरस के कुल 564 केस पॉज़िटिव पाए गए थे और मौतों की संख्या 10 बताई गई थी। आज अकेले महाराष्ट्र में 50 हज़ार का आंकड़ा पार कर गया है। आज की नवीनतम सूचना के अनुसार, पूरे देश मे,1,31,868 मामले सामने आए हैं और तक 6767 लोगो की मृत्यु हो गयी है। लॉक डाउन के प्रथम दिन से अब चौथे चरण में अब तक मृत्यु दर में 2 % की वृद्धि हुयी है। 

कोरोना एक ऐसा संक्रामक रोग है जिससे निपटने में पूरी दुनिया की स्वास्थ्य सेवाएं जुटी हुयी हैं। चीन से निकल कर यूरोप और फिर अमेरिका तथा पूरी दुनिया मे अचानक फैल जाने वाले इस संक्रामक रोग ने दुनिया के विकसित देशों से लेकर पिछड़े देशों तक, सबको निगलने की कोशिश की है। दुनिया की सारी सीमाएं इस रोग ने तोड़ दीं है। स्पेन हो या इटली, अमरीका हो या ब्रिटेन, जापान हो या दक्षिण कोरिया, कनाडा हो या ब्राज़ील, हर देश में यह  वायरस अपना कहर बरपाता चला जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन,  डब्लूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पूरे विश्व मे, इस घातक वायरस से कुल 47 लाख लोग संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से तीन लाख से ज़्यादा की मृत्यु  हो चुकी हैं। इससे बचने के लिये निरोधात्मक उपायों के रूप में, कुछ देशों ने, टोटल लॉकडाउन तो, कुछ देशों ने, 'आंशिक लॉकडाउन' यानी अलग-अलग इलाक़ों और संक्रमण के ख़तरों के ज़्यादा या कम होने की घटनाओं के आधार पर इसे लागू किया। पर ऐसा नहीं है कि किसी देश को संक्रमण रोकने में पूरी सफलता मिली हो। ताइवान, वियतनाम जैसे कुछ छोटे छोटे देश ज़रूर इस आपदा से उतने पीड़ित नहीं हैं पर इसका कारण उनका आकार में कम और स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतर होना है। 

कोरोना को अगर एक युद्ध माना जाय, और जैसा इसे माना जा रहा है, तो यह जंग दो मोर्चे पर है। एक हेल्थकेयर औऱ दूसरे आर्थिक मोर्चे पर। युद्ध मे आर्थिक गति नहीं थमती है बल्कि कुछ क्षेत्रों में वह बढ़ ही जाती है, जबकि कोरोना आपदा ने देश को, दोनों ही मोर्चो पर,  संकट में डाल चुकी है। तालाबंदी या लॉक डाउन एक समय लेने का कार्यक्रम है और एक निरोधात्मक उपाय, न कि संक्रमण का कोई कारगर इलाज है। हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाएं विशेषकर सरकारी या पब्लिक हेल्थकेयर बहुत सुदृढ नहीं हैं। हम इस विषय पर टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस के सीनियर रिसर्च फेलो संजीव कुमार के एक रिसर्च पेपर से कुछ आंकड़े जो गुजरात मॉडल के हेल्थकेयर को केंद्र में रख कर तैयार किये गये है, प्रस्तुत करते हैं। 

स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में गुजरात की चर्चा इस लिए भी ज़रूरी है कि, इसी राज्य के विकास के मॉडल पर 2014 के चुनाव में भाजपा को अपार सफलता मिली थी और यह मॉडल देश के विकास मॉडल के अग्रदूत के रूप में समझा जाता है।  लेकिन विकास के इस मॉडल में जनता कहाँ है ? जनता के लिये स्कूल, अस्पताल और उनकी बेरोजगारी दूर करने के उपाय क्या हैं ? विकास के इस मोहक मॉडल के पीछे का सच क्या है ? यह जानना बहुत ज़रूरी है। सरकार की प्राथमिकता में, हेल्थकेयर कहीं है भी, जब इस सवाल का उत्तर ढूंढ़ा जाता है तो निराशा ही हांथ लगती है। स्वास्थ्य बीमा की कुछ लोकलुभावन नामो वाली योजनाओं को छोड़ दिया जाय तो अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और बड़े विशेषज्ञ अस्पतालों के लिये, धरातल पर सरकार ने पिछले सालों में कुछ किया भी नहीं है,, बस कुछ बीमा आधारित घोषणाओं को छोड़ कर।

अहमदाबाद शहर में इस रोग के भयानक प्रसार पर एक याचिका अहमदाबाद हाईकोर्ट में दायर हुयी और उस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने 
जो कहा, उसे भी एक उदाहरण के रूप में देखा जाना चाहिये। अदालत ने याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि, 
" राज्य सरकार केवल ऊपर ऊपर से इस आपदा को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है। अहमदाबाद के सिविल  अस्पताल जहां कोविड 19 के इलाज की बात की जा रही है, वहां की स्थिति एक काल कोठरी की तरह है, या उससे भी बदतर है। " 
वेंटीलेटर्स की कमी के कारण बढ़ती हुयी मृत्यु दर पर टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा कि,
" क्या राज्य सरकार को यह बात पता है कि, अस्पताल में जो कोविड 19 के कारण मृत्यु हो रही हैं उनका एक बड़ा कारण वेंटीलेटर्स का अभाव है ? 
सरकार इस समस्या से निपटने के लिए क्या कर रही है ? "
अदालत ने राज्य सरकारों को निर्देशित किया है कि वह नोटिफिकेशन जारी कर के यह आदेश दे कि,
" अहमदाबाद, और आसपास के सभी म्युनिसिपल, सिविल और कॉरपोरेट अस्पताल अपने 50 % बेड कोविड 19 के संक्रमितों के लिये सुरक्षित करें। " 
टेस्टिंग प्रोटोकॉल पर राज्य सरकार द्वारा कम टेस्टिंग किये जाने के विंदु पर, अदालत ने कहा कि, 
" कई मामलों में यह पता लगा है कि निजी लैब ने अनावश्यक रूप से कुछ अन्य टेस्ट किये हैं। राज्य सरकार इन निजी लैबोरेटरीज के लिये केवल एक गेट कीपर की भूमिका में है। सरकार को अपनी टेस्टिंग क्षमता को बढ़ाना चाहिए और टेस्ट, मुफ्त किये जाने चाहिए। जब तक सरकारी टेस्टिंग क्षमता उपलब्ध है तब तक निजी लैब्स द्वारा टेस्ट कराने के लिये मरीज़ों को बाध्य नहीं करना चाहिए। जब सरकारी लैब्स टेस्टिंग करने में अपनी क्षमता समाप्त कर लें, तभी निजी लैब्स की सहायता लेनी चाहिए। " 
गुजरात राज्य में, 19 सरकारी लैबोरेटरी हैं, जो कोविड मरीज़ों के लिये आरटी - पीसीआर टेस्ट करते हैं। अब तक 1,78,068 टेस्टिंग सैम्पल लिए गए हैं। 
अदालत ने कहा, 
" अगर यह भय है कि सबके टेस्ट किये जायेंगे तो 70 % लोग पॉजिटिव निकल आएंगे तो, केवल इस आशंका से भयग्रस्त होकर कम टेस्ट नही किये जाने चाहिए। राज्य सरकार सभी टेस्टिंग केंद्रों से निरंतर संपर्क में रहे, और जो भी संक्रमित मरीज पॉजिटिव पाए जांय, जहां तक सम्भव हो उन्हें उनके घरों में ही आइसोलेशन में रख दिया जाय, या क्वारन्टीन की सुविधा में रखा जाय। जब लक्षण हों तो उन्हें अस्पताल में भर्ती किया जाय। यह भी बताया गया है कि टेस्टिंग किट की कमी नहीं है, पर उनका उपयोग बिना राज्य सरकार के अनुमोदन  के नहीं किया जा सकता है। 

अहमदाबाद से अधिक चिंताजनक स्थिति मुंबई की है, पर याचिका अहमदाबाद में सुनी जा रही है तो इसका उल्लेख किया जा रहा है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं कि, अन्य शहरों या राज्यों में स्थिति बिल्कुल दुरुस्त है। बल्कि हर जगह स्थिति कमोबेश एक ही जैसी है। गुजरात एक आदर्श विकसित राज्य माना जाता है तो उसका उल्लेख मैं कर रहा हूँ। पूरे देश मे पब्लिक हेल्थकेयर प्राथमिकता में बहुत नीचे है, और इसका  कारण निजीकरण के दौर में हमने पब्लिक हेल्थकेयर को अपनी प्राथमिकता में कभी रखा ही नहीं है। देश मे हेल्थकेयर एक उपेक्षित क्षेत्र है और किसी भी सरकार ने पब्लिक हेल्थकेयर जिसे हम सरकारी अस्पताल की सुविधा कहते हैं, की तरफ उतना ध्यान नहीं दिया जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था। 

फिलहाल, अग्रदूत की तरह प्रचारित गुजरात मॉडल पर इन आंकड़ों को देखिए। 
● गुजरात मे प्रति 1,000 की आबादी पर केवल 0.33 % हॉस्पिटल बेड हैं। इस मामले में गुजरात राज्य, केवल बिहार राज्य से, एक पायदान ऊपर है। 
● हॉस्पिटल बेड का राष्ट्रीय मानक, भारत मे, 0.55 प्रति 1000 की आबादी पर है।
● विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, 2014 में, भारत मे प्रति 1000 की आबादी पर .70 बेड थे। 
● आरबीआई के एक अध्ययन और आंकड़ो के अनुसार, अपने राज्यों में, सामजिक सेक्टर पर खर्च करने वाले,  देश के 18 बड़े राज्यों में गुजरात का स्थान इस क्षेत्र में 17 वां था। 
● 2009 - 2010 में गुजरात, सामाजिक सेक्टर में, प्रति व्यक्ति व्यय के मामले में, 11 वें स्थान पर गिर कर आ गया, जबकि 1999 - 2000 में वह चौथे स्थान पर था। 
● इसी अवधि में आसाम ने अपनी रैंकिंग में, सुधार करते हुए खुद को 12 वें से तीसरे स्थान पर ले आया और उत्तर प्रदेश 15 वें स्थान से तरक़्क़ी कर के नौवें स्थान पर आ गया। 
● 1999 - 2000 में गुजरात अपने कुल राज्य व्यय का 4.39 % हेल्थकेयर पर व्यय करता था पर 2009 - 10 में व्यय का यह प्रतिशत, गिर कर मात्र 0.77 % रह गया। 
● एनएसडीपी में स्वास्थ्य व्यय के मद में गुजरात की हिस्सेदारी 1999 - 00 से 2009 - 10 के बीच 0.73 % से गिर कर 0.87 % पर आ गयी। 
● जबकि इसी अवधि में बड़े राज्यों की एनएसडीपी में स्वास्थ्य सेक्टर के मद में हिस्सेदारी बढ़ कर औसतन 0.95 % से बढ़ कर 1.04 % हो गयी। 
● तमिलनाडु और आसाम ने, स्वास्थ्य सेक्टर में अपने व्यय बढ़ा कर लगभग दूने कर लिये। 
● 2004 - 05 में जब यूपीए केंद में सत्ता में आयी तब देश की जीडीपी का केवल 0.84 % ही जन स्वास्थ्य पर व्यय होता था, जो 2008 - 09 में 1.41 % हो गया था। 
● यही व्यय जब 2014 - 15 के बजट में, जब एनडीए सरकार सत्ता में आयी तो 0.98 % पर सिकुड़ कर आ गयी। 
● वर्तमान वित्तीय वर्ष 2020 - 21 में यह राशि जीडीपी का 1.28 % अनुमानित रखी गयी है। जबकि 2008 - 09 में सरकार अपनी जीडीपी का 1.41% तक व्यय कर चुकी है। 
● गुजरात मे किसी भी व्यक्ति का हेल्थकेयर, हॉस्पिटलाइजेशन पर व्यय, यहां तक कि बिहार जैसे मान्यताप्राप्त पिछड़े राज्य से भी अधिक है। इसका अर्थ यह हुआ कि, जनता को गुजरात के सरकारी  अस्पतालों में इलाज कराने के लिये, बिहार की जनता की तुलना में, अपनी जेब से अधिक धन व्यय करना पड़ रहा है। 
● गुजरात, 2009 - 10 में, प्रति व्यक्ति दवा पर व्यय की रैंकिंग मे देश मे 25 वें स्थान पर था। 
● 2001 में जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्य मंत्री बने तो राज्य मे कुल 1001 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र थे। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या 244 थी और कुल 7,274 उप स्वास्थ्य केंद्र थे। 
● 2011 - 12 में प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में थोड़ी बढोत्तरी हुयी और उनकी संख्या क्रमशः 1,158 और 318 तक पहुंच गयी पर स्वास्थ्य उप केंद्रों में कोई वृद्धि नहीं हुयी। 
● आज भी गुजरात मे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बिहार की तुलना में कम है। 
● बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में जितने सरकारी अस्पताल हैं वे गुजरात से संख्या में तीन गुने अधिक हैं। 
● भारत मे इस समय 7,13,986 हॉस्पिटल बेड और कुल 20,000 वेंटिलेटर हैं। कोविड 19 के संबंध में एक आकलन के अनुसार, कुल 5 % संक्रमितों को वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ सकती है। 
● ऐसी परिस्थितियों में हमे देश के हेल्थकेयर सिस्टम को और सुदृढ़ करने के लिए विचार करना होगा।

अब सवाल उठता है कि विकास का क्या मानक होना चाहिये ? स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, बडे बडे शहर या देश की शिक्षित और स्वस्थ जनता ? देश या समाज, भव्य अट्टालिकाओं, प्रशस्त राजमार्गों, बड़े बड़े मॉल्स, से ही विकसित नहीं माना जा सकता है, बल्कि वह देश की जनता से बनता और बिगड़ता है। अगर जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवनयापन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं तो देश को विकसित माना जाना चाहिये, अन्यथा वह पूंजीपतियों का निर्द्वन्द्व अभयारण्य बन कर रह जायेगा और समाज आपराधिक स्तर तक शोषक और शोषित में बंटता चला जायेगा। 

वर्ष 2014 - 15 के बजट में सरकार ने 100 स्मार्ट सिटी बनाने का वायदा किया था। सरकारी आंकड़ो के अनुसार, इन स्मार्ट सिटी में हेल्थकेयर के क्षेत्र में केवल 1 % बजट की धनराशि व्यय की जा रही है। स्मार्ट सिटी की 5,861 परियोजनाएँ, जो फिलहाल चल रही हैं, उनमे मात्र 69 परियोजनाएं ही, हेल्थकेयर से जुड़ी हैं। 100 स्मार्ट सिटीज के 55 शहरों में कुल व्यय ₹ 205,018 करोड़ का होना है, जिनमे हेल्थकेयर पर केवल ₹ 2112.06 करोड़ व्यय होगा। यह व्यय 2019 - 20 के बजट स्वीकृति जो जीडीपी का 1.6 है, से भी कम है। पंचवर्षीय योजना की तरह, 2015 में सरकार ने स्मार्ट सिटी मिशन की शुरुआत की थी, जिसमे चार चरणों मे 100 शहर स्मार्ट बनाये जाने हैं, जिसमे हेल्थकेयर पर विशेष जोर देने की बात की गयी है। लेकिन बजट और व्यय को देखते हुए यह केवल एक वादा ही फिलहाल लग रहा है। कोरोना आपदा के संदर्भ में इंडियन एक्सप्रेस में आज 25 मई को प्रकाशित एक खबर में 79 % कोविड के मामले इन 17 स्मार्ट सिटी से ही हैं। 

वर्तमान महामारी की आपदा के संदर्भ में दुनियाभर के देश अपने अपने देशों में हेल्थकेयर सेक्टर की गुणवत्ता और उसकी कमी, क्षमता और आवश्यकता पड़ने पर उनके योगदान का अध्ययन करने और उन्हें बेहतर बनाने के उपायों को अपनाने पर जुटे हुए हैं और तदनुसार अपनी नीतियां भी बना और संशोधित कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में हमे अपने यहां के हेल्थकेयर सेक्टर की कमियों और ज़रूरतों का अध्ययन कर के उन्हें बेहतर बनाने की एक संगठित योजना पर काम शुरू करना होगा।

सरकार ने लॉकडाउन के दो उद्देश्य बताये थे, 
● पहला, इस वायरस के संक्रमण को  रोकना क्योंकि इसके संक्रमण की दर जिसे 'आरओ' कहते हैं उसे क़ाबू में रखना था क्योंकि, डब्लूएचओ के निर्देशों के अनुसार, क्वारंटीन ही इसका एकमात्र  निरोधात्मक उपाय है। 
● दूसरा, कोरोना पॉज़िटिव मामलों के ग्राफ़ को ऊपर जाने से रोकना। इसे 'फ़्लैटेन द कर्व' कहा जा रहा है और इस दौरान, जो समय मिले उसी में, हेल्थकेयर का इंफ्रास्ट्रक्चर कुछ सुधार लिया जाय। 

अब सवाल उठता है 25 मार्च से जारी लॉक डाउन से इस युद्ध मे हमे कितनी सफलता अब तक मिली है । कोरोना संक्रमण की गति न तो आशानुरूप थमी ही है और न हीं ग्राफ फ्लैटन हुआ। इसका कारण यह भी है कि लॉक डाउन जितनी सख्ती से लागू होना चाहिये था, उतनी सख्ती से लागू नहीं हो सका। लॉक डाउन का कहीं मज़बूरी, तो कहीं लापरवाही, तो कहीं जानबूझकर उल्लंघन होता रहा। सरकार की सख्ती के बावजूद, तालाबंदी उल्लंघन की घटनाएं लगभग प्रतिदिन होती रहीं, जिससे इसके उद्देश्य को प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न हुयी। लॉक डाउन लागू करते समय भी सरकार ने बहुत सी समस्याओं पर विचार नहीं किया। एक तो यह तालाबंदी, विलंब से की गयी, दूसरे देश की सबसे बड़ी प्रवासी और ज़रूरतमंद आबादी कामगारो का कहीं कोई इंतजाम नहीं किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि, भारी संख्या में प्रवासी मज़दूर, लॉकडाउन के बीच आनन-फ़ानन में अपने घरों के लिए, पैदल या जो भी साधन उन्हें मिले, उसी से निकल लिये, और मौसम, रास्ते की दूरी, साधनों के अभाव आदि समस्याओं के कारण, वे रास्तों में भूख-प्यास या सड़क दुर्घटनाओं के भी  शिकार हुए। यह समस्या कोरोना आपदा से भी बड़ी आपदा साबित हो रही है । इस भयानक त्रासदी का सिलसिला अब भी जारी है। 

बेरोजगारी का आलम यह है कि एक अनुमान के अनुसार इस तालाबंदी से, अब तक क़रीब 12 करोड़ लोग अपनी आजीविका गंवा चुके हैं। इनमें से देश के असंगठित क्षेत्र, यानी दिहाड़ी या शॉर्ट टर्म कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कामगार अधिक हैं। क़रीब इतने ही अगर बेरोज़गार नहीं हुए हैं, तो पिछले दो महीनों से बिना वेतन के, घर बैठे काम शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हैं। सरकार ने संकट से निपटने के लिये 20 लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज की घोषणा की। उसका क्या असर देश के औद्योगिक विकास पर पड़ता है इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। 

तालाबंदी पर बीबीसी के एक लेख के अनुसार, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स की प्रोफ़ेसर जयति घोष ने प्रवासी कामगारो के पलायन पर कहा है कि, 
"बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल या पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों ने लॉकडाउन को भारत से बेहतर हैंडल किया. प्रवासियों को घर लौटने का समय दिया और उन्हें सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध कराया. जबकि भारत में प्रवासियों को क़रीब 45 दिन तक तो ट्रांसपोर्ट से वंचित रखा गया और जहाँ थे, वहीं भूखे-प्यासे रहते रहे। फिर दबाव में ट्रेन शुरू की तो किराया ऐसे कि मध्यमवर्गीय ही उसके टिकट ख़रीद सकें। "

अब तालाबंदी को लेकर देश के अर्थ समीक्षकों की चिंताजनक टिप्पणियां आ रही हैं कि, देश लम्बे समय तक आर्थिक स्थिति को संभाल पाने में सक्षम नहीं है। तालाबंदी के कुछ जानकारों का कहना है कि, लॉकडाउन की शुरुआती नीति हताहतों की संख्या पर क़ाबू पाने की थी और वो शुरुआती चार हफ़्तों के भीतर ही दिख चुकी थी। जाने-माने हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर देवी शेट्टी के मुताबिक़, "समय रहते लॉकडाउन ख़त्म कर सोशल डिस्टेंसिंग पर ध्यान दिए जाने की ज़्यादा ज़रूरत दिख रही है."
बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार की राजनीतिक सम्पादक अदिती फड़नीस का कहना है कि, 
"लॉकडाउन लागू करने की प्रक्रिया ज़्यादा बेहतर हो सकती थी। उदाहरण के रूप में, अगर सिक्किम और गोवा में केस कम और पूरे कंट्रोल में थे तो, वहाँ की इंडस्ट्रीज़ को क्यों बंद कर दिया गया ? "

दुर्भाग्य से, जैसे-जैसे लॉकडाउन के चरण बढ़ते गए, कोरोना पॉज़िटिव के मामले भी सामने आते गए । ऐसा इसलिए हुआ कि समय के साथ साथ टेस्टिंग की गति भी बढ़ती गयी। जब टेस्टिंग गति बढ़ेगी तो नए मामले सामने आएंगे ही। सरकार का भी कहना है कि , लॉकडाउन जल्द लागू होने की वजह से भारत संक्रमित मामलों की संख्या को अपेक्षाकृत धीमा कर सका वरना, 100,000 मामले तक तो हम, कम से कम तीन हफ़्ते पहले ही, पहुँच जाते। लेकिन लॉकडाउन के दौरान प्रवासियों की समस्या इतनी बड़ी हो जाएगी, केंद्र सरकार को इसका अनुमान नहीं था। यह सवाल बेहद ज़रूरी है कि,  सरकार को इस बात का अहसास क्यों नहीं हुआ कि चार घंटे की नोटिस पर पूरे देश में जब सब कुछ बंद हो जाएगा तो प्रवासी मज़दूर कहाँ जाएँगे ? 
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव के वेंकटेश नायक के अनुसार, ,
"भारत में प्रवासियों, जिसमें मज़दूर समेत वे सब शामिल हैं, जो दूसरे प्रदेशों का रुख़ करते हैं, जिनकी गणना 10 साल में एक बार जनगणना के समय होती है। 2001 में यह संख्या क़रीब 15 करोड़ की थी, जो 2011 में बढ़ कर, लगभग 45 करोड़ हो गयी। अब तो यह संख्या और भी अधिक बढ़ गयी होगी।  इसमें बड़ा हिस्सा प्रवासी मज़दूरों का है। पलायन और पलायन जन्य यह त्रासदी, उनके मानवाधिकारों का हनन है। 

कोविड 19 के टीका, वैक्सीन के संबंध में कुछ उत्साहवर्धक खबरे आ रही हैं पर विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि, इसमे कम से कम अभी एक साल से अधिक का समय लग सकता है। अतः फिलहाल, इस घातक वायरस से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग ही अब तक का, सबसे कारगर उपाय है। इंडियन जर्नल ऑफ़ मेडिकल एथिक्स के सम्पादक, डॉक्टर अमर जेसानी के अनुसार,
" लॉकडाउन किसी पैंडेमिक का इलाज नहीं बल्कि, संक्रमण की दर को थामना भर होता है जिससे स्वास्थ्य सुविधाओं को तैयारी का समय मिल सके बड़े स्तर के फैलाव से निपटने के लिए। " 

अब दुनियाभर में, भारत की स्थिति हेल्थकेयर के क्षेत्र में कहां है, अब इसे देखिये। एक सर्वे के अनुसार, स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करने वाले दुनिया के 195 देशों की सूची में भारत 145 वें नम्बर पर है । यहां तक कि, हम इस क्षेत्र  में भारत सूडान, अजरबेजान, चीन और बोस्निया हर्जेगोविना जैसे देशों से भी नीचे है। अमेरिका के सीएटल स्थित 'इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन' द्वारा किए गए इस सर्वे की जो रिपोर्ट 'द लंसेट' में प्रकाशित की गई है, के अनुसार, साल 1990 में भारत 158 वें पायदान पर था, जबकि 2016 तक इसमें कुछ सुधार आया है। हाल ही में वर्ल्ड बैंक ने भी ऐसी ही एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें स्वास्थ्य सूचकांक (हेल्थ इंडेक्स) में 195 देशों की सूची में भारत का स्थान अब, 145 वां बताया गया था। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि भारत में हर साल स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च की वजह से पांच करोड़ लोग गरीबी के शिकार हो जाते हैं। दरअसल, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का महज 1.25 फीसदी ही खर्च होता है, जिसकी वजह से यहां लोगों पर स्वास्थ्य के खर्चों का भार बढ़ जाता है, जिससे वो धीरे-धीरे कर्ज के बोझ तले दबने लगते हैं। हेल्थकेयर पर देशों द्वारा व्यय के आंकड़ों के अनुसार, दक्षिण एशियाई देशों में मालदीव स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 13.7 फीसदी, अफगानिस्तान 8.2 फीसदी और नेपाल 5.8 फीसदी खर्च करते हैं। वहीं, भूटान अपनी जीडीपी का 2.5 फीसदी और श्रीलंका 1.6 फीसदी सेहत पर खर्च करते हैं। हमारा व्यय बहुत ही कम है, जिसे बढ़ाने की ज़रूरत है। 

हमने विकास के मॉडल के रूप में बड़ी बड़ी इमारतें, मॉल, कॉमर्शियल केंद्र, बड़े और महंगे निजी अस्पताल, निजी यूनिवर्सिटी आदि तो बनाये हैं, पर सरकारी अस्पताल, और जन स्वास्थ्य के मुद्दों पर ग्लोबलाइजेशन  और उदारीकरण के दौर के आगमन के बाद ध्यान नहीं दिया है । मैक्स, फोर्टिस, अपोलो जैसे निजी अस्पताल श्रृंखला की भूमिका अपनी जगह है पर, जहां देश की दो तिहाई आबादी निम्न वर्ग औऱ निम्न मध्यवर्ग तथा नौकरीपेशा समाज से आती है वहां पब्लिक हेल्थकेयर एक बड़ा मुद्दा बनना चाहिए। खूबसूरत, महंगी लुभावनी बीमा योजनाएं, किसी अस्पताल या पीएचसी का विकल्प नहीं हो सकती हैं । यह इलाज के लिये हमे धन तो उपलब्ध करा सकती हैं, पर इलाज तो अस्पतालों में ही होगा औऱ उसे डॉक्टर तथा अन्य स्वास्थ्य कर्मी ही करेंगे, न कि बीमा कंपनियां। जब अस्पताल ही सुगमता से उपलब्ध नहीं होंगे और प्रशिक्षित मेडिकल स्टाफ और डॉक्टरों का ही अभाव रहेगा तो इन बीमा योजनाओं का क्या होगा।  

मेडिकल कॉलेज और डॉक्टरों की कमी से भी हमारी स्वास्थ्य सेवाएं जूझ रही हैं। दुनियाभर में आबादी के अनुरूप डॉक्टर हमारे यहां कम हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में 11,082 की आबादी पर मात्र एक डॉक्टर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के अनुसार, यह अनुपात प्रति एक हजार व्यक्तियों पर एक होना चाहिए। इस मानक के अनुुुसा, ररसे देखें तो यह अनुपात ग्यारह गुना कम है। यह सब कमियां, आज तब नज़र आ रही हैं जब हम एक खतरनाक वायरस के संक्रमण से रूबरू हैं। सरकार को जनता के स्वास्थ्य पर अपने बजट की और धनराशि व्यय करनी होगी और पब्लिक हेल्थकेयर सिस्टम को और समृद्ध करना होगा। कोरोना आया है तो जाएगा भी। पर यह न तो मानव जीवन के इतिहास का पहला वायरस है और न ही अंतिम। भविष्य में ऐसे वायरस जन्य संक्रमण महामारी का रूप न ले लें, इसलिए हमें पब्लिक हेल्थकेयर सिस्टम को बेहतर बनाने के लिये उसे प्राथमिकता में लाना होगा। 

( विजय शंकर सिंह )

अर्थचर्चा - भविष्य से जुड़ा वर्तमान का अर्थशास्त्र / पंकज सिंह

कोरना संकट के पूर्व ही भारत में आर्थिक मंदी के स्पस्ट संकेत थे क्योंकि रिजर्व बैंक आफ इंडिया(RBI) नें अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत की कंपनियां अपनी उत्पादन क्षमता के 68% पर कार्य कर रही थी अर्थात यदि किसी कंपनी की उत्पादन करनें की क्षमता प्रतिदिन 100 साईकिल बनानें की थी तो वह केवल 68 साईकिल ही बना रही थी।इसका सामान्य सा मतलब यह हुआ कि कंपनी की प्रतिदिन 32 साईकिल बनाने की क्षमता बेकार पड़ी हुई थी।अब हमें यह समझने की आवश्यकता है कि ऐसा क्यों हुआ होगा? बहुत सामान्य सा उत्तर है कि निश्चित रूप से साईकिल की मांग कम होगी।अब समझने की बात यह है कि लोगों के द्वारा साईकिल की जानें वाली मांग कम होनें का कारण क्या हो सकता है तो इसका भी बड़ा सामान्य सा जवाब होगा कि लोगों की कमाई कम हो रही होगी और यही सही उत्तर भी है अर्थात एक बात तो स्पष्ट है कि जब तक किसी भी वस्तु की मांग नहीं होगी तब तक उत्पादन संभव नहीं होगा और मांग तब होगी जबकि लोगों के पास कमाई होगी तथा अपनी कमाई के प्रति भविष्य की निश्चितता होगी।

      सरकार नें इस कम हो चुकी मांग(मंदी)को बढ़ानें के लिए रिजर्व बैंक के द्वारा अन्य ब्यापारिक बैंको में मुद्रा की मात्रा बढ़ाया जिसे लिक्विडिटी बढ़ाना कहा जाता है और इसके पीछे उद्देश्य यह था कि कंपनियां बैंको से अधिक से अधिक सस्ता लोन लेंगी जिससे रोजगार बढ़ेगा और जब रोजगार बढ़ेगा तो लोगों की कमाई बढ़ेगी और जब कमाई बढ़ेगी तो मांग स्वतः बढ़ जायेगी लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि कंपनियों नें ऐसा नही किया और ब्यापारिक बैंको नें लगभग 8 लाख करोड़ रूपया वापस रिजर्व बैक में जमा कर दिया और मजेदार बात यह है कि ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि बाजार में मांग नहीं थी। अब जरा ध्यान देनें की बात यह है कि मांग को ही बढ़ाने के लिए रिजर्व बैंक नें बैंको को अधिक मुद्रा उपलब्ध कराई थी लेकिन कंपनियों  नें बैंको से इसलिए उधार नहीं लिया क्योंकि अर्थव्यवस्था में लोगों के द्वारा की जाने वाली मांग कम थी।

इसे समझ कर रखिए कि सभी आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु मांग ही है।

    सरकार नें मांग को बढ़ाने के लिए एक और कार्य किया था जिसे कहा जाता है कार्पोरेट टैक्स(निगम कर) को कम करना। दरअसल कार्पोरेट टैक्स वह टैक्स होता है जो कि कंपनियों की आय या कहें कि लाभ पर लगाया जाता है जिस प्रकार किसी व्यक्ति की आय पर कर लगाया जाता है उसी प्रकार कंपनियों की आय पर जो कर लगाया जाता है उसे कार्पोरेट टैक्स कहते हैं।तथ्य यह है कि सरकार नें मांग को बढ़ाने के लिए कंपनियों की आय पर लगने वाले कर की दर को कम किया और ऐसा करके सरकार को लगभग 1.5 लाख करोड़ का नुकसान हुआ अर्थात सभी कंपनियों  के कुल लाभ में वृद्धि सीधे सीधे 1.5 लाख करोड़ की हो गई और तर्क यह दिया गया कि इससे अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी। आईये इसे और साधारण तरीके से समझते हैं।

   यदि मान लिया जाय कि किसी कंपनी की आय 1000 रूपये है तथा उस पर सरकार 30% की दर से कार्पोरेट टैक्स लगाकर 300 रूपया कार्पोरेट टैक्स वसूल करती है और यह 300 रूपया सरकार की आय का हिस्सा होता है अब सरकार नें कंपनियों से कहा कि मै टैक्स की दर जो पहले 30% थी उसे कम करके 20% कर दे रहा हूं जिससे की सरकार के पास जो पहले 300 रूपया टैक्स के रूप मे आता था वह घटकर 200 रूपया हो जायेगा और इसके साथ ही साथ कंपनियों की आय जो पहले 700 रूपया थी वह बढ़कर 800 रूपया हो जायेगी।अब सरकार का यह कहना था कि कंपनियों के पास जो यह अतिरिक्त 100 रूपया आया है उससे वह कंपनी अपनी बनाई हुई वस्तु की कीमत घटायेगी जिससे की मांग स्वतः बढ़ जायेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कंपनियों नें कार्पोरेट टैक्स की छूट से प्राप्त होनें वाले लाभ को अपनी बचत का हिस्सा बना लिया अर्थात वस्तुओं की कीमतें कम नहीं की और इसलिए मांग पर कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।सरकार यदि वही 100 रूपया कंपनियों से लेकर किसी भी माध्यम से उपभोक्ता के पास पहुंचा देती तो क्या मांग में वृद्धि होती या नहीं आप स्वयं तय करिए।

अब हम आज की आर्थिक परिस्थिति में जबकि अनिवार्य वस्तुओं को छोड़कर अन्य सभी वस्तुओं की मांग कम ही नहीं हुई है बल्कि लगभग समाप्त हो चुकी है तब क्या यह संभव है कि कंपनियां अधिक से अधिक लोन लेकर उत्पादन करनें के लिए तैयार होंगी?

सोचना आपको है।

आवश्यकता प्रत्यक्ष रूप से मांग बढ़ानें की है और लोगों के अंदर भविष्य की कमाई को लेकर जो भयावह अनिश्चितता बनी हुई है उसे समाप्त करनें की है।

क्योंकि अर्थशास्त्र में हम वर्तमान में जो व्यवहार करतें हैं उसका संबंध वर्तमान से अधिक भविष्य की निश्चितता या अनिश्चितता से जुड़ा हुआ होता है।

( पंकज सिंह )

Monday, 25 May 2020

भटकती ट्रेन के लिये जिम्मेदार रेलमंत्री पीयूष गोयल को बर्खास्त कर देना चाहिए / विजय शंकर सिंह

रेलवे ने प्रवासी मजदूरों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई हैं, लेकिन कुछ ट्रेनें वहां निर्धारित रूट नहीं पहुंचीं, जहां उन्हें जाना था, बल्कि बेहद लंबे और थका देने वाली रूटों से अपने गंतव्य पर पहुंची। जैसे मुम्बई से गोरखपुर के निर्धारित रूट के बजाय एक ट्रेन, राउरकेला पहुंच गयी। जब शोर मचा तो, रेलवे ने तो यह कह कर पिंड छुड़ा लिया कि, उस ट्रेन का रुट ट्रैक पर कन्जेशन के कारण बदला गया है। लेकिन रेलवे ने यात्रियों के बारे में तनिक भी नहीं सोचा कि उन्हें इस लंबे डायवर्जन से इस गर्मी में कितनी दिक्कतें हुयी होंगी। 

अब रूट भटकाव की कुछ और खबरों की ओर भी ध्यान दें।
● लाखों प्रवासी मजदूर रेवले की श्रमिक स्पेशल ट्रेन से अपने घर पहुंच चुके हैं।
● इसी बीच एक श्रमिक ट्रेन महाराष्ट्र के वसई से यूपी के गोरखपुर के लिए चली और ओडिशा के राउरकेला पहुंच गई
● रेलवे ने कहा ये गलती से नहीं हुआ, बल्कि रूट व्यस्त होने की वजह से ऐसा किया गया
● यह अकेली ट्रेन नहीं है, जो कहीं और पहुंच गई, बल्कि सुनने में आ रहा है कि 40 ट्रेनों का रास्ता बदला गया है।

अब इन सबकी सफाई भी पढ़ लें। 
रेलवे के एक सूत्र ने कहा है सिर्फ, 23 मई को ही कई ट्रेनें का रास्ता बदला गया। हालांकि, उसने ये नहीं बताया कि कितनी ट्रेनों का रास्ता बदला है। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार, ऐसी जानकारी भी मिल रही है कि अब तक करीब 40 श्रमिक ट्रेनों का रास्ता बदला जा चुका है। रेलवे का कहना है कि इन ट्रेनों का रूट जानबूझ कर बदला गया, जबकि गोरखपुर जाने वाली ट्रेन को राउरकेला भेजने का तर्क समझ से परे है।

एक श्रमिक स्पेशल ट्रेन बेंगलुरु से करीब 1450 लोगों को लेकर यूपी के बस्ती जा रही थी। जब ट्रेन रुकी तो लोगों को लगा वह अपने घर पहुंचा गए, लेकिन ट्रेन तो गाजियाबाद में खड़ी थी। पता चला कि ट्रेन को रूट व्यस्त होने की वजह से डायवर्ट किया गया है।

इसी तरह महाराष्ट्र के लोकमान्य टर्मिनल से 21 मई की रात एक ट्रेन पटना के लिए चली, लेकिन वह पहुंच गई पुरुलिया। रेलवे का तर्क तो यही होगा कि इसे डायवर्ट किया गया है, लेकिन रेलवे के इस डायवर्जन से यात्री कितने परेशान हो रहे हैं, उसका अंदाजा भी लगा पाना मुश्किल है।

इसी तरह दरभंगा से चली एक ट्रेन का रूट भी बदलकर राउरकेला की ओर कर दिया गया। इस दौरान यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि आखिर यात्री रास्ते मे, क्या और कैसे खाएंगे-पिएंगे।

रूट डायवर्जन पर, एक ट्विटर यूजर ने लिखा है- मेरा दोस्त आनंद बख्शी सोलापुर से इटारसी जा रहा था और उसकी ट्रेन का रास्ता बदल दिया गया तो वह नागपुर पहुंच गया है। अब स्टेशन पर रेलवे स्टाफ का कहना है कि उसे क्वारंटीन में रहना होगा।

रेलवे ने तो बड़ी ही आसानी से यह तर्क दे दिया कि रास्ते व्यस्त होने की वजह से रूट डायवर्ट किया गया है, लेकिन ये नहीं सोचा कि इससे यात्रियों को कितनी परेशानी होगी। रेलवे ने तो उनके खाने-पीने के बारे में भी नहीं सोचा कि आखिर डायवर्जन में जो अतिरिक्त समय लग रहा है, उसमें यात्री क्या खाएंगे ?

बेंगलुरु से गाजियाबाद पहुंची ट्रेन में बैठे कुछ यात्रियों का कहना है कि उन्होंने 20 घंटों से कुछ नहीं खाया है। पुरुलिया पहुंची ट्रेन के यात्रियों से पता चला है कि उन्हें खाना-पीना कुछ नहीं मिला है और ट्रेन का पानी भी खत्म हो गया है।

रेलवे ने जो रूट डायवर्जन लिया है वह सरकार की प्रशासनिक अक्षमता का एक अनुपम उदाहरण हैं। ट्रेनें लेट होती हैं। इतनी लेट होती हैं कि रद्द भी हो जाती है। डायवर्ट भी होती हैं, पर तब जब ट्रैक पर कोई दुर्घटना हो जाय या ट्रैक ही क्षतिग्रस्त हो जाय। 

लेकिम मुंबई से गोरखपुर वाया राउरकेला, डायवर्जन के बारे में यह कहा जा रहा है कि यह डायवर्जन ट्रैक पर व्यस्तता के काऱण है। रेलवे ट्रैक किसी नेशनल हाइवे की तरह नही कि किसी शहर से गुजरते समय एकाएक इतना ट्रैफिक आ जाय कि अचानक जाम लग जाय। रेलवे ट्रैक पर देश भर में किस ट्रैक पर कौन कौन सी और कितनी ट्रेन चल रहीं है इन सब को जब चाहे देखा जा सकता है। स्पॉट योर ट्रेन से हम सब भी ट्रेनों की स्थिति का पता लगा सकते हैं। 

अगर कन्जेशन इतना अधिक था कि राउरकेला से ले जाना जरूरी था तो क्या 
● यात्रियों को यह सब बताया गया था ? 
● क्या रेलवे ने एक पल को भी यह सोचा कि  ट्रेन में मजबूरी में बैठे मजदूर और गरीब कैसे बिना खाना पानी के जायँगे ? 
● वित्तमंत्री जो तीन बार खाना देने की बात कर रही हैं से ही लेकर तीन बार खाना रेलवे इन गरीबो को ही खिला देती ? 

यकीन मानिये यह सब सरकार की जेहन में ही नहीं आता है। रोटी नहीं तो केक क्यों नही खाते, जैसी मानसिकता में यह सरकार पहुंच गयी है। सरकार की किसी भी योजना के केंद में गांव, गरीब, किसान मजदूर हैं ही नहीं। और अगर कहीं हैं भी तो, महज एक उपभोक्ता के रूप में, जो पूंजीवादी अर्थतंत्र के फलने फूलने के लिये आवश्यक है और उनकी मजबूरी है। 

क्या रेलमंत्री पीयूष गोयल को बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए ? जब ऐसी आपदा में भी रेल मंत्रालय, ट्रेनें समय से न चला सके तो ऐसे निकम्मे मंत्री को ढोने की कोई ज़रूरत नही है। 40 ट्रेनें डाइवर्ट की जा रही हैं। क्यों ? क्या नियमित ट्रेनों के अतिरिक्त कुछ नयी ट्रेनें चलाई जा रही हैं ? 

रेलवे को पता है कि अपनी व्यथा के बारे में कोई भी इन श्रमिक स्पेशल ट्रेनों का यात्री समय की अधिकता और डायवर्जन के कारण हुए अपने नुकसान के लिये अदालत नही जाने वाला है। बस बेचारा, बेबस मज़दूर, यही आस लगाए बैठा है कम से कम घर तो वह किसी भी तरह पहुंच जाय। नियति है न, उसे संतोष देने के लिये। 

और अगर कोई  अदालत गया भी तो, वहीं कौन बैठा है जो उसकी व्यथा सुने। अदालत तो पहले ही कह चुकी है कि लोगों को सड़क पर चलने से हम कैसे रोक सकते है। बस अंग्रेजी में यह कह देगी कि रेल संचालन और डायवर्जन में हम दखल कैसे दें। हवाई जहाज़ का यात्री होता तो शायद उसकी सुनती भी। 

जब ट्रेनों की संख्या ट्रैक पर कम है तो फिर वे इतने विलंब से क्यों चल रही हैं, और उन्हें जानबूझकर कर ऐसे ट्रैक से क्यों भेजा जा रहा है जिससे कम से कम दूना समय लग रहा है। कहीं मज़दूर अपने घरों में समय और सुगमता से न पहुंच सके यह एक दुरभिसंधि तो नहीं है पूंजीपतियों और सरकार की, कि जानबूझकर कर ऐसी समस्या उत्पन्न कर दो जिससे लोग, घर आने के लिये हतोत्साहित हो जांय। वहीं मरते जीते रुक कर फैक्ट्री खुलने की प्रतीक्षा करें। 

आज ही बलिया जिले का एक लड़का तमिलनाडु के कोयंबटूर में कहीं काम करने गया था। मुझे उसके घर वालों ने बताया कि उसे और उसके साथ वहां कई लोगो को रोक रखा गया है। दो दिन से उन्हें खाना भी नहीं मिल रहा है। वापस न जा सके इसलिए उन पर पहरा लगा दिया गया है। जो ठेकेदार उन सबों को लेकर गया था, वह उनका आधा पैसा लेकर भाग गया है। वे सब बड़े कष्ट में हैं। भाषा की दिक्कत तो तमिलनाडु में है ही। मैंने एसपी कोयम्बटूर को यह सब बाते बतायी तो उन्होंने मेरे अनुरोध पर ध्यान दिया और तुरन्त उन सब को वहां से निकाल कर रेलवे स्टेशन, वापसी के लिये भेजा और अब वे सब वापसी के रास्ते पर हैं। एसपी कोयंबटूर का आभार। 

ट्रेन की सुविधा के बारे में पूछने पर, उन लड़कों ने बताया कि, सबको एक एक मास्क और एक एक बोतल पानी दिया गया है। उसने यह भी बताया कि गाड़ी चार दिन में बनारस पहुंचेगी। सरकार कहती है कि वह तीन वक़्त का भोजन, लंच ब्रेकफास्ट और डिनर सबको दे रही है। पर यह किसी को मिल भी रहा है, यह पता नहीं। कम से कम रेलवे इन श्रमिक स्पेशल के यात्रियों को तो यह सब दे ही सकती है। यह तो 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का ही अंग है। पैसा तो सरकार दे ही चुकी है। 

अजीब प्रशासनिक कुव्यवस्था हैं। ट्रेनें  भटक जा रही है । लॉक डाउन के बारे में, ढंग का आदेश नहीं निकल पा रहा है। सुबह कुछ और शाम कुछ कहा जा रहा है। हवाई सेवा शुरू हुई और लोग जब एयरपोर्ट पर पहुंचे तो 80 फ्लाइट निरस्त हो गई। इतनी अफरातफरी क्यों है ? ऐसी बदहवासी का आलम क्यो है ?.शुरू में कहा गया कि, लॉक डाउन की अवधि का वेतन मिलेगा। सरकार ऐसी घोषणा भी करती है फिर अदालत की एक याचिका की आड़ लेकर उसे रद्द कर देती है। ज़रा सा भी दबाव पूंजीपतियों का पड़ा नहीं कि, सरकार साष्टांग हो गयी। इलेक्टोरल बांड का इतना भी एहसान क्या उतारना। 

स्कूल के फीस के बारे में कोई निश्चित निर्णय आज तक नहीं हुआ है। अभिवावको की अपनी व्यथा है तो स्कूल मालिकों की अपनी । पर सरकार क्यों नहीं कोई सुलभ समाधान दोनो को आपस मे बैठा कर निकाल लेती है ? स्कूलों में भी फीस के मुद्दे पर झगड़े होंगे, अगर यह सब पहले तय नहीं हुआ तो। अगर कोई समाधान ही, बस में नहीं तो, सरकार यही कह दे कि हम अब कुछ नही कर सकते, आप सब अपनी अपनी खैर खबर समझें और देखे। 

कोरोना वायरस से जितने लोग नहीं मरेंगे, मुझे आशंका है कि, कहीं उससे अधिक, इन सारी बदइंतजामियों से न मरने लगें। अजीब कुप्रबंधन का दौर है यह है। सरकार और नेतृत्व के मजबूती तथा कुशलता की परख संकट काल मे ही होती है। अब इससे बड़ा संकट क्या आएगा, जब लोगों का जान और जहान दोनो ही संकट में है। क्या यह सरकार और नेतृत्व की परख ही तो नहीं हो रही है ?

( विजय शंकर सिंह )

Saturday, 23 May 2020

गुजरात के विकास मॉडल में स्वास्थ्य सेक्टर / विजय शंकर सिंह

सबसे पहले कोविड 19 के इन आंकड़ों को देखिए। यह आंकड़े 22 मई 2020 के हैं और वर्ल्ड मीटर डॉट इन्फो से लिये गए हैं।

● भारत नए संक्रमण के मामले में दुनिया मे चौथे नम्बर पर आ गया है। प्रतिदिन 6568 मामले आ रहे हैं।
● एक्टिव केस के मामले में भारत, 69,244 केस के साथ, दुनिया मे पाँचवे नम्बर पर है।
● प्रतिदिन कोरोना से मृत्यु के मामले, 142 हैं जो दुनिया मे सातवे नम्बर पर है।
●  टेस्टिंग में भारत 138 वे नम्बर पर है।
● भारत प्रति 10 लाख लोगों में सिर्फ 1973 टेस्ट कर रहा है।
● दुनिया में कोरोना के कुल मामलों, 1,24, 749 के आधार पर भारत,  ग्यारहवे नम्बर पर है।

गुजरात की चर्चा से इस लेख की शुरुआत मैंने इस लिये की है, कि 2014 के चुनाव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी की शानदार सफलता का एक बड़ा कारण, गुजरात मॉडल का तिलिस्म था जो तब देश का सबसे लुभावना और दिलकश नारा और एडवरटाइजिंग ध्येय वाक्य बन चुका था। वह मॉडल देश के विकास के मॉडल के अग्रदूत के रूप में समझा जाने लगा था, लगभग वह कालखंड सम्मोहित करने वाले एक पुनर्जागरण की पीठिका बन रहा था। लग रहा था 2014 के पहले जैसे कुछ हुआ ही न हो।  गुजरात के विकास का दीदार करने के लिये वहां चीन के राष्ट्रपति गए और हाल ही के 24 फरवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति भी एक भव्य आयोजन में तशरीफ़ ले गए थे। लगा देश मे अगर कहीं विकास की सरिता प्रवाहमान है तो, यहीं है यहीं है, यही है !

लेकिन विकास के इस मॉडल में जनता कहाँ है ? जनता के लिये स्कूल, अस्पताल और उनकी बेरोजगारी दूर करने के लिये सरकार ने नरेंद्र मोदी के मुख्य मंत्री के कार्यकाल में क्या क्या कदम उठाए हैं ? विकास के इस मोहक मॉडल के पीछे का सच क्या है। यह जानना बहुत ज़रूरी है। यह लेख हेल्थकेयर के एक अध्ययन जिसे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस के सीनियर रिसर्च फेलो संजीव कुमार के एक रिसर्च पेपर पर आधारित है।

कोरोना संकट के समय शुरुआत में, गुजरात सरकार ने विभिन्न अस्पतालों में कोविड 19 के मरीज़ों के लिये, 156 वेंटिलेटर की व्यवस्था की है और 9,000 हेल्थ वर्करों को उनकी सुश्रुसा के लिये ट्रेनिंग दी। गुजरात मे सरकारी हेल्थकेयर जिसे पब्लिक हेल्थकेयर भी कह सकते हैं की स्थिति उपेक्षित तो पहले से ही है,  अब तो वह और भी चिंताजनक हो गयी है। अब के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के, चार बार गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के बाद भी गुजरात का हेल्थकेयर सिस्टम उपेक्षित और कमज़ोर बना रहा। गुजरात सरकार के विकास मॉडल में हेल्थकेयर कभी भी प्राथमिकता में रहा ही नहीं है। नरेंद्र मोदी के गुजरात मे मुख्यमंत्री रहते हुए जो हेल्थकेयर सेक्टर के प्रति नीति थी, वही नीति उनकी देश के प्रधानमंत्री बन जाने की भी उनके सरकार की रही है। केंद्रीय सरकार की प्राथमिकता में, हेल्थकेयर कहीं है ही भी, जब इस सवाल का उत्तर ढूंढ़ा जाता है तो निराशा ही हांथ लगती है। स्वास्थ्य बीमा की कुछ लोकलुभावन नामो वाली योजनाओं को छोड़ दिया जाय तो अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और बड़े विशेषज्ञ अस्पतालों के लिये, धरातल पर सरकार ने छह सालों में कुछ किया भी नहीं है,, बस घोषणाओं को छोड़ कर।

फिलहाल, अग्रदूत की तरह प्रचारित गुजरात मॉडल पर यह अध्ययन केंद्रित करते हैं।  गुजरात मे प्रति 1,000 की आबादी पर केवल 0.33 % हॉस्पिटल बेड हैं। इस मामले में गुजरात राज्य, केवल बिहार राज्य से, एक पायदान ऊपर है। यह अलग बात है कि गुजरात और बिहार की विकास की क्षवि के बारे में जन परसेप्शन में, जमीन आसमान का अंतर समझा जाता है। फिलहाल, हॉस्पिटल बेड का राष्ट्रीय मानक, भारत मे, 0.55 प्रति 1000 की आबादी पर है। आखिर विकास के इतने चमकीले आवरण के पीछे गुजरात के हेल्थकेयर के पिछड़ने के कारण क्या है, इस पर भी पड़ताल ज़रूरी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, 2014 में, भारत मे प्रति 1000 की आबादी पर .70 बेड थे। आरबीआई के एक अध्ययन और आंकड़ो के अनुसार, अपने राज्यों में, सामजिक सेक्टर पर खर्च करने वाले,  देश के 18 बड़े राज्यों में गुजरात का स्थान इस क्षेत्र में 17 वां था। गुजरात अपने बजटीय व्यय का कुल 31.6 % सामाजिक सेक्टर पर व्यय करता था। 2009 - 2010 में गुजरात, सामाजिक सेक्टर में, प्रति व्यक्ति व्यय के मामले में, 11 वें स्थान पर गिर कर आ गया, जबकि 1999 - 2000 में वह चौथे स्थान पर था।

इसी अवधि में आसाम ने अपनी रैंकिंग में, सुधार करते हुए खुद को 12 वें से तीसरे स्थान पर ले आया और उत्तर प्रदेश 15 वें स्थान से तरक़्क़ी कर के नौवें स्थान पर आ गया। 1999 - 2000 में गुजरात अपने कुल राज्य व्यय का 4.39 % हेल्थकेयर पर व्यय करता था पर 2009 - 10 में व्यय का यह प्रतिशत, गिर कर मात्र 0.77 % रह गया। एनएसडीपी में स्वास्थ्य व्यय के मद में गुजरात की हिस्सेदारी 1999 - 00 से 2009 - 10 के बीच 0.73 % से गिर कर 0.87 % पर आ गयी। जबकि इसी अवधि में बड़े राज्यों की एनएसडीपी ( नेशनल समरी डेटा पेज ) में स्वास्थ्य सेक्टर के मद में हिस्सेदारी बढ़ कर औसतन 0.95 % से बढ़ कर 1.04 % हो गयी। तमिलनाडु और आसाम ने, स्वास्थ्य सेक्टर में अपने व्यय बढ़ा कर लगभग दूने कर लिये।

इस आंकड़े से पब्लिक हेल्थकेयर क्षेत्र में गुजरात  की प्राथमिकता का पता चलता है। 2004 - 05 में जब यूपीए केंद में सत्ता में आयी तब देश की जीडीपी का केवल 0.84 % ही जन स्वास्थ्य पर व्यय होता था, जो 2008 - 09 में 1.41 % हो गया था। यही व्यय जब 2014 - 15 के बजट में, जब एनडीए सरकार सत्ता में आयी तो 0.98 % पर सिकुड़ कर आ गयी। वर्तमान वित्तीय वर्ष 2020 - 21 में यह राशि जीडीपी का 1.28 % अनुमानित रखी गयी है। जबकि 2008 - 09 में सरकार अपनी जीडीपी का 1.41% तक व्यय कर चुकी है।

गुजरात मे किसी भी व्यक्ति का हेल्थकेयर, हॉस्पिटलाइजेशन पर व्यय जिसे आउट ऑफ पॉकेट व्यय कहते हैं, राष्ट्रीय औसत से भी अधिक है, यहां तक कि बिहार जैसे पिछड़ा समझे जाने वाले राज्य से भी अधिक है। गुजरात मे किसी भी व्यक्ति का हेल्थकेयर, हॉस्पिटलाइजेशन पर व्यय, यहां तक कि बिहार जैसे मान्यताप्राप्त पिछड़े राज्य से भी अधिक है। इसका अर्थ यह हुआ कि, जनता को गुजरात के सरकारी  अस्पतालों में इलाज कराने के लिये, बिहार की जनता की तुलना में, अपनी जेब से अधिक धन व्यय करना पड़ रहा है। गुजरात, 2009 - 10 में, प्रति व्यक्ति दवा पर व्यय की रैंकिंग मे देश मे 25 वें स्थान पर था। 2001 में जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्य मंत्री बने तो राज्य मे कुल 1001 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र थे। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या 244 थी और कुल 7,274 उप स्वास्थ्य केंद्र थे। 2011 - 12 में प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में थोड़ी बढोत्तरी हुयी और उनकी संख्या क्रमशः 1,158 और 318 तक पहुंच गयी पर स्वास्थ्य उप केंद्रों में कोई वृद्धि नहीं हुयी। यहां तक कि आज भी गुजरात मे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बिहार की तुलना में कम है। बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में जितने सरकारी अस्पताल हैं वे गुजरात से संख्या में तीन गुने अधिक हैं।

वर्तमान महामारी की आपदा के संदर्भ में दुनियाभर के देश अपने अपने देशों में हेल्थकेयर सेक्टर की गुणवत्ता और उसकी कमी, क्षमता और आवश्यकता पड़ने पर उनके योगदान का अध्ययन करने और उन्हें बेहतर बनाने के उपायों को अपनाने पर जुटे हुए हैं और तदनुसार अपनी नीतियां भी बना और संशोधित कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में हमे अपने यहां के हेल्थकेयर सेक्टर की कमियों और ज़रूरतों का अध्ययन कर के उन्हें बेहतर बनाने की एक संगठित योजना पर काम शुरू करना होगा।

भारत मे इस समय 7,13,986 हॉस्पिटल बेड और कुल 20,000 वेंटिलेटर हैं। कोविड 19 के संबंध में एक आकलन के अनुसार, कुल 5 % संक्रमितों को वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ सकती है। अगर भविष्य में कुल संक्रमितों की संख्या बढ़कर और अधिक हो जाती है तो, हमारे पास ऐसी विषम स्थिति को संभालने के लिये वेंटिलेटर की कमी हो सकती है। ऐसी परिस्थितियों में हमे देश के हेल्थकेयर सिस्टम को और सुदृढ़ करने के लिए विचार करना होगा।

अब सवाल उठता है कि विकास का क्या मानक होना चाहिये ? स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, बडे बडे शहर या देश की शिक्षित और स्वस्थ जनता ? देश या समाज शून्य में नहीं होता है बल्कि यह जनता से बनता और बिगड़ता है। अगर जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवनयापन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं तो देश को विकसित माना जाना चाहिये, अन्यथा वह पूंजीपतियों का निर्द्वन्द्व अभयारण्य बन कर रह जायेगा और समाज आपराधिक स्तर तक शोषक और शोषित में विभक्त होकर रह जायेगा। 

( विजय शंकर सिंह )

ज़ीन्यूज़ क्या गैर जिम्मेदार पत्रकारिता का प्रतीक बन गया है ? / विजय शंकर सिंह

जी न्यूज का एक कार्यक्रम, जो नेपाल से जुड़ा है पर अचानक नज़र पड़ी और स्क्रीन पर  भारत और नेपाल के सेना तथा सैन्य शक्ति का तुलनात्मक अध्ययन दिखा। यह तुलना ही मूर्खतापूर्ण लगी और है भी। नेपाल आकार और जनसंख्या में एक छोटा मुल्क है और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार वह भारत का एक भूभाग ही लगता है। भारत और नेपाल की सीमा भी खुली हुयी है और दोनो देशों के बीच मुक्त आवागमन है। भाषा नेपाली ज़रूर है पर देवनागरी लिपि होने के नाते वह आसानी से पढ़ कर समझी जा सकती है। बोलने में भी वह हिंदी की बोलियों मैथिली आदि से बहुत मिलती जुलती है। नेपाल और भारत के बीच राजनैतिक रिश्ते चाहे जो रहे हों पर एक मजबूत सांस्कृतिक संबंध रहा है। दोनों का साझा इतिहास तो रहा ही है। 

बनारस में जब मैं बीएचयू में पढ़ता था तो बहुत से नेपाली मित्र मेरे साथ थे और उनसे मेरा बेहद आत्मीय संबंध भी था। उसी में एक प्रदीप गिरी हैं जो फिलहाल नेपाल में सांसद हैं। प्रदीप जी मुझसे सीनियर थे और वे नेपाल में नेपाली कांग्रेस जिसके नेता बीपी कोइराला थे के साथ थे और भारत मे ही उस समय सारनाथ में कोइराला परिवार रहता था। वे उस समय नेपाली कांग्रेस के भूमिगत आंदोलन में शामिल थे। प्रदीप जी राजा राममोहन राय हॉस्टल मे थे। वहीं मैं भी था। प्रदीप जी के ही साथ कोइराला जी के यहां जाने का बहुत अवसर मिला। प्रदीप  गिरी ही वह व्यक्ति हैं जिन्होंने मेरे अंदर पढ़ने की लगन लगाई। मेरे उनके संबंध बहुत घनिष्ठ थे, और उनसे राजनीतिशास्त्र, दर्शन, मार्क्सवाद, लोहिया साहित्य, आदि विषयों पर बहुत कुछ सीखने और पढ़ने को मिला। प्रदीप जी अपने प्रवास के समय बनारस में मेरे घर मे भी एक साल रह चुके हैं । 

जब मेरा पुलिस सेवा ( पीपीएस ) में सेलेक्शन हो गया, तब वे भी बनारस से दिल्ली चले गए और लम्बे समय तक उनका मुझसे संपर्क नहीं रहा। कारण नौकरी की व्यस्तता थी और आज जैसे सुगम संचार के साधनों का अभाव भी था। पर कुछ कॉमन मित्रो के माध्यम से, वे मेरी खैर खबर लेते रहते थे। लेकिन बात नहीं हो पाती थी। प्रदीप जी के नाम का मैंने इसलिए उल्लेख किया कि, उनके कारण नेपाल के कई छात्र जो वहां के मज़बूत राजनीतिक घरानो से थे से मेरी अच्छी खासी दोस्ती हो गयी थी। उस दौरान काठमांडू जाने का भी अवसर मिला था। वैसे तो नेपाल के मेरे एक मित्र हरेकृष्ण शाह,  यूपी कॉलेज के दिनों से ही, साथ पढ़ रहे थे जो कुछ साल पहले, भैरहवा डिग्री कॉलेज, नेपाल में प्रिंसीपल हो गए थे। अब उनसे भी संबंध नहीं रहा। 

बनारस, नेपाली समाज का प्रिय ठिकाना था। पढ़ाई का केंद्र तो था ही धार्मिक और बाबा विश्वनाथ का शहर होने के कारण पशुपतिनाथ के शहर के नेपाली समाज का लगाव भी था। वहां की राजनीति भी भारतीय राजनीतिक दल और विचारधारा से बहुत प्रभावित रही है। वहां के सभी बड़े नेता बनारस से जुड़े रहे हैं चाहे वे कोइराला परिवार के हों या तुलसी गिरी के परिवार के या कम्युनिस्ट प्रचंड या भट्टराई जी हों। डॉ लोहिया और जयप्रकाश नारायण, दोनो अग्रणी समाजवादी नेता नेपाल के राणाशाही के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय और अगुआ थे। नेपाल में राणाशाही खत्म हुई, फिर राजपरिवार आया जिन्हें श्री पांच को सरकार कहा जाता था। एक दुःखद घटनाक्रम में राजपरिवार की हत्या हो जाती है और कुछ सालों तक अस्थिर रहने के बाद नेपाल में लोकतंत्र बहाल होता है। वहां का संविधान बदलता है। संविधान में राजतंत्र खत्म हो जाता है और हिंदू राष्ट्र के बजाय एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का जन्म होता है। इस समय वहां कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है। 

चीन की नज़र नेपाल पर लंबे समय से रही है। चीन मूलतः एक विस्तारवादी मनोवृत्ति का देश है। चीन की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास भी हमारी सभ्यता संस्कृति और इतिहास से कम पुराना और समृद्ध नहीं है। लेकिन 1948 में लाल क्रांति के बाद चीन की नज़र तिब्बत पर पड़ी और तिब्बत को उसने अपने कब्जे में ले लिया। चीन और तिब्बत की सभ्यता संस्कृति भाषा इतिहास बिल्कुल अलग अलग है। यहां तक कि बौद्ध धर्म का स्वरूप भी अलग अलग है। लेकिन तिब्बत, एक सोया हुआ आध्यात्मिक देश बदलती हुयी दुनिया के साथ कदमताल न कर सका और चीन की आक्रामक और विस्तारवादी नीति का पहला शिकार हो गया। 

दलाई लामा वहां से रातोंरात निकल कर तवांग के रास्ते भारत 31 मार्च 1959 को मैकमोहन रेखा पार करके पहुंचे और उन्हें राजनीतिक शरण दी गयी। अपनी आत्मकथा में दलाई लामा ने इस विस्थापन का बेहद रोचक विवरण दिया है। आज भी स्वतंत्र तिब्बत की एक सरकार धर्मशाला हिमाचल प्रदेश में है जो आज़ाद तिब्बत का स्वप्न देख रही है। पर यह मिशन अब लगभग असंभव है। दलाई लामा को भारत मे शरण देने का कदम चीन के 1962 में हुए हमले की भूमिका बनी। जवाहरलाल नेहरू की तिब्बत नीति सदैव आलोचना के केंद्र में रही है। डॉ राममनोहर लोहिया, नेहरू की तिब्बत नीति के बड़े प्रखर आलोचक थे। कैलास मानसरोवर तक भारत की सीमा वह मानते थे और चीन से यह दोनों स्थल वापस लेने के वे प्रबल पक्षधर थे। वे तिब्बत पर चीन की नीति के भी प्रबल आलोचक थे। 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण किया गया। हमारी पराजय हुयी। सैन्य नीतियां जो, हमारी प्राथमिकता में तब नहीं थीं वे अचानक, इस पराजय के बाद, हमारी प्राथमिकता में आ गईं। यह सोते से जागना सरीखा था। इसीलिए 1965 मे जब पाकिस्तान ने हमला किया और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब ने यह कहा कि वे अमृतसर में लंच और दिल्ली मे डिनर करेंगे तो लाल बहादुर शास्त्री ने इसी पर 1965 की विजय के बाद यह कहा कि अयूब साहब के अमृतसर में लंच करने की बात सुनकर हमने सोचा कि क्यों न लाहौर में ही उनके साथ नाश्ता कर लिया जाय। पाकिस्तान, 1965 में पराजित हुआ। लाहौर की सीमा तक हमारी फौजें पहुंच गयी थी। पर 1966 की जनवरी में ताशकंद में भारत पाक शांति वार्ता के बाद, रात में ही प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की अचानक दुःखद मृत्यु हो गयी। यह बेहद आघात का काल था। 

चीन के साथ 1967 मे सिक्किम के पास नाथूला में एक छोटी जंग भी हुयी। यह जंग 1962 की तरह नहीं थी। चीन को यह अंदाजा लग गया था, कि भारत 1962 से कहीं बहुत आगे जा चुका है। चीन और पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अच्छे नहीं है। पाकिस्तान के साथ तो 1947 से ही संबंध बुरे हैं। चार चार जंगे हो चुकीं हैं और पाकिस्तान का कश्मीर में आतंकियों को खुला समर्थन भी है। 1971 में पाकिस्तान के साथ एक बड़ा युद्ध हुआ जिसमें पाकिस्तान दो हिस्सों में भौगोलिक, भाषाई और सांस्कृतिक रूप से अपने जन्म से ही मात्र धर्म के आधार पर जुड़े होने के बावजूद अलग अलग हो गया। हालांकि अलग होने की कसमसाहट तो पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश को पचास के दशक से ही भाषा के प्रश्न पर होने लगी थी। बांग्ला एक समृद्ध भाषा है। भाषा की अस्मिता, धर्म पर भारी पड़ने लगी और दोनो ही पाकिस्तान के बीच वैमनस्य पनपने लगा था।  अवामी लीग द्वारा पाकिस्तान की संसद में 1970 मे बहुमत पा जाने के बाद पश्चिमी और पूर्वी  पाकिस्तान में, यह मतभेद खुल कर सामने आ गया। 1971 का समय भारतीय कूटनीति और सैन्य शक्ति का अब तक का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अब भी सामान्य नहीं है। एक गंभीर अविश्वास दोनो तरफ व्याप्त है जिसके कारण सम्बन्धो के सामान्य होने की कोशिश भी अक्सर विफल हो जाती है। अब भी यही स्थिति है। 

नेपाल से इधर जो खटास आयी है वह लिपुलेख के पास एक सड़क को लेकर है। कैलास मानसरोवर, पड़ता तो भौगोलिक रूप से चीन में है पर शिव का स्थान होने के कारण वह भारत के लिये एक महत्वपूर्ण सनातन धर्म का तीर्थ भी है। चीन का कैलास से कोई भी इस तरह का  विरासत वाला नाता नहीं है। वहां जाने का एक रास्ता धारचूला होकर है और एक नेपाल होकर भी है। रास्ता कठिन और दुर्गम है। यात्रा पूरी तरह राज्य नियंत्रित होती है। इसी यात्रा मार्ग को और सुगम बनाने के लिये वहां भारत की सीमा तक भारत ने अपनी सड़क बनाई। इसी पर नेपाल ने आपत्ति की और अंग्रेजों के जमाने से सुगौली की संधि का उल्लेख करते हुए उक्त क्षेत्र को अपना बताया और एक नक़्शा भी अधिकृत रूप से जारी कर दिया।  निश्चित रूप से इस हस्तक्षेप और विवाद के पीछे चीन का हांथ है। इसका कोई  प्रत्यक्ष प्रमाण न भी हो, तो भी यह एक पुष्ट अनुमान है। राजनीतिक वैचारिक रूप से नेपाल भले ही चीन के निकट हो पर भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से वह भारत के कही अधिक निकट है, और बराबर रहेगा । यह मतभेद बहुत बड़ा नहीं है, दोनो देश इसे आमने सामने वार्ता से हल न कर सकें। हो सकता है कूटनीतिक प्रयास इसे हल करने के लिये शुरू भी हो गए हों। दोनो ही देश, भारत और नेपाल इसे आपसी बात कर के कूटनीतिक रूप से हल कर सकने में सक्षम हैं और यह हल हो भी जाएगा। 

लेकिन इधर मीडिया में विशेषकर, जी न्यूज और रिपब्लिक टीवी में कुछ कार्यक्रम ऐसे हो रहे हैं जिनसे बात का बतंगड़ बन सकता है और बन भी रहा है। मीडिया से कूटनीति तय नहीं होती है लेकिन मीडिया जनता का माइंडसेट ज़रूर तय करता है। जब जनता का माइंडसेट किसी विशेष आग्रह से तय हो जाता है तो सरकार भी कूटनीतिक मामलो में बहुत स्पेस नहीं ले पाती है और चीजें सुलझने के बजाय उलझती चली जाती है। पाकिस्तान के साथ हमारी मीडिया का आक्रामक रवैया भारत पाल तनाव शैथिल्यता में एक बड़ी बाधा है। ऐसे दुष्प्रचारों से, ट्रैक टू डिप्लोमेसी भी प्रभावित होने लगती है। आज पाकिस्तान से संबंध में सामान्य संबंधों की बात कहना भारत और पाकिस्तान दोनो ही देशों में एक गुनाह ए अज़ीम बनता जा रहा है। पाकिस्तान के साथ हमारे विवादित, कटु और युयुत्सु सम्बन्धो का एक लंबा इतिहास रहा है अतः मीडिया का यह रूप हमें बहुत अखरता भी नही है। फिर पाकिस्तान के प्रति मीडिया का यह रुख, सत्तारूढ़ दल के हिंदू मुस्लिम एजेंडे को भी संतुष्ट करता है जो उसे स्वदेश में एक खास समर्थक वर्ग देता है। 

लेकिन नेपाल के साथ मीडिया अगर यह स्टैंड लेता है तो इससे नेपाल का कोई नुकसान होगा या नहीं यह तो नेपाल ही बेहतर जान पायेगा, पर भारत की स्थिति अनावश्यक रूप से असहज होगी। चीन यह विवाद बढ़े, ऐसा चाहता है। चीन की विस्तारवादी नीति के एजेंडे में यह बिंदु है कि वह भारत को अलगथलग कर दे। वह इसी दीर्घकालिक योजना पर काम भी कर रहा है। पाकिस्तान तो उसके एक उपनिवेश जैसा ही होता जा रहा है। यह प्रक्रिया ओबीओआर परियोजना और बलोचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह के विकास  के साथ चीन के अरब सागर से सीधे जुड़ जाने के बाद से और भी बढ़ गयी है। श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह पर, उसका नेवल बेस बन गया है। मालदीव पर भी उसकी नज़र है। बांग्लादेश को भी दो पनडुब्बी देकर उसने, उधर भी चारा डाल दिया है। डोकलम का मामला भूटान में है ही। अरुणांचल पर भी यदाकदा आपत्ति उठाता रहता है। क्या इतने कूटनीतिक मोर्चे कम हैं कि एक और मोर्चा खोला जाय ? औऱ वह भी एक ऐसे देश के साथ जो हमारा न जाने कब से सहयोगी रहा है। 

नेपाल के मामले पर मीडिया को संयत रहना चाहिए। पाकिस्तान ब्रांड तमाशे इस स्थिति को और भी उलझायेंगे। जब यहां के टीवी चैनल में नेपाल को धमकी और धौंसपट्टी की बातें दिखाई जाएगी तो इसकी प्रतिक्रिया नेपाली मीडिया में होगी और इसे चीन और उकसाएगा। वहां की जनता में भी भारत द्वेषी भावनाएं पनपेगी। क्या पता भारत मे छोटी मोटी नौकरी कर रहे नेपाली लोग पढ़ने वाले नेपाली छात्र भी मीडिया के दुष्प्रचार के शिकार हो जांय। चीन का लाभ न नेपाल से है और न ही लिपुलेख की बन रही सड़क से उसे कोई हानि है।  लेकिन भारत नेपाल सम्बन्धो को तनावपूर्ण बना कर वह दक्षिण एशिया में ज़रूर एक अस्थिरता पैदा करना चाहेगा और दुनिया मे, हमे एक इलाकाई दादा के रूप में स्थापित करना चाहेगा जिससे वह यह कह सके कि, हमारे संबंध सभी पड़ोसियों से सामान्य नहीं है। सार्क एक दक्षिण एशिया का आपसी सहयोगात्मक  समूह अभी भी ज़िंदा है। पर भारत इस समूह में, अपने आकार, आबादी और आर्थिक शक्ति के कारण, सबसे बड़ा या एक बडे भाई के रूप में है। ऐसे क्षेत्रीय समूह जिसमे कोई घोषित महाशक्ति नेतृत्व में न हो, अमेरिका या अब चीन को भी रास नहीं आते हैं। क्योंकि इससे उनका शक्ति संतुलन प्रभावित होता है। काठमांडू में सार्क का मुख्यालय भी है। किसी भी ऐसे समूह का नेतृत्व करने के लिये एक स्टेट्समैन सरीखे नेतृत्व की ज़रूरत पड़ती है, जिसका फिलहाल सार्क देशों में अभाव है। 

2015 में जब नेपाल में भूकम्प आया था तो भारत ने दिल खोल कर मदद की थी। लेकिन मीडिया के गैरजिम्मेदाराना रवैये से वहां के लोगों का आत्मसम्मान बहुत आहत हुआ। काठमांडू में इंडियन मीडिया गो बैक का नारा लगा। वह पहली स्थिति आयी जब काठमांडू ने भारतीय मीडिया का खुल कर विरोध किया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में, नेपाल के साथ सम्बंध बहुत बिगड़ गए थे। आवाजाही बंद हो गयी थी। वह एक असामान्य दौर था। नेपाल ने इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी। तभी उसका झुकाव चीन की तरफ हुआ और अब तो नेपाल की राजनीतिक वैचारिकी भी कम्युनिस्ट है तो यह झुकाव स्वाभाविक ही है। बेहद विपरीत परिस्थितियों में ही किसी भी देश की कूटनीतिक क्षमता और योग्यता का पता चलता है। नेपाल के इस मसले पर हमारे  कूटनीतिक प्रयास हो रहे होंगे। पर मीडिया को इस संबंध में गैरजिम्मेदाराना रुख नहीं दिखाना चाहिए। वैसे भी अनेक बार बगदादी को मार कर, पाकिस्तान के बाजार भाव और दुर्दशा दिखा कर, अपनी गैरजिम्मेदारी भरी पत्रकारिता का वह परिचय दे चुका है और अब भी देता रहता है। 

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 20 May 2020

जो सुविधाएं दान या कृपा से मिल रही हैं, वे अधिकार से प्राप्त होनी चाहिये / विजय शंकर सिंह

जब तक एक भी प्रवासी कामगार सड़क पर थका हारा, भूखा प्यासा, घिसटता हुआ अपने गांव घर जाता हुआ दिख रहा है, तब तक इस गंभीर पलायन जन्य त्रासदी में उनके हर मुद्दे और समस्या को सोशल मीडिया पर उठाइये और उनके हक में खड़े होइये। सरकार जो कर रही है उसे करने दीजिए। यह उसका दायित्व है। इसीलिए वह चुनी गयी है। उसका एक कारण सोशल मीडिया पर लगातार हो रहे इस समस्या का कवरेज और जन प्रतिक्रिया भी है । सरकार के कदमो की भी जांच पड़ताल होती रहनी चाहिए। इस समय गांव गांव घूम रहे ग्रामीण पत्रकार, उत्साही युवा बेहद उपयोगी साबित हो सकते है। सोशल मीडिया अब सोशल मीडिया नहीं, बल्कि जन मीडिया बन चुका है। सरकार को भी इससे ज़मीनी जानकारी का लाभ उठाना चाहिए। सरकारें इससे सूचना, और तथ्य लेकर लाभ उठा भी रही हैं। 

लेकिन, फोटोशॉप, या सिर्फ सनसनी फैलाने वाली फोटो और खबरें जन मीडिया को भी वहीं पहुचा देंगी जहां परंपरागत मीडिया विशेषकर कुछ टीवी चैनल जन संचार को पहुंचा चुके है। इस मिथ्यावाचन जो गोदी मीडिया का एक स्थायी भाव बन चुका है।  मज़दूरों के अपार दुःख का यह त्रासद समय, जो 1947 के दुःख भरे विस्थापन के बराबर लोगों को उद्वेलित और आक्रोशित कर रहा है, की जिम्मेदारी जिस जिस पर हो उनको एक्सपोज़ किया जाना बहुत ज़रूरी है। हमारा समाज,हमारी परंपराएं असंवेदनशील नहीं है, क्योंकि अगर वे असंवेदनशील होतीं तो इतनी बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संस्थाए और लोग सड़कों पर राहत और दानापानी इन मज़दूरों को उपलब्ध कराने नहीं उमड़ पड़ते। 

दान, एक अच्छी बात है। इसकी बहुत महिमा शास्त्रों में गायी गयीं है। लेकिन महिमा जितनी दानदाताओं की, की गयी है उतनी दानप्राप्त करने वालो की नहीं गायी गयी है। लेकिन जो सुविधाएं गरीबों और वंचितों को दान या कृपा या किसी के एहसान के कारण मिल रही, इससे यह अधिक ज़रूरी है कि यह सब सुविधाएं उसे उसके अधिकार के रूप में मिले। जनता का यह अधिकार है कि वह सम्मानपूर्वक जीवन जीये। यह अधिकार कोरी वाचालता ही नहीं है, बल्कि यह अधिकार हमारा संविधान देता है और इस मौलिक अधिकार को सर्वशक्तिमान संसद भी नहीं छीन सकती है। अगर लोग निजी तौर पर राहत पहुंचा भी रहे हैं तो इससे सरकार का दायित्व कम नहीं हो जाता बल्कि इसे सरकार और तँत्र की नाकामी समझी जानी चाहिये। नाकामी इसलिए नहीं कि सरकार कुछ कर नहीं रही है, बल्कि इसलिए कि सरकार इतनी अक्षम है कि वह समय से समस्या का संज्ञान नही ले पायी ऐसे देश की तीन चौथाई आबादी सड़कों पर घिसट रही है। 

( विजय शंकर सिंह )
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राजनीतिक दल तो राजनीति करेंगे ही / विजय शंकर सिंह

कहा जा रहा है कि, कांग्रेस बस के मामले में राजनीति कर रही है। यह बात सही भी हो, कि कांग्रेस बस मामले में राजनीति कर रही है, तो एक राजनीतिक दल राजनीति तो करेगा ही। उसका उद्देश्य ही राजनीति करना है। तभी तो राजनीतिक दल कहलाता है। इसी उद्देश्य से, उसका गठन किया गया है। 

कांग्रेस राजनीतिक दल है और वह देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। अभी 6 साल पहले तक, वह सरकार में थी और अब भी चार राज्यों में वह अपने दम पर और एक राज्य में साझेदारी से सरकार में हैं। वह दुबारा सत्ता में आना चाहती है। इसमें कोई बुरा भी नही है। हर दल और नेता की ख्वाहिश होती है कि वह सत्तारूढ़ बने और लंबे समय तक सत्ता में रहे। आज कांग्रेस एक विपक्षी दल है औऱ तो उसका यह संवैधानिक दायित्व है कि वह सरकार की नीतियों का तार्किक विरोध करे और सरकार को एक्सपोज़ करे। 

जब कांग्रेस सत्ता में थी तो यही काम उसे अपदस्थ करने के लिये भाजपा ने किया था। भाजपा ने सत्ता में आने के लिये राम को ही विवाद और राजनीतिक बहस के केंद्र में ला दिया था। सभी दल ऐसा करते हैं। आप लोकतंत्र में यह उम्मीद करे कि कोई भी दल राजनीति न करे तो यह भी एक राजनीति ही है।  राजनीतिक विरोध,  लोकतंत्र की खूबसूरती है।

सरकार के विरोध का एक भी मौका कांग्रेस को छोड़ना भी नही चाहिये। सरकार या लोकतंत्र एक राजनीतिक प्रक्रिया से  चलता है। कांग्रेस ही नहीं सभी राजनीतिक दलों को अपनी अपनी सोच और एजेंडे के अनुसार राजनीति करने का हक़ है। यहां तक कि हर व्यक्ति को राजनीति में आने, अपनी बात कहने और राजनीति करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। 

अक्सर इस आरोप पर कि अमुक व्यक्ति राजनीति कर रहा है तो वह रक्षात्मक हो जाता है और यह बचाव करने लगता है कि नहीं नहीं यह राजनीति नहीं है, जैसे कि राजनीति कोई पापकर्म हो। कोई निषिद्ध क्रिया हो । राजनीतिक दल और राजनेता का हर कदम राजनीति से प्रेरित होता है यहाँ तक कि जब वह अपने चुनाव क्षेत्र में लोगों के पारिवारिक आयोजनों में जाता है तब भी, कुछ मामलों को छोड़ कर शेष में जनसंपर्क और राजनीति का ही अंश रहता है।

बसो में मामले में यह राजनीति मान लिया जाय कि कांग्रेस ने 1000 बसों का ऑफर देकर यूपी सरकार को एक राजनीतिक दांव चला है तो भाजपा ने इस दांव का राजनीतिक उत्तर क्यों नही दिया। जैसे ही यह ऑफर आया वैसे ही सरकार और भाजपा की बस यही प्रतिक्रिया आनी चाहिए थी कि 'हमारे पास संसाधनों की कमी नहीं है। आप अपनी बसे अपने राज्यों में लगा लें। यहां हम व्यवस्था कर रहे हैं।'

यूपी में बसे लगी भी हुयी हैं। सरकार का इंतज़ाम भी है। हो सकता है आदर्श व्यवस्था न हो, तो ऐसे ऊहापोह में जब गलती सरकार ने लॉक डाउन के शुरुआत में ही कर दी हो तो, यह तमाशा तो मचना ही था। इस कन्फ्यूजन और त्रासदी की जिम्मेदारी केंद्र के लॉक डाउन निर्णय पर है, जिसे भाजपा स्वीकार नहीं कर पायेगी क्योंकि यह भी राजनीति का ही अंग है। 

लेकिन सरकार ने न जाने किस अफ़सर के कहने पर सूची मांग लिया। सूची में कुछ गड़बड़ी मिली। कुछ अन्य वाहनो के जैसे ऑटो एम्बुलेंस के नम्बर भेज दिए गए। फिर सोशल मीडिया पर संग्राम शुरू हुआ। जब हल्ला मचा तो, सूची की पड़ताल होने लगी। रात तक सच सामने आ गया। एक हजार बसों मे 879 बसें  थी बाकी एम्बुलेंस और ऑटो थे। यह रिपोर्ट यूपी सरकार के ही अधिकारियों ने तैयार की है। सरकार को अगर बसे लेनी थीं तो जो बसे थीं ( सरकार के सूची के अनुसार ) तो उसे ही ले लेती, मज़दूरों को राहत मिलने लगती और कांग्रेस को गलत सूची पर एक्सपोज़ करती रहती। 

प्रियंका गांधी के सचिव संदीप ने जो पत्र यूपी सरकार के अपर मुख्य सचिव को भेजा था उसका यह अंश पढ़े, 
“आप वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं। बहुत अनुभवी हैं और कोरोना महामारी के इस भयानक संकट से भिज्ञ भी हैं। तमाम जगह प्रवासी मजदूर फंसे हुए हैं। मीडिया के माध्यम से इनकी विकट स्थिति सबके सामने है। हजारों मजदूर सड़कों पर हैं। हजारों की भीड़ पंजीकरण केंद्रों पर उमड़ी हुई है। ऐसे में 1 हज़ार खाली बसों को लखनऊ भेजना न सिर्फ़ समय और संसाधन की बर्बादी है। बल्कि हद दर्ज़े की अमानवीयता है और एक घोर गरीब विरोधी मानसिकता की उपज है। आपकी ये मांग राजनीति से प्रेरित लगती है। ऐसा लगता नहीं कि आपकी सरकार विपदा के मारे हमारे उत्तर प्रदेश के भाई बहनों की मदद करना चाहती है। हम सभी उपलब्ध बसों को चलवाने की अपनी बात पर अडिग हैं। कृपया नोडल अधिकारियों की नियुक्ति करें जिसने संपर्क स्थापित करके हम श्रमिक भाई बहनों की मदद कर सकें ।" 

अब यह लग रहा है कि मज़दूरों को राहत पहुंचाने का मुद्दा पीछे चला गया है और राजनीतिक रस्साकशी का मुद्दा आगे आ गया है। सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस समस्या को हल करे। विपक्ष से न तो किसी की अपेक्षा होती है और न वह जवाबदेह होता है। अधिक से अधिक विपक्ष से ऐसे समय मे सहयोग की अपेक्षा होती है। कांग्रेस यह कह सकती है और कह रही है कि सहयोग के ही कदम के रूप में उसने बसें भेजी थी। सरकार ने उसे अनावश्यक पत्राचार में उलझा दिया।

एक और मजेदार बात यह हुयी कि, प्रियंका गांधी के सचिव संदीप पर यूपी सरकार ने मुकदमा दर्ज कर लिया। आरोप गलत सूचना देने का। शायद यह पहला मौका होगा जबकि एक पत्र के आधार पर मुकदमा दर्ज हो जाय। अपराध क्या बनता है, इस पर तो टिप्पणी, एफआईआर देखने के बाद होगी। लेकिन जवाबी कार्यवाही में राजस्थान सरकार ने भी यूपी के अपर मुख्य सचिव और डीएम आगरा के खिलाफ धोखाधड़ी और आर्थिक नुकसान का मुकदमा दर्ज कर लिया। होना हवाना किसी मामले मे नहीं है। लेकिन कांग्रेस को यह आधार ज़रूर भाजपा ने दे दिया कि वह अब घूम घूम कर कहेगी कि उसने तो पूरी कोशिश की मज़दूरों की व्यथा कम करने के लिये पर सरकार ने सहायता भी नहीं ली और हमारे लोगो को जेल और भेज दिया। 

अगर बस की पेशकश एक राजनीतिक दांव है तो इस राजनीति में भाजपा अनावश्यक रूप से उलझ गयी। जहां तक मज़दूरों का सवाल है, वे तो अब भी सड़को पर घिसट रहे हैं। सरकार की प्रशासनिक चूक और लॉक डाउन के कुप्रबंधन की सजा भोगने के लिये अभिशप्त हैं। एक बात और है। राजनीतिक विमर्श का उत्तर ट्रोल और साइबर लफंगे नहीं दे सकते हैं। वे बस इर्रिटेट कर सकते हैं। इर्रिटेट बिल्कुल मत हों। उनके पोस्ट से ही राजनीतिक जवाब निकालें। सरकार का समर्थन करना आसान नहीं होता है। सरकार किसी की भी हो, सत्ता में कोई भी हो, वह, गलती करता ही है। यह भी कर रहे हैं। मूर्खता और साइबर लफंगे या ट्रोल बस फ़र्ज़ी फोटोशॉप, और निम्नस्तरीय भाषा से सरकार को ही असहज करेंगे, बस आत्मनियंत्रित बने रहिये। 

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday, 19 May 2020

राहत पैकेज में, कितनी राहत, किसको राहत / विजय शंकर सिंह

आज से लॉक डाउन का चौथा चरण शुरू हो गया जो 31 मई तक प्रभावी रहेगा। यह संकट स्वास्थ्य से जुड़ा तो है ही पर लगभग दो महीने की तालाबंदी के कारण देश एक अभूतपूर्व आर्थिक संकट के दलदल में भी पहुंच गया है। देश को उस दलदल से निकालने के लिये प्रधानमंत्री ने 12 मई जो 20 लाख करोड़ का एक राहत पैकेज घोषित किया है जिसका खुलासा कई चरणों की नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने किया है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पैकेज के बारे में जो घोषणाएं की उन्हें अध्ययन की दृष्टि से तीन भागों, एक मज़दूरों और किसानों के लिये, दूसरा मध्यम श्रेणी के उद्यमियों के लिये, और तीसरा कॉरपोरेट के लिये, बांट कर देखते हैं।

मज़दूर और किसानों के लिये ~
●  8 करोड़ प्रवासी मजदूरों के राशन के लिए 3500 करोड़ का प्रावधान सरकार करने जा रही है। प्रति व्यक्ति 2 महीने मुफ्त 5-5 किलो चावल और गेहूं और 1 किलो चना प्रत्येक परिवार को दिया जाएगा।
● प्रवासी मजदूरों को जुलाई तक मुफ्त अनाज दिया जाएगा। 
●  मुफ्त अनाज का पूरा खर्च केंद्र सरकार उठाएगी। इसमें कार्ड धारक के साथ ही बिना कार्ड वालों को भी राशन दिया जाएगा। इससे 8 करोड़ मजदूरों को फायदा होगा। एक ही राशन कार्ड पूरे देश में मान्य होगा।
● राज्यों ने किसानों को 6700 करोड़ रुपये की मदद की। ये मदद कृषि उत्पादों के जरिये व अन्य तरीकों से की गई।
●  किसानों के खाते में सीधे पैसा भेजा गया। 3 करोड़ किसानों के लिए जो 4,22,000 करोड़ के कृषि ऋण का लाभ दिया गया है। इसमें पिछले तीन महीनों का लोन मोरटोरियम है। 
● 25 लाख नए किसान क्रेडिट कार्ड की मंजूरी दी गयी है जिसकी लिमिट 25000 करोड़ होगी। 
● कृषि उत्पादों की खरीद के लिए 6700 करोड़ की वर्किंग कैपिटल भी राज्यों को उपलब्ध करवाई गई है।
● सरकार की तरफ से मनरेगा एक्ट के जरिये राज्यों को मदद की जाएगी। राज्यों को प्रवासी मजदूरों को काम देने को कहा गया है। 
● औसत मजदूरी को 182 से बढ़ाकर 202 रुपये कर दिया गया है। 
● विभिन्न राज्यों में 2.33 करोड़ प्रवासी मजदूरों को काम मिला है।
● मनरेगा के तहत पिछले दो महीने में 14.62 करोड़ मानव श्रम दिवस रोजगार सृजित किये गये। इस पर कुल 10,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए। 
● 3 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों को लाभ देने के लिए 30000 करोड़ रुपए की अतिरिक्त सुविधा नाबार्ड के अलावा दी जाएगी। यह राशि स्टेट, जिला और ग्रामीण कॉपरेटिव बैकों के माध्यम से राज्यों को दी जाएगी। 
● शहरी गरीबों और प्रवासियों के लिए किफायती रेंटल स्कीम लाई जाएगी। पीपीपी के जरिये रेंटल हाउसिंग विकसित की जाएगी। इसमें किफायती दर पर मजदूरों को आवास मिल सकेगा।
● ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए राज्यों को मार्च में 4200 करोड़ की रुरल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड राशि दी गई। 
● राज्यों ने किसानों को 6700 करोड़ रुपये की मदद की। ये मदद कृषि उत्पादों के जरिये व अन्य तरीकों से की गई। किसानों के खाते में सीधे पैसा भेजा गया। 
● पिछले मार्च और अप्रैल महीने में 63 लाख ऋण मंजूर किए गए जिसकी कुल राशि 86600 करोड़ रुपया है जिससे कृषि क्षेत्र को बल मिला है।
● कोरोना की स्थिति के बाद लॉकडाउन के दौरान 63 लाख लोन कृषि क्षेत्र के लिए मंजूर किए गए। नाबार्ड और अन्य सहकारी बैंकों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

एमएसएमई इकाइयों के लिये,
● मझोली और लघु इकाइयों के लिए 3 लाख करोड़ की क्रेडिट गारंटी योजना। यानी, अगर ये इकाईयां 3 लाख करोड़ का लोन न चुका पाएं तो सरकार उनके लोन का पैसा चुकायेगी। 
● इमरजेंसी क्रेडिट के तहत लोन की सीमा बढ़ा दी गयी है। यानी इन्हीं इकाईयों को अब 2.8 लाख करोड़ और दिए जा सकेंगे। 

कॉरपोरेट के लिये. 
● वित्तमंत्री ने कोयला, खनिज, रक्षा उत्पादन, अंतरिक्ष कार्यक्रम, हवाई अड्डा, केंद्र शासित राजयी के विद्युत वितरण, वायु उड़ान प्रबंधन, और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्रों को इस राहत पैकेज के दौरान खोल दिया है। 
● इसके बाद टाटा पावर, जेएसडब्ल्यू स्टील, जीवीके, हिंडाल्को और जीएमआर को लाभ मिलेगा। 
● अडानी ग्रुप के सामने कोयला, विद्युत विवरण, रक्षा, खनिज और हवाई अड्डे के क्षेत्रों में सबसे अधिक अवसर होगा। 
● वेदांता और आदित्य बिड़ला ग्रुप के हिंडाल्को को खनिज और खनन में लाभ मिलेगा। 
● 50,000 करोड़ कोयला खनन के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर व्यय किये जायेंगे। 
● छह नए एयरपोर्ट निजी कंपनियों को दिए जाएंगे और, 12 नए एयरपोर्ट पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप में बनाये जाएंगे। 
● कुल 50 खनिज क्षेत्रों की नीलामी की जाएगी। कोकिंग कोयला और बॉक्साइट की नीलामी मिला कर की जाएगी जिससे एल्युमिनियम निर्माता कंपनी हिंडाल्को और वेफन्ता को इसका लाभ मिल सके।
● 500 नए खनिज क्षेत्र भी नीलामी के लिये खोले जाएंगे। 
● नए और वर्तमान खदान धारकों की श्रेणी जो कैप्टिव और नॉन कैप्टिव में विभक्त है को रद्द कर एक कर दिया जाएगा। 
● अडानी ग्रुप के पास इस समय 6 एयरपोर्ट, अहमदाबाद, तिरुअनंतपुरम, लखनऊ, मंगलुरु, गुआहाटी और जयपुर एयरपोर्ट हैं। यह ग्रुप नए एयरपोर्ट की नीलामी लेने में सबसे आगे है। 
● अनिल अंबानी के रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर के पास 648 करोड़ का राजकोट एयरपोर्ट का ठेका पहले से है। जीएमआर और जीवीके ग्रुप भी एयरपोर्ट खरीदने में रुचि रखते हैं, जो इस क्षेत्र में बड़े नाम हैं। 
● कल्याणी ग्रुप जो पुणे का है की रुचि रक्षा उत्पादन में हैं और वह हथियार तथा आयुध निर्माण के क्षेत्र में कदम बढ़ाने को तैयार है। 

उपरोक्त राहत पैकेज का अगर सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाय तो मज़दूरों और किसानों को प्रवासी कामगारो को तीन वक़्त के भोजन, मनरेगा में अधिक राशि का प्राविधान, एक राशनकार्ड, बिना कार्ड वालों को भी राशन, जैसी कुछ राहत की बातों को छोड़कर, शेष घोषणाएं, ऋण, क्रेडिट, और उद्योग विस्तार से जुड़ी हैं। उद्योग विस्तार, ऋण और क्रेडिट तीनो ही बहुत ज़रूरी है, पर यह सब, तभी संभव हो सकेगा जब बाजार में मांग आये। बाजार में मांग की कमी 2016 की नोटबन्दी के बाद से लगातार घट रही है। यही कारण है कि बैंकों से लोन भी लोग नही ले रहे है। बैंकों की स्थिति यह है कि उनके पास लगभग, 70 खरब रुपये जमा हो गए थे, क्योंकि एनपीए के डर से बैंक कर्ज़ देने से बच रहे थे। मार्च 2020 तक बैंक 2-3% कर्ज़ ही बांट पा रहे थे। फिर आरबीआई ने एक लाख करोड़ रुपये बैंकिंग सिस्टम में वापस डाले, लेकिन सरकार के अनुसार, छोटे और मझोले उद्योगों ने ऋण लेने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। कारण,यहां भी वही, सुस्त बाजार और मांग की कमी का रहा, जो अब भी बना हुआ है। जबकि, कॉरपोरेट में, रिलायंस, टाटा, एलएंडटी और महिंद्रा जैसी कम्पनियों ने, खूब कर्ज़ उठाया। उसके बाद भी, आरबीआई ने छोटे बैंकों के लिए दूसरा पैकेज दिया। उसमें से 250 करोड़ ही बैंकों ने उठाया। ये बैंक छोटे माइक्रो फाइनेंस कंपनियों को कर्ज़ देते हैं। यह कर्ज़ मेला भी असफल हुआ। 

अर्थ समीक्षकों के अनुसार, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, जिनका देश की अर्थव्यवस्था में 30 % योगदान है, और पावर सेक्टर के लिये 6 लाख करोड़ के  पैकेज की घोषणा की गयी है । पावर सेक्टर की देनदारी, इधर तालाबन्दी से  ₹ 94000 करोड़ हो गयी थी तो, सरकार ने इस सेक्टर को 90 हज़ार करोड़ की मदद कर दी। भारत की सूक्ष्म, लघु और मध्यम इकाईयों की हालत नोटबन्दी के बाद से लगातार खराब है, जिससे, बैंक इन्हें लोन देने से बचते हैं। लेकिन सरकार  अब अपनी गारंटी की बात कर रही। पर लोन मिल भी जाय, उनका सदुपयोग हो भी जाय, पर जब तक मांग की कमी बनी रहेगी, तब तक इन कंपनियों में कोई भी उत्पादन कम्पनियों के लिये लाभ का सौदा नहीं रहेगा। यह बात मैं कई उद्यमियों से बातचीत के बाद कह रहा हूँ। एसबीआई के एक शोध के अनुसार, भारत की 45 लाख एमएसएमई पर 1 मार्च 20 तक 14 लाख करोड़ की धनराशि बकाया थी। वित्त मंत्री ने इमरजेंसी क्रेडिट के तहत लोन की सीमा और बढ़ा दी है। यानी इन्हीं इकाईयों को अब 2.8 लाख करोड़ और दिए जा सकेंगे। सरकार ने एमएसएमई  की बेहतरी के लिए जिस 50 हज़ार करोड़ के फण्ड का ऐलान किया है, उसकी सच्चाई यह है कि सरकार सिर्फ 10 हज़ार करोड़ रुपए खुद दे रही हैं, और शेष पैसा एसबीआई और एलआईसी  को देना है। एसबीआई की हालात एनपीए ने खराब कर रखी है और एलआईसी की भी वित्तीय स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। 

पहले यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में यह मंदी कोरोना आपदा के ही कारण है। निश्चय ही कोरोना आपदा, लॉक डाउन और व्यावसायिक गतिविधियों के ठप हो जाने के कारण आज हम अधिक संकट में घिर गए हैं, पर इस संकट की शुरुआत नोटबन्दी के बाद से ही शुरू हो गयी थी। 2016-17 से ही अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज होने लगी थी, जो कोरोना आपदा के कारण लगभग बैठ गयी है। अगर कोरोना आपदा न भी आती तो भी यह गिरावट आगे होती ही, बस यह होता कि इसकी गति थोड़ी कम होती। देश की गिरती अर्थव्यवस्था ने सरकार को 2018 - 19 से ही परेशानी में डाल रखा है। सरकार  इससे निपटने के लिए हांथ पांव मार भी रही है। देश में रोजगार में मौके 2016 - 17 से ही कम हो रहे है, जीडीपी 3 साल के निचले स्तर पर एक साल पहले ही आ चुकी है, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक  और थोक मूल्य सूचकांक में गिरावट जारी है। देश का चालू खाता घाटा जीडीपी के 2.4 फीसदी 2018 - 19 में ही आ चुका था। अब तो स्थिति और चिंताजनक है। ऐसे में सरकार के लिए बड़ी चिंता यह है कि, क्या राहत पैकेज से सबकुछ पटरी पर लौट आएगा। 

अब अर्थव्यवस्था के कुछ प्रमुख संकेतकों को देखते हैं। 
● जीडीपी में गिरावट का सिलसिला पिछले छह तिमाहियों से लगातार जारी है। 2017- 18 में तो जीडीपी 3 साल के निचले स्तर पर आ चुकी है। इस दौरान केवल 5.7 फीसदी का जीडीपी ग्रोथ दर्ज किया गया।
● चालू खाता घाटा, अप्रैल-जून तिमाही के दौरान चार साल के उच्चतम स्तर पर है। इस दौरान सीएडी बढक़र जीडीपी के 2.4 फीसदी पर पहुंच गयी है ।
● जबकि पिछले वित्त वर्ष में यह जीडीपी के 0.1 फीसदी पर था, जो कि करीब 3.4 अरब डॉलर थी। गौरतलब है कि एक्सपोर्ट में कमी आने की वजह से देश का चालू खाता घाटे में, बढ़त देखने को मिला है।
● अगस्त 2019 में थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति बढक़र चार महीने के उच्च स्तर 3.24 प्रतिशत पर पहुंच गई। जबकि जुलाई में वह 1.88 फीसदी थी।
● अगस्त 19 के महीने मे खुदरा महंगाई दर 3.36 फीसदी पर पहुंची, जबकि जुलाई में ये दर 2.36 फीसदी थी. अगर केवल खाद्य पदार्थों की खुदरा महंगाई दर की बात की जाए तो यह (-) 0.36 फीसदी से बढक़र 1.52 फीसदी पर आ गयी। नए आंकड़े अभी नहीं आये हैं। 
● रोजगार के आंकड़ों में, पिछले तीन साल में 60 फीसदी की कमी आई है।
● देश में करीब 40 बड़ी कंपनियों के पास बैंको का 2 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है, जो फंसा हुआ है। एसबीआई रिपोर्ट के अनुसार साल 2017-18 में 18 अगस्त तक इंक्रीमेंटल क्रेडिट ग्रोथ में 1.37 लाख करोड़ की कमी आई है।
● पिछले 3 साल में मैन्‍यूफैक्‍चरिंग सेक्‍टर की ग्रोथ 10 से घट कर शून्य को छूने लग गई है। जिसकी वजह से दूसरे सेक्‍टर में ग्रोथ नहीं हो रही है। 
● पिछले 3 साल के दौरान नई नौकरियों में गिरावट आने की सबसे बड़ी वजह मैन्‍यूफैक्‍चरिंग सेक्‍टर ग्रोथ में तेज गिरावट है।
● इकोनॉमिक ग्रोथ की रफ्तार में प्राइवेट सेक्टर के खर्च का भी अहम हिस्सा है। लेकिन आंकड़ों की बात करें तो बीते एक साल में प्राइवेट सेक्टर के खर्च में कोई बढ़ोत्तरी नही दिख रही है। 2016 - 17 की पहली तिमाही में प्राइवेट सेक्टर का खर्च 8.4 फीसदी था जो अब घटकर 2017-18 की पहली तिमाही में केवल 6.7 फीसदी पर रह गया है।

अब कुछ अर्थविशेषज्ञों की राय पढ़ लें। अधिकांश के अनुसार, नोटबंदी, हाउसिंग फॉर ऑल, स्‍मार्ट सिटीज, स्टार्टअप्‍स इंडि‍या, किसानों की आय दोगुनी करने, स्किल डेवलपमेंट मिशन जैसी योजनाएं पुरी तरह से सफल नहीं हो पाई। अगर सरकार की ये योजनाएं सफल होती तो इकोनॉमी को इतना बड़ा नुकसान नहीं होता। 
क्रिसिल के चीफ इकोनॉमिस्ट डी के जोशी के अनुसार, 
" चाहे नोटबंदी हो या जीएसटी सरकार ने रिफॉर्म के लिए जो भी कदम उठाए वो लॉन्ग टर्म को सोचकर उठाएं, इसी के चलते इकोनॉमी ग्रोथ में कमी देखी गई है। अगर सरकार को इससे निपटना है तो इंफ्रा पर फोकस करना होगा। क्योकिं यही एक ऐसा क्षेत्र है जहां से सरकार को जल्द से जल्द आमदनी हो सकती है। "
कृषि वैज्ञानिक, देवेंदर शर्मा के अनुसार, 
" किसानों को करीब 3 लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज की जरूरत है। जिससे वह नोटबंदी और आपदा की मार से उबर सकें। 
अर्थशास्त्री और माल्कोम इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के चेयरपर्सन अरुण कुमार के अनुसार, 
" देश की इकोनॉमी का 45 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र से आता है। नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदमों से इस क्षेत्र को सबसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। इकोनॉमी को बूस्ट करने के लिए सरकार को कम से कम 2.5 लाख करोड़ के बड़े पैकेज का ऐलान करना होगा, वरना इकोनॉमी में गिरावट लंबे समय तक जारी रहेगी। कुमार का कहना है कि सरकार जो 5.7 फीसदी के आंकड़ें बता रही है, हकीकत उससे भी बुरी है। सही तरह से देखा जाए तो ये आंकड़ां 1 फीसदी के आस-पास है।"
यह आकलन कोरोना पूर्व से चल रही आर्थिक मंदी के समय के हैं। अब तो स्थिति और बिगड़ गयी है। 

अब वित्तमंत्री को चाहिए कि, वे एक और प्रेस कांफ्रेंस कर के यह बताये कि,  अब तक जिन कदमो की घोषणा की गई है, उनका क्या असर,  बाजार में मांग पर पड़ेगा ? 
क्या लोगों के पास तत्काल पैसा आ पाएगा जिससे उनकी क्रयशक्ति बढ़ेगी ? 
क्रयशक्ति बढ़ने से मांग को पूरा करने के लिये फैक्ट्री और उद्योगों के थमे पहिये चल पड़ेंगे ? 
सबसे पहले किन उद्योगों पर इस क्रयशक्ति की मांग का असर पड़ेगा ?
मांग की समस्या आज की सबसे बडी समस्या है। डॉ रघुराम राजन, डॉ अभिजीत बैनर्जी, ज्यां द्रेज, डॉ मनमोहन सिंह जैसे अर्थविशेषज्ञों जो भारत की आर्थिकि का लम्बे समय से अध्ययन करते रहे है, जिसमे डॉ मनमोहन सिंह तो देश के पीएम रहते हुए 2008 की मंदी को झेल भी चुके हैं, आदि सबका कहना है कि जब तक बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी अर्थव्यवस्था में गति नहीं पकड़ सकती। तभी यह सवाल उठता है कि इस राहत पैकेज में घोषित किन कदमों से मांग बढ़ेगी और बाजारों में रौनक आएगी, यह बात भी सरकार को बतानी चाहिए। 

अर्थव्यवस्था एक चक्र की तरह होती है। सब एक दूसरे पर आश्रित। कोई भी विंदु या चरण आत्मनिर्भर नहीं है। हो भी नहीं सकता है। समाज के सहअस्तित्व का यही विधान है। ग्लोबलाइजेशन या मुक्त बाजार, इसी सहअस्तित्व का तो परिणाम है। सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं। यही स्थिति अर्थतंत्र की भी है। अगर क्रयशक्ति नहीं बढ़ती है तो मांग भी नहीं उत्पन्न होगी, जब मांग नहीं उठेगी तो, उद्योगों में सन्नाटा बना रहेगा, जब सन्नाटा बना रहेगा तो रोजगार के अवसर नहीं बढ़ेंगे, जब रोजगार के अवसर नहीं बढ़ेंगे तो फिर बेरोजगारी बढ़ेगी जो पहले से ही बढ़ रही है। फिर घूमफिर कर बात वहीं आ जायेगी कि लोगो के पास पैसे नहीं पहुंचेंगे जिससे उनकी क्रयशक्ति बेहद कमजोर हो जाएगी । इस जटिल तंत्र को राहत पैकेज से गति कैसे मिलेगी, यही सबसे बड़ा सवाल है और इसी का समाधान सरकार को करना है। 

यह कोई कल्पना नहीं हक़ीक़त है। आज  के आर्थिकी की सबसे बडी समस्या ही यह है, बाजार में मांग की कमी। ऐसा बिलकुल भी, इसलिए नही है, कि अब लोगो की ज़रूरतें कम हो गयी है या लोग संतुष्ट हो गए हैं, या सब अपरिग्रह मार्ग पर चल पड़े हैं, बल्कि लोग मजबूर हैं। वे चाहते हैं बाजार से कुछ खरीदना, ऐश से जीना, पर वे आशंकित है भविष्य की आशंका से, देश की बिगड़ती हुयी औद्योगिक दुरावस्था से। लोग अपनी जरूरत कम कर रहे हैं। पहले जो चीजें, विलासिता की समझी जाती थी, वे ज़रूरत बन गयी हैं, कुछ एकाध चीजें यूँही एक्स्ट्रा खरीद ली जाती थीं, अब उन पर लगाम लगेगी। लेकिन यह लगाम मज़बूरी की होगी, अपरिग्रह भाव से नहीं होगी। यही स्थिति, होटल, रेस्टोरेंट, सिनेमाघर, मॉल हर जगह एक आदत बन कर आएगी। जब खर्चे कम होंगे तो किसी की आय कम होगी, यह भी निश्चित है। 

कोरोनोत्तर समाज मे यह एक महत्वपूर्ण  बदलाव होगा कि, लोगों में सामान्यतया फिजूलखर्ची की जो आदत होती थी, वह अब थमने लगेगी। लोगों में अल्पव्ययता की प्रवित्ति आएगी।  मितव्ययिता तो एक ठीक सोच है क्योंकि वह बचत को बढ़ावा देती है। बचत की आदत भारतीय समाज की पुरानी आदत रही है। हमारी मानसिकता ही गाढ़े समय के लिये बचत की होती है। इसलिए कम से कम वेतन में भी लोग कुछ न कुछ बचाने की सोच लेते हैं। पर 1991 के बाद जब ग्लोबलाइजेशन का दौर आया तो इस मितव्ययिता की आदत को कृपणता समझ लिया गया। इस आदत को भी पुरातनपंथी समझा गया और 'खाओ पीयो ऐश करो' की मानसिकता से मध्यवर्ग का युवा प्रेरित होने लगा। इसका कारण निजी क्षेत्रों में अच्छे अच्छे वेतन पैकेज पर मिलने वाली नौकरियां भी हैं। अब लोग इस महामारी और अभूतपूर्व लॉक डाउन के कारण, पुनः बचत की ओर प्रेरित होंगे। क्योंकि बचत का महत्व अब सबकी समझ मे आने लगा है। 

उपभोक्ताबाद और बैंकों के उदारतापूर्वक, भवन, बाहन ऋणों की परंपरा ने लोगों को उधार पर जीने की जो आदत डाली उससे आर्थिक विकास के कई नए आयाम तो खुले, विकास भी हुआ, पर लोगों की जीवनशैली को भी उधार की अर्थव्यवस्था पर भी आधारित बना दिया। ऋण अब उतना बड़ा बोझ नहीं समझा गया जितना 'सवा सेर गेहूं' के समय मे समझा जाता था। जिसका एक बेहद विपरीत परिणाम कोरोनोत्तर आर्थिक युग मे लोगों को भुगतना पड़ सकता है। उपभोक्तावाद का मूल ही है, जो धन है, उसे खर्च करो। 'बाय वन गेट वन', सेल, कुछ प्रतिशत की छूट, यह सब मार्केटिंग के जो नए फंडे हैं, यह बचत और अपरिग्रह विरोधी हैं और यह इन दोनों गुणों को दकियानूसी मान कर चलते हैं। इसीलिए बैंकों ने ऋणों को तो प्रोत्साहित किया, पर बचत पर लगातार व्याज घटाकर उसे हतोत्साहित भी किया। 

आज ज़रूरत है कि अधिक से अधिक तरलता बाजार में आये। नकदी भी आये। कैशलेस, लेसकैश, कार्ड पेमेंट अच्छी प्रथा है पर इन सबका मूल भी वहीं जा कर टिक जाता है कि लोगों के पास पैसा कितना है। आम जन को, आपदा से निकलने के लिये राहत पैकेज, और कॉरपोरेट को निजीकरण की राहत, यह दोनों बातें, अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से अलग अलग हैं।  समृद्ध कॉरपोरेट भी नौकरी देता है और देश के विकास में अहम योगदान भी उसका है। लेकिन,  मांग और आपूर्ति का जो मूल सिद्धांत का प्रश्न, जिसपर बाजार टिका हुआ है, वह फिर, प्रासंगिक हो जाता है कि, जब बाजार में मंदी आएगी तो कॉरपोरेट कैसे अछूता रहेगा ? अर्थव्यवस्था, सीमित साधनों के बेहतर अर्थ प्रशासन की बात करती है। इसीलिए, त्वरित, लधु और दीर्घ अवधि की योजनाओं को अपनाने की बात समय और चुनौती के अनुरूप की जाती है। यह पैकेज सरकार की गिरोहबंद पूंजीवाद पर आधारित अर्थव्यवस्था का एक दस्तावेज भी है जिसमे निजीकरण, एफडीआई, और कॉरपोरेटीकरण की खुल कर न सिर्फ बात ही की गयीं है बल्कि सब कुछ निजी क्षेत्रों में सौंपने का अपना एजेंडा पूरा किया गया है। कॉरपोरेट के लिये यह आपदा एक अवसर ही तो हैं। प्रत्यक्ष रूप से इस राहत पैकेज में मज़दूरों, किसानों, नौकरी पेशा, मध्यवर्ग, छोटे और मझोले उद्योगपतियों और व्यापारियों के लिये ऐसा कुछ भी उत्साहवर्धक नहीं है, जिससे यह उम्मीद की जा सके कि, इनका कल, बेहतर होगा। 

कोरोनोत्तर काल मे तो अब यह सारा औद्योगिक चक्र ही जाम हो गया है। अब तक, 13 करोड़ लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं। जिनकी शेष हैं उनकी तनख्वाहें कम हो रही हैं। परिणामस्वरूप उनकी क्रय शक्ति और कम हो रही है। उनमे से भी जिन्होंने, लोन पर मकान, फ्लैट, वाहन आदि खरीद रखे हैं, उनके लिये, ईएमआई और कर्ज़ अदायगी एक बड़ी समस्या बनने वाली है। सरकार द्वारा ₹ 20 लाख करोड़ का राहत पैकेज किस तरह से देश के लोगों की इन समस्याओं का समाधान कर सकेगा, आज का सबसे ज्वलन्त सवाल यही है। वित्तमंत्री को एक प्रेस कांफ्रेंस इस ज्वलंत विदुओँ पर भी करना चाहिए। आगर सरकार इन विन्दुओं को स्पष्ट नही  कर पाती है तो यह बीस लाखकरोड रुपये का राहत पैकेज अब तक का सबसे महंगा जुमला बन कर रह जायेगा। 

( विजय शंकर सिंह )

कोरोना महामारी को रोकने हेतु लागू किए मॉडलों के अध्ययन के आधार पर कुछ आरजी नतीजे - सनी सिंह / विजय शंकर सिंह

कोविड-19 के अभी तक 4,805,210 केस सामने आ चुके हैं, इस दौरान 3,16,732 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। दुनिया भर में इस महामारी को रोकने के प्रयास जारी हैं और आम मेहनतकश आबादी पर इसके कहर ने पूंजीवादी व्यवस्था की पोल भी खोल कर रख दी है।इस बीमारी ने व्यवस्था की दरारों को तो उजागर किया ही है परन्तु इसने तमाम प्रगतिशील ताकतों में भी इस बीमारी को समझकर सही नतीजे निकालने पर एक बहस पैदा की है।

अपनी बात समझाने के लिए ही हम 8 पूंजीवादी देशों के कोविड -19 से लड़ने के अनुभव का विश्लेषण कर रहे हैं। अगर वैज्ञानिक पैमानों की बात करें तो ज्ञात आंकड़ों के अनुसार कोरोना वायरस से ग्रस्त एक व्यक्ति की अन्य लोगों को संक्रमित करने की दर (जिसे आरओ में मापा जाता है यानी एक व्यक्ति कितने लोगों को संक्रमित करता है) 2-2.5 के बीच है तथा ऑनसेट टाइम 14 दिन है (वह समय जबतक वायरस बिना लक्षण के शरीर में रह सकता है), जोकि फ्लू वायरस से अधिक है। इस वायरस पर लगभग हर देश में तमाम षड़यंत्र सिद्धांत भी सामने आए हैं। इन षड़यंत्र सिद्धांतकारों के अनुसार यह वायरस वुहान के लैब में / अमरीकी सैन्य लैब में बना था/ इसे बिग फार्मा कम्पनियों ने बनाया है/ और इस की टेस्टिंग व वैक्सीन के जरिए ये मुनाफा पीटना चाहते हैं / यह तानाशाही बढाने के लिए किया गया और यह वायरस हमेशा से मौजूद है और साधारण सर्दी जुकाम के अलावा कुछ नहीं है। हैरत की बात यह है कि इसमें वामपंथियों की भी एक नस्ल शामिल है।

अमरीका, यूके, बेलारूस और ब्राज़ील जैसे देशों में कम-से-कम शुरुआत कोरोना वायरस को दक्षिणपन्थी सरकारों ने झूठ करार दिया और इसके खतरे को बेहद कम करके आंका और इसे महज साधारण सर्दी जुकाम तक बताया। कोविड-19 बीमारी के फैलने के साथ ही जब संक्रमण के बारे में अधिक सटीक तस्‍वीर उभरने लगी तो सरकारों का रवैया भी बदलता गया और साथ ही षडयंत्र सिद्धांतकारों के सिद्धांत भी बदलते गए। कोरोना वायरस के बारे में पेश किए ये शुरुआती मूल्यांकन एक हद तक यह भी तय कर रहे थे कि इस बीमारी को सरकार किस तरह से हैण्डल करेगी।

चीन में वुहान शहर में पूर्ण लॉकडाउन किया गया और सर्विलांस के जरिए लोगों को घर में रहने को मजबूर किया गया जिसे दमनकारी राज्यू मशीनरी के जरिए लागू करवाया गया। साउथ कोरिया में लॉकडाउन पूरी तरह लागू नहीं किया गया परन्तु व्यापक टेस्टिंग, सर्विलांस और इलाज के जरिए बीमारी पर काबू पाया गया। जर्मनी से लेकर वियतनाम में सरकारों ने वायरस को रोकने के लिए लॉकडाउन, मास टेस्टिंग, क्वारंटिन और इलाज के तमाम मॉडलों को लागू किया। इन मॉडलों को लागू करने के पीछे पूंजीवादी मुल्कों की सरकारों की राजनीतिक अवस्थिति भी साफ हुई है। सरकारों द्वारा उठाए गएकदमों और सापेक्षिक रूप से बेहतर सार्वजनिक स्वास्‍थ्‍य सुविधाओं के चलते कुछ मुल्कों में बीमारी को बेहतर तरीके से फैलने से रोका गया। दक्षिणपन्थी राजनीतिज्ञ किसी भी सूरत में अर्थव्यवस्था को चालू करने के लिए कह रहे हैं, वे बता रहे हैं कि सरकारों को लॉकडाउन तुरन्त खत्म कर देना चाहिए। इसके लिए हर्ड इम्युनिटी, सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट की दुहाई देकर वायरस के साथ अब नॉर्मलाइज़ होकर जीने की बात कह रहे हैं।

अब जबकि जनवरी से लेकर मई तक का अनुभव हमारे सामने है और तमाम सरकारों द्वारा लागू किए गए कदमों के आंशिक नतीजे भी सामने आ चुके हैं तो हम सरकारों द्वारा लागू किए मॉडलों के अध्ययन के आधार पर (जो निश्चित ही अपर्याप्त आंकडों पर आधारित है) कुछ आरजी नतीजे निकालने की कोशिश करेंगे। इन 5 महीनों में जब से यह बीमारी फैली है हम कुछ प्रतिनिधिक देशों के प्रयोगों के आधार पर यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि कौन सी रणनीति अधिक कारगर सिद्ध हुई और कौन सी रणनीति असफल हुई है। साथ ही हम सरकारों के रवैये के पीछे काम कर रही राजनीतिक अवस्थिति पर भी रौशनी डालते चलेंगे और साथ ही लॉकडाउन के मॉडलों को लेकर चल रही बहस पर अपनी समझ भी रखेंगे।
यहां एक बात स्परष्ट करते चलें कि आज दुनिया में किसी भी देशमें समाजवाद काबिज नहीं है और यहां हम जिन देशों का अध्य्यन कर रहे हैं वे सभी पूंजीवादी देश हैं। इन देशों में जो भी नीतियां लागू की गई हैं वे जिस राज्य मशीनरी द्वारा लागू करवाई गई हैं उनका चरित्र ही जनविरोधी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राज्य एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर शासन का यंत्र होता है। पूंजीवादी समाज में यह पूंजीपति वर्ग की जनता के ऊपर तानाशाही होती है। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में समाजवादी राज्य आसानी से जनता के बीच सोशल डिस्टेंसिंग व पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन सरीखे कदमों को लागू कर सकता है। केवल समाजवादी राज्य इस बीमारी द्वारा हो रहे नुकसान को कम से कम कर सकता है और समाज को इससे उबार सकता है क्योंकि तब समाज के केन्द्र में मुनाफा नहीं होगा बल्कि मनुष्य होगा। चीन में मेनिंगिटिस बीमारी से उबरने के लिए 1968 में समाजवादी राज्य ने भी लॉकडाउन लागू किया परन्तु यह मौजूदा सरकारों द्वारा लागू किए लॉकडाउन से भिन्न था। बुर्जुआ जनवाद के ऊंचे पैमानों वाले देश स्वीडन से लेकर नकली लालझण्‍डे वाले सामाजिक जनवादी वियतनाम तक सभी पूंजीवादी देशों में पूंजीवादी राज्‍य जनता पर जोर जबरदस्ती के जरिए ही लॉकडाउन व अन्य नीतियां लागू करसकता है। इस बात को साफ़ कर के ही हम आगे बढ़ सकते हैं।

अब देखते हैं कि यदि हम इन सभी देशों में पूंजीवादी सत्ता होने को एक नियतांक मान लेते हैं, तो पूंजीवाद के दायरे के भीतर किन देशों ने कोरोना महामारी पर नियंत्रण पाने में कितनी सफलता प्राप्त की और क्यों ? क्योंकि अपने आप में कोई विशेष कदम प्रतिक्रियवादी या प्रगतिशील नहीं होता है, जैसे कि मास टेस्टिंग, क्वारंटाइनिंग, व ट्रीटमेंट या फिर आशिंक या पूर्ण लॉकडाउन, बल्कि यह इससे तय होता है कि कौन सी सत्ता इन्हें लागू कर रही है और किस प्रकार लागू कर रही है।

1. वियतनाम
वियतनाम में कोविड -19 का पहला केस 23 जनवरी को दर्ज हुआ। वियतनाम में भी चीन कीतरह सत्ता पर 'सामाजिक जनवादी' (कम्युनिस्ट के भेस में पूंजीवादी) तानाशाह सरकार काबिज है जिसने त्वरित कार्यवाही करते हुए तत्‍काल बॉर्डर सील कर दिया और हवाई यात्राओं पर भी तत्काल रोक लगा दी। देश में व्यापक टेस्टिंग की गई, बेहद सख्त कॉन्टै‍क्ट ट्रेसिंग की गई। एक-एक व्यक्ति के सम्पर्क को पहचानकर हजारों लोगों को क्वासरंटाइन किया गया। सरकार ने संक्रमण की सम्भावना के चलते एक बड़ी आबादी को क्वाईरंटाइन किया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण था सरकार द्वारा त्वरित कार्यवाही और बड़ी संख्या में टेस्टिंग करना और कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग था जिसके जरिए संक्रमण को फैलने से रोका गया। यहां पर 2003 में सार्स (SARS) फैलने के बाद से महामारी को फैलने से रोकने के लिए महामारी से निपटने की व्यवस्था मौजूद है। वियतनाम में अब तक 314 कोरोना केस आए हैं और अभी तक एक भी मृत्यु नहीं हुई।
टेस्टिंग किट भी यहां बेहद उन्नत स्तर पर तैयार की गई है और सरकार द्वारा मास्क के निर्यात पर जनवरी से ही रोक लगा दी गई। कोरोना का एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान में ट्रांस्मिट होने का पहला वैज्ञानिक शोध भी वियतनाम के वैज्ञानिकों ने प्रकाशित किया। मार्च अन्ते तक संक्रमण सामान्य सोशल डिस्टेंसिंग से काबू न होते देख सरकार ने 1-15 अप्रैल तक लॉकडाउन किया। मई माह आते-आते वियतनाम में स्थिति सामान्य हो चली है। यह एक दीगरबात है कि यहां भी दमनकारी सरकार पूर्ण तानाशाहनापूर्ण तरीके से यह कदम उठारही है और भारत के संशोधनवादियों और फेसबुकिये लेफ्ट द्वारा इसे कम्युनिस्ट मॉडल बनाकर पेश करना निहायत ही मूर्खतापूर्ण है! यह एक पूंजीवादी देश है जिसमें संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टी समाजवादी खोल के जरिए तानाशाहनापूर्ण तरीके से और विराट राज्य तंत्र के जरिए जनता पर पूंजीपतियों का शासन लागू करती है। कोविड -19 बीमारी को फैलने से रोक पाने की सफलता के पीछे सबसे महत्वतपूर्ण कारण त्वरित कार्यवाही, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग और व्यापक टेस्टिंग थी। ये सारे काम एक समाजवादी देश में जनसमुदायों की पहलकदमी और रज़ामन्दी के ज़रिये किया जा सकता है, यह तो चीन पचास साल पहले ही दिखा चुका है। इसलिए ये कदम अपने आप में प्रतिक्रियावादी या प्रगतिशील नहीं होते जब तक कि हम यह न देखें कि उन्हें जो राज्यसत्ता लागू कर रही है, उसका वर्ग चरित्र क्या है और इन्हें किस प्रकार लागू किया जा रहा है।
इस सफलता के बावजूद वियतनाम के मॉडल के बारे में अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में बेहद कम ज़िक्र किया जा रहा है और जिस मॉडल को कारगर और सफल मॉडल के रूप में पेश किया जा रहा है वह जर्मनी है जहां फ़िलहाल 8000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं और लॉकडाउन भी वियतनाम से ज्यादा दिनों के लिए लागू किया गया है। इसमें आबादी के ज्यादा होने का कोई खेल नहीं है क्योंकि वियतनाम की आबादी 9.5 करोड़ है जबकि जर्मनी की आबादी 8.4 करोड़ है और आबादी का घनत्व भी वियतनाम में अधिक है।

2. दक्षिण कोरिया
दक्षिणी-पूर्वी एशिया में चीन के बाद सबसे अधिक तेजी से दक्षिण कोरिया में यह वायरस फ़ैला। यह ऐसा देश है जहां पश्चिमी देशों सरीखा ''जनवाद'' है। हाल ही में बान की मून की फिल्म पैरासाइट को ऑस्कर से भी नवाजा गया। दक्षिण कोरिया में भी वियतनाम की तरह 2003 सार्स व अन्‍य महामारियों के जूझने की वजह से महामारी से निपटने की एक व्यवस्था मौजूद है। दक्षिण कोरिया मेंभी वियतनाम की तरह त्वकरित रेस्पांस, व्यािपक टेस्टिंग और चेन ऑफ ट्रांस्मिशन (कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग) और क्वारंटाइन लागू किया गया। यहां पूर्ण लॉकडाउन लागू नहीं किया गया। चीन से एक मायने में यह अलग इसलिए था कि यहां पर एक्सपोज़्ड लोगों को घर पर ही क्वाारंटाइन रहने दिया गया (चीनमें जबरन अस्पइतालों में भर्ती कराया गया था)। पर चीन के साथ इस मामले में समानता थी कि क्वारंटाइन व संक्रमण पर नज़र रखने के लिए इसने व्यापक सर्विलांस किया। दक्षिण कोरिया में भी केस मार्टेलिटी रेट बेहद कम है यानी संक्रमित लोगों में बेहद कम लोगों की मृत्यु हुई है। टेस्टिंग के लिए दक्षिण कोरिया ने मोबाइल सेंटर से लेकर ड्राइव थ्रू के जरिए टेस्टिंग की भी सुविधा की जिससे एक बड़ी आबादी का टेस्ट बेहद जल्दी हो सका। दक्षिण कोरिया ने फरवरी में ही टेस्टिंग पूरी क्षमता से किया जिससे कि बीमारी को फैलने से रोका जा सका और मार्च की शुरूआत से ही यहां नए केस की संख्या कम हो गई और फ़िलहाल यहां स्थिति काबू में है। दक्षिण कोरिया में कुल 11037 कोरोना के संक्रमण सामने आए हैं जिनमें 262 लोगों की मृत्यु हुई है। यहां कुल 741145 टेस्ट कराए गए और प्रति दस लाख पर टेस्ट संख्या 14457 है।
3. व 4. जापान और ताइवान
वियतनाम और दक्षिण कोरिया से ही मिलते जुलते उदाहरण जापान और ताइवान के भी हैं जहां पर बेहद कम संक्रमण हुआ है और मृत्‍यु भी काफ़ी कम हुई है। ताइवान में बेहद कम संक्रमण का एक कारण चीन से सीख लेना था और व्यापक टेस्टिंग व कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के ज़रिए संक्रमण को रोकना था। यहां लॉकडॉउन लागू करने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि सही वक्त पर सही कदम उठाने का काम कमोबेश ठीक तरीके से किया गया। ताइवान में कुल 440 लोग कोरोना से संक्रमित हुए और इनमें 7 लोगों की मृत्यु हुई। ताइवान में कुल 68988 टेस्ट कराए गए व प्रति दस लाख पर टेस्ट संख्‍या 2897 है। वहीं जापान में लोगों के आदतन मास्क पहनने और सामाजिक जीवन में रचे-बसे वैज्ञानिक रवैये के चलते भी बीमारी पर काबू पाना सम्भव हो सका। जापान में कोरोना के 16203 केस सामने आए हैं जिनमें 713 लोगों की मृत्यु हुई। इस दौरान जापान में कुल 233144 टेस्ट कराए गए और प्रति दस लाख टेस्ट संख्या 1843 है।

5. अमरीका
अमरीका में कोरोना वायरस दुनिया भर के मुकाबले सबसे अधिक फैला है। सभी को पता है कि अमरीका में ट्रम्प ने कोरोना को लेकर जितना झूठ बोला है और जितनी गलतबयानी की है उस मामले में वह हमारे देश के प्रधानमन्त्री को चुनौती देता प्रतीत होता है! अमरीका में कोरेाना का पहला केस 19 जनवरी को दर्ज किया गया था। जनवरी में ही अमरीका की सेना के एक दस्तावेज में कोविड-19 के भयंकर महामारी बनने की आशंका व्यक्त की गई थी। परन्तु तब ट्रम्प ने अमरीकी जनता को ''सब चंगा सी'' कहा। ट्रम्प ने केस बढ़ने पर इसे चीनी वायरस कहा और कोरोना को लेकर चल रहे तमाम षडयंत्र सिद्धांतों को हवा दी। मार्च तक बेहद कम टेस्ट हुए थे पर जितने भी टेस्ट हुए उससे साफ हो रहा था कि संक्रमण फैल रहा है। विदेश से लौट रहे लोगों की पर्याप्त जांच नहीं हुई। इसके चलते जब सरकार की आलोचना हुई तब ट्रम्प ने अंततः मार्च माह की शुरुआत में कोविड-19 को राष्ट्रीयआपदा घोषित किया। तमाम आलोचनाओं के बाद मार्च में धीरे-धीरे टेस्टिंग बढ़ाई गई और कई स्टेट्स में लॉकडाउन भी लागू किया गया। परन्तु् संक्रमण फैल चुका था। आज हर रोज़ हज़ारों लोग बीमारी की चपेट में आ रहे हैं। अब तक अमरीका में 15 लाख से ज्‍यादा लोग बीमार हो चुके हैं और 90000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। हालांकि अबतक अमरीका में 11875580 टेस्ट हो चुके हैं लेकिन प्रति दस लाख पर इन टेस्ट की संख्या 35903 है जो अभी भी कई यूरोपीय देशों से कम है। यह भी गौर करने की बात है कि यह टेस्टिंग मार्च में शुरू हुई और अप्रैल-मई में मौजूदा स्तर तक पहुंची है।अमरीकी सरकार ने चीन से और संक्रमित क्षेत्रों से आने वाले लागों की जांच और हवाई सेवाओं पर रोक काफी बाद में लगाई। वियतनाम और दक्षिण कोरिया के उदाहरण के बरक्सि टेस्टिंग बढ़ाने और संक्रमण को रोकने में काफी देर की गई। अमरीका में 90000 से ज्यादा लोगों की मौत के पीछे भी कई कारण हैं। निश्चित ही इन मौतों के पीछे सबसे बड़ा कारण सरकार का बेहद धीमा रेस्पोंस था जिसकी वजह से यह बीमारी पूरे देश में फैल गई। दूसरा सीडीसी (महामारी का नियंत्रण कर रही अमरीकी एजेंसी) ने मरीजों को कोरोना के लक्षण आने पर भी अस्पताल आने की जगह घर रहने पर जोर दिया। बीमारी फैलने की शुरुआत मेंअमरीका में टेस्ट की क़ीमत और अस्पताल का खर्चा खुद मरीज को देना था जिस वजह से वैसे ही एक बड़ी आबादी इस टेस्ट से दूर रही। तीसरा, इस दौरान सबसे अधिक मौतें इस वजह से भी हुई कि अस्पतालों में केवल अतिगंभीर लोगों को ही भर्ती किया गया जिसके कारण वे लोग जिनके लक्षण अतिगम्भीर नहीं थे उन्हें सरकार ने अस्पेतालों में भर्ती करने से इंकार कर दिया। ये तीन कारण अमरीका में इतनी अधिक मौतों के जिम्मेदार है।
इन मौतों के बावजूद आंशिक लॉकडाउन का पूंजीपतियों की लॉबी ने जमकर विरोध भी किया। इस दौरान ट्रम्प ने भी राज्यों को लॉकडाउन की नीतियों से मुक्त करने का आह्वान भी किया। इस आह्वान पर फासिस्ट और दक्षिणपन्थियों ने जगह जगह सड़कों पर जाम भी लगाया और आर्थिक गतिविधियों को पुन: शुरू करने की मांग की। हाल ही में ऐसा एक कार्यक्रम 'ऑपरेशन ग्रिडलॉक' ट्रम्प के आह्वान पर आयोजित किया गया जिसका मकसद सड़क जामकर लॉकडाउन का विरोध करना था। अमरीकी पूंजी के प्रतिनिधियों का सीधा नंगा माल्थसवादी तर्क है कि हमें अर्थव्यवस्था चलानी होगी और इसके लिए आबादी का कमजोर हिस्सा कुर्बान कर देना चाहिए। इस तर्क को ही कपड़े पहनाकर हर्ड इम्युनिटी विकसित कर कोविड-19 से लड़ने की बात कही गई। यूके में भी बोरिस की सरकार यह कह रही थी परन्तुइ बोरिस को भी जब कोरोनावायरस ने चपेट में ले लिया और संक्रमण फैलने से जब जनदबाव बढ़ा तो वहाँ भी मास स्केल पर टेस्टिंग करनी पड़ी।
खैर, अपने माल्थसवादी तर्क को और अधिक सुसंगत करते हुए अमरीका में दक्षिणपन्थी अब यह कर रहे हैं कि कोरोना एकमात्र बीमारी नहीं है और बेरोज़गारी के कारण, कैंसर और अन्य बीमारियों के कारण भी बहुत अधिक लोग मारे जा रहे हैं इसलिए हमें लॉकडाउन खोल देना चाहिए। परन्तु वे इन मौतों के लिए पूंजीवाद को जिम्मेदार नहीं ठहराते हैं। इसमें एक चेहरा फॉक्स न्यूज़ की हैल्थ एक्सपर्ट डॉ शैपिरो भी हैं। इन्होंने हाल ही में एक किताब लिखी है 'मेक अमरीका हैल्थी एगेन'। किताब के नाम से ही जाहिर है कि वे ट्रम्प की समर्थक हैं और इस किताब में यूनिवर्सल हैल्थ केअर को मूर्खता बताती हैं और उनके अनुसार स्वास्‍थ्‍य व्यक्ति का निजी मसला है और अमरीकियों को सरकार का मुंह ताकने की जगह बेहतर जीवनशैली अपनानी चाहिए। हमारे देश के कोविडियट्स ने भी कुछ ऐसी ही राय दी थी कि अच्छा खाओ, व्यायाम करो, और स्वस्थ रहो! शिपैरो के अनुसार अमरीकी लोग महानतम राष्ट्र में जी रहे हैं परन्तु वे खुद ही स्वस्थ न होने की वजह से देश की महामारी से जंग में सबसे कमजोर कड़ी हैं। हमारे देश के कोविडियट्स के समान ही वे हर तीन-चार दिन में बताती हैं कि फलां बीमारी से लोग अधिक मरते हैं इसलिए हमें कोरोना से अधिक अन्य बीमारियों पर ध्यान देना चाहिए व अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए लॉकडाउन खोलने की तरफ बढ़ना चाहिए। परन्तु यह अलग बात है कि शैपिरो भी लॉकडाउन को पूरी तरह गलत नहीं मानती है और महामारी फैलने की सूरत में इसे कारगर मानती हैं और यह भी मानती हैं कि इसे तत्काल नहीं हटाना चाहिए बल्कि ''अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने'' के लिए धैर्यपूर्वक लॉकडाउन हटाया जाना चाहिए और भविष्य में भी सोशल डिस्टेरन्सिंग व अन्यभ सावधानी बरतनी चाहिए। परन्तु शैपिरो द्वारा पेश तर्क को भारत के अनपढ़ ''मार्क्सवादी'' उद्धृत कर लॉकडाउन की नीति को गलत साबित करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। वास्तव में, महज़ लॉकडाउन अपने आप में कोई समाधान है ही नहीं। पहली बात तो यह है कि यदि सही समय पर सही कदम उठाए जाएं तो इसकी आवश्यकता से बचा जा सकता है। दूसरी बात, यदि किन्ही वजहों से आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन अनिवार्य हो भी जाए तो उसे पूर्ण तैयारी और योजनाबद्धता के साथ लागू किया जाना चाहिए। और तीसरी बात यह कि यदि पूर्ण योजनाबद्धता के साथ लागू करने पर भी लॉकडाउन के दौरान मास टेस्टिंग व ट्रीटमेंट नहीं किया जाता तो फिर इसका कोई लाभ नहीं होता, उल्टे हानि होती है। लेकिन हमारे कोविडियट्स लॉकडाउन करने या न करने का मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का सैद्धान्तिक मुद्दा मानते हैं! कहने की आवश्यकता नहीं कि यह अवस्थिति ही मूर्खतापूर्ण है। इनपर हम नतीजों पर बात करते हुए फिर लौटेंगे।

आज अमरीका में कोविड-19 बीमारी विकराल रूप ले चुकी है और प्रतिदिन मृत्यु की नज़र से देखें तो यह फ़िलहाल सबसे अधिक मृत्यु का कारण है। अमरीका द्वारा बीमारी को जिस तरह से सम्भाला गया उससे यह साफ है कि एक बेहद ढीला रवैया, कम मास टेस्टिंग और अस्पातालों में अपर्याप्त इलाज बीमारी के भयंकर रूप ग्रहण करने के कारण हैं।

6. यूके
यूके की बोरिस सरकार का भी कुल मिलाकर कुछ अन्तरों के साथ कोरोना बीमारी को सम्भालने में अमरीका जैसा ही ढीला रवैया अपनाया गया और यहां पर टेस्टिंग की गति को मार्च अंत में ही बढ़ाया गया। यूके में कोविड-19 के कुल 240161 केस आए हैं जिसमें 34466 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। इस दौरान यूके मेंकुल 2489563 टेस्ट कराए गए व प्रति दस लाख टेस्ट संख्या 36697 है।

7. जर्मनी
जर्मनी को इस समय पश्चिमी देशों में कोविड-19 बीमारी के सफ़ल मॉडल के तौर पर पेश किया जा रहा है। परन्तु जर्मनी में अभी तक 175900 केस आ चुके हैं और 8002 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। एंजेला मर्केल के वैज्ञानिक होने और उनके द्वारा मंच पर बेहद 'अच्छीे' बात रखने के तरीके के कारण उन्हें इस बीमारी में उभरे पश्चिमी नेता के रूप में पेश किया जा रहाहै। परन्तुे असल में जर्मनी केवल सापेक्षिक तौर पर स्पे‍न, इटली, यूके और अमरीका से ही अधिक सफ़ल है। यहां पर मास स्केल टेस्टिंग भी एक लम्बे समय बाद ही शुरू हो सकी। जब यह बीमारी चीन में फैल रही थी तब जर्मनी की सरकार ने इसे 'बेहद कम खतरनाक' बताया। चीन से आए व्यक्ति के सम्पर्क में आने के कारण जिन लोगों को कोरोना हुआ उन्हें क्वारंटाइन किया गया। परन्तु व्यापक मास टेस्टिंग नहीं की गई। विदेश से आने वाले लोगों की जांच भी फरवरी के अन्तिम हफ़्ते में ही शुरू की गई और यह भी इटली से वापस लौट रहे जर्मनों के बीमारी देश में लेकर आने के कारण हुआ। बीमारी पर वैज्ञानिक तौर पर मुख्यत: नज़र रख रहे राबर्ट कोच इन्स्टिट्यूट ने फरवरी अंत में बढ़ते संक्रमण के चलते इसे 2 मार्च को 'मॉडरेट' खतरे की श्रेणी में डाल दिया। इस समय ही मास स्केल पर जांच शुरू हुई। जर्मनी ने 22 मार्च को राष्ट्रीय महामारी योजना के तहत कोरोना बीमारी के ख़िलाफ रेस्पोंस को 'कन्टेनमैण्टर से 'प्रोटेक्शन' मंजिल में डाला और इसके साथ ही सरकार ने अप्रैल माह तक देश भर में लॉकडाउन की घोषणा की। मई माह में फिलहाल नए केस की संख्या घटती जा रही है और सरकार एक-एक कर लॉकडाउन को खोल रही है। परन्तु इसे जिस तरह से एक मॉडल पेश किया जा रहा है उसमें साफ तौर पर ग़लत समझदारी मौजूद है। जर्मनी में सरकार के पास जनवरी में ही यह रिपोर्ट थी कि यह बीमारी आगे भयंकर रूप ले सकती है परन्तु जर्मन सरकार ने दक्षिण कोरिया, ताइवान और वियतनाम के बरक्स बहुत देर से मास टेस्टिंग शुरू की और दूसरा देश में सम्भावित बीमार लोगों के मुकाबले देर से ही कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग शुरू की और जांच शुरू की। जर्मनी में कुल 3147771 टेस्ट कराए गए व प्रति दस लाख टेस्ट संख्या 37585 है।

8. स्वीडन
स्वीडनमें सरकार द्वारा लॉकडाउन लागू नहीं करने को लेकर कुछ हल्कों में काफीतारीफ हुई और इसे लॉकडाउन के वैकल्पिक मॉडल के तौर पर पेश किश गया। स्वीडनमें सरकार ने जनता से घर में रहने और सामाजिक दूरी बरतने की अपील की। बार, स्कूल और तमाम गतिविधियों को रोका नहीं गया। इसे 'लॉकडाउन विरोधियों' ने हर्ड इम्युनिटी विकसित करने के तरीके के मॉडल के तौर पर पेश किया हैं हालांकि खुद स्वीडन के स्वास्‍थ्‍य मंत्री ने ही बताया कि यह बहुत बड़ी गलतफहमी है कि हमने कोई प्रतिबन्ध या रोक नहीं लागू की। स्वीडन के मुख्य महामारी विशेषज्ञ ने हर्ड इम्युनिटी के प्रयोग के सफल होने की कामना भी की। हालांकि लॉकडाउन लागू न करने की नीति को स्वीडन जैसा एक देश सामाजिक-आर्थिक कारणों के चलते लागू कर सकता था। यह एक ऐसा देश है जहां जनसंख्या घनत्व दुनिया में सबसे कम में से एक है। लोगों की जीवन शैली के चलते यहां सोशल डिस्टेंसिंग करना पहले से ही सम्भव था। साथ ही, सामाजिक-जनवाद के पुराने इतिहास और एक लिबरल बुर्जुआ सरकार होने के चलते और साथ ही नागरिकों के उच्च शैक्षणिक व सांस्कृतिक स्तर के कारण नागरिकों की व्यापक आबादी को सोशल डिस्टेंसिंग के लिए सहमत किया जा सकता था। इसे सार्वभौमिक तौर पर लागू किया ही नहीं जा सकता है। लेकिन इन सबके बावजूद, क्या स्वीडन का मॉडल कोई सफलता की कहानी सुना रहा है? नहीं!
अभी स्वीडन में बीमारी के करीब 30000 केस हैं और इनमें करीब 3674 लोगों की मृत्यु होचुकी है। फिलहाल यह आशंका है कि यह संख्या और अधिक बढ़ेगी क्योंकि स्वीडन में मोर्टेलिटी रेट बेहद अधिक है (42%, जिन मामलों का नतीजा आ चुका है)। लगातार बढ़ती मृत्यु की संख्या के चलते इसे वैकल्पिक मॉडल के तौर पर पेश किए जाने पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। जो इसे एक मॉडल मानने की जिद पाले हुए हैं वे भी अब इन आंकड़ों को स्वीकार करने पर मजबूर हैं कि स्वीडन के मॉडल को वे देश तो कत्तई लागू नहीं कर सकते जिनका जनसंख्या घनत्व अधिक है और खासकर तीसरी दुनिया के वे देश जहां बड़ी आबादी झुग्गी झोपडि़यों में रहने को मजबूर हो।स्वी‍डन मॉडल पर साथी अभिजीत का यह प्रशंसनीय शोध पत्र यहां पढ़ा जा सकता है: (https://abhijitsays.wordpress.com/…/one-size-does-not-fit…/…)

उपरोक्त देशों केप्रयोगों के सीमित अध्ययन के आधार पर हम यह बात कह सकते हैं कि अगर मौजूदा परिस्थिति और उपरोक्त आंकड़ों को आधार मानें तो यह कहा जा सकता है कि केवल वियतनाम, दक्षिण कोरिया, ताइवान सरीखे देश में कोरोना बीमारी को अपेक्षाकृत सफलापूर्वक फैलने से रोका गया है। इन देशों में त्वरित कार्यवाही, व्यापक मास टेस्टिंग, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, सम्भावित लोगों का क्वारन्टाइन और संक्रमित लोगों के सही इलाज के कारण ही इस बीमारी को रोका जा सका है। इस दौरान आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन को लागू करने की अनिवार्यता संक्रमण के फैलने के ऊपर निर्भररता है। यह किन्हीं स्थितियों में अनिवार्य हो भी सकता है, और किन्हीं स्थितियों में नहीं हो सकता है। जिन देशों में सरकार जनवरी से ही (उपरोक्त सभी देशों में जनवरी में ही पहला कोरोना संक्रमण का केस आया) अपनी पूरी क्षमता से काम कर रही थी, वहीं संक्रमण को रोका जा सका है।

वहीं दूसरी ओर अमरीका, यूके, ब्राजील की दक्षिणन्थी सरकारों ने पहले वायरस को महज होक्स करार दिया। यूके और अमरीका की सरकारों ने फैलते हुए संक्रमण को देख अपना रुख बदलते हुए मार्च में जाकर कुछ कदम उठाए। ब्राजील में बोल्सोनारो तो हमारे देश के कोविडियट्स के समान अभी भी इसे मामूली बीमारी ही करार दे रहा है! इन देशों में बीमारी ने विकराल रूप ले लिया हैऔर ये मॉडल के तौर पर असफल रहे हैं। हम बार-बार यह दोहराते रहे हैं कि हम निरपेक्ष रूप से लॉकडाउन के समर्थक या विरोधी नहीं है। यह कोई विचारधारात्माक मसला नहीं है जिसके ऊपर ऐसा रुख अपनाया जाय। हमारा स्‍पष्ट मानना है कि आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन की अनिवार्यता बहुत से कारकों पर निर्भर करती है, मसलन, देश की जनसंख्या व जनसंख्या घनत्व, संक्रमण की दर और देश की स्वास्‍थ्‍य व्यवस्था की क्षमता, सही समय पर वांछनीय कदमों का उठाया जाना या न उठाया जाना, इत्यादि। इन चर राशियों के अनुसार ही लॉकडाउन पर कोई अवस्थिति अपनाई जा सकती है। दूसरी बात यह कि किसी भी किस्म का लॉकडाउन वांछनीय बनने के बाद भी केवल तभी कारगर हो सकता है जबकि उसे पूर्ण तैयारी और योजनाबद्धता के साथ्ज्ञ किया जाय और जब साथ में मास टेस्टिंग हो, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग हो, क्वारंटाइनिंग हो, व संक्रमित लोगों का इलाज हो। यह अब साफ सिद्ध तथ्य है कि जिन देशों में इन शर्तों को पूरा करके लॉकडाउन लागू किया गया, वहां वह कारगार हुआ और जिन देशों में इन शर्तों को पूरा करके लागू नहीं किया गया, वहां वह एक विपदा में तब्दील हो गया। इसके अलावा, जिन देशों के बेहद शुरुआत में ही वांछनीय कदम उठा लिये वहां लॉकडाउन, या कम-से-कम पूर्ण लॉकडाउन की कोई आवश्यपकता ही नहीं पड़ी।

हम यहां उन अमानवीय तर्कों पर समय नहीं जाया करेंगे जिन्हें सभी देशों में दक्षिणपन्थी सरकारें अर्थव्यवस्था तुरन्त चालू करवाने के लिए दे रही हैं, मसलन इस बीमारी से बचने का रास्ता हर्ड इम्युनिटी विकसित होने देना है जिस प्रक्रिया में समाज के बूढ़े और बीमार लोग मारे जाएंगे। उल्टा हमारे अनुसार सबसे पहले हम यह प्रयास करेंगे कि हमारे समाज के सबसे कमजोर और बूढ़े लोगों को बचाया जाए। माल्थसवादी और संवेदनशीलता खो चुके लोग ही यह तर्क करेंगे कि हमें अर्थव्यवस्था चलाने के लिए आबादी के इस हिस्से को कुर्बान कर देना चाहिए। दूसरी बात यह है कि इस कोरोना की चपेट में आने वाले 10-40 की उम्र के लोगों में केस मोर्टेलिटी रेट कुल मिलाकर 0.6 प्रतिशत है। भारत जैसे देश में ही यह संख्या लाखों में जाएगी। क्या हम इसआबादी को कुर्बान करने का जोखिम उठाएं और उन्हें हर्ड इम्यूनिटी विकसित होने के भरोसे छोड़ दें? इस तर्क के नग्न होने पर तमाम दक्षिणपंथी और कोविडियट्स इसे कपड़े पहनाकर कहते हैं कि कोरोना के चलते तमाम सरकारों द्वारा लागू किए गए लॉकडाउन में कैन्सर से, भूख से और अन्य कारणों से बहुत अधिक मौत हो रही हैं। हमने ऊपर दिखाया था कि इस बात को सिद्ध करने के लिए वे दक्षिणपन्थी डॉ. शिपैरो को उद्धृत करते हैं परन्तु दिक्कत यह है कि उसे भी ये गलत उद्धृत करते हैं।अपने हिसाब से डॉ. शिपैरो को उद्धृत कर वे लॉकडाउन के निरपेक्ष विरोध की अवैज्ञानिक अवस्थिति अपनाते हैं (जोकि निरपेक्ष समर्थन की ही मिरर इमेज है और उतनी ही मूर्खतापूर्ण है) और कैंसर, बेरोज़गारी और अन्य कारकों से होने वाली मौतों की जगह कोरोना से होने वाली मौत के बीच चुनाव करते हैं। वे कहते हैं कि जीवन और जीविकोपार्जन में से एक को चुनना है, या कहते हैं कि कोरोना पर ध्यान केन्द्रित करने के कारण कैंसर व टीबी से कितने लोग मर रहे हैं, इसलिए कोरोना से लोगों को मरने दिया जाय। इसी प्रकार की बाइनरीज़ दक्षिणपंथी पूंजीपति वर्ग और कोविडियट्स दोनों ही पेश करते हैं। परन्तु सर्वहारा वर्ग इन बाइनरीज़ में चुनने के लिए बाध्य नहीं है। हम कहते हैं कि हमें न भूख से मरना है, न बेरोज़गारी से, न कैन्सर से और न ही कोरोना से! ये पूरी दुनिया हमारे श्रम से चलती है और इन सभी से रक्षा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यानी हमें सार्वभौमिक स्वास्‍थ्‍य देखरेख भी चाहिए, हमें कोरोना से संरक्षण भी चाहिए, हमें फूड राशनिंग भी चाहिए, हमें पीपीई किट्स भी चाहिए, हमें नौकरी की गारण्टी भी चाहिए। भूख से, बेरोज़गारी से, कैन्सर से व लॉकडाउन के समय हो रही अधिकतम मौतें पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा जनित कारणों से हो रही मौतें हैं। बेरोज़गारी और राशन मज़दूरों तक नहीं पहुंचाने की जिम्मेदार यह पूंजीवादी व्यवस्था है। हमें इस समय इस व्यवस्था के मानवद्रोही चरित्र को नंगा करना चाहिए न कि लॉकडाउन लागू करने या न करने के फाल्स बाइनरी में फंस कर पूंजीवाद के अन्तरविरोधों पर पर्दा डालना चाहिए।

सनी सिंह. 
( Sunny Singh )