दिल्ली कानपुर शताब्दी ट्रेन जब 1988 में पहली बार चली थी और इसे दिल्ली से ले कर जब तत्कालीन रेल मंत्री माधव राव सिंधिया खुद पूरे फ़ौज़ फाटे के साथ कानपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म न. 1 पर तशरीफ़ लाये थे तो मैं भी वहाँ उपस्थित था । मैं कोई आमंत्रित अतिथि नहीं था बल्कि मैं उस समय सीओ कलक्टरगंज था और ड्यूटी पर था । तब कानपुर से दिल्ली के लिए जहाज उड़ते थे । जहाज अब भी उड़ने लगे हैं , पर तब कानपुर से मुम्बई , कोलकाता दिल्ली के लिये नियमित उड़ानें थीं । जहाज़ों की उड़ान के बावजूद भी सजी धजी हवाई यात्रा की तरह पुश बैक आरामदायक सीटों वाली शताब्दी भी लोकप्रिय हुयी और लोगों ने इसे हांथो हाँथ लिया । बाद में इसका विस्तार लखनऊ तक हो गया । अब यह थोड़ी और आरामदायक हो कर स्वर्ण शताब्दी हो गयी है ।
बाद में एक और शताब्दी कानपुर और दिल्ली के बीच चली जो दिल्ली से शाम को चलती है और सुबह वही वापस दिल्ली को लौट जाती है । आज अखबार में देखा यह ट्रेन 9 घण्टे विलम्ब से चल रही है । ट्रेनों का विलम्ब से चलना कोई हैरानी भरी बात नहीं है, बल्कि ट्रेन जब बिलकुल समय से गंतव्य का प्लेटफार्म स्पर्श कर ले तो समझिये कि जिस आह्लाद की अनुभूति एक अच्छी दौड़ की प्रतियोगिता में फिनिशिंग लाइन स्पर्श करने की होती है वही अनुभूति उन यात्रियों की भी होती है जो बिलकुल ठीक समय पर प्लेटफॉर्म पर पहुँचते हैं । शताब्दी और राजधानी ट्रेनें रेलवे की महत्वपूर्ण गाड़िया है । इनके संचालन पर रेलवे की सतर्क नज़र रहती है और इनके यात्री भी यही सोच कर इन महंगे सफर को अपनाते हैं कि सफ़र आरामदायक तो रहेगा ही और वे समय पर गंतव्य पर पहुंचेंगे ।
इधर कुछ महीनों से कानपुर और दिल्ली के बीच चलने वाली शताब्दी एक्सप्रेस अक्सर देरी से आ जा रही है । आज 27 फ़रवरी के ही अखबार में छपा है कि यह गाड़ी 9 घंटे विलम्ब से कल रवाना हुयी । सफ़र 5 घण्टे का और विलंबिता 9 घण्टे की, यह तो बहुत नाइंसाफी है । कानपुर के आस पास अक्सर रेलवे ट्रैक के कभी खिसकने, कभी धसकने, तो कभी क्रैक तो कभी फ्रैक्चर होने की खबरे भी आ रही हैं । यह गतिविधियाँ इधर थोड़ी अधिक हो भी गयीं हैं । यह कोई गहरी आतंकी साज़िश है या रेलवे ट्रैक का बार्धक्य यह तो रेलवे के इंजीनियर साहबान ही बता पाएंगे , पर पीएम के बयान के अनुसार यह आईएसआई की हरकतें भी हो सकती हैं । एनआईए तथा अन्य जांच एजेंसियाँ इसकी जांच भी कर रही हैं ।
ट्रेनों के विलम्ब पर असुविधा, और आक्रोश तो होता ही है पर तब क्रोध और बढ़ जाता है जब उनके आगमन और प्रस्थान के समय की सही जानकारी समय पर यात्रियों को नहीं मिलती है तो। 139 जो रेलवे का संपर्क सूत्र है वह बड़े प्यार से मनचाही भाषा में स्वागत सत्कार करने के बाद भी कोई सार्थक सूचना नहीं देता है और जब बाद में कुछ सार्थक सूचना देता भी है तो एक विनम्र खेद व्यक्त कर फिर नेपथ्य में चला जाता है । सही सूचना के अभाव में लोग उसी सूचना पर विश्वास कर के स्टेशन पर आ जाते हैं और फिर इंतज़ार का सिलसिला शुरू हो जाता है । आज के सूचना के युग में कोई भी सूचना जन जन तक पहुँचाना कोई मुश्किल काम नहीं है । एसएमएस , एफएम चैनेल , 139 और अन्य माध्यम से यह काम किया जा सकता है । ट्रेन विलम्ब से है तो साफ़ साफ़ बताएं कि कितने घण्टे बाद आएगी ताकि लोग उस समय में कुछ उपयोगी कार्य कर लें पर रेलवे किन कारणों से साफ़ साफ़ नही बताता हैं यह मेरी समझ में नहीं आता है। नेट पर रनिंग ट्रेन स्टेटस से भी उनकी ताज़ा स्थिति कभी कभी नहीं पता लगती है । नेटवर्क भी एक विकट मायाजाल है ।
सुरेश प्रभु जब रेल मंत्री बने तो बड़ा शोर हुआ कि रेलवे के भाग्य जागेंगे । रेलवे में सुविधाओं के बढ़ाने के नाम पर किराये बढ़ाये गए । अखबारों, समाचार चैनलों, सोशल मिडिया में बहुत गुणगान हुआ । बुलेट ट्रेन की खूबसूरत फ़ोटो वायरल बुखार की तरह फैलने लगी । कुछ सच थीं तो कुछ फोटोशाप की हुयी । उसका विरोध भी हुआ कि पहले गाड़ियां समय से चलें और सबको स्थान मिल जाये यह ज़रूरी है , बुलेट ट्रेन बनती रहेगी । पर यह सब तो हुआ नहीं और इसके विपरीत रेलवे की दशा बिगड़ती ही रही और किराए समय समय पर बढ़ते रहे । यहां तक कि पीएमओ को भी उनके खराब काम पर नाराज़गी जतानी पड़ी ।
हे प्रभु, रेलें को बिलम्ब से चलने के कई कारण होंगे और हो सकता है इन सब का निदान करना संभव भी न हो अभी, पर कितना विलम्ब है और कब ट्रेन आएगी इसकी सही सही सूचना यात्रियों को देना तो असम्भव नहीं है । स्टेशन चाहे भले वर्ल्ड क्लास हो पर प्रतीक्षा सदैव उबाती है । और तब तो और भी पहाड़ सा वक़्त बीतता है जब आने के समय का कुछ पता ही न हो । लोग स्टेशन के प्लेटफार्म पर चादर या अख़बार बिछाये , अनुकूल या प्रतिकूल मौसम में बैठे बैठे, ऊबते या खीजते रहते हुए समय काटते रहते हैं । कम से कम सही सूचना तो दे दें । शायद ढाढ़स ही बंधे और लोग उसी के अनुसार कुछ खा पी लें या कोई और काम कर लें ।
हम सब वादों पर जीते हैं । वादे उम्मीद ही तो होते हैं । ट्रेन का विलंबन भी एक वादा ही है । अब आएगी और अब आने वाली है । इन्ही वादों की विडंबना और नियति पर दाग देहलवी का एक खूबसूरत शेर पढ़ें ,
तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते,
अगर अपनी ज़िन्दगी पर हमें ऐतबार होता है !!
( विजय शंकर सिंह )
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