इश्क़ हक़ीक़ी और इश्क़ मजाजी , सूफी परम्परा के अनुसार प्रेम या इश्क़ के दो पहलू हैं । इश्क़ हक़ीक़ी , हक़ यानी ईश्वर, ईश्वरीय प्रेम या इसे अलौकिक प्रेम भी कह सकते हैं और इश्क़ मजाज़ी लौकिक प्रेम या सामान्य अर्थं जो प्रेम का होता है, वह है । सूफी परम्परा में संत को पिया भी कहा गया है । सूफियों के चार सिलसिले होते हैं । इनमे से हजरत निज़ामुद्दीन औलिया भी एक सिलसिला निज़ामी सिलसिले के संत थे । आप ने एक मशहूर कहावत , हनोज़ दिल्ली दूर अस्त ( अभी दिल्ली दूर है ) सुनी होगी । वह इन्ही सूफी संत से जुडी है। हजरत अमीर खुसरो हिंदवी और फारसी के प्रसिद्ध कवि रहे हैं । इनके कुछ दोहे प्रस्तुत हैं ।
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खुसरो दरिया प्रेम का सो उल्टी वाकी धार,
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार !!
खुसरो औ पी एक है, पर देखन में दोय,
मन को मन में तौलिये , तो दो मन कबहुँ न होय !!
पीत करे सो ऐसी करे जा से मन पतियाय,
जने जने की पीत से जनम अकारथ जाय !!
मोह काहे मन में भरे, प्रेम पंथ को जाय
चली बिलाई हज्ज को , नौ सौ चूहे खाय !!
खुसरो पाती प्रेम की, बिरला बांचे कोय,
वेद, कुरआन पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय !!
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अमीर खुसरो दिल्ली में ही सोये हैं । वे चिरनिद्रा में लीन है । हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह के पास ही उनकी भी मज़ार है । जब आप दरगाह के भीतर प्रवेश करते हैं तो पहले अमीर खुसरो की ही मज़ार पर सर झुकाया जाता है । गुरु के पूर्व शिष्य का ही वंदन करने की प्रथा है । कारण मुझे पता नहीं है । हो सकता हैं यह मामला भी गुरु गोविन्द दोउ खड़े के दर्शन सरीखा हो । इनकी मजार पर चादर चढाने , और सिर झुकाने के बाद ही हज़रत निज़ामुद्दीन की मजार पर जाने की परम्परा है ।
अमीर खुसरो एटा जिले के पटियाली गांव के रहने वाले थे । वे बाद में दिल्ली आ कर बस गए । उनका पूरा नाम अबुल हसन यमिनुद्दीन खुसरो था । उनका जन्म 1253 ई में और निधन अक्टूबर 1325 ई में दिल्ली में हुआ था । वे भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे । वे सूफी परम्परा में थे । हजरत निज़ामुद्दीन के वे बेहद करीबी शिष्य थे । उन्होंने ग़ज़ल , ख़याल, रुबाई और तराना आदि विधाओं में लिखा । वे मूलतः फारसी में लिखते थे पर बाद में उन्हीने हिन्दवी जिसे आज हिंदी कहा जाता है में लिखने लगे । कहा जाता है उन्हीने सितार और तबले का भी आविष्कार किया । सितार उन्होंने वीणा से विकसित किया । वे क़व्वाली के जन्मदाता कहे जाते हैं । क़व्वाली मूलतः भजन से ही विकसित हुयी है । दरगाह और मज़ारों पर क़व्वाली का प्रचलन इस्लाम पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव है । जहां सूफी संतों के सम्मान में क़व्वाली गायी जाती है ।
धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वान डॉ प्रमोद पाहवा के अनुसार,
" आध्यत्म की सर्वोच्च पराकाष्ठा है सुफ़िज़्म , ये मत समस्त जीव में ईश्वर का स्वरुप देखता है और प्रेम का स्तर लिंग भेद से बहुत आत्मिक स्वरुप में अनुभव करता हैं।
ईश्वर को प्रेमी मानने की प्रथा में तो सखी सम्पदाय भी है (यू पी पुलिस के उच्चाधिकारी याद होंगे) परन्तु बाबा बुल्ले शाह, दाता दरबार,वारिस शाह सरकार और बहुत हद तक गुरु नानक देव जी भी इसी दर्शन को जीवंत करते रहे,। सुफ़ काले कम्बल को कहते है और उसको धारण करने वालो को सूफ़ी कहा जाने लगा, काले कम्बल के पीछे भी कोई दर्शन अवश्य रहा होगा । "
( विजय शंकर सिंह )
Very simple and informative. Thanks Vijay jee.
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