Friday, 3 February 2017

हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना - चूहा और मैं / विजय शंकर सिंह

एक बार डॉ लोहिया ने कहा था, लोग धर्म और आस्था के सवाल पर जितने एकजुट और संघर्ष शील हो जाते हैं उतने वे रोटी के सवाल पर क्यों नहीं होते । डॉ लोहिया ने यह सवाल 1966 में दिल्ली में हुए गो रक्षा आंदोलन के प्रदर्शन के बाद उठाया था । भूख एक चिरंतन सत्य है । प्रस्तुत व्यंग्य रचना महान व्यंगकार हरिशंकर परसाई की है । चूहा को प्रतीक बना कर उन्होंने भूख पर पसरी खामोशी और समाज की उपेक्षा को रेखांकित किया है । कृपया पढ़े और सोचें ।
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चूहा और मैं
( हरिशंकर परसाईं )

चाहता तो लेख का शीर्षक मैं और चूहा रख सकता था। पर मेरा अहंकार इस चूहे ने नीचे कर दिया। जो मैं नहीं कर सकता, वह मेरे घर का यह चूहा कर लेता है। जो इस देश का सामान्‍य आदमी नहीं कर पाता, वह इस चूहे ने मेरे साथ करके बता दिया। इस घर में एक मोटा चूहा है। जब छोटे भाई की पत्‍नी थी, तब घर में खाना बनता था। इस बीच पारिवारिक दुर्घटनाओं-बहनोई की मृत्‍यु आदि के कारण हम लोग बाहर रहे। इस चूहे ने अपना अधिकार मान लिया था कि मुझे खाने को इसी घर में मिलेगा। ऐसा अधिकार आदमी भी अभी तक नहीं मान पाया। चूहे ने मान लिया है। लगभग पैंतालिस दिन घर बन्‍द रहा। मैं तब अकेला लौटा। घर खोला, तो देखा कि चूहे ने काफी क्रॉकरी फर्श पर गिराकर फोड़ डाली है। वह खाने की तलाश में भड़भड़ाता होगा। क्रॉकरी और डिब्‍बों में खाना तलाशता होगा। उसे खाना नहीं मिलता होगा, तो वह पड़ोस में कहीं कुछ खा लेता होगा और जीवित रहता होगा। पर घर उसने नहीं छोड़ा। उसने इसी घर को अपना घर मान लिया था। जब मैं घर में घुसा, बिजली जलाई तो मैंने देखा कि वह खुशी से चहकता हुआ यहाँ से वहाँ दौड़ रहा है। वह शायद समझ गया कि अब इस घर में खाना बनेगा, डिब्‍बे खुलेंगे और उसकी खुराक उसे मिलेगी। दिन-भर वह आनन्‍द से सारे घर में घूमता रहा। मैं देख रहा था। उसके उल्‍लास से मुझे अच्‍छा ही लगा। पर घर में खाना बनना शुरू नहीं हुआ। मैं अकेला था। बहन के यहाँ जो पास में ही रहती है, दोपहर को भोजन कर लेता। रात को देर से खाता हूँ, तो बहन डब्‍बा भेज देती। खाकर मैं डब्‍बा बन्‍द करके रख देता। चूहाराम निराश हो रहे थे। सोचते होंगे यह कैसा घर है। आदमी आ गया है। रोशनी भी है। पर खाना नहीं बनता। खाना बनता तो कुछ बिखरे दाने या रोटी के टुकड़े उसे मिल जाते।

मुझे एक नया अनुभव हुआ। रात को चूहा बार-बार आता और सिर की तरफ मच्‍छरदानी पर चढ़कर कुलबुलाता। रात में कई बार मेरी नींद टूटती मैं उसे भगाता। पर थोड़ी देर बाद वह फिर आ जाता और सिर के पास हलचल करने लगता। वह भूखा था। मगर उसे सिर और पाँव की समझ कैसे आई? वह मेरे पाँवों की तरफ गड़बड़ नहीं करता था। सीधे सिर की तरफ आता और हलचल करने लगता। एक दिन वह मच्‍छरदानी में घुस गया। मैं बड़ा परेशान। क्‍या करूँ? इसे मारूँ और यह किसी अलमारी के नीचे मर गया, तो सड़ेगा और सारा घर दुर्गन्‍ध से भर जाएगा। फिर भारी अलमारी हटाकर इसे निकालना पड़ेगा। चूहा दिन-भर भड़भड़ाता और रात को मुझे तंग करता। मुझे नींद आती, मगर चूहाराम मेरे सिर के पास भड़भड़ाने लगते। आखिर एक दिन मुझे समझ में आया कि चूहे को खाना चाहिए। उसने इस घर को अपना घर मान लिया है। वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत है। वह रात को मेरे सिरहाने आकर शायद यह कहता है - क्‍यों, बे, तू आ गया है। भर-पेट खा रहा है, मगर मैं भूखा मर रहा हूँ मैं इस घर का सदस्‍य हूँ। मेरा भी हक है। मैं तेरी नींद हराम कर दूँगा। तब मैंने उसकी माँग पूरी करने की तरकीब‍ निकाली। रात को मैंने भोजन का डब्‍बा खोला, तो पापड़ के कुछ टुकड़े यहाँ-वहाँ डाल दिए। चूहा कहीं से निकला और एक टुकड़ा उठाकर अलमारी के नीचे बैठकर खाने लगा। भोजन पूरा करने के बाद मैंने रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखरा दिए। सुबह देखा कि वह सब खा गया है। एक‍ दिन बहन ने चावल के पापड़ भेजे। मैंने तीन-चार टुकड़े फर्श पर डाल दिए। चूहा आया, सूँघा और लौट गया। उसे चावल के पापड़ पसन्‍द नहीं। मैं चूहे की पसन्‍द से चमत्‍कृत रह गया। मैंने रोटी के कुछ टुकड़े डाल दिए। वह एक के बाद एक टुकड़ा लेकर जाने लगा। अब यह रोजमर्रा का काम हो गया। मैं डब्‍बा खोला, तो चूहा निकलकर देखने लगता। मैं एक-दो टुकड़े डाल देता। वह उठाकर ले जाता। पर इतने से उसकी भूख शान्‍त नहीं होती थी। मैं भोजन करके रोटी के टुकड़े फर्श पर डाल देता। वह रात को उन्‍हें खा लेता और सो जाता। इधर मैं भी चैन की नींद सोता। चूहा मेरे सिर के पास गड़बड़ नहीं करता। फिर वह कहीं से अपने एक भाई को ले आया। कहा होगा, चल रे, मेरे साथ उस घर में। मैंने उस रोटीवाले को तंग करके, डरा के, खाना निकलवा लिया है। चल दोनों खाएँगे। उसका बाप हमें खाने को देगा। वरना हम उसकी नींद हराम कर देंगे। हमारा हक है। अब दोनों चूहाराम मजें में खा रहे हैं। मगर मैं सोचता हूँ - आदमी क्‍या चूहे से भी बद्तर हो गया है? चूहा तो अपनी रोटी के हक के लिए मेरे सिर पर चढ़ जाता है, मेरी नींद हराम कर देता है। इस देश का आदमी कब चूहे की तरह आचरण करेगा?
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